Saturday, September 1, 2018

सागर : साहित्य एवं चिंतन - 26 काव्यात्मक अभिव्यक्ति की धनी डॉ कुसुम अवस्थी ‘सुरभि’ - डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh

       स्थानीय दैनिक समाचार पत्र "आचरण" में प्रकाशित मेरा कॉलम "सागर साहित्य एवं चिंतन " । जिसमें इस बार मैंने लिखा है मेरे शहर सागर के कवयित्री  डॉ. कुसुम अवस्थी "सुरभि" पर आलेख। पढ़िए और जानिए मेरे शहर के साहित्यिक परिवेश को ....

सागर : साहित्य एवं चिंतन

काव्यात्मक अभिव्यक्ति की धनी डॉ कुसुम अवस्थी ‘सुरभि’
                 - डॉ. वर्षा सिंह
                     
एक स्त्री परिवार और समाज के ताने-बाने को जितनी बारीकी से समझ सकती है उतना पुरुष नहीं समझ सकता है। क्योंकि स्त्री परिवार के दायित्वों एवं संबंधों से इतनी सघनता से जुड़ी होती है कि वह परिवारों से मिल कर बनने वाले समाज की स्थिति एवं परिस्थिति को भली-भांति समझ सकती है। जबकि पुरुष जीवकोपार्जन में ही अपने जीवन की अधिकांश समय खर्च कर देता है। यह बात इतर है कि स्त्री सब कुछ समझते हुए भी इस पुरुष प्रधान समाज में कई बार स्वयं को असहाय पाती है। ऐसी स्त्रियों की पीड़ा को महिला साहित्यकारों ने सदैव अभिव्यक्ति प्रदान किया है। फिर चाहे वह साहित्य की कोई भी विधा हो। सागर में निवासरत डॉ. कुसुम अवस्थी ‘सुरभि’ एक ऐसी ही संवेदनशील कवयित्री हैं जिन्होंने समाज की विसंगतियों तथा स्त्री की पीड़ा को मुखरता से व्यक्त किया है।
छतरपुर की घुवारा तहसील के ग्राम बंगराखेड़ा में 01 अप्रेल 1969 को जन्मी कुसुम ‘सुरभि’ का परिवार आर्थिक रूप से सम्पन्न लम्बरदार ब्राम्हण परिवार था। किन्तु पारिवारिक विवादों ने मानो परिस्थितियों में ग्रहण लगा दिया। कुसुम ‘सुरभि’ अल्पायु में विवाहबंधन में बंधना पड़ा। एक पुत्री और एक पुत्र को जन्म देने के बाद भी उनका वैवाहिक जीवन सुखद नहीं रहा। तब कुसुम ‘सुरभि’ ने स्वावलम्बी बनने का निश्चय किया। उन्होंने समाजशास्त्र और हिन्दी में एम.ए. किया और हिन्दी में ही बरकतउल्ला विश्वविद्यालय भोपाल से पी.एचडी. की उपाधि प्राप्त की। उनके शोध का विषय था ‘मैत्रेयी पुष्पा के उपन्यासों में नारी विमर्श’ और उनके गाइड थे प्रसिद्ध साहित्यकार डॉ कमला प्रसाद। कुछ समय नौकरी करने के उपरांत वे राजनीति में सक्रिय हो गईं। इस दौरान उनका लेखन भी सतत चलता रहा।
Sagar Sahitya Chintan - 26 Kavyatmak Abhivyakti ki Dhani Dr Kusum Awasthi 'Surabhi' - Dr Varsha Singh
डॉ. कुसुम ‘सुरभि’ तुकांत एवं अतुकांत कविताओं के माध्यम से अपनी भावनाओं को व्यक्त करती रहती हैं। उनकी कविताओं में संवेदनाओं के पतन पर तीखे कटाक्ष के साथ ही सामाजिक एवं राजनीतिक अव्यवस्थाओं पर व्यंग्य भी रहता है। उनकी ‘विध्वंस’ शीर्षक यह कविता की ये पंक्तियां देखें -
तैर जाते हवाओं में सियासी दुपट्टे
उछालते मंचों से जब/ जहरीले शब्द
शब्द/दैत्याकार लेने लगते
बरसात हो जाती खूनी
और अधिक तेजाबी
मनुष्य तब्दील होता
लाशों के ढेर में
      देश में कई लोग ऐसे भी हैं जो अपने पद और शक्ति का दुरुपयोग करते हैं तथा उस धन राशि को हजम कर जाते हैं जो विभिन्न विकास कार्यो के लिए आवंटित की जाती है। ऐसे लोगों का उद्देश्य होता है अपनी तिजोरी भरना, चाहे देश का विकास हो या न हो। ऐसे ही भ्रष्टाचारियों पर तंज कसते हुए डॉ. कुसुम ‘सुरभि’ लिखती हैं -
जितना खाया जाता
उससे / छक कर खाता
पलैर शिकारी कुत्ता।
फेंक देता कुछ जूठे टुकड़े
दुम हिलाते चमचों को
बड़े चाव से खकोल रहे
वे हड्डियां।
एक राहगीर वहां से गुजरता है
गुर्रा-गुर्रा कर डराते
जताते वे स्वामी भक्ति
विकास की तिजोरी पूरी
चर गए, चर गए
भ्रष्टाचारी/ विकास की तिजोरी चर गए, चर गए।
दायें से:- डॉ वर्षा सिंह, डॉ कुसुम अवस्थी 'सुरभि', निर्मल सम्मान से सम्मानित डॉ (सुश्री) शरद सिंह, डॉ. आचार्य, डॉ. सीरोठिया, सुशील तिवारी आदि

