Tuesday, September 25, 2018

स्त्रियों की उपलब्धियों का आख्यान - औरत तीन तस्वीरें


Dr. Varsha Singh
राष्ट्रीय स्तर पर ख्यातिलब्ध सागर नगर की प्रतिष्ठित साहित्यकार, कथालेखिका एवं उपन्यासकार डॉ (सुश्री) शरद सिंह की स्त्री विमर्श पर केन्द्रित पुस्तक “ औरत : तीन तस्वीरें “ पर विदुषी समीक्षक दीपिका शर्मा द्वारा लिखी गई समीक्षा (सौजन्य आज तक) यहां प्रस्तुत कर रही हूं। यह उन सबके लिए अत्यंत उपयोगी सिद्ध होगी जो स्त्री विमर्श को नारी की दुर्दशा का विवरण मात्र समझते हैं, जबकि स्त्रियों के उत्थान का पक्ष, स्त्रियों की उपलब्धियों का आख्यान भी स्त्री विमर्श में ही निहित है।

Book review: ये हैं औरत की तीन तस्‍वीरें…दीपिका शर्मा नई दिल्‍ली, 12 September 2014    
 ( साभार “ आज तक “ )

आंधी - तूफान के बाद खिलने वाली सुनहरी धूप जैसा चित्रण करती हैं शरद सिंह अपनी पुस्तकों में महिलाओं का. 'औरत तीन तस्वीरें' पुस्तक विश्व भर में स्त्रियों की स्थिति या सिर्फ उनके संघर्ष पर ही आधारित नहीं है. यह पुस्तक शरद सिंह की सोच को सार्थक करती है कि लड़की ऋग्वेद की पहली ऋचा है.
Aurat : Teen Tasveeren Author Dr. Sharad Singh
किताब: औरत: तीन तस्वीरें लेखिका: शरद सिंह प्रकाशक: सामयिक प्रकाशन मूल्य: 460 रुपये आंधी-तूफान के बाद खिलने वाली सुनहरी धूप जैसा चित्रण करती हैं शरद सिंह अपनी पुस्तकों में महिलाओं का. 'औरत : तीन तस्वीरें' पुस्तक विश्व भर में स्त्रियों की स्थिति या सिर्फ उनके संघर्ष पर ही आधारित नहीं है. यह पुस्तक शरद सिंह की सोच को सार्थक करती है कि लड़की ऋग्वेद की पहली ऋचा है.
'इस पुरुष प्रधान समाज में औरत की सुबह केतली में उबलती है, ओवन में पकती है, टोस्टर में सिंकती है. पल दो पल के लिए हांफती, फिर रोटियों की तरह तपती और सब्‍जी के साथ भुनती है. दाल के साथ भाप बनने और लंच बॉक्स में पैक हो जाने पर टाटा बाय बाय के बाद टंगी रह जाती है बाथरूम में छूटे गीले तौलिये की तरह.' - ऐसी तमाम अवधारणाओं का प्रतिकार करती है यह पुस्तक.
Dr. (Miss) Sharad Singh, Author

इस पुस्तक में कई कहानियों के संग्रह से शरद सिंह ने औरतों की ऐतिहासिक और समकालीन छवियां प्रस्तुत की हैं. तीन तस्वीरों का अर्थ है 3 तरह से औरतों के संघर्ष को समझने की कोशिश. पहले खंड में औरतों ने अपने साहस और योग्यता के दम पर पुरुषों से बराबरी की है. दूसरे खंड में उन औरतों की कहानियां हैं जिनका समर्थ स्वरुप साहित्य और विचारों में गढ़ा गया है और तीसरे खंड में उन औरतों की कहानियां हैं जो प्रताड़ित हैं और अभी भी संघर्ष कर रही हैं.लेखिका ने जोर दिया है महिलाओं के आत्म-मूल्यांकन पर. समकालीन स्त्री प्रश्‍नों को समझने में शरद सिंह की यह पुस्तक समर्थ है.
क्यों पढ़ें?
-इरोम शर्मीला, गुलसीरीन ओनांक, नवककुल कारमान, फातिमा मुर्तज़ा भुट्टो, जेसिका फोनी, सारा, दारा और सरकोजी जैसी हस्तियों के संघर्ष की कहानियों का अनूठा संग्रह.
- देश, भाषा, जाति, नस्ल आदि का कोई विभाजन नहीं.
- राजनीति में ब्यूटी विद ब्रेन का भी उत्तम उदाहरण.
- 'टैगोर, स्त्री और प्रेम', 'पंडित मदन मोहन मालवीय का स्त्री विमर्श', 'बाबा नागार्जुन की नायिकाएं' आदि संवदेनशील विषय.
- प्रवासी महिला कथाकारों की भी कहानियां
- स्त्री के उत्पीड़न और तमाम कारणों पर विचार
- देवी से लेकर डर्टी पिक्चर तक का सफर
- भरपूर तथ्यात्मकता
क्यों न पढ़ें?
- यदि आप नारी सशक्‍त‍िकरण के विरोध में हों.
- यदि आपको लगता हो कि औरतों के बारे में बहुत पढ़ चुके हैं और आपको इसमें रुचि नहीं.
- यदि आपको शक हो कि व्यापक सामाजिक परिवर्तन में औरतों की क्या भूमिका हो सकती है.         

Monday, September 24, 2018

सागर : साहित्य एवं चिंतन 29 - बहुमुखी प्रतिभा की धनी निरंजना जैन - डॉ. वर्षा सिंह

Dr.Varsha Singh

       स्थानीय दैनिक समाचार पत्र "आचरण" में प्रकाशित मेरा कॉलम "सागर साहित्य एवं चिंतन " । जिसमें इस बार मैंने लिखा है मेरे शहर सागर की सुपरिचित कवयित्री निरंजना जैन पर आलेख। पढ़िए और जानिए मेरे शहर के साहित्यिक परिवेश को ....

