Sunday, January 6, 2019

सागर : साहित्य एवं चिंतन 39... डॉ. वंदना गुप्ता : एक उत्साही कवयित्री - डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh

       स्थानीय दैनिक समाचार पत्र "आचरण" में प्रकाशित मेरा कॉलम "सागर साहित्य एवं चिंतन " । जिसमें इस बार मैंने लिखा है मेरे शहर सागर की कवयित्री डॉ. वंदना गुप्ता पर आलेख। पढ़िए और जानिए मेरे शहर के साहित्यिक परिवेश को ....

सागर : साहित्य एवं चिंतन

डॉ. वंदना गुप्ता : एक उत्साही कवयित्री
                   - डॉ. वर्षा सिंह
                       
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परिचय :- डॉ. वंदना गुप्ता
जन्म :-   05 दिसम्बर 1966
जन्म स्थान :- इलाहाबाद (उ.प्र.)
शिक्षा :- विज्ञान स्नातक (इलाहाबाद वि.वि.), बी.ए.एम.एस.(स्टेट आयुर्वेदिक कॉलेज वाराणसी),
डी.वाई.एससी. (बनारस हिन्दू वि.वि.) तथा शास्त्रीय संगीत में विशारद
लेखन विधा :- पद्य
प्रकाशन :- गीत एवं कविता की पांच पुस्तकें
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         समाज, राजनीति, चिकित्सा और साहित्य चारों अलग-अलग आयाम होते हुए भी परस्पर एक दूसरे के पूरक के रूप में विद्यमान रहते हैं। इन चारों क्षेत्रों में एक साथ दखल रखने वाला अपने-आप में एक उल्लेखनीय व्यक्तित्व कहा जा सकता है। सागर नगर में स्त्रीरोग चिकित्सक एवं योग विशेषज्ञ के रूप में ख्याति प्राप्त डॉ. वंदना गुप्ता बहुमुखी प्रतिभा की धनी हैं। उनकी जितनी रुचि चिकित्सासेवा में है, उतनी ही रुचि समाजसेवा, साहित्यसेवा और राजनीति में भी हैं। यद्यपि वे राजनीति को समाजसेवा के माध्यम के रूप में देखती हैं और इसी दृष्टिकोण से सन् 2018 के विधानसभा चुनाव में निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में चुनाव लड़ चुकी हैं। डॉ. वंदना गुप्ता के पति डॉ. रामानुज गुप्ता शिशुरोग विशेषज्ञ हैं और वे स्वयं शिवराम जनकल्याण सेवासमिति के संरक्षक हैं तथा शिशुरोग विशेषज्ञ संघ मध्यप्रदेश एवं इंडियन मेडिकल एसोसिएशन के अध्यक्ष रह चुके हैं।
        05 दिसंबर 1066 को जन्मीं डॉ. वंदना गुप्ता को समाजसेवा की भावना अपने माता-पिता से विरासत में मिली है। उनके पिता ओमप्रकाश गुपता जो कि इलाहाबाद में वरिष्ठ अधिवक्ता हैं, रोटेरियन हैं तथा मां विजयलक्ष्मी गुप्ता इनव्हीलर क्लब की सदस्य हैं। डॉ. वंदना की समाजसेवा की भावना को देखते हुए उन्हें सागर केन्टोन्मेंट बोर्ड के स्वच्छता मिशन का ब्रांड एम्बेस्डर बनाया गया। परिवार परामर्श केन्द्र महिला थाना, आंतरिक परिवाद समिति में वरिष्ठ परामर्शदाता के साथ ही भ्रूणलिंग परीक्षण निरोधक कानून बोर्ड की सदस्यता का निर्वहन भी कर रही हैं। समाजसेवा के लिए उन्हें प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की विभिन्न संस्थाओं सम्मानित किया जा चुका है। दर्जनों सामाजिक संस्थाओं से जुड़े रहते हुए समाज को निकट से जानने का जो उन्हें अवसर मिलता है, उन अनुभवों को वे अपनी कविताओं में पिरो कर साहित्य के रूप में ढालती रहती हैं।
सागर साहित्य एवं चिंतन - डॉ. वर्षा सिंह
         डॉ. वंदना की अब तक पांच काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं- ‘कुछ नया करना है’,‘अपना बचपन बड़ा निराला’, जीवन दर्शन आनंद’, ‘विधवा अभिशाप नहीं’ तथा ‘गीत है जीवन गाते जाना’। उनकी कविताओं में समाज के प्रति चिंता और राष्ट्रप्रेम की भावना को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। ‘कुछ नया करना है’ संग्रह में संग्रहीत उनकी यह कविता देखिए-
परतंत्रता की बेड़ी में जकड़ी, जब भारत माता कराह रही थी
अत्याचारों की पराकाष्ठा से, मानवता थर्रा रही थी
निज राष्ट्रभक्त वीरों ने तब, तन, मन, धन न्योछावर कर
आजादी के लिए लड़े वे, निज प्राण हथेली पर ले कर
बहू, बेटियों, मां, बहनों ने भी खींची म्यानों से तलवारें
जंगे आजादी में कूद पड़ीं वे, देश को फिर स्वाभिमान दिलाने
हंसते हंसते वो वीर दीवाने, फांसी फंदों पर झूल गए
हाय प्रभु दुर्भाग्य ये कैसा, हम आज उन्हीं को भूल गए
कर्त्तव्य यज्ञ की ज्वाला में, निज प्राणों की आहुति दे दी
स्वरक्त से सिंचित मातृभूमि, नवपीढ़ी को अर्पित कर दी

