Thursday, August 23, 2018

सागर : साहित्य एवं चिंतन - 25 गीत-ग़ज़ल के साधक कवि ऋषभ समैया ‘जलज’ - डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh

       स्थानीय दैनिक समाचार पत्र "आचरण" में प्रकाशित मेरा कॉलम "सागर साहित्य एवं चिंतन " । जिसमें इस बार मैंने लिखा है मेरे शहर सागर के कवि ऋषभ समैया "जलज" पर आलेख। पढ़िए और जानिए मेरे शहर के साहित्यिक परिवेश को ....

सागर : साहित्य एवं चिंतन

गीत-ग़ज़ल के साधक कवि ऋषभ समैया ‘जलज’
                   - डॉ. वर्षा सिंह
               
सागर नगर में गीत और हिन्दी ग़ज़ल की रसधार समान रूप से बहती रही है। काव्य-साधकों ने अपनी रुचि के अनुरूप साहित्य की विधाओं को अपना कर नगर की साहित्यिक संपदा को समृद्ध किया है। नगर के एक समृद्ध व्यवसायी परिवार में 07 सितम्बर 1947 जन्मे ऋषभ समैया ने अपनी पारिवारिक विरासत को पूरी लगन से परवान चढ़ाते हुए साहित्य के प्रति अपने रुझान को भी पर्याप्त अवसर दिया। ‘‘जलज’’ उपनाम अपनाते हुए गीत और ग़ज़ल विधा को अपनाया। हिन्दी और बुंदेली में काव्यसृजन करने वाले ऋषभ समैया ‘जलज’ डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर से एम.काम. किया। इसके बाद उन्होंने कानून की पढ़ाई की। पारिवारिक जिम्मेदारियों एवं व्यावसायिक व्यस्तताओं के कारण एल.एल.बी. की पढ़ाई अधूरी छोड़नी पड़ी। सामाजिक कार्यों में भी अपना योगदान देने वाले ऋषभ समैया की काव्य रचनाएं आकाशवाणी एवं दूरदर्शन से प्रसारित होती रही हैं। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में उनकी रचनाओं का प्रकाशन हुआ है। स्थानीय दैनिक समाचार पत्र ‘पदचाप’ के मानसेवी संपादक रहते हुए पत्रिकरता की बारीकियों को भी भली-भांति जाना और समझा। साहित्य सृजन एवं समाजसेवा के लिए उन्हें अनेक संस्थाओं से सम्मानित किया जा चुका है।

सागर : साहित्य एवं चिंतन -25 गीत-ग़ज़ल के साधक कवि ऋषभ समैया ‘जलज’ - डॉ. वर्षा सिंह
ऋषभ समैया ‘जलज’ की कविताओं में पारिवारिक दायित्वों एवं संबंधों का गहन चिंतन मिलता है। मां और पिता प्रत्येक परिवार की महत्वपूर्ण इकाई होते हैं। ये ही परिवार के वे दो स्तम्भ होते हैं जो प्रत्येक पीढ़ी को न केवल जन्म देते हैं वरन उनमें परम्पराओं एवं संस्कारों को संजोते हैं। इसीलिए मां की महत्ता के प्रति ध्यान आकर्षित करते हुए ऋषभ समैया लिखते हैं-
जीवन  देने  वाली  है मां।
पालन-पोषण वाली  है मां।
मन भर नेह  परोसा करती
प्रिय भोजन की थाली है मां।
जितनी ज़्यादा लदी फलों से
उतनी झुकती  डाली है मां।
बहुत  दूरदृष्टि  रखती, पर
पापा  को  घरवाली है मां।

ऋषभ समैया जहां मां को परिवार की धुरी के रूप में देखते हैं और उसके त्याग, उसकी ममता एवं परिवार के प्रति उसके समर्पण की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हैं वहीं उनकी कवि दृष्टि यह भी देख लेती है कि पिता के लिए मां का स्वरूप एक ‘घरवाली’ का ही है। पुरुषवादी समाज में पिता अपनी अर्द्धांगिनी के सम्पूर्ण गुणों को नहीं देख पाता है। लेकिन इसका कारण भी कवि ढूंढने में सक्षम है। कवि को अहसास है कि पिता इतने अधिक दायित्वों से घिरे रहते हैं कि कई बार उन्हें खुद पर भी ध्यान देने का अवसर नहीं मिलता है। पिता भी मां की भांति दायित्वों का निर्वहन करते हैं और सारी पीड़ाओं को अपने मन में ही दबाए रखते हैं। पिता पर केन्द्रित रचना की इन पंक्तियों को देखिए -
स्मृतियों से बंधे पिता जी।
दायित्वों से लदे पिता जी।
जीवन की पथरीली राहें
ठिठके, फिसले, सधे पिता जी।
घर भर की नींदें मीठी हों
रात-रात भर जगे पिता जी।
ऋषभ समैया 'जलज'

कवि ‘जलज’ ने अपने गीतों में सामाजिक सरोकारों का भी बखूबी बयान किया है। वे मानते हैं कि जीवन का सौंदर्य सद्भावना से ही निर्मित होता है। आपसी प्रेम-व्यवहार एवं सद्भाव ज़िन्दगी को फूल, नदी और झरने के समान सुनदर बना देता है। अपने इस भाव को कवि ने इन पंक्तियों में कुछ इस तरह पिरोया है-
सहेजें सद्भावना से
धरोहर सी ज़िन्दगी।
नदी-सी निश्छल रवानी
तदों से हिल-मिल बहे
फले-फूले कछारों में
गेह सागर की गहे।
कभी झरना, कभी निश्चल
सरोवर सी ज़िन्दगी।

जीवन में संतोष से बड़ा कोई धन नहीं होता - इस तथ्य को वर्तमान बाज़ारवादी युग मानो भूलता जा रहा है। और-और की चाहत ने लोगों का सुख-चैन छीन रखा है। उपभोक्ता संस्कृति ने इंसान को भौतिकवादी बना दिया है। कवि का मानना है कि यदि व्यक्ति के पास जो है, उसी में संतुष्ट रहे तो जीवन सुख-यांति से व्यतीत हो सकता है। ये पंक्तियां देखिए -
जो  प्राप्त  है,   पर्याप्त है।
सुख-शांति इसमें व्याप्त है।
ईर्ष्या,  अहम्,  तृष्णा, वहम
यश, चैन, चहक समाप्त है।
दुर्गन्ध है   या  सुगन्ध है
यह ज़िन्दगी की शिनाख़्त है।
अपना भला,   सबका  बुरा
यह सोच कलुष, विषाक्त है।




शहरों की ज़िन्दगी जिस तरह प्रदूषित और भागमभाग वाली हो गई है उससे भी कवि का चिन्तित होना स्वाभाविक है। ये पंक्तियां देखिए -
हड़बड़ाते, हांफते से
अधमरे होते शहर।
सो रहे हैं सुध बिसर कर
बांसुरी की, भोर की
कान को आदत पड़ी है
चींख भरते शोर की
देर रातों तक लगाते
मदभरे गोते शहर।

ऋषभ समैया ‘जलज’ के गीतों एवं ग़ज़लों में समाज और समय के प्रति जिस प्रकार की प्रतिबद्धता का स्वर ध्वनित होता है, वह उन्हें एक सजग कवि के रूप में स्थापित करता है।
-----------------------

( दैनिक, आचरण  दि. 23.08.2018)
#आचरण #सागर_साहित्य_एवं_चिंतन #वर्षासिंह #मेरा_कॉलम #MyColumn #Varsha_Singh #Sagar_Sahitya_Evam_Chintan #Sagar #Aacharan #Daily

Monday, August 20, 2018

सागर : साहित्य एवं चिंतन -24 सुनीला सराफ : एक संभावनाशील साहित्यकार - डॉ. वर्षा सिंह