सागर : साहित्य एवं चिंतन

बहुमुखी प्रतिभा की धनी निरंजना जैन
                         - डॉ. वर्षा सिंह
     
परिचय :- निरंजना जैन
जन्म :- 19 नवम्बर 1957
जन्म स्थान :- बीना (म.प्र.)
शिक्षा :- सागर विश्वविद्यालय से विज्ञान में स्नातक
लेखन विधा :- गद्य एवं पद्य
प्रकाशन :- ‘इकतीसा महीना’ कहानी संग्रह
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सागर नगर की महिला व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित कर चुकी निरंजना जैन गद्य और पद्य दोनों विधाओं में लेखन कार्य करती हैं। उनकी व्यंग्य कविताएं विसंगतियों के चरित्र उजागर करती हैं, वहीं उनकी कहानियां सामाजिक एवं पारिवारिक संबंधों का बारीकी से विश्लेषण करती हैं। यूं तो निरंजना जैन ने बाल कविताएं, दोहे और गजलें भी लिखी हैं, किन्तु उनकी छंदमुक्त रचनाएं एक अलग ही तरह का सम्वाद करती हैं। निरंजना जैन की रचनाओं में एक सादगी के साथ दैनिक जीवन से जुड़ी समस्याओं के प्रति चिंतन मिलता है। अपनी कुछ कविताओें में उन्होंने विसंगतियों की व्यापकता दिखाने के लिए बड़े ही सुन्दर क्षेपक का प्रयोग किया है। देखिए उनकी ग्रहण शीर्षक कविता :-
क्षण /प्रतिक्षण ग्रसता जा रहा है
मानवता के/ जगमगाते सूर्य को
कलुषताओं का ग्रहण
इस ग्रहण से गहनतर होते अंधकार में
छटपटा रही है इंसानियत
क्योंकि विकरित होने लगीं हैं
उस सूर्य से
भ्रष्टाचार/ अनैतिकता/अराजकता की
विषैली किरणें
भौतिकता की/ चौधियातीं झांईं
अंधा कर रहीं हैं/आंखों को
जिन्हें बंद किये मैं
इंतज़ार कर रही हूँ
डायमंड रिंग का
जिसके बनते ही/ पुनः जगमगायेगा
मानवता का सूर्य
पर शेष है अभी खग्रास
Sagar: Sahitya Awm Chintan - Dr. Varsha Singh

मानवजीवन यूं भी कभी आसान नहीं रहा है, और इतिहास साक्षी है कि मनुष्य उपभोक्तावादी बन कर सुविधाभोगी बना है तबसे दैहिक रूप से भले ही उसे सुविधाएं प्राप्त हो गई हों किन्तु आंतरिक सुख-चैन का विघटन अवश्य शुरू हो गया है। और अधिक पाने का लालच मनुष्य को स्वार्थी तथा आत्मकेन्द्रित बनाता जा रहा है। यही कारण है कि मनुष्य ने अपने सरल-सहज जीवन को कांटों भरा रस्ता बना लिया है। इन भावों को निरंजना जैन ने अपनी कविता ‘‘नागफनी’’ में बड़े ही सार्थक ढंग से पिरोया हैः-
नागफनी के गमले में
पानी डालते वक्त
चुभे तीक्ष्ण कंटकों की पीड़ा से
मैं तिलमिलाई
इन कंटकों का / यहाँ क्या काम सोच
पूरी की पूरी नागफनी
तेज चाकू से काट गिराई
उसके कटते ही/क्षुब्ध होकर
गमले ने प्रश्न उठाया
तुम ने/ मुझमें उगी
इस अचल/ मूक नागफनी का
बड़ी आसानी से/ कर दिया सफाया
पर इंसानी दिलों के / गमले में उगी
स्वार्थ की/ कंटीली नागफनी को
कैसे मिटाओगी ?
और इस बेजुबान की कटे हिस्सों से टपकते
सफ़ेद रक्त की बूंदों का हिसाब
किस तरह चुकाओगी।

पारिवारिक रिश्तों की समस्त परिभाषाएं एवं मूल्यवत्ता मां से ही आरम्भ होती हैं। जिसने मां के साथ अपने मधुर शाश्वत संबंध को समझ लिया वह अंतर्सम्वेदनाओं की गहन अनुभूति को समझने में स्वतः पारंगत हो जाता है। मां का ममत्व मानवीय प्रेम का सबसे निश्चछल और निर्विकार उदाहरण है। एक मां अपने बच्चे को अपना सर्वस्व देने को तत्पर रहती है। निरंजना जैन ने अपनी बाल्यावस्था को याद करते हुए आज के हालात पर बहुत मार्मिक कटाक्ष किया है-

मां/ सुबह-सुबह आंगन में
बिखेर देती थी /अनाज के दाने
जिन्हें चुगने के लिए
तरह-तरह की चिड़ियां आती थीं
मधुर गीत गाती थीं
और भरपेट खाने के बाद
फुर्र से उड़ जाती थीं
कुछ देर को आंगन
चिड़ियों का अभ्यारण्य बन जाता था
मां तब मुझे /अपनी गोद में बिठा कर
दाल-भात खिलाती थी
मेरे मचलने पर/चिड़िया को
झूठ-झूठ का कौर दिखा कर
मुझे बहलाती थी
अब न वह बचपन है
न मां, न आंगन
और न ही वे चिड़ियां
क्योंकि बचपन दब गया है
बस्ते के बोझ तले
मां लोरियां भूल कर सोसाइटी में
स्टेंर्डड मेंटेन करने में बिजी है
बायें से : डॉ. वर्षा सिंह, डॉ. (सुश्री) शरद सिंह, डॉ. उर्मिला शिरीष, निरंजना जैन एवं सुनीला सराफ

कविताएं जहां मन में रागात्मकता पैदा करती हैं वहीं कहानियां विचारों के धरातल पर दृश्यात्मकता की वृद्धि करती हैं। कहानियों का विस्तार मुखर संवाद करने में सक्षम होता है। निरंजना जैन की कहानियां भी वर्तमान जीवन को ले कर मुखर संवाद करती हैं। उनकी कहानियों में वे पात्र मिलते हैं जो हमारे आस-पास मौजूद होते हैं। निरंजना जैन के कहानी संग्रह ‘इकतीसा महीना’ पर अपने एक समीक्षात्मक लेख में देश की चर्चित कथाकार एवं समीक्षक डॉ. (सुश्री) शरद सिंह ने लिखा है कि -‘‘निरंजना जैन ने अपनी कहानियों में पारिवारिक मूल्यों के क्षरण को बहुत ही बारीकी से प्रस्तुत किया है। ‘राखी’ एक बच्चे की एक अदद बहन पाने की ललक की कहानी है। वही ‘मजबूरी’ में कामवाली बाई की आर्थिक विवशता का वर्णन है। ‘चाची’ और ‘रात के बाद’ दुखांत कहानियां हैं जो पढ़ने के बहुत बाद तक मन को मथती रहती हैं। ‘इकतीसा महीना’ संग्रह की कहानियोंं के पात्रों के विचारों में दार्शनिकता का पुट उनके चरित्र को और अधिक मुखर बनाता है। इन कहानियों के द्वारा मध्यमवर्गीय तथा निम्नवर्गीय समाज में संवेदनाओं की स्थिति को क़रीब से जाना-समझा जा सकता है। निरंजना की कहानियों में यूं तो बोलचाल की भाषा है किन्तु बुंदेली संस्कृति और बुंदेली शब्दों का भी समावेश है। .........निरंजना जैन ने अपनी कहानियों के कथानकों को साधने का पूरा प्रयास किया है और प्रथम संग्रह की कहानियों के रूप में इनका तनिक कच्चापन एक सोंधी महक लिए हुए है। भविष्य के प्रति आश्वस्त करता यह संग्रह असीम संभावनाएं संजोए हुए है।’’
निरंजना की कहानियों के संबंध में डॉ संतोष कुमार तिवारी ने लिखा है कि -‘‘अधिकांश कहानियों में आंचलिकता का अच्छा समावेश किया गया है ओर उल्लेखनीय विशेषता यह है कि यह आंचलिकता और क्षेत्रीयता हमारे सोच की व्यापकता को निस्सीमता प्रदान करती है। किसी परिधि में नहीं बंधती।’’
निरंजना जैन की कविताएं, कहानियां, पहेलियां, बालगीत आदि ‘कादम्बिनी’, ‘परिधि’, ‘ईसुरी’, ‘सुखनवर’, ‘ग़ज़ल दुष्यंत के बाद’ जैसी पत्रिकाओं एवं समवेत संग्रहों में प्रकाशित हो चुके हैं। वे एक समर्पित गृहणी के साथ ही साहित्य की जिज्ञासु कलमकार भी हैं। वे कहती हैं कि -‘‘मुझे घर के कामों से जब भी समय मिलता है, मैं कोई न कोई पुस्तक उठा कर पढ़ने बैठ जाती हूं।’’
ग़ज़ल विधा में अपनी अलग पहचान बनाने वाले ‘‘परिधि’’ के सम्पादक डॉ. अनिल जैन की सहधर्मिणी होने के साथ ही साहित्यसेवा के क्षेत्र में निरंजना जैन अपने पति की सहकर्मणी भी हैं। निरंजना जैन और डॉ. अनिल जैन हिन्दी उर्दू मजलिस नामक साहित्यिक संस्था का विगत कई वर्ष से संचालन कर रहे हैं तथा प्रति वर्ष संस्था के वार्षिक आयोजन में दोनों ही समर्पित भाव से अपना पूरा समय और श्रम देते हैं।
स्वभाव से हंसमुख एवं बेहद मिलनसार निरंजना जैन एक कुशल मंच-संचालक भी हैं। वे हिन्दी और बुंदेली के अनेक आयोजनों में सफलतापूर्वक मंच का संचालन कर चुकी हैं।
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( दैनिक, आचरण  दि. 24.09.2018)
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Wednesday, September 19, 2018

कवि राजेश जोशी मेरे शहर सागर में .... डॉ. वर्षा सिंह

From left : Rajesh Joshi, Dr. (Miss) Sharad Singh & Dr. Varsha Singh

समकालीन कविता के महत्त्वपूर्ण हस्ताक्षर राजेश जोशी दिनांक 18.09.2018 को मेरे शहर सागर म.प्र. में मौज़ूद थे। अवसर था शहर की नामचीन संस्था बुनियाद सांस्कृतिक समिति, सागर द्वारा आयोजित विख्यात कवि राजेश जोशी का एकल काव्य-पाठ एवं डॉ. छबिल कुमार मेहेर द्वारा संपादित "कालजयी मुक्तिबोध" और "राजेश जोशी संचयिता" का विमोचन कार्यक्रम।

   राजेश जोशी की उपस्थिति के मायने हैं हवाओं में कविता के ध्वनित होने की हलचल को महसूस करना। एक दिन बोलेंगे पेड़, मिट्टी का चेहरा, नेपथ्य में हंसी, दो पंक्तियों के बीच, चांद की वर्तनी - इन पांच पुस्तकों में हिलोरें लेती कविता की मुखरिता से कितनी ही दफ़ा रू-ब-रू हो चुकी हूं मैं, लेकिन स्वयं कवि के मुख से निकली कविता के रसास्वादन की बात ही कुछ और होती है।
हां, इस एकल काव्यपाठ के दौरान राजेश जोशी ने अपनी उस कविता का पाठ भी किया जिसने मुझे सर्वाधिक प्रभावित किया है.....
सुबह सुबह
बच्‍चे काम पर जा रहे हैं
हमारे समय की सबसे भयानक पंक्ति है यह
भयानक है इसे विवरण के तरह लिखा जाना
लिखा जाना चाहिए इसे सवाल की तरह
काम पर क्‍यों जा रहे हैं बच्‍चे?
क्‍या अंतरिक्ष में गिर गई हैं सारी गेंदें
क्‍या दीमकों ने खा लिया है
सारी रंग बिरंगी किताबों को
क्‍या काले पहाड़ के नीचे दब गए हैं सारे खिलौने
क्‍या किसी भूकंप में ढह गई हैं
सारे मदरसों की इमारतें
क्‍या सारे मैदान, सारे बगीचे और घरों के आंगन
खत्‍म हो गए हैं एकाएक
तो फिर बचा ही क्‍या है इस दुनिया में?
कितना भयानक होता अगर ऐसा होता
भयानक है लेकिन इससे भी ज्‍यादा यह
कि हैं सारी चीज़ें हस्‍बमामूल
पर दुनिया की हज़ारों सड़कों से गुजरते हुए
बच्‍चे, बहुत छोटे छोटे बच्‍चे
काम पर जा रहे हैं।


        राजेश जोशी को सुनना और उनसे मिल कर साहित्यिक विमर्श करना एक अविस्मरणीय अनुभव था।
इस अवसर पर  शहर के अन्य प्रबुद्धजनों सहित मेरे साथ थीं विदुषी साहित्यकार एवं बहुविधायुक्त सृजनात्मक लेखन की धनी डॉ. (सुश्री) शरद सिंह, जो मेरी अनुजा हैं।
        -  डॉ. वर्षा सिंह

©Dr.Varsha Singh

Wednesday, September 12, 2018

सागर : साहित्य एवं चिंतन -28 पुष्पदंत हितकर : सहज अभिव्यक्ति ही जिनकी खूबी है - डॉ. वर्षा सिंह

  
Dr Varsha Singh
स्थानीय दैनिक समाचार पत्र "आचरण" में प्रकाशित मेरा कॉलम "सागर साहित्य एवं चिंतन " । जिसमें इस बार मैंने लिखा है मेरे शहर सागर के कवि पुष्पदंत हितकर पर आलेख। पढ़िए और जानिए मेरे शहर के साहित्यिक परिवेश को ....

सागर : साहित्य एवं चिंतन
पुष्पदंत हितकर : सहज अभिव्यक्ति ही जिनकी खूबी है
                       -
डॉ. वर्षा सिंह
                           
परिचय :- कवि पुष्पदंत हितकर
जन्म :- 25 मार्च 1954
जन्म स्थान :- सागर नगर
पिता एवं माताः- स्व. गुलाबचंद एवं स्व. शांतिबाई
शिक्षा :- बी.एस-सी. फाइनल (सागर विश्वविद्यालय)
लेखन विधा :- कविताएं
प्रकाशन :- विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में
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सागर नगर में 25 मार्च 1954 श्री गुलाबचंद जी के घर जन्में कवि पुष्पदंत हितकर की माता जी श्रीमती शांतिबाई अत्यंत सहृदय एवं धार्मिक विचारों की महिला थीं तथा पिताश्री नगर की एक प्रतिष्ठित फर्म में मैनेजर के पद पर कार्य करते रहे। कवि हितकर के जीवन पर अपने माता-पिता के धार्मिक विचारों एवं सहृदयता का गहरा प्रभाव पड़ा। सागर विश्वविद्यालय से बी.एस-सी. फाइनल तक शिक्षा ग्रहण करने वाले पुष्पदंत हितकर ने सन् 1975 से लेखन कार्य आरम्भ किया। साहित्य में रुचि रखने वाले कवि हितकर की कविताएं अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहीं। झांसी से प्रकाशित साप्ताहिक भारती, तीर्थंकर पत्रिका (इंदौर), अहिंसावाणी (अलीगढ़) त्रैमासिक पत्रिकाव्यंग्यम’ (जबलपुर) आग और अंगार (दमोह), सिंधुधारा तथा विंध्यकेसरी (सागर) आदि में कवि हितकर की रचनाएं प्रकाशित हुईं हैं।
साहित्य सेवा के साथ ही पुष्पदंत हितकर समाज सेवा से जुड़ गए। इसी तारतम्य में जैन छात्र समिति के द्वारा प्रकाशित वार्षिक पत्रिका रश्मिका संपादन किया। इसी दौरान उन्हें जैन संतो ंके समागम में काव्यपाठ का सुअवसर प्राप्त हुआ। सन् 1993 में पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव में आचार्य श्री विद्यासागर महराज का सानिध्य प्राप्त होने के साथ ही कवि हितकर को गजरथ स्मारिका का संपादन करने का अवसर भी प्राप्त हुआ। कवि हितकर का अभी तक कोई काव्य संकलन तो प्रकाशित नहीं हो सका है किन्तु नगर की साहित्यिक गोष्ठियों में उनकी सक्रियता निरंतर बनी रहती है।
Sagar Sahitya Chintan - 28  - Dr Varsha Singh


कवि हितकर को साहित्य सेवा में सक्रियता के लिए सागर की विभिन्न संस्थाओं जैसे रोटरी क्लब, नगर साहित्यकार समिति, श्रीराम सेवा समिति, हिन्दी साहित्य सम्मेलन, भारतीय स्टैट बैंक शहर शाखा एवं चमेली चौक शाखा, 0प्र0 हस्त शिल्प कला, भारतीय ग्रामोद्योग, शिवसेना, जैन मिलन शाखा मकरोनिया एवं नेहानगर, देववाणी संस्था, प्रियदर्शिनी कला संगम, हिन्दी-उर्दू मजलिस के द्वारा समय-समय पर सम्मानित किया गया।

बायें से:- डॉ वर्षा सिंह, गजाधर सागर, विश्व जी, डॉ (सुश्री) शरद सिंह, पुष्पदंत हितकर एवं संतोष सरसैंया
भारतीय जीवन बीमा निगम के एक सफल अभिकर्ता के रूप में कार्य करते हुए भी पुष्पदंत हितकर ने अपनी साहित्यिक लगन को बनाए रखा और वे लगभग विगत 24 वर्षों से काव्य गोष्ठियों में अपनी रचनाओं का पाठ करते आ रहे हैं। वे मानते हैं कि नगर के हिन्दी उर्दू साहित्यकार मंच, नगर साहित्यकार परिषद, आर्ष परिषद, श्यामलम संस्था, पाठक मंच सागर इकाई ने काव्यपाठ का अवसर दे कर उनकी लेखनी को सदा प्रोत्साहित किया है। कवि हितकर के अनुसार जबलपुर के सुरेश सरल तथा सागर नगर के कवि निर्मलचंद निर्मल एवं कवि मणिकांत चौबे बेलिहाज ने साहित्यिक क्षेत्र में हमेशा मार्गदर्शन किया एवं सहयोग दिया। आकाशवाणी के सागर तथा छतरपुर केन्द्रों से भी उनकी कविताओं का प्रसारण हुआ है।

वर्तमान शिक्षा व्यवस्था ने बच्चों के कोमल कंधों पर भारी बस्तों का बोझ लाद रखा हैं इस व्यवस्था पर चोट करते हुए कवि हितकर ने जो गीत लिखा है उसका अंश देखें -
छोटे- छोटे कांधों पर हैं
भारी- भारी बस्ते
मन्द-मन्द मुस्कान बिखेरें
सबको करें नमस्ते
सपनें हैं इनकी आंखों के
कैसे बने फरिश्ते
मन्द-मन्द मुस्कान बिखेरें......
खुली हवा, छप्पर के नीचे
करना पड़े पढ़ाई
देश को ऊंचा यही उठायेंगे
पा कर तरुणाई
एक दिन फूलों से भर देंगे
कांटों वाले रस्ते
मन्द-मन्द मुस्कान बिखेरें......
आज समस्या मात-पिता पर
ड्रेस कहां से लाएं
इन पर ही निर्भर रहती ये
कोमल सरल लताएं
फिर भी सब कुछ सहते हैं ये
देखो हंसते-हंसते
मन्द-मन्द मुस्कान बिखेरें......

उपभोक्ता दौर के प्रभाव में आज व्यक्ति आत्मप्रदर्शन पर अधिक ध्यान देने लगा है। जो जीवन की सुख सुविधाओं से संपन्न हैं वे दूसरे की गरीबी या लाचारी पर ध्यान दिए बिना अपने सुखों का बेजा प्रदर्शन करने लगते हैं। इस प्रवृत्ति पर कवि हितकर की कटाक्ष करने वाली यह व्यंग्य कविता ध्यान देने योग्य है-
शो रूम से निकली कार में
काली पट्टी लगाते हैं
धन के प्रदर्शन से
गरीब आदमी की
नज़र न लगे
दुनिया को दिखाते हैं।

पुष्पदंत हितकर यह मानते हैं कि यदि प्रत्येक मनुष्य मनुष्यता का पाठ पढ़ ले और स्वयं को बुराईयों से बचा ले तो व्यक्तिगत कठिनाईयों के साथ ही समाज में व्याप्त बुराईयां भी दूर हो सकती हैं। ‘‘हमें ऐसे इंसान चाहिए’’ शीर्षक कविता में उन्होंने अपनी इसी आकांक्षा को व्यक्त किया है -
क्या ज़रूरी है कि हम
गीता कुरान पर हाथ रख कर
झूठी कसमें खाएं
गुनाहों को छिपाने के लिए
और गुनाह करते जाएं।
हमें तोड़ने वाले धर्म नहीं
जोड़ने वाले मन चाहिए।
प्रार्थना, इबादत तो हम कभी भी
बैठ कर कर लेंगे
जो दूसरों के दुख-दर्द को समझें
हमें ऐसे इंसान चाहिए

जिस सुख की तलाश में व्यक्ति दुनिया भर में भटकता रहता है, वह सुख तो उसके भीतर ही मौजूद होता है। वस्तुतः यह सुख है संतोष सुख। यदि व्यक्ति सीमित साधनों में संतोष कर ले तो वह सुखी रह सकता है, जबकि असंतुष्ट प्रवृत्ति होने पर आकूत धन सम्पदा होने पर भी किसी काम की नहीं रहती है। जैसा कि कवि कबीर ने कहा है-
‘‘
गोधन, गजधन, बाजिधन और रतनधन खान।
 
जब आवे संतोषधन, सब धन धूरि समान।। ’’
कहने का आशय यह है कि कोई भी धन संतोषधन से बड़ा नहीं होता है और यह धन मनुष्य के भीतर रहता है तथा आत्मज्ञान का द्वार खोलता है। इसी भाव को कवि हितकर ने इन शब्दों में व्यक्त किया है-
पलकों के अंदर ही सुख का वास है
खुली दृष्टि से मिलता मोह का द्वार है।
निर्मल भावों की बहती इस सरिता में
आत्मज्ञान से मिलता मोक्ष का द्वार है।
कवि हितकर ने बाल सहित्य की भी रचना की है, बानगी देखें-
फुदक- फुदक कर चिड़ि़या रानी
दानें भर कर मुंह में आती
चीं-चीं कर वह शोर मचाती
बच्चों को वह निकट बुलाती
सबको अपने दानें देती
बचा-खुचा वह खुद खा लेती
बच्चे फुर्र-फुर्र उड़ जाते
आसमान में शोर मचाते
चिड़िया का मन पुलकित होता
हंसी-खुशी में जीवन कटता

कवि पुष्पदंत हितकर सरल शब्दों में अपने भाव व्यक्त करने वाले लगनशील कवि हैं, जो सागर की साहित्यिकता में वृद्धि करते रहते हैं।
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(
दैनिक, आचरण  दि. 12.09.2018)
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Tuesday, September 11, 2018

‘न दैन्यं न पलायनम्’ : अनुभवों से उपजी कविताएं - डॉ. वर्षा सिंह ...समीक्षात्मक आलेख

Dr Varsha Singh
समीक्षात्मक आलेख
 
‘न दैन्यं न पलायनम्’ : अनुभवों से उपजी कविताएं 
        - डॉ. वर्षा सिंह

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पुस्तक -न दैन्यं न पलायनम   लेखक - अटल बिहारी वाजपेयी
मूल्य  - 120 /-            प्रकाशक - किताबघर, दरियागंज, नई दिल्ली-2
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‘न दैन्यं न पलायनम्’ अटल बिहारी वाजपेयी की कविताओं का संग्रह है। इसका संपादन डॉ. चन्द्रिकाप्रसाद शर्मा ने  किया है। इसके पूर्व अटल जी की ‘मेरी इक्यावन कविताएं’ संग्रह प्रकाशित हुआ था। इस बहुचर्चित काव्य-संग्रह का लोकार्पण 13 अक्तूबर 1995 को नई दिल्ली में देश के पूर्व प्रधानमन्त्रा पी. वी. नरसिंहराव ने सुप्रसिद्ध कवि शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ की उपस्थिति में किया था। अटल जी की इक्यावन कविताओं का चयन व सम्पादन डॉ. चन्द्रिकाप्रसाद शर्मा ने ही किया था। पुस्तक के नाम के अनुसार इसमें अटलजी की इक्यावन कविताएं संकलित हैं जिनमें उनके बहुआयामी व्यक्तित्व के दर्शन होते हैं।  ठीक इसी प्रकार ‘न दैन्यं न पलायनम्’ में संग्रहीत कविताएं अटल बिहारी वाजपेयी के विविध मनोभावों से परिचित कराती हैं। ‘न दैन्यं न पलायनम्’ की कविताओं के चयन के बारे में संग्रह के संपादक चन्द्रिका प्रसाद शर्मा ‘संपादक के शब्द’ के अंर्तगत लिखते हैं कि -‘उक्त कृति (अर्थात् ‘मेरी इक्यावन कविताएं’) के नाते मेरा उत्साह बढ़ना स्वाभाविक था। अस्तु मैंने उनकी अन्य कविताओं को इकट्ठा करना शुरू कर दिया। कविताओं को एकत्रित करके पांडुलिपि उन्हें दिखा कर प्रकाशन की अनुमति प्राप्त कर ली।’ 
Na Nainyam Na Palayanam - Atal Bihari Vajpeyee

चंद्रिका प्रसाद शर्मा जी का यह उत्साह स्वाभाविक था। यहां उल्लेखनीय है कि पाठकों के बीच ‘न दैन्यं न पलायनम्’ की लोकप्रियता का पता इसी बात से चल जाता है कि इसका पहला संस्करण सन् 1998 में प्रकाशित हुआ था और नवम्बर 2013 में इसका बारहवां संस्कारण प्रकाशित हुआ। अर्थात् जब इस संग्रह का पहला संस्करण प्रकाशित हुआ था उस समय अटल बिहारी वाजपेयी देश के प्रधानमंत्री के पद पर आसीन थे। किन्तु नवम्बर 2013 में वे किसी पद पर आसीन नहीं थे फिर भी बारहवां संस्करण प्रकाशित किए जाने की आवश्यकता अनुभव की गई।  
सक्रिय राजनीति से जुड़े व्यक्ति के साथ यह विडम्बना रहती है कि पदयुक्त होने पर उसकी प्रशंसा की सरिता कल-कल करती हुई बहती रहती है, वहीं जब वह पदच्युत हो जाता है तो प्रशंसा की यही सरिता सूख कर बंजर धरती में बदल जाती है। अटल बिहारी वाजपेयी की साहित्य सर्जना इसकी अपवाद है। उनकी कविताएं उनके प्रधानमंत्रित्वकाल में जितनी लोकप्रिय थीं उतनी ही लोकप्रिय आज भी हैं जबकि वे अब प्रधानमंत्री नहीं हैं। यही ईमानदार साहित्य सृजन की पहचान है कि वह साहित्यकार के नाम से नहीं पहचानी जाती वरन् साहित्यकार उस सृजन की विशिष्टता से पहचाना जाता है। 
   ‘न दैन्यं न पलायनम्’ में संग्रहीत कविताओं को चार भागों में निबद्ध किया गया है- आस्था के स्वर, चिन्तन के स्वर, आपातकाल के स्वर एवं विविध स्वर। इनके बाद परिशिष्ट है जिसमें अटल बिहारी वाजपेयी का जीवनपरिचय तथा एक साक्षात्कार शामिल गया है।
‘आस्था के स्वर’ में कुल 15 कविताएं हैं। इसमें पहली कविता है-
         मैंने जन्म नहीं मांगा था,
किन्तु मरण की मांग करूंगा।
जाने कितनी बार जिया हूं
जाने कितनी बार मरा हूं
जन्म-मरण के फेरे से मैं
इतना पहले नहीं डरा हूं 
अन्तहीन अंधियार ज्योति की
कब तक और तलाश करूंगा।
Bharat Ratna Atal Bihari Vajpeyee

इस कविता के माध्यम से कवि मानो उद्घोष कर रहा है कि सब कुछ व्यवस्थित कर लेने की आकांक्षा मे जन्मजन्मान्तर नहीं भटकना है, जो करना है इसी जन्म में करना है और अव्यवस्था के अंधकार में सुव्यवस्था की ज्योति प्रज्ज्वलित करना है।
इसी खण्ड की दूसरी कविता है-‘न दैन्यं न पलायनम्’। इस कविता में कवि ने ‘महाभारत’ के प्रसंग को आधार बनाया है। महाभारत का युद्ध आरम्भ होने से ठीक पहले, कुरुक्षेत्रा के युद्धस्थल में अर्जुन ठिठक जाते हैं कि सामने जो कौरव खड़े हैं वे भी तो अपने ही सगे-संबंधी हैं। वे सारथी बने कृष्ण से कहते हैं कि मैं स्वजनों पर शस्त्रा नहीं चला सकता। तब श्रीकृष्ण अर्जुन को ‘गीता’ का उपदेश देते हैं जिससे अर्जुन को बोध होता है कि गलत कार्य करने वाला सदा दण्डनीय होता है, भले ही वह सगा-संबंधी ही क्यों न हो! इसके बाद अर्जुन हुंकार भरता है और कौरवों को ललकारता है। इसी प्रसंग का स्मरण कराते हुए कवि आह्वान करता है कि -
आग्नेय परीक्षा की / इस घड़ी में -
आइए, अर्जुन की तरह
उद्घोष करें : ‘न दैन्यं न पलायनम्’।

अटल जी का अपनी मातृभाषा हिन्दी के प्रति अगाध प्रेम उनकी इन पांच कविताओं में खुल कर मुखर हुआ है। ये कविताएं हैं- ‘अपने घर की दासी’,‘विश्व-भाषा का सपना’,‘चले जब हिन्दी घर में’, ‘विश्व हिन्दी सम्मेलन’, ‘गूंजी हिन्दी विश्व में’। देश में हिन्दी की दुर्दशा पर कटाक्ष करते हुए कवि ने लिखा है-
बनने चली विश्व भाषा जो, अपने घर में दासी
सिंहासन पर अंग्रेजी है,   लखकर दुनिया हांसी
लखकर दुनिया हांसी,   हिन्दीदां बनते चपरासी
अफसर सारे अंग्रेजीमय,  अवधी हों या मदरासी
                     (अपने घर की दासी)
अटल जी ने कई विश्व हिन्दी सम्मेलनों में भाग लिया। वहां उन्होंने देखा कि हिन्दी के प्रति हिन्दी भाषियों द्वारा जो चिन्ता जताई जा रही थी, वह हिन्दी में न हो कर अंग्रेजी में थी। और, यही अंग्रेजी प्रेम उन्हें हर दिन भारत में भी देखने को मिलता रहा। हिन्दी की इस उपेक्षा को देख कर अटल जी का कवि मन व्यथित हो उठा और तब उन्होंने ये पंक्तियां लिखीं -
कह कैदी कविराय
चले जब हिन्दी घर में
तब बेचारी पूछी जाए दुनिया भर में
                  (चले जब हिन्दी घर में)
भारत के विदेश मंत्रा के रूप में राष्ट्रसंघ के अधिवेशन में 04 अक्टूबर 1977 को अटल जी ने हिन्दी में भाषण दे कर हिन्दी को विशेष मान दिलाया। ठीक इसके बाद उन्होंने यह छंद रचा-
गूंजी हिन्दी विश्व में, स्वप्न हुआ साकार
राष्ट्रसंघ के मंच से,  हिन्दी का जयकार
हिन्दी का जयकार, हिन्द हिन्दी में बोला
देख स्वभाषा प्रेम, विश्व अचरज से डोला
                                   (गूंजी हिन्दी विश्व मेंं)
संग्रह के दूसरे खण्ड ‘चिन्तन के स्वर’ में युगबोध एवं राजनीतिक ह्रास के प्रति चिन्ता जताती कविताएं हैं। जैसे-‘फंदा कसता ही जाता है’, ‘युगबोध’, ‘प्रेरणा की बेला’, ‘वेदना’, ‘दो चतुष्पदी’, ‘सत्य से नाता तोड़ा’, ‘यह है नया स्वराज’, ‘वाटरगेट’, ‘हाथों को मलते’ और ‘पद ने जकड़ा’।
‘सत्य से नाता तोड़ा’ कविता राजनीति के अवसरवादी स्वरूप का बेझिझक वर्णन करती है। अवसरवादिता के कारण ही राजनीति के परिसर में चाटुकारों की भीड़ लगी रहती है। जिनमें चाटुकारिता में डूबे साहित्यकार भी पाए जाते हैं। ऐसे लोगों को ‘बिन हड्डी की रीढ़’ के सम्बोधन से कवि ने कटाक्ष किया है।
कवि मिलना मुश्क़िल हुआ, भांड़ों की है भीड़
ठकुरसुहाती कह रहे,     बिन हड्डी की रीढ़
बिन हड्डी की रीढ़,     सत्य से नाता तोड़ा
सत्ता की सुन्दरी,       नचाती ले कर कोड़ा

अटल जी ने ‘कैदी कविराय’ के रूप में कई कविताएं लिखीं। संग्रह के तीसरे खण्ड ‘आपातकाल के स्वर’ में वे कविताएं हैं जो अटल जी ने आपातकाल के अपने अनुभवों को सहेजते हुए रची थीं। इन कविताओं में जेल के अनुभव पर भी कविता है। इन्हीं में ‘कार्ड की महिमा’ शीर्षक कविता अपने आप में अनूठी और रोचक कविता है। इसमें कवि ने पोस्टकार्ड को संवाद-संचार का सर्वोत्तम साधन माना है। कवि के अनुसार राशन, शासन, शादी और व्याधि के साथ ही सेंसर किए जाने की दृष्टि से भी सरल, सहज माध्यम है।
पोस्टकार्ड में गुण बहुत, सदा डालिए कार्ड
कीमत कम सेंसर सरल, वक़्त बड़ा है हार्ड
वक़्त बड़ा है हार्ड, सम्हल कर चलना भैया
बड़े-बड़ों की  फूंक  सरकती  देख  सिपैया
कह कैदी कविराय,   कार्ड की महिमा पूरी
राशन, शासन, शादी,  व्याधी, कार्ड जरूरी।

संग्रह का चौथा खण्ड ‘विविध स्वर’ है। इसमें ‘चोर-सिपाही’, ‘मंत्रापद तभी सफल’, ‘दीवाली’, ‘पेंशन का बिल’, ‘लटका चमगादड़’ आदि विविध भाव की कविताएं हैं। जेल के अनुभव को रजनीगंधा के माध्यम से कुछ इस तरह व्यक्त किया है कवि ने -
कहु सजनी! रजनी कहां ?  अंधियारे में चूर
एक बरस में ढह गया,     चेहरे पर से नूर
चेहरे पर से नूर,      दूर दिल्ली दिखती है
नियति निगोड़ी कभी, कथा उलटी लिखती है
कह कैदी  कविराय  सूखती  रजनी  गंधा
राजनीति  का  पड़ता है  जब उल्टा फंदा।

संग्रह के अंत में परिशिष्ट के अंतर्गत अटल जी का संक्षिप्त परिचय है जिसमें उनके बाल्यकाल, शिक्षा और राजनीतिक यात्रा के साथ-साथ साहित्य की यात्रा की भी जानकारी दी गई है। परिचय के उपरान्त अटल जी का एक साक्षात्कार दिया गया है जो उनके साहित्य प्रेम और साहित्य अध्ययन, सृजन की जानकारी की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। इस साक्षात्कार से पता चलता है कि उन्होंने ‘रामचरित मानस’ से ले कर कवि ‘नवीन’ और ‘दिनकर’ की कविताएं पढ़ीं। वृन्दावनलाल वर्मा का उपन्यास ‘झांसी की रानी’ ने उन्हें जितना प्रभावित किया, उतना ही अज्ञेय के उपन्यास ‘शेखर एक जीवनी’ ने प्रभावित किया। उन्होंने तस्लीमा नसरीन के लेखन, विशेष रूप से उनकी पुस्तक ‘लज्जा’ को भी पढ़ा और सराहा।
अटल जी के साक्षात्कार में दो प्रश्नों के उत्तर बड़ा ही समसामयिक महत्व रखते हैंः-
पहला प्रश्न है -‘साहित्यकार से आप क्या अपेक्षा करते हैं?’
अटल जी कहते हैं कि -‘वर्तमान में ऐसे साहित्य की आवश्यकता है जो लोगों में राष्ट्र के प्रति सच्चे कर्त्तव्यबोध को उत्पन्न करे। साहित्यकार को पहले अपने प्रति सच्चा होना चाहिए, बाद में उसे समाज के प्रतिअपने दायित्व का सही अर्थों में निर्वाह करना चाहिए। वह वर्तमान को ले कर चले, किन्तु आने वाले कल की चिन्ता जरूर करे।’
दूसरा प्रश्न है-‘साहित्यकार को राजनीति से कितना सरोकार रखना चाहिए?’
इसके उत्तर में अटल जी कहते हैं कि -‘साहित्य और राजनीति के कोई अलग-अलग खाने नहीं हैं। जो राजनीति में रुचि लेता है वह साहित्य के लिए समय नहीं निकाल पाता और साहित्यकार राजनीति के लिए समय नहीं दे पाता। किन्तु कुछ लोग ऐसे हैं जो दोनों के लिए समय देते हैं। वे वंदनीय हैं।’
अटल जी आगे कहते हैं कि -‘आज राजनीतिज्ञ साहित्य, संगीत और कला से दूर रहने लगे हैं। इसी से उनमें मानवीय संवेदना का स्रोत सूख-सा गया है।’
पुस्तक ‘न दैन्यं न पलायनम्’ में संग्रहीत अटल बिहारी वाजपेयी की कविताओं को पढ़ कर यह विश्वासपूर्वक कहा जा सकता है कि वे प्रखर संवेदना के कवि हैं। उनकी संवेदना उनके जीवन अनुभवों और बौद्धिकता से अनुशासित रहती है। जिससे उनकी कविताओं में एक विशिष्ट सौंदर्यबोध निहित है। अटल जी की काव्य-भाषा सरल, सहज एवं नैसर्गिक है। भाषाई क्लीष्टता से दूर आसानी से समझ में आ जाने वाली कविताएं हैं। इस संग्रह में संग्रहीत कविताएं उनके काव्य-भाव आत्मबोध, युगबोध, प्रखर राष्ट्रीयता एवं मानवता बोध से रची-बसी हैं। अटल जी के अपने जीवन अनुभवों से उपजी कविताओं के इस संग्रह की प्रासंगिकता हमेशा बनी रहेगी।
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