          डॉ. वंदना के इसी संग्रह में उनकी एक और अनूठी कविता है जिसमें वे नेत्रदान का आह्वान करती हुई अपना भावनाओं को व्यक्त करती हैं-
दुनिया से जब जाएंगे, नेत्रदान कर जाएंगे
जीवन जिनका तिमिरयुक्त है, हम प्रकाश कर जाएंगे
यह दुनिया को दर्शाएंगे, दृष्टि महतव समझाएंगे
बन राहों का दीपक हम, रोशन जीवन कर जाएंगे
मर कर भी आशीष सुमन से, हम नित घर आंगन महकाएंगे
नवपीढ़ी के लिए दान की, कायम मिसाल कर जाएंगे

         मां प्रत्येक परिवार की धुरी होती है। परिवार के प्रत्येक सदस्य के प्रति वह जिस तरह अपने दायित्वों को निभाती है और अपनत्व प्रदान करती है, उससे परिवार एक संयुक्त इकाई के रूप में खड़ा रहता है। मां की आशीष ईश्वर की अनुकम्पा से भी बढ़ कर मानी गई है। इसी प्रकार प्रकृति से प्रदत्त तत्व ही जीवन का आधार बनते हैं। मां और प्रकृति में अद्भुत साम्य है। डॉ. वंदना गुप्ता भी ‘मां और प्रकृति’ शीर्षक अपनी कविता में मां के ममत्व की तुलना प्रकृति से करती हैं-
मां की आशीषों की वर्षा
हरियाली देती जीवन को
हरियाली है तो जीवन है
वर्षा का भी ये साधन है
मां और प्रकृति हैं मिलते
दोनों सृजन भाव को भरते
दोनों की छाया मिलने से
जीवन के हर घाव हैं भरते
दोनों हैं सम्मान हमारा
इन पर हम अभिमान करें
दोनों की सेवा तन-मन से
कर अपना कल्याण करें

        ‘‘गीत है जीवन गाते जाना’’ संग्रह की भूमिका लिखते हुए नगर के वरिष्ठ कवि निर्मलचंद ‘निर्मल’ ने टिप्पणी की है कि -‘‘(डॉ. वंदना गुप्ता की) ये रचनाएं कहीं युवाओं की प्रेरणास्रोत बनती हैं तो कहीं ममत्व की छाया प्रदान करती हैं तो कहीं नारी समाज के दर्द में डूब कर सामाजिक चेतना का केन्द्र बनती हैं।’’ इसी संग्रह की भूमिका लिखते हुए कवि डॉ. श्याम मनोहर सीरोठिया ने भी लिखा है कि -‘‘डॉ. वंदना गुप्ता जी अपनी बात बिना लाग लपेट के सीधी-सादी भाषा में कहने की सिद्धहस्त कवयित्री हैं। इसलिए व्यंजना, लक्षणा, वक्रोक्ति जैसी कविता की परम्परागत शैलियां उन्हें गूढ़ रचनाएं लिखने से बचाती हैं। डॉ. वंदना वह लिखती हैं जो सीधे-सीधे जन मानस को उद्वेलित कर सके।’’
           कवयित्री डॉ. वंदना के सृजन की इन विशेषताओं को दर्शाता उनके काव्य संग्रह ‘‘गीत है जीवन गाते जाना’’ का एक गीत उदाहरणार्थ यहां प्रस्तुत है-
चलो सृजन के दीप जलाएं
सकल विश्व को स्वर्ग बनाएं...
संस्कृति की पावन क्यारी में
जीवन आशा फुलवारी में
त्याग समर्पण के भावों संग
संस्कार के सुमन खिलाएं....
धूप-छांव के इस जीवन में
पीड़ित मानवता के हित में
स्वार्थयुक्त मानव जीवन में
फिर करुणा की जोत जलाए.....

          छंदबद्ध कविताएं अपने रचयिता से एक विशेष अनुशासन की मांग करती हैं। डॉ. वंदना ने दोहे लिखते हुए छांदासिक अनुशासन को समझा भी है और अपनाया भी है। उस पर जिस कवयित्री की संवेदनाएं जीवन के उतार-चढ़ावों से गहनता से जुड़ी हों और उनका समय-समय पर आकलन करती रहती हों, उसकी कलम से दार्शनिक दोहों का फूट पड़ना स्वाभाविक है। डॉ. वंदना गुप्ता जीवन दर्शन पर जो दोहे लिखे हैं वे एक संग्रह ‘जीवन दर्शन आनंद मनका’ के रूप में संग्रहीत हