Wednesday, September 5, 2018

सागर : साहित्य एवं चिंतन - 27 दर्शन और सामाजिक चिन्तन के कवि वीरेन्द्र प्रधान - डॉ. वर्षा सिंह

Dr Varsha Singh

       स्थानीय दैनिक समाचार पत्र "आचरण" में प्रकाशित मेरा कॉलम "सागर साहित्य एवं चिंतन " । जिसमें इस बार मैंने लिखा है मेरे शहर सागर के कवि वीरेन्द्र प्रधान पर आलेख। पढ़िए और जानिए मेरे शहर के साहित्यिक परिवेश को ....

 सागर : साहित्य एवं चिंतन

दर्शन और सामाजिक चिन्तन के कवि वीरेन्द्र प्रधान
                     - डॉ. वर्षा सिंह
                     
जीवन में ठहराव नहीं अनिवार्य सदा ही चलो
ठहर - ठहर कर हर मुकाम पर खुद को ही मत छलो
बेशक मंजिल से पूर्व जरूरी हैं पड़ाव जीवन में
किन्तु उसे पा लेने तक रुक जाने का नाम  लो

ये पंक्तियां हैं कवि वीरेन्द्र प्रधान की। इन पंक्तियों की दार्शनिकता जिस प्रकार ‘‘चरैवेति-चरैवेति’’ का संदेश देती हैं, वह जीवन में लक्ष्य को प्राप्त करने का उत्साह बनाए रखने के लिए जरूरी है। लोग अपने जीवन को सुखद बनाने के लिए विभिन्न प्रकार का जोड़-घटाना करते रहते हैं, जिसके फलस्वरूप जीवन शुष्क गणितीय समीकरण बन कर रह जाता है। किन्तु कवि वीरेन्द्र प्रधान ने जीवन के गणित में साहित्य को स्थान दे कर जीवन को देखने का एक दार्शनिक दृष्टिकोण अपनाया है।
06 अगस्त 1956 को सागर में जन्में वीरेन्द्र प्रधान ने अपने माता-पिता से संघर्षशीलता की प्रेरणा प्राप्त की। एक लगनशील छात्र के रूप में सन् 1979 में सागर विश्वविद्यालय से गणित में एम.एससी. की उपाधि अर्जित की। उच्च शिक्षा पूर्ण करने के बाद सागर नगर के ही सेंट फ्रांसिस स्कूल में 03 वर्ष अध्यापन कार्य किया। इसके बाद सन् 1982 में भारतीय स्टेट बैंक में लिपिक के पद पर नियुक्ति हो गई। अपने 37 वर्षीय सेवाकाल में विभिन्न पदों पर रहते हुए सन् 2016 में उपप्रबंधक के रूप में सेवानिवृत्त हुए। इस दौरान अपने पारिवारिक दायित्वों और नौकरी के बीच संतुलन बनाए रखते हुए साहित्य सेवा के मार्ग को भी अपना लिया। वीरेन्द्र प्रधान अपनी तुकांत एवं अतुकांत कविताओं के माध्यम से अपनी भावनाएं व्यक्त करते रहते हैं। उनकी कविताओं में दार्शनिक बोध स्पष्ट रूप से दिखई देता है। उनकी ये कविता देखें -
सफर में करीब किसी की सांझ है तो
किसी को देखना बाकी अभी भोर है।
जन्म और मृत्यु के बीच मेरे मीत
बस बांधती कुछ सांसों की डोर है।
कुछ नए हैं तो कुछ हैं पुराने साथी
जो भी है वह सफर की ओर है।
बिखरा हुआ सामान भी न समेट सका
और सफर भी अब समापन की ओर है।
Sagar Sahitya Chintan - 27 Darshan Aur Samajik Chintan ke kavi Virendra Pradhan - Dr Varsha Singh

आज के उपभोक्तावादी समय में आस्थाओं की टूटन रचनाकारों की पीड़ा का सबसे बड़ा कारण है। आस्था ही वह तत्व है, जो मनुष्य में मनुष्यत्व को बचाए रखती है। लेकिन जब संबंधों में नफा-नुक्सान को वरीयता दी जाने लगे तो वहां आस्थाओं का टूटना सुनिश्चित हो जाता है। वर्तमान में आस्थाएं किस तरह टूट रहीं हैं इसका बड़ा मार्मिक उपमान वीरेन्द्र प्रधान की इस कविता में देखा जा सकता है-
उम्रदराज हो जर्जर होते
शरीर के अंगों की तरह
टूट रही आस्थाएं
खण्डित प्रतिमाओं सी
खड़ी हैं/पड़ी हैं
अथवा उद्यत हैं
जमींदोज हो जाने को

वीरेन्द्र प्रधान की कुछ कविताओं में सूफियाना रंग भी दिखता है। उन कविताओं में वे आत्मा को एक समर्पित तत्व के रूप में देखते हैं। ‘मैं तो प्रेम में मस्त’ शीर्षक कविता में कवि के सूफियाना लहजे को देखा जा सकता है-
कान्हा के रंग में मैं रंगी
है शेष रंग बेकार
अपने अंतर में मैं बसी
मोहे व्यर्थ सभी घर-बार
प्रीत आत्मा में जगी
मुझे भावे न संसार
बनती मैं मीरा कभी
और कभी रसखान
मैं प्रेम के मद में मस्त हूं
मोहे लागे एक समान -
रस या विष का पान
बायें से:- वीरेंद्र प्रधान, डॉ. वर्षा सिंह एवं डॉ. सीरोठिया

‘‘ यत्र नास्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः ’’ अर्थात् जहां नारी का सम्मान होता है वहां देवता का वास होता है। क्योंकि नारी परिवार और समाज को धैर्य और कर्मठता का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए प्रत्येक पीढ़ी को कर्तव्यनिष्ठ बनने का संदेश देती है। अपने अधिकारों के लिए उलाहना दिए बिना परिवार की सेवा में लगी रहती है। नारी को समर्पित अपनी इस कविता में वीरेन्द्र प्रधान ने नारी के प्रति अपनी श्रद्धा को व्यक्त किया है-
बेटी, बहन और बीबी के बाद
बा बन कर पूर्णता को प्राप्त
होती है नारी
जन्म के साथ से
सुबह से शाम तक
निपटाती ढेरों जवाबदारी
अधिकारों का भले ही
टोटा हो उसे
कर्तव्यों के भार से
रहती है सदा भारी
नमन तुझे बार-बार
हे नारी ! हे नारी !

मां सिर्फ जननी नहीं, परिवार और संस्कारों की रीढ़ होती है। मां को बच्चे की प्रथम शिक्षिका माना गया है। अपनी लोरियों के द्वारा भी मां जहां कल्पनाओं का सुन्दर संसार रचती है, वहीं यथर्थ की कठोरता से भी परिचित कराती रहती है। मां का ममत्व हर संतान पर एक ऐसा ऋण होता है जिससे वह कभी भी उऋण नहीं हो सकता। इस भावना को वीरेन्द्र प्रधान ने ‘मां’ शीर्षक अपनी कविता में बड़े ही सुन्दर ढंग से व्यक्त किया है-
मां, तेरा मुझ पर है कर्ज बहुत
अनगिनत जन्म ले कर भी
उसे न चुका पाउंगा मैं
गर्भ से ले कर जन्म तक
और जन्म के बाद /अपार कष्ट सह
तूने जो परवरिश की
उसे न भूल पाउंगा मैं
बुझ रही पीढ़ी के प्रति /पूर्ण सम्मान के साथ
हो सकता है दे सकूं
अगली  पीढ़ी को
उसका अंश मात्र भी
जो तूने मुझे दिया /समय-समय पर
लोरियों की शक्ल में /घूंटियों के रूप में
या रहीम, रसखान ओर कबीर की
शिक्षाओं के माध्यम से
भावना यही है कि
गांठ में बांध लूं तेरी हर सीख

समाज में रहने वाला व्यक्ति सामाजिक सरोकारों से दूर नहीं रह सकता है। यदि समाज में बुराईयां आने लगती हैं तो रचनाकार अव्यवस्था देख कर घबराता नहीं है वरन् उसका इस बात पर विश्वास बना रहता है कि हर बुराई का एक न एक दिन अंत अवश्य होता है। ठीक यही भाव कवि प्रधान की इन पंक्तियों में मुखरित हैं-
दुर्योधन, दुश्शासन जितने भी हैं सब आहत होंगे
जीवित भी जो रहे शीघ्र ही वे विगत होंगे
सुधरेंगे या टूटेंगे या सत् कर्मों में रत होंगे
अतातायी अंततः सब सच्चों के सम्मुख नत होंगे

वीरेन्द्र प्रधान ने तुकांत रचनाओं को भी अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया है। उनकी तुकांत रचनाओं में कभी जीवन दर्शन तो कभी असंवेदनशीलता पर कटाक्ष दिखाई देता है। उनके शब्दों में दुरूहता नहीं है। वे अपनी तुकांत रचनाओं में सीधी और स्पष्ट बात करते हैं-
यार तुम सवाल करो मैं तुम्हें जवाब दूंगा
प्यास जिसमें तुम्हारी मिटे मैं तुम्हें वो आब दूंगा
जुगनुओं की चमक में रातें गुजारने वालो
कभी जो न डूबे मैं वो माहताब दूंगा
खाली पेट रह करवटें बदलने वालो
मैं तुम्हें धी लगी रोटी का ख्वाब दूंगा
सबकी सब मुफलिसी ओर सभी बदहाली
जिसमें ढंक जाएं वो नकाब दूंगा

वीरेन्द्र प्रधान सागर नगर के एक ऐसे कवि हैं जो साहित्यिक परिदृश्य में नेपथ्य में रह कर भी अपनी रचनात्मक उपस्थिति का बोध कराते रहते हैं।

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( दैनिक, आचरण  दि. 05.09.2018)
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