पर्यावरण जीवन का पर्याय होता है। जल, जंगल, जमीन से ही पर्यावरण का संतुलन बना रहता है। एक स्वस्थ संतुलित पर्यावरण में ही स्वस्थ जीवन का सृजन और विकास संभव है। इस संदर्भ में पेड़ों की अर्थवत्ता को नकारा नहीं जा सकता है। ‘होता है पेड़ अर्थवान’ शीर्षक कविता में डॉ. कुसुम ‘सुरभि’ ने पेड़ों की महत्ता को इन शब्दों में व्यक्त किया है -
बनते हैं घोंसले
होता है सृजन
सघन छांव बन
थके श्रमित राही को
देना पल भर विश्राम
फलना, फूलना/ खुद में होना पूर्ण
पातों, शाखों से झूमना
देना वायु प्राण
प्राणों-प्राणों में संचरित हो कर
बन जाना प्राण
होता है पेड़ अपने में अर्थवान
बायें से:- डॉ. कुसुम अवस्थी सुरभि, डॉ. (सुश्री) शरद सिंह एवं डॉ. वर्षा सिंह

सागर नगर का प्रत्येक जन दानवीर डॉ हरी सिंह गौर के प्रति असीम श्रद्धा भाव रखता है। डॉ गौर के द्वारा स्थापित विश्वविद्यालय शिक्षा का विश्वप्रसिद्ध केन्द्र होने के साथ ही युवाओं के लिए जीवन शिक्षा का केन्द्र भी है, जहां वे युवावस्था के उत्साह एवं उल्लास के साथ जीवन के विभिन्न अनुभवों से गुजरते है। यही अनुभव उनके भावी जीवन की नींव-शिला का काम करते हैं। कुछ इसी तरह का भाव डॉ. कुसुम ‘सुरभि’ ने अपने गीत ‘गौर को श्रद्धासुमन’ में लिपिबद्ध किए हैं -
गीत सृजन के गा-गा कर, वादियां गुंजित रहती हैं
गौर समाधि के आंगन में तरुणाई मचला करती है।
सब तरुण तेज, पुंजमय,स्वप्न नव-नव पाल रहे
हंसते बलखाते नव यौवन, गुरुकुल में खुद को ढाल रहे।
बंधन की दीवारों से परियां, मुक्त यहां विचरा करती हैं।
गौर समाधि के आंगन में तरुणाई मचला करती है।
डॉ. कुसुम ‘सुरभि’ अपनी काव्यात्मक प्रतिभा से सागर की साहित्यिक सम्पदा में श्रीवृद्धि करती हुई जिस प्रकार अपना योगदान दे रही हैं, वह प्रशंसनीय है।
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( दैनिक, आचरण  दि. 31.08.2018)
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