डॉ. वर्षा सिंह
स्थानीय दैनिक समाचार पत्र "आचरण" में प्रकाशित मेरा कॉलम "सागर साहित्य एवं चिंतन " । जिसमें इस बार मैंने लिखा है मेरे शहर सागर की कवयित्री श्रीमती सुनीला सराफ पर आलेख। पढ़िए और जानिए मेरे शहर के साहित्यिक परिवेश को ....
सागर : साहित्य एवं चिंतन
सुनीला सराफ : एक संभावनाशील साहित्यकार
- डॉ. वर्षा सिंह
सामाजिक कार्यों से जुड़ना किसी भी व्यक्ति की दृष्टि और समझ को एक अलग ही धरातल पर विस्तार प्रदान करता है। समाज के जिन तथ्यों को तटस्थ रह कर जाना नहीं जा सकता है समाजसेवा द्वारा उन तथ्यों से भी स्वतः सरोकार जुड़ जाता है। मध्यप्रदेश के दमोह जिले के ग्राम पथरिया में 10 मई 1962 को जन्मीं सुनीला सराफ एक समाज सेवी होने के साथ ही साहित्यकार भी हैं। विवाह के उपरांत सागर नगर में निवास करते हुए बी.ए. तथा एल.एल.बी. उत्तीर्ण सुनीला सराफ ने अपने पारिवारिक दायित्वों का कुशलतापूर्वक निर्वहन किया और समाज में व्याप्त समस्याओं को समझने का प्रयास किया। उनकी कहानियों एवं कविताओं में समाज में व्याप्त कुरीतियों एवं अव्यवस्थाओं का विरोध स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। वे लायनेस क्लब सागर गोल्ड की अध्यक्ष रह चुकी हैं तथा वैश्य महिला सभा सागर की सचिव हैं। मद्यनिषेध में सक्रिय भूमिका निभाने के लिए लायंस क्लब विदिशा द्वारा तथा गरीबों की सहायता करने के तारतम्य में लायनेस क्लब सागर द्वारा पुरस्कृत किया जा चुका है। वे नगर की विभिन्न सामाजिक गतिविधियों में अपनी सक्रियता बनाए रखती हैं।
कविता, कहानी एवं ललित निबंध के द्वारा अपने मनोभावों एवं अपने विचारों अभिव्यक्त करने वाली साहित्यकार सुनीला सराफ हिंदी लेखिका संघ मध्यप्रदेश भोपाल की सागर शाखा की अध्यक्ष भी हैं। उनका एक कहानी संग्रह ‘‘सौगात’’ प्रकाशित हो चुका है। सुनीला सराफ की कहानियों में पारिवारिक संबंधों में तेजी से आती गिरावट के प्रति चिंता दिखाई देती है। उनका कथन है कि -‘‘सामाजिक परिवेश ने मेरी कलम को आकर्षित किया है।’’ अपने कहानी संग्रह ‘सौगात’ की भूमिका स्वरूप लिखे गए ‘आत्मालाप’ में वे अपनी कहानियों के बारे में कहती हैं कि -‘‘मैंने अपनी कहानियों के माध्यम से समाज में फैली कुरीतियों, विषमताओं को दूर करने की कोशिश की है।सभी कहानियां जीवन को साक्षी मान कर लिखी हैं।’’
सुनीला सराफ की कहानियों की यह विशेषता है कि वे समाज एवं परिवार की समस्याओं को बड़ी बारीकी से उठाती हैं, व्याख्यायित करती हैं तदोपरांत कहानी का अंत सुखांत ही रखती हैं। यह उनकी उस प्रवृत्ति को दर्शाता है जो प्रत्येक विसंगति को दूर कर के सब कुछ ठीक-ठाक कर देने की भावना के रूप में उनके भीतर मौजूद है। वे परिवार के सदस्यों के बीच सौहार्द्यपूर्ण संबंधों को देखने की आकांक्षा रखती हैं। बच्चों का अपने माता-पिता के प्रति मात्र संपत्ति के लालच का रिश्ता उन्हें खटकता है। वे ऐसी संतान को सबक सिखाने की पैरवी करती हैं। उनकी एक कहानी है ‘रिश्तों का रिसाव’ जिसमें एक बेटा अपने सुख के लिए अपने पिता का घर बेच कर उन्हें वृद्धाश्रम में रखने की योजना बनाता है। किन्तु नौकर के सजग रहने के कारण बेटे की योजना विफल हो जाती है। इस कहानी में सुनीला बताती हैं कि खून के यदि लोभ-लालच में डूबे हुए हों तो कोई अर्थ नहीं रखते हैं जबकि निस्वार्थ भाव से बने हुए रिश्ते जीवन को न केवल अर्थ प्रदान करते हैं अपितु सुरक्षित और सुखमय भी बनाते हैं।
माता-पिता और संतान के बीच असंवेदनशील हो चले संबंधों पर ही आधारित सुनीला की बहुत एक छोटी-सी कहानी है ‘दिनचर्या’। इस छोटी-सी कहानी में बहुत बड़े सच को बड़ी ही संवेदना के साथ उन्होंने सामने रखा है। आज का खुरदरा सच यह है कि जिन बेटों पर माता-पिता अपनी जान छिड़कते हैं, वही बेटे अपने माता-पिता की वृद्धावस्था में उनसे नाता तोड़ने को उतावले हो उठते हैं। यहां तक कि वे अपने बूढ़े मां-बाप को अपने साथ रखना पसन्द नहीं करते हैं। यदि साथ रखना पड़े तो घर के सबसे उपेक्षित कोने में ही उन्हें जगह दी जाती है। इसी सच को अपनी कहानी में पिरोते हुए सुनीला सराफ ने वर्णित किया है कि जिन बच्चों को अपने बूढ़े माता-पिता का सहारा बनना चाहिए जब वही बच्चे माता-पिता को दो समय की रोटी के लिए भिखारियों की तरह भटकाने लगते हैं तब उन बूढ़े माता-पिता का जीवन अत्यंत कठिन हो जाता है। माता-पिता का ममत्व अपने बच्चों के बुरे व्यवहार की शिक़ायत करने से रोकता रहता है और वे अपने बच्चों के हाथों ही उपेक्षित एवं दलित जीवन जीने को विवश रहते हैं।
बायें से:- डॉ वर्षा सिंह, डॉ (सुश्री) शरद सिंह, सुनीला सराफ एवं पिंकी
सुनीला सराफ ने अपनी कविता, गीत और दोहों में भी गरीबी, लाचारी से ले कर पारिवारिक संबंधों को स्थान दिया है। उनकी एक कविता है- ‘‘हौसला’’ जिसमें आजीविका के लिए एक ऐसे बेटे के संघर्ष को चित्रित किया गया है जिसके पिता की नौकरी छूट गई है और वह अपने पिता को भी उनकी नौकरी वापस दिलाने के लिए जूझ रहा है। कविता के कुछ अंश देखिए-
गरीबी बेबसी के झंझावात
उसे निगलने को आतुर
सतरंगी सपनों को पूरा
करने की खातिर
प्रतियोगी परीक्षाएं प्रश्न बन कर
खड़ीं गरीबी के वितान पर
जीवन की सुनामी पार करने के लिए
पिता की नौकरी वापिस
दिलाने के लिए
अदालत के चक्कर लगाता वो।
Sagar Sahitya Chintan -24 Sunila Saraf- Ek Sambhavnashil Sahityakar - Dr Varsha Singh

बेटी के प्रति समाज का नजरिया भले ही विपरीत रहा हो किन्तु एक मां के लिए उसकी बेटी हमेशा उसके कलेजे का टुकड़ा होती है। वह जितना ममत्व अपने बेटे पर उंडेलती है, उतनी ही ममता अपनी बेटी पर भी निछावर करती है। इस भाव को सुनीला सराफ ने अपनी कविता में इस प्रकार निबद्ध किया है-
तेरा पहला रोना सुन कर
मेरी ममता जाग उठी
छाती से जब तुझे लगाया
जीवन भर की प्यास बुझी
प्यारी सूरत भोली-भाली
लगती तू तो स्वर्ग परी
देख तुझे क्यों रोई दादी
आंखें मेरी भर आईं
तुझमें अपना बचपन देखा
तू तो मेरा सपना थी।
ऋतुएं काव्यात्मक हृदय को प्रभावित करती ही हैं और तब बनती हैं ऋतुओं पर आधारित कविताएं। सुनीला सराफ ने शीत ऋतु को अपने दोहों में कुछ इस प्रकार गूंथा है, बानगी देखिए -
सर्द हवाएं जो चलीं, हुआ हाल-बेहाल।
तपन कहीं पर सो गई, ओढ़ के जूड़ी शाल।।
शीतल तन और मन हुआ, कोहरा में चहुं ओर।
बन में ठिठुरन बढ़ गई, अब न नाचे मोर।।
शीत ऋतु के इसी भाव को सुनीला सराफ की इस कविता में भी देखिए-
अब के ठिठुरा बड़ा बसंत
शीत ऋतु ने रौब जमाया
मौसम को हैरान कर दिया
बारिश ने भी रंग जमाया
और बसंत को बड़ा रुलाया।
सुनीला सराफ सागर नगर की एक संभावनाशील साहित्यकार हैं। अपनी कहानियों एवं कविताओं के माध्यम से वे नगर की साहित्यिकता को समृद्ध करने की दिशा में निरंतर अग्रसर हैं।
--------------
( दैनिक, आचरण दि. 14.08.2018)
#आचरण #सागर_साहित्य_एवं_चिंतन #वर्षासिंह #मेरा_कॉलम #MyColumn #Varsha_Singh #Sagar_Sahitya_Evam_Chintan #Sagar #Aacharan #Daily

सागर : साहित्य एवं चिंतन -23 प्रीत का पाहुन और कवि सीरोठिया का छायावादी स्वर - डॉ. वर्षा सिंह

डॉ. वर्षा सिंह

स्थानीय साप्ताहिक समाचार पत्र "सागर झील" में प्रकाशित मेरा कॉलम "साहित्य वर्षा " । जिसमें इस बार मैंने लिखा है मेरे शहर सागर के वरिष्ठ कवि श्याम मनोहर सीरोठिया पर। पढ़िए और मेरे शहर के साहित्यिक परिवेश को जानिए ....🙏

सागर : साहित्य एवं चिंतन

‘प्रीत का पाहुन’ और कवि सीरोठिया का छायावादी स्वर 

                             - डॉ. वर्षा सिंह

                                                                                            आदि मानव ने जब पंक्षियों के मधुर कंठों का गायन सुना होगा, नदियों-झरनों के नाद घोष में आत्मा की पुकार अनुभव की होगी, उन्मुक्त प्रकृति के प्रांगण में चांद-तारों की रोशनी में, फूलों की हंसी में सौंदर्य भाव बोध अनुभव किया होगा, उसी समय से गीतों ने आकार पाया होगा। अनेक विद्वान मानते हैं कि गीत काव्य की शायद सबसे पुरानी विधा है। महाकवि निराला ने ‘गीतिका’ की भूमिका में कहा है, ‘गीत-सृष्टि शाश्वत है। समस्त शब्दों का मूल कारण ध्वनिमय ओंकार है। इसी निःशब्द-संगीत से स्वर-सप्तकों की भी सृष्टि हुई। समस्त विश्व, स्वर का पूंजीभूत रूप है।’  

जीवन के विभिन्न रस-भावों के अनुभव से गीत की उत्पत्ति होती है। यह लयात्मकता शब्द की उड़ान से उत्पन्न होती है। स्वर, पद और ताल से युक्त जो गान होता है वह गीत कहलाता है। गीत, सहित्य की एक लोकप्रिय विधा है। इसमें एक मुखड़ा तथा कुछ अंतरे होते हैं। प्रत्येक अंतरे के बाद मुखड़े को दोहराया जाता है। गीत में एक ही भाव, एक ही विचार एक ही अवस्था का चित्रण होता है।

डॉ. भगवतशरण उपाध्याय ने गीत को परिभाषित करते हुए कहा है- ‘‘गीत कविता की वह विधा है जिसमें स्वानुभूति प्रेरित भावावेश की आर्द्र और कोमल आत्माभिव्यक्ति होती है।’’ 

इसी सन्दर्भ में केदार नाथ सिंह कहते हैं - ‘‘गीत कविता का एक अत्यन्त निजी स्वर है ग़ीत सहज, सीधा, अकृत्रिम होता है।’’ 

डॉ. नगेन्द्र के अनुसार- “गीत वास्तव में काव्य का सबसे तरल रूप है।’’

इस प्रकार गीत की मूल विशेषताएं है गीत में कवि की भावना की पूर्ण व व्यापक अभिव्यंजना समाई रहती है। गीत कवि के भावावेश अवस्था से उत्पन्न होता है। गीत एक पद में एक ही भाव की निबद्ध रचना होता है। संगीतात्मकता भी इसका एक विशेषगुण है।

गीत एक ऐसी विधा है जिससे मनुष्य का जुड़ाव अपने जन्म से ही हो जाता है। मां की लोरी के रूप में गीत के शब्द, छंद, स्वर मनुष्य के हृदय में बस जाते हैं। गीत की सबसे बड़ी शक्ति होती है उसकी ध्वन्यात्मकता। गीत हृदय से उत्पन्न होते हैं। संवेदनाओं, अनुभूतियों व भावनाओं के ज्वार जब उमड़ते हैं तो गीत किसी नदी के जल के समान बह निकलते हैं। उनमें भावनाओं की वे सारी तरंगें होती हैं जो गीत को सुनने और पढ़ने वाले के हृदय को रससिक्त कर देती है। जैसे लोरी के लिए हृदय में ममत्व की आवश्यकता होती है उसी प्रकार गीत रचने के लिए प्रत्येक भावना को आत्मसात् कर लेने की क्षमता की आवश्यकता होती है। इसके साथ ही आवश्यकता होती है अभिव्यक्ति के उस कौशल की जो कठोर से कठोर तथ्य को कोमलता के साथ प्रस्तुत कर सके। डॉ. श्याम मनोहर सीरोठिया में वह कौशल है कि जिससे वे दुनिया के तमाम खुरदुरे अहसास को बड़ी ही कोमलता से अपने गीतों में ढाल देते हैं। यूं भी एक चिकित्सक जब गीत लिखता है तो उसमें संवेदनाओं का एक अलग ही स्वर होता है। एक ऐसा स्वर जिसमें जगत की तमाम कोमल भावनाओं का अनहद नाद समाहित रहता है। व्यक्ति व समाज की भावनाओं, संवेदनाओं व अपेक्षाओं को अपेक्षाकृत अधिक निकट से परखता है, जान पाता है एवं ह्ृदय तल की गहराई से अनुभव कर पाता है। डॉ. श्याम मनोहर सीरोठिया ने अपने जीवन में एक सफल चिकित्सक होने के साथ ही एक सफल गीतकार की भूमिका को भी आत्मसात किया है। यूं तो अब तक उनके चार गीत संग्रह ‘‘साक्षी समय है’’, ‘‘गीतों का मधुबन’’,‘‘सुधियों का आंचल’’ तथा ‘‘रजनीगंधा अपनेपन की’’ प्रकाशित हो चुके हैं। ‘‘प्रीत का पाहुन’’ डॉ. सीरोठिया का पांचवां गीत संग्रह है।  

‘प्रीत का पाहुन’ के गीत मूलतः छायावादी हैं। संयोग एवं वियोग इन गीतों का मूल विषय भाव है। इन गीतों में प्रेम, मिलन, विरह, स्मृतियां, एवं सामाजिक सरोकार का सुंदर समन्वय हैं। प्रस्तुत कृति, जिसमें भावपक्ष तो उत्कृष्ट है ही कलापक्ष भी सफल, सुगठित व श्रेष्ठ है। यहां इस बात का उल्लेख करना आवश्यक प्रतीत होता है कि जब गीत विधा नवगीत और मुक्तिका से हो कर अपने मूल स्वरूप को पुनः पाने के लिए जूझ रही है, ‘‘प्रीत का पाहुन’’ जैसी कृति का प्रकाशित होना गीत के संघर्ष के विजय का प्रतीक बन कर उभरता दिखाई देता है। हरिवंश राय ‘बच्चन’, गोपाल दास ‘नीरज’ जैसे गीतकारों ने जिस लयात्मकता और संवाद भाव से गीत लिखे हैं वही भाव डॉ. सिरोठिया के गीतों में दिखाई देता है। डॉ सीरोठिया ने ‘‘आत्म निवेदन’’ में इस बारे में स्वयं लिखा है कि ‘‘गीतों की सफलता और सार्थकता संवाद शैली में होती है।’’ इस संवाद शैली का एक उदाहरण देखिए -

आसमान के चांद-सितारे

  मिटा न पाए जो अंधियारे

    तुमने मन के अंधियारों में

      नेह दीप उजियार दिया है

        तुमने कितना प्यार दिया है।   (पृ. 35)

   

बांए से - उमाकांत मिश्र, डॉ. वर्षा सिंह, डॉ. श्याम मनोहर सीरोठिया

अपनों द्वारा प्रदत्त पीड़ा अधिक कष्टदायी होती है, नैराश्य भी उत्पन्न करती है परन्तु डॉ सीरोठिया के विरहगीतों में भी नैराश्य नहीं है अपितु व्यक्तिगत दुख दुनियावी दुख से एकाकार होता चलता है जैसे ये पंक्तियां देखें -

          मुस्कुराहट के नए मैं गीत लिख कर क्या करूंगा

          बस्तियां जब प्यार की वीरान होती जा रही हैं 


इसी गीत के अंतिम बंध की पंक्तियां -’

          पिंडलियों का दर्द जब

            हर सांस भारी हो रहा है

             मंज़िलों के गीत मोहक

              किस तरह मैं गुनगुनाऊं

               कौन सौंपेगा किसे अब

                बोझ दायित्वों का आगे-

                 पीढ़ियां आपस में जब 

                  अनजान होती जा रही हैं।   (पृ. 53-54)


डॉ सीरोठिया के गीतों में प्रेम के प्रति समर्पण की विशेष छटा दिखाई देती है। एक ऐसी छटा जिसमें लौकिक प्रेम से आगे बढ़ कर अलौकिक प्रेम ध्वनित होने लगता हैं। जैसे शायर मौजीराम ‘मौजी’ का मशहूर शेर है-  

         दिल के आईने में है तस्वीर-ए-यार 

         जब ज़रा गर्दन झुकाई देख ली


 प्रेम जब सप्रयास किया जाए तो वह प्रेम नहीं होता, वास्तविक प्रेम स्वतः घटने वाली घटना होती है जिसमें प्रियजन के प्रति समस्त चेष्टाएं स्वतः होती जाती हैं-

        सच कहता हूं अनजाने ही गीत रचे सब

          मैंने तो बस केवल नाम तुम्हारा गाया।

             सदा सत्य, शिव, सुन्दरता का सम्बल जिसमें

             प्यार मुझे वह पावन इक प्रतिमान रहा है,

             मेरे मन का रहा समर्पण इस सीमा तक

             अपने प्रिय का रूप मुझे भगवान रहा है,

             सच कहता हूं अनजाने हो गई प्रार्थना

             मैंने तो सिर मन मंदिर के द्वार झुकाया।  (पृ. 67) 

 

गोपाल सिंह नेपाली ने कवि और वियोग का जो संबंध अपनी इन पंक्तियों में व्यक्त किया है कि - ‘‘वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजे होंगे गान

                   निकलकर आँखों से चुपाचाप, बही होगी कविता अनजान।’’ 

- यही भाव डॉ. सीरोठिया के विरह गीतों में एक अलग ही गरिमा के साथ प्रकट होता है। ये दो पंक्तियां देखिए -

         रही तुम्हारे मन में नफ़रत, मेरे मन में प्यार रहा

         यही हमारे रिश्ते का बस, जीवन में आधार रहा।   (पृ. 97)


या फिर इन पंक्तियों को देखिए -

        कोर नयन की बेमौसम जब भर आती है

        आकुल मन को पीड़ा अकसर दुलराती है     (पृ. 107)

 

डॉ. सीरोठिया ने अपने गीतों में नवीन बिम्बों का बड़े सुंदर ढंग से प्रयोग किया है। यदि कोई अपना सगा-संबंधी किसी बात पर रूठ जाए तो मन विकट दुविधा में पड़ जाता है। किसी तरह उस रूठे हुए संबंधी को मना भी लिया जाए और यदि वह मिलने आ भी जाए तो भी वह उलाहना देने से नहीं चूकता हैं। इसी विडम्बना को कवि ने प्रकृति और सामाजिक संबंधों की परस्पर तुलना करते हुए लिखा है कि- ‘

        रूठे रिश्तेदारों जैसे

          बहुत दिनों में आए बादल

            प्राण जले अंगारों जैसे

              तन-मन सब अकुलाए बादल।  (पृ. 47) 


‘‘प्रीत का पाहुन’’ गीत संग्रह भाव-अनुभूतिजन्य गीत-कृति है अतः कलापक्ष को सप्रयास नहीं सजाया गया है अपितु वह कलात्मक गुणों से स्वतः ही शोभायमान है, सशक्त है। भाषा शुद्ध सरल साहित्यिक हिन्दी है। शब्दावली सुगठित सरल सुग्राह्य है। शैली छायावादी होते हुए भी दुरूह नहीं है। आवश्यकतानुसार लक्षणा व व्यंजना का भी बिम्ब प्रधान प्रयोग भी है। जल की तरह निर्मल एवं पारदर्शी भावनाओं को उकेरतीं ये गीत-रचनाएं कवि के रागात्मक आयाम से न केवल परिचय कराती हैं, बल्कि उनकी कहन, उनके शब्द रागात्मकता का सुंदर पाठ भी पढ़ाते हैं। ऐसा पाठ जो मनुष्य को मनुष्य बनाता है और ऐसी दुनिया के निर्माण में सहायक बनता है जहां मनुष्य के ही नहीं वरन् जड़-चेतन के भी गीत गाये जाते हैं।

कहा जा सकता है कि डॉ. श्याम मनोहर सीरोठिया के गीतों में जीवन को ऊर्जा प्रदान करने वाली स्वतःस्फूर्त चेतना है। लोकधर्मी चेतना से ध्वनित डॉ सीरोठिया के इन गीतों में घनीभूत आत्मसंवेदना का सुंदर समन्वय है। हिंदी गीतों के संवर्द्धन और पुनर्स्थापन के प्रति डॉ सीरोठिया का यह गीत संग्रह विशेष रूप से उल्लेखनीय है। 

              -----------------------

धन्यवाद सागर झील !!!


(साप्ताहिक सागर झील दि. 27.02.2018)

#साप्ताहिक_सागर_झील #साहित्य_वर्षा #वर्षासिंह #मेरा_कॉलम #MyColumn #Varsha_Singh #Sahitya_Varsha #Sagar #Sagar_Jheel #Weekly




-----------------------


सागर : साहित्य एवं चिंतन -22 डॉ. गोपीरंजन साक्षी : जिनके काव्य में आध्यात्मिकता है - डॉ. वर्षा सिंह

डॉ. वर्षा सिंह
स्थानीय दैनिक समाचार पत्र "आचरण" में प्रकाशित मेरा कॉलम "सागर साहित्य एवं चिंतन " । जिसमें इस बार मैंने लिखा है मेरे शहर सागर के कवि डॉ. गोपीरंजन साक्षी पर आलेख। पढ़िए और जानिए मेरे शहर के साहित्यिक परिवेश को ....
सागर : साहित्य एवं चिंतन
डॉ. गोपीरंजन साक्षी : जिनके काव्य में आध्यात्मिकता है
- डॉ. वर्षा सिंह
वर्तमान युग इतना अधिक मशीनी हो चला है कि मानव-धर्म और आध्यात्म के पल सिकुड़ते चले जा रहे हैं। इन दिनों ध्यान और योग आत्मिक सुख और शांति के लिए नहीं गोया फैशन के लिए अपनाए जाने लगे हैं। इस प्रकार का आधुनिक आडम्बर समाज का परिष्कार भला कैसे कर सकता है? यही कारण है कि समाज में असंवेदनशीलता बढ़ रही है और अपराध एवं अनाचार बढ़ रहा है। सागर के कवि एवं आध्यात्मिक चिंतक डॉ. गोपीरंजन साक्षी अपनी कविताओं में समाज की वर्तमान दशा के प्रति चिन्ता को आध्यात्मिक मूल्यों पर परखते हुए सब के सामने रखते हैं। डॉ. साक्षी के जीवन पर ओशो के विचारों का गहन प्रभाव है। यही कारण है कि प्रेम के प्रति उनका दृष्टिकोण संकुचित न हो कर अनन्त विस्तार लिए हुए है। उन्होंने प्रेम के प्रति अपने विचार अपने कविता संग्रह ‘‘जेहि घट प्रेम न संचरै’’ के ‘आत्मकथ्य’ में इन शब्दों में व्यक्त किया है कि -‘‘प्रेम परमात्मा है लेकिन समाज में प्रायः उसका घृणित वासनात्मक रूप ही दिखाई दे रहा है। पुत्र-पुत्री अपने स्वजनों के समक्ष चर्चा करने से कतराते हैं। ऐसी दृष्टि समाज में पल्लवित है, जबकि सभी संतों, कवियों ने प्रेमाभक्ति से परमात्मा को प्राप्त किया है। प्रेमसाधना भी है और साध्य भी। यही नूतन दृष्टि आज के सम्यक सम्बुद्ध ओशो ने नए युग के मनुष्य को दी है।’’
डॉ. गोपी रंजन साक्षी

स्व. खुमान सिंह एवं स्व. भाग्यवती के घर 2 अक्टूबर 1944 को जन्मे डॉ. गोपीरंजन साक्षी ने अध्ययन के क्षेत्र में एम.ए., पीएच.डी., बी.एड. के साथ ही आयुर्वेदरत्न, योगविद् एवं साहित्यालंकार की उपाधि प्राप्त की। वरिष्ठ स्नातकोत्तर अध्यापक, केन्द्रीय विद्यालय के पद से सेवानिवृत्ति के उपरांत डॉ. साक्षी की सक्रियता साहित्यिक एवं सामाजिक कार्यों में बढ़ गई। डॉ. साक्षी की साहित्यिक अभिरुचि उनकी पुत्री कुमारी सुमि अनामिका साक्षी एवं पुत्र अमीश कुमार साक्षी में भी पल्लवित हुआ। कुमारी सुमि एक संवेदनशील कवयित्री के रूप में अपनी प्रतिभा को उद्घाटित कर ही रही थी कि सन् 2013 में एक सड़क दुर्घटना में उसे संसार से विदा लेना पड़ा। अपनी पुत्री को यूं अचानक खोना डॉ. साक्षी के लिये बहुत बड़ा सदमा था। उनकी पुत्री साहित्यिक एवं आध्यात्मिक प्रतिभा की धनी तो थी ही, अपने परिवार का आर्थिक सहारा भी थी। सेवानिवृत्ति के बाद डॉ. साक्षी को अपनी अस्वस्थ पत्नी के इलाज पर निरंतर धनव्यय करना पड़ रहा था। पुत्री की 29 वर्ष की अल्पायु में मृत्यु के बाद अपने पुत्र और अस्वस्थ पत्नी की चिन्ता ने उन्हें एक बार फिर दृढ़ता प्रदान की। अपनी पुत्री की अप्रकाशित रचनाओं को डॉ. साक्षी ने पुस्तक के रूप में सम्पादित कर प्रकाशित कराया, जिसका नाम है-‘‘ज़िन्दगी! तू एक कविता है।’’उन कविताओं का संकलन अमीश साक्षी ने किया था। इसी के साथ अमीश के सहसंपादन में डॉ. साक्षी ने अपनी पुत्री सुमि का जीवनवृत्त ‘फिर मिलूंगी’ का लेखन एवं संपादन किया। यह दोनों पुस्तकें सन् 2016 में प्रकाशित हुईं। सन् 2016 में ही ओशो दर्शन पर आधारित उनकी पुस्तक ‘‘हंसत्व की ओर’’ प्रकाशित हुई जिसमें हंस प्रज्ञा, रेकी प्रज्ञा, महाजीवन प्रज्ञा, सम्मोहन प्रज्ञा, ज्योतिष प्रज्ञा, सूफ़ी दरबार आदि आध्यात्मिक विषयों पर विस्तृत चर्चा की गई है। अपने लेख ‘उमंग प्रज्ञा’ में लेखक ने लिखा है कि ’’दुनिया में शायद ही कोई मिले जो इन दो शब्दों और उनकी अर्थवत्ता से अपरिचित हो-उदासी एवं उमंग। उदासी के प्रकोप तो सभी ने झेले हैं, यह बढ़ती हुई मनोदशा में महारोग अवसाद का कारण बनती है।’’ इसी प्रकार की व्याख्या ‘आनन्द प्रज्ञा’ के बारे में करते हुए डॉ साक्षी लिखते हैं कि ‘‘दुख से आनन्द की ओर क्यों? दुखी व्यक्ति में कोई उत्सुक नहीं होता, सभी किनारा कर जाते हैं।’’ डॉ. गोपीरंजन साक्षी के तीन काव्य संग्रह ‘हाशिए पर’, ‘रेतीले छीटें’ तथा ‘जेहि घट प्रेम न संचरै’ तथा एक खण्ड काव्य ‘लंकायन’ प्रकाशित हो चुका है। ‘कबीर साखी दर्शन’ तथा ‘कबीर की आध्यात्म साधना का स्वरूप विवेचन’ शोध ग्रंथ अभी प्रकाशनाधीन हैं। किन्तु इनसे स्पष्ट है कि उनके विचारों पर कबीर-दर्शन का भी प्रभाव है। डॉ. गोपीरंजन साक्षी की कविताओं में प्रेम का परिष्कृत रूप निखर कर सामने आया है। वे प्रेम को उद्धार का मार्ग निरुपित करते हुए लिखते हैं-
प्रिय/ तुम्हारा समर्पण ही
देगा बल/ ऊपर उठने का
सीखूंगा मैं भी समर्पण
प्रेरणा ले कर/तुम्हीं से
अतः तुम्हारा साथ/ पल दो पल का नहीं
स्थायी हो जीवन भर।
Sagar Sahitya Chintan -22 Dr Gopi Ranjan Sakshi - Jinke Kavya Me Adhyatmikta Hai - Dr Varsha Singh
‘नए तेवर’ शीर्षक कविता में प्रेम के पावन स्वरूप को रेखांकित करते हुए डॉ. साक्षी ने प्रेम की उत्पत्ति तथा अनुभूति को इन शब्दों में व्यक्त किया है-
प्रेम सिखाया नहीं जाता
यह अपने आप हो जाता है
हृदय में उमंग उठे तो
कह डालो,
प्रिये!
तुलसी-पूजन/कितना शुभ होता है
मैं तुलसी को नित्यप्रति/अर्पित करता हूं
निर्मल जल, प्रेमपूर्ण।
डॉ. गोपीरंजन साक्षी की कविताओं की लयात्मकता किसी सूफियाना धुन की भांति मधुरता से प्रवाहित होती है। ‘भेद मिट जाएंगे’ शीर्षक कविता में संयोग श्रृंगार को बड़े ही सहज शब्दों में बांधा गया है -
प्रिय/ एक ही करवट
एक ही याद में
कब तक रहोगे
करवट बदलो
आमना-सामना होगा
रूप निखर आएगा/ रंग बदल जाएगा
इमारत बुलन्द हो जाएगी
खण्डहर-सी ज़िन्दगी/क्यों ढोते हो?
‘हाशिए पर’ काव्य संग्रह में संकलित कविताओं में वर्तमान जीवनदशा के प्रति चिंतन मुखर हुआ है। ‘प्रश्नचिन्ह’ शीर्षक कविता में डॉ. साक्षी ने राकेटयुग की आधुनिकता को एक और रूढ़ि निरुपित करते हुए लिखा है-
राकेट का पदचिन्ह घूम
आकाश में तैरता है/गाला सदृश्य
उन मधुर कल्पनाओं की भांति
जो शुभ और सुंदर हैं।
राजनीतिज्ञ और वैज्ञानिक
जिसे अपनी सूझ और मेधा की
सर्वोत्तम उपलब्धि समझते हैं
वही तैरता है/ रेख
जैसे रूढ़ि हो इस नए युग की।
बेरोजगारी के दारूण से भी कविमन अछूता नहीं है। कवि डॉ. साक्षी की कविता ‘रक्तिम अनुराग’ का यह अंश किसी भी पाठक के मन को उद्वेलित करने में सक्षम है-
सर्वोच्च डिगरियां बांझ
दर-बा-दर की ठोकरें सांझ
लौटता हूं।
हिम्मत पस्त/सब अस्त-व्यस्त
उम्र का तकाज़ा/बचपन का राजा
घेरती चिंगारियां/बढ़ती भूख/उत्तर दो टूक।
डॉ. गोपीरंजन साक्षी ने कविताओं के साथ ही लेख, निबंध, कहानी, संस्मरण आदि भी लिखे हैं। आकाशवाणी के सागर, अम्बिकापुर एवं जगदलपुर केन्द्रों से उनकी रचनाओं का प्रसारण हो चुका है।
--------------
( दैनिक, आचरण दि. 07.08.2018)
#आचरण #सागर_साहित्य_एवं_चिंतन #वर्षासिंह #मेरा_कॉलम #MyColumn #Varsha_Singh #Sagar_Sahitya_Evam_Chintan #Sagar #Aacharan #Daily

सागर : साहित्य एवं चिंतन -21 अख़लाक सागरी : दुनिया भर में पढ़ी जाती हैं जिनकी ग़ज़लें - डॉ. वर्षा सिंह

डॉ. वर्षा सिंह

स्थानीय दैनिक समाचार पत्र "आचरण" में प्रकाशित मेरा कॉलम "सागर साहित्य एवं चिंतन " । जिसमें इस बार मैंने लिखा है मेरे शहर सागर के मशहूर शायर अख़लाक़ सागरी पर आलेख। पढ़िए और जानिए मेरे शहर के साहित्यिक परिवेश को ....

सागर : साहित्य एवं चिंतन

अख़लाक सागरी : दुनिया भर में पढ़ी जाती हैं जिनकी ग़ज़लें
- डॉ. वर्षा सिंह

इश्क में हम तुम्हें क्या बताएं, किस कदर चोट खाये हुए हैं।
मौत ने उनको मारा है और हम, ज़िन्दगी के सताये हुए हैं।
ऐ लहद अपनी मिट्टी से कह दे, दाग़ लगने न पाये कफ़न को ,
आज ही हमने बदले हैं कपड़े, आज ही हम नहाये हुए हैं।

इस ग़ज़ल से दुनिया भर में छा जाने वाले सागर नगर के शायर अख़लाक सागरी यूं तो किसी परिचय के मोहताज़ नहीं हैं, लेकिन पिछले लगभग एक दशक से उम्र की मुश्किलों को झेलते हुए मानों दुनिया से कट कर जी रहे हैं। मोहम्मद इस्माइल हाज़िक़ एवं बशीरन बी के घर 30 जनवरी 1930 को एक पुत्र ने जन्म लिया, जिसका नाम रखा गया अख़लाक अहमद खान। उस समय शायद बालक के माता-पिता को भी इस बात का अंदाज़ा नहीं रहा होगा कि उनका पुत्र एक दिन शायरी की दुनिया का नामचीन शायर अख़लाक सागरी बन कर न केवल उनका बल्कि पूरे सागर शहर का नाम रोशन करेगा।
यूं तो अख़लाक सागरी की औपचारिक शिक्षा मैट्रिक तक ही हो सकी थी लेकिन शायरी के प्रति उनके रुझान ने उन्हें उर्दू भाषा और साहित्य से जोड़े रखा। अख़लाक सागरी ने अपने एक साक्षात्कार में बताया था कि -‘‘ मैं अपने परिवार में तीसरी पीढ़ी का शायर हूं। बचपन से ही उर्दू और फारसी की शिक्षा मिली। लगभग 13 साल की उम्र में पहली बार ग़ज़ल की कुछ पंक्तियां लिखीं। खुश हो कर पिता जी को दिखायीं। पिता जी हंस कर बोले- अख़लाक, ग़ज़ल लिखी नहीं पढ़ी जाती है। इसके बाद ग़ज़ल पढ़ने में मेरा ऐसा मन लगा कि मैंने इसे अपनी ज़िन्दगी का मकसद बना लिया।’’
बायें से :- डॉ. मुज्तबा हुसैन, डॉ. वर्षा सिंह एवं अख़लाक़ सागरी


अपनी मशहूर ग़ज़ल ‘‘ इश्क में हम तुम्हें क्या बताएं’’ कैसे बनी इसके बारे में अख़लाक सागरी ने एक अन्य साक्षात्कार में बताया था कि जब वे कक्षा 11वीं में पढ़ते , तब उन्हें एक लड़की से प्रेम हो गया था। यह प्रेम 2 साल तक परवान चढ़ा, फिर अचानक कुछ ऐसा हुआ कि लड़की ने उन्हें धोखा दे दिया। इससे उनके दिल को चोट पहुंची और यह ग़ज़ल बन गई।
अख़लाक सागरी की ग़ज़लों को बालीवुड गायक सोनू निगम, अनुराधा पौडवाल से ले कर गुरदास मान, जानी बाबू कव्वाल, पंकज उधास, मनहर उधास, मुन्नी बाई, अयाज़ अली, पिनाज़ मसानी, साबरी ब्रदर्स, मज़ीद शोला और देश की सीमा-पार के अताउल्ला खां जैसे प्रसिद्ध गायकों ने अपनी आवाज़ दी। अपने समय में मुशायरों में जान डालने वाले अख़लाक सागरी की ग़ज़लों के कई कैसेट जारी हुए। जैसे - बेवफा सनम, आजा मेरी जान, अफसाना, ये इश्क़-इश्क है, रात सुहानी, आ भी जा रात ढलने लगी, इश्क में बताएं लाइव इन फिजी आदि। अनेक फिल्मों में भी अख़लाक की शायरी को गानों के रूप में रखा गया। तीन बार लाल किले में मुशायरा पढ़ने का गौरव प्राप्त करने वाले अख़लाक सागरी ने पुरस्कारों की राजनीति पर टिप्पणी की थी कि - ‘‘मेरा नाम तीन बार पद्म भूषण पुरस्कार के लिए भेजा गया लेकिन राजनीति के चलते मुझे यह अवार्ड नहीं मिल सका। इस बात का मलाल मुझे मरते दम तक रहेगा।’’
Sagar Sahitya Chintan -21 Akhlakh Sagari - Duniya Bhar Me Parhi Jati Hain Jinki Ghazalen - Dr Varsha Singh

पुरस्कारों के मामले में अख़लाक सागरी भले ही राजनीति के शिकार हो गए हों, लेकिन शायरी पसन्द करने वालों के दिलों में उनकी सत्ता आज भी कायम है। सागर शहर की जानी मानी संस्था श्यामलम् ने साहित्य परिक्रमा के अंतर्गत 26 जनवरी 2014 को अख़लाक सागरी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर केन्द्रित भव्य आयोजन करते हुए उन्हें सम्मानित भी किया था। उर्दू शायरी की मशहूर वेबसाइट ‘‘रेख्ता’’ और ‘‘वर्ड प्रेस’’ पर अख़लाक की शायरी आज भी रुचि से पढ़ी जाती है। अमेरिका के रेडियो चैनलस पर अख़लाक की शायरी को प्रसारित किया जाता है। उनकी शायरी की ख़ूबसूरती सीधे दिलों को छूती है। ये उदाहरण देखें -
बिगड़ो तो दमकती है जबीं और जियादा
तुम तैश में लगते हो हसीं और जियादा
निकलोगे आप भर के जहां मांग में अफशां
झेंपेंगे सितारे तो वहीं और जियादा
आ जाओं कि होठों पे अभी जान है वरना
फिर वक़्त मेरे पास नहीं और जियादा

उनकी एक और मशहूर ग़ज़ल देखिये-
बाम पे उनको लेते देखा, जब अंगड़ाई लोगों ने।
चांद समझ कर बस्ती भर में, ईद मनाई लोगों ने।
आजादी तो देखी लेकिन, उसके पर भी छू न सके,
बस ये कहिये उड़ती चिड़िया, मार गिराई लोगों ने।
अख़लाक की शायरी में उर्दू शायरी की परम्परागत शैली भी देखी जा सकती है, जो विशेष रूप से मुहब्बत पर कही गई उनकी ग़ज़लों में उभर कर सामने आती है। ये उदाहरण देखें -
मुहब्बत करने वाले इस कदर मजबूर ही देखे।
कि दिल गमगीं हों लेकिन शक्ल से मसरूर ही देखे।
हंसी माना लबों पर थी मगर जब गौर से देखा,
तो दिल में आशिकों के सैंकड़ों नासूर ही देखे।
गिला इक तुझसे क्या, तेरे तकब्बुर का कि हमने तो,
हसीं जितने भी देखे हैं, बड़े मगरूर ही देखे।

इश्क मुहब्बत की शायरी के साथ ही अख़लाक सागरी ने देश में व्याप्त गरीबी पर कटाक्ष करते हुए बेहतरीन अशआर कहे हैं। बानगी देखिए -
फुटपाथ पर पड़ा था वो कौन था बेचारा।
भूखा था कई दिन का दुनिया से जब सिधारा।
कुर्ता उठा के देखा, तो पेट पर लिखा था
सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा।
डॉ. वर्षा सिंह की अध्यक्षता में सम्पन्न साहित्य परिक्रमा आयोजन में अख़लाक़ सागरी


एक शायर हमेशा चैन और अमन की ही बात करता है। सभी परस्पर मिल-जुल कर रहें यही उसकी सबसे बड़ी इच्छा रहती है। अख़लाक सागरी ने भी हमेशा यही इच्छा की, ये शेर देखें -
अब दिवाली में दिये ऐसे जलाना चाहिये।
ईद की खुशियां भी जिनमें जगमगाना चाहिये।
सौंप कर मुस्लिम के हाथों में दशहरे का जुलूस,
ताजिया हिन्दू के कंधे पर उठाना चाहिये।

अख़लाक सागरी की शायरी में जहो मुहब्बत की बातें हैं, वहीं आम जनता की पीड़ा भी है और इन सब के साथ उनका अपना शायराना व्यक्तित्व भी उनके शब्दों में पिरोया मिलता है -
टूटा हूं मैं तो आंसुओं के तार की तरह।
बिखरा पड़ा हूं मोतियों के हार की तरह।
ज़िन्दा ही दफ्न करके मैं खुद अपने आप को
बैठा हूं इक मुज़ाविर-ए-मज़ार की तरह।
हमे ही अपने खून से सींचा ये गुलिंस्ता,
हम ही खटक रहें हैं यहां खार की तरह।
‘अखलाक’ सिर्फ नाम का अखलाक ही नहीं
दुश्मन से भी मिलेगा तो इक यार की तरह।

मशहूर शायर अख़लाक सागरी ने उर्दू शायरी को एक अलग ही जमीन दी। आज उनके पुत्र अयाज सागरी अपने पिता की इस विरासत को न केवल सहेज रहे हैं बल्कि अपनी शायरी से समृद्ध कर रहे हैं।

-----------------------
( दैनिक, आचरण दि. 25.07.2018)
#आचरण #सागर_साहित्य_एवं_चिंतन #वर्षासिंह #मेरा_कॉलम #MyColumn #Varsha_Singh #Sagar_Sahitya_Evam_Chintan #Sagar #Aacharan #Daily
— in Sagar, Madhya Pradesh.

Sunday, August 19, 2018

सागर : साहित्य एवं चिंतन -20 वृन्दावन राय सरल : बुंदेली-हिन्दी में समान-धर्मा कवि - डॉ. वर्षा सिंह

डॉ. वर्षा सिंह
स्थानीय दैनिक समाचार पत्र "आचरण" में प्रकाशित मेरा कॉलम "सागर साहित्य एवं चिंतन " । जिसमें इस बार मैंने लिखा है मेरे शहर सागर के चर्चित कवि वृन्दावन राय 'सरल' पर आलेख। पढ़िए और जानिए मेरे शहर के साहित्यिक परिवेश को ....
सागर : साहित्य एवं चिंतन
वृन्दावन राय सरल : बुंदेली-हिन्दी में समान-धर्मा कवि
- डॉ. वर्षा सिंह
उम्र भर पीटे गए हैं ढोल की मानिन्द
आज कोई जश्न में तो कल किसी की मौत पर
ये पंक्तियां हैं सागर नगर के चर्चित कवि वृन्दावन राय सरल की। आम आदमी की पीड़ा को व्यक्त करने वाली इन पंक्तियों के रचयिता वृन्दावन राय सरल बुंदेली और हिन्दी में समान रूप से काव्य सृजन कर रहे हैं। वे देश के मंचों पर भी एक चर्चित नाम हैं। सिविल इंजीनियर रह चुके सरल ने आयुर्वेदरत्न और साहित्य रत्न की उपाधि भी अर्जित की है। पिता स्व. बालचन्द्र राय एवं माता स्व. श्रीमती फूलबाई राय के घर 3 जून 1951 को सागर जिले की खुरई तहसील में जन्मे वृन्दावन राय सरल ने अपनी आजीविका की व्यस्तताओं के बीच साहित्य साधना का मार्ग चुना। लगभग 33 वर्ष से साहित्य सृजन में संलग्न कवि सरल बुंदेली और हिन्दी के अतिरिक्त उर्दू में भी ग़जलें कहते हैं। उनका एक ग़ज़ल संग्रह ‘धूप ही धूप’ सन् 2001 में प्रकाशित हुआ। बुंदेली काव्य संग्रह ‘को का कैरओ’ तथा बाल कविताओं का संग्रह ‘मैं भी कभी बच्चा था’ भी प्रकाशित हो चुके हैं। उनके दोहों का संग्रह ‘दोहावली’ अभी प्रकाशनाधीन है। कवि सरल की कई रचनाएं विभिन्न सम्वेत संकलनों में भी संकलित की गई हैं। जैसे- ‘अर्द्धशती’, ‘सरस्वती सुमन’, ‘ग़ज़ल दुष्यंत के बाद’, ‘मंदाकिनी’, ‘आदबे सुखन’ आदि। प्रदेश एवं देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में भी रचनाओं का प्रकाशन हुआ है। आकाशवाणी के केन्द्रों से रचनाओं के प्रसारण के साथ ही दूरदर्शन, ई टीवी, सहारा टीवी आदि से भी काव्यपाठ कर चुके हैं।
बायें से :- डॉ. वर्षा सिंह, उमाकांत मिश्र एवं वृन्दावन राय सरल

वृन्दावन राय सरल देश के प्रतिष्ठित मंचों पर काव्यपाठ के लिए आमंत्रित किए जाते हैं। उन्हें साहित्य सेवा के लिए डेढ़ दर्जन से अधिक सम्मानों से सम्मानित किया जा चुका है जिनमें प्रमुख हैं-साहित्यश्री (इलाहाबाद), नज़ीर बनारसी सम्मान (बनारस), रवीन्द्रनाथ सम्मान (कोलकता), हिमाक्षरा साहित्य सम्मान (दमन), डॉ रामकुमार वर्मा साहित्य सम्मान (कन्नौज), श्रेष्ठ मंचकवि सम्मान, मध्यप्रदेश लेखक संघ (भोपाल), ‘निर्मल सम्मान’ आर्ष परिषद् (सागर), कवि भूषण सम्मान (दमोह), ‘दादा डालचंद सम्मान’ (सागर) आदि। मध्यप्रदेश लेखक संघ की सागर इकाई के अध्यक्ष वृन्दावन राय सरल कवि सम्मेलनों के सफल संचालक एवं आयोजक भी हैं। कवि सरल की कविताओं में आम जनजीवन की पीड़ा बड़ी बारीकी से मुखर होती है। जब रचना अपनी मातृबोली में लिखी जाए तो उसकी मधुरता एक अलग ही अंदाज़ में सामने आती है क्योंकि उस बोली की विशेषता के साथ ही क्षेत्र के जीवन की विषमताओं का भी बखूबी बयान होता है। ‘को का कैरओ’ बुंदेली काव्य संग्रह में सरल ने अपनी जिन बुंदेली कविताओं को सहेजा है उनमें आंचलिक लालित्यबोध के साथ ही जीवन की कठोरता से सीधा सरोकार दिखाई देता है। कहते हैं न कि अच्छाई धीरे-धीरे आती है लेकिन बुरी आदतें जल्दी जगह बना लेती हैं। संस्कारी बुंदेलखण्ड भी आज तेजी से फैलती जा रही बुरी आदतों से अछूता नहीं रह गया है। इस तथ्य को बड़े ही सुन्दर ढंग से सरल ने अपनी रचनाओं में कुछ इस प्रकार व्यक्त किया है-
सुनो कुरैशी, सुनो तिवारी, समय जो कैसा पलटा खा रओ।
रोज कलारी दारू पीबे, बाप के संगे बेटा जा रओ।।
राम लखन को मजलों मोड़ा, देखो कैसो नाक कटा रओ।
मैतारी खों ठूंसा मारै, घरवारी के पांव दबा रओ।।
बायें से : - भगवान दास रैकवार, डॉ. वर्षा सिंह, वृन्दावन राय सरल एवं डॉ. गजाधर सागर
क्षेत्र के विकास के वादों के प्रति भी कवि सरल कटाक्ष करने से नहीं चूके हैं। वे जनता के भोलेपन को आधार बना कर कथित नेताओं पर तंज करते हुए कहते हैं-
पानी दैहें, बिजली दैहें, ऐसी तो बे रोजई कै रये।
उनकी कही झूठ पै हम तो, खुशी-खुशी भौंरा से भै रये।।
यही कटाक्ष, यही ललकार उनकी बुंदेली ग़ज़ल में भी देखी जा सकती है-
पांच साल तक कहां गड़े रए, उनसे पूछो।
दुख में हमसे काए कटे रए, उनसे पूछो।
तीन साल से पुलस पूछ रई मुन्नी गायब
सांड से पीछे जोन पड़े रए, उनसे पूछो।
उनकी हमसे काए पूछ रए, हमें पता का
रात दिना जो उतई परे रए, उनसे पूछो।
वृन्दावन राय सरल के बुंदेली काव्य में एक चुटीलापन भी है जो उनकी रचनाओं की रोचकता में वृद्धि करता है। यह खूबी उनकी छोटी बहर की बुंदेली ग़ज़लों में भी देखी जा सकती है जिनमें पर्यावरण के प्रति चिन्ता से ले कर भ्रष्टाचारी वातावरण के चित्रण तक को देखा जा सकता है। उदाहरण देखें-
ढूंढो कहां हिरा गओ पानी।
हमसे आज रिसा गओ पानी।
अत्त देख के ई दुनिया के
जाने कहां ससा गओ पानी।
अपसर, नेता, ठेकेदारों
इनखों खूब बना गओ पानी।
जो काव्याभिव्यक्ति बुंदेली में मुखर हुई है, वही संवेदना वृन्दावन राय सरल की हिन्दी रचनाओं में भी व्यक्त हुई है। विशेषता यह कि वे अपनी कठोर से कठोर बात कहते समय भी सरल से सरल शब्दों का चयन करते हैं। ऐसे शब्द जो आम बोलचाल की भाषा से उठाए गए हैं, जिनमें सहजता है और संप्रेषण की ग्राह्यता है। वृन्दावन राय सरल के हिन्दी दोहों में व्यंजनात्मकता का तीखापन देखते ही बनता है। जैसे ये दोहे देखें -
आंधी से अनुबंध कर, चुप हैं पीपल आम।
पौधों को सहने पड़े, इस छल के परिणाम।।
गेंहूं रुपया बीस का, उस पर सौ की दाल।
मंत्री कहें विदेश में, भारत है खुशहाल।।

Sagar Sahitya Chintan-20 Vrindavan Rai Saral - Bundeli -Hindi Me Samaan Dharma Kavi - Dr Varsha Singh

छद्म और आडम्बर से भरा वर्तमान वातावरण किसी भी संवेदनशील मन को विचलित कर सकता है। धर्म और आस्था के नाम पर छल करने वाले बाबाओं ने आम जनता को जिस तरह ठग रखा है वह भी कम पीड़ादायक नहीं है। विश्वास के प्रश्न पर भ्रमित कर देने वाले समय में मनुष्य अपने मनुष्यत्व को बचाए रखे, यही बहुत है। इस मुद्दे पर कवि सरल के ये शेर ध्यान देने योग्य हैं-
हम प्यार के रिश्तों को निभा लें तो बहुत है।
दंगों से वतन अपना बचा लें तो बहुत है।
इस दौर के भगवान, फरिश्तों की भीड़ में
हम खुद को आदमी ही बना लें तो बहुत है।
प्रत्येक रचनाकार सदा सुखद वातावरण की आकांक्षा रखता है। उसकी अभिलाषा होती है कि सभी मनुष्य परस्पर मेलजोल से रहें। लोगों के बीच वैमनस्य न रहे तथा जो आम जनता को जाति, धर्म, समुदाय के खानों में बांटने का प्रयास करते हैं वे अपने मंसूबों में कभी सफल नहीं हों। इसीलिए कई बार कवि अलगाववादियों से सीधा संवाद करने से नहीं चूकता है। यही भाव सरल के इस मुक्तक में देखे जा सकते हैं-
दूरियां दिल में बढ़ाने की सियासत छोड़ो।
जख्म तलवार से सिलने की रिवायत छोड़ो।
आग नफरत की न नफरत से बुझा पाओगे
आग से आग बुझाने की ये आदत छोड़ो।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि कवि वृन्दावन राय सरल ने अपनी बुंदेली और हिन्दी दोनों कविताओं से देश के मंचों पर सागर नगर का नाम रौशन करने के साथ ही अपनी सृजनात्मकता की निरन्तरता को भी साधे रखा है।
----------------


( दैनिक, आचरण दि. 11.07.2018)
#आचरण #सागर_साहित्य_एवं_चिंतन #वर्षासिंह #मेरा_कॉलम #MyColumn #Varsha_Singh #Sagar_Sahitya_Evam_Chintan #Sagar #Aacharan #Daily

सागर : साहित्य एवं चिंतन -19 राष्ट्र एवं समाज के प्रति सजग कवयित्री डॉ. छाया चौकसे - डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh

स्थानीय दैनिक समाचार पत्र "आचरण" में प्रकाशित मेरा कॉलम "सागर साहित्य एवं चिंतन " । जिसमें इस बार मैंने लिखा है मेरे शहर सागर की कवयित्री डॉ. छाया चौकसे पर आलेख। पढ़िए और जानिए मेरे शहर के साहित्यिक परिवेश को ....

सागर : साहित्य एवं चिंतन

राष्ट्र एवं समाज के प्रति सजग कवयित्री डॉ. छाया चौकसे
- डॉ. वर्षा सिंह

सागर नगर का साहित्यिक परिदृश्य बहुरंगी है। इस शहर के रचनाधर्मी राष्ट्र एवं समाज के प्रति अपने दायित्वों को भलीभांति समझते हैं तथा सामाजिक चेतना को स्फूर्त्त रखने में विश्वास रखते हैं। राष्ट्र एवं समाज से सरोकारित साहित्यकार डॉ. छाया चौकसे का जन्म 1 जून 1959 को जबलपुर (म.प्र.) में हुआ किन्तु आरम्भ से ही उनका कर्मक्षेत्र सागर नगर रहा है। यहीं उन्होंने महाविद्यालय में अध्यापन कार्य एवं पारिवारिक जीवन की व्यस्तताओं के बीच तालमेल बिठाते हुए साहित्य से अपना सघन संबंध बनाए रखा। डॉ. चौकसे ने गजानन माधव मुक्तिबोध के गद्य साहित्य पर विशेष शोधकार्य किया है। जिस पर आधारित उनकी पुस्तक ‘मुक्तिबोध का गद्य साहित्य : एक अध्ययन’ सन् 1090 में प्रकाशित हुई। इसके बाद सन् 2015 में ‘हमारा बुंदेलखण्ड’ प्रकाशित हुई। देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में डॉ. छाया चौकसे के अब तक अनेक लेख एवं समीक्षाएं प्रकाशित हो चुकी हैं। ‘लोक साहित्य में सांस्कृतिक चेतना’ पुस्तक के संपादक मंडल में डॉ. सरोज गुप्ता, डॉ. रंजना मिश्र एवं डॉ. विनय शर्मा के साथ डॉ. छाया चौकसे ने भी सफलतापूर्वक संपादन कार्य किया। ‘समसामयिक शोध निबंध एवं समीक्षा’, ‘साम्प्रदायिक सद्भाव और भारतीय सांस्कृति एकता’, ‘वैश्विक भाषा साहित्य एवं रामकथा’, भारतीय वांगमय एवं रामकथा का भी संपादन कर चुकी हैं।
Sagar Sahitya Chintan -19 Rashtra Evam Samaj Ke Prati Sajag Kaviyatri Dr Chhaya Choukse  - Dr Varsha Singh

डॉ. छाया चौकसे एक मेधावी छात्रा रहीं। उन्होंने अपनी मेहनत से मेरिट छात्रवृत्ति प्राप्त की थी तथा स्नातक स्तर पर हिन्दी विषय में सर्वाधिक अंक प्राप्त करने पर उन्हें रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय जबलपुर की ओर से तत्कालीन राज्यपाल महामहिम बी.एम.पुनाचा द्वारा उषादेवी मैत्रा स्वर्ण पदक प्रदान किया गया था। शोध के क्षेत्र में डॉ. छाया चौकसे को लघु शोध परियोजना के लिए मानव संसाधन विकास मंत्रालय के संस्कृति विभाग शिक्षा प्रोत्साहन पुरस्कार से पुरस्कृत किया गया। साहित्य सेवा के लिए भी डॉ. छाया चौकसे को विभिन्न संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित किया जा चुका है। जिनमें प्रमुख हैं- मध्यप्रदेश राष्ट्र भाषा प्रचार समिति भोपाल द्वारा हिन्दी प्रसार सहयोग हेतु सम्मान, सन 2013 में सागर नगर विधायक शैलेन्द्र जैन द्वारा विशेष महिला सम्मान, जे.डी.एम. पब्लिकेशन दिल्ली द्वारा वर्ष 2014 का विशिष्ट हिन्दी सेवी सम्मान एवं वर्ष 2013,14,15 का शिक्षक सम्मान, सन् 2014 में सर्वोदय विद्यापीठ पिपरिया द्वारा काव्यश्री सम्मान, लायंस क्लब सागर झील द्वारा सहयोग सम्मान तथा म.प्र. कल्चुरी महासभा द्वारा सम्मान। राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठियों में भी सहभागिता कर चुकीं डॉ. चौकसे विभिन्न सामाजिक एवं साहित्यिक संस्थाओं की आजीवन सदस्य भी हैं। जैसे- मध्यप्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति भोपाल, विश्व हिन्दी परिषद् इलाहाबाद, अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य परिषद्, राष्ट्रीय कल्चुरी महासभा एवं मध्यप्रदेश कल्चुरी महिला समिति आदि। डॉ. चौकसे वर्तमान में पं. दीनदयाल उपाध्याय शासकीय कला एवं वाणिज्य महाविद्यालय सागर में प्राध्यापक के पद पर कार्यरत हैं।
डॉ. छाया चौकसे

डॉ. छाया चौकसे की कविताओं में कोमल भावनाओं एवं संवेदनाओं को विशेष मुखरता मिली है। वे जहां बेटी के प्रति कविता लिखती हैं तो वहीं मां के प्रति भी अपनी काव्यमय भावनाएं प्रकट करती हैं। बेटी का गुनगुनाना सुन प्रसन्न तो होती है मां, किन्तु सहज नहीं रह पाती है। वह समझ जाती है कि अब बेटी अपने भावी जीवन के सलोने सपने सजाने लगी है और कुछ समय बाद वह घड़ी भी आ जाएगी जब बेटी घर से विदा हो जाएगी। यह विचार करना भी एक मां के लिए विचित्र अनुभव होता है क्योंकि उसमें सुख भी होता है और दुख भी। एक मां अपनी वयस्क होती बेटी के प्रति किस तरह भावुक हो उठती है इसका बड़ा सुंदर वर्णन उन्होंने अपनी कविता ‘प्यारी बिटिया’ में किया है। कविता का यह अंश देखें -
ऋतु प्रीत की, पिया मीत की
मेरी वयस्क होती बिटिया
प्रीत गीत गुनगुना रही है
पर यह क्या, इसे सुन मेरी छाती
किस कम्पन से घबरा रही है?
अगले सावन, मनभावन के घर हो शायद
इसके परिणय के भावी स्वप्न क्यों
मेरी आंखें सजा रही हैं...
मां पारिवारिक रिश्तों की धुरी होती है। परिवार के प्रत्येक सदस्य का जीवन उसी के इर्दगिर्द घूमता है। क्योंकि प्रत्येक सदस्य जानता है कि परिवार में मां ही वह व्यक्ति है जो दुख-सुख, भले-बुरे सभी में दृढ़तापूर्वक साथ खड़ी रहती है। मां के अद्वितीय होने की अनुभूति डॉ. छाया की कविता ‘मां सा कोई नहीं’ में देखी जा सकती है-
धरती देखा, अम्बर देखा
जगती का श्रृंगार भी देखा
पर मां के दुलार के जैसा
कोई आभास नहीं।
भैया देखा, बहना देखी
रिश्तों का त्यौहार भी देखा
पर मां के ममत्व के रिश्ते सा
कोई सरोकार नहीं।
युवा शक्ति समय की धारा को मोड़ने की क्षमता रखती है। युवा ही भविष्य के निर्माता होते हैं। इसलिए राष्ट्र के प्रति युवाओं का दायित्व गुरुतम होता है। इसीलिए जरूरी हो जाता है कि युवा अपनी शक्ति को पहचाने और उसका दुरुपयोग न होने दें। डॉ. छाया चौकसे अपनी कविता ‘युवाओं से’ में युवाशक्ति को संबोधित करते हुए कहती हैं कि -
इस धरा का मान तुम, इस धरा की शान तुम
राष्ट्र की पहचान तुम, राष्ट्र स्वाभिमान तुम
देश, वेशभूषा, भाषा तुम्हीं से जीवंत है
देश गौरवगान, गरिमा ज्ञान फैला दिगदिगंत है
देश का स्पंदन तुम, तुम्हीं तो इसके प्राण हो
देश के जवान हाथ जागृति की मशाल लो।
युवाओं के संदर्भ में आज देश अनेक संकट झेल रहा है। विशेष रूप से युवतियों एवं बालिकाओं के साथ किए जा रहे दुर्व्यवहार ने सभी के मन को आहत कर रखा है। ‘निर्भया कांड’ की पीड़ा आज भी समूचे देश के हृदय को कचोटती रहती है। डॉ. चौकसे ‘निर्भया : एक चिन्तन’ के रूप् में अपने भावों को इन शब्दों में व्यक्त करती हैं -
संस्कारों की बयार बहने दो
आज लज्जित है देश दुनिया में
देश रोए तो उसे जार-जार रोने दो
आज कुछ इस तरह सिखाएं बच्चों को
उनमें रिश्तों की आन-बान रहने दो
आज विज्ञापन की नारी को देख हैरत है
मीडिया में भी नारी का सम्मान रहने दो
एक गुजारिश भी है फिल्मकारों से
नायिका को खलनायिका न बनने दो
वेश-परिवेश में देश कहां है देखो
एक निवेदन है कि देश को भारत देश रहने दो।
अपनी कविताओं में डॉ. छाया चौकसे जीवन के प्रति कभी-कभी दार्शनिक हो उठती हैं और तब वे मानव जीवन को एक सतत् संघर्ष के रूप में देखती हैं। अपनी कविता ‘जीवन एक संघर्ष’ में जीवन के संघर्षों का कुछ इस प्रकार वर्णन किया है -
जन्मना संघर्ष, बढ़ना संघर्ष
जीना संघर्ष, जीते जाना संघर्ष....
डॉ. छाया चौकसे के विचारों में राष्ट्र के प्रति चिन्तन एवं पारिवारिक संबंधों के प्रति सौहार्यपूएार् आस्था स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। उनकी रचनात्मकता की यही विशेषता सागर नगर के साहित्य-संसार में उन्हें रेखांकित करती है।
-----------------------

( दैनिक, आचरण दि. 01.08.2018)
#आचरण #सागर_साहित्य_एवं_चिंतन #वर्षासिंह #मेरा_कॉलम #MyColumn #Varsha_Singh #Sagar_Sahitya_Evam_Chintan #Sagar #Aacharan #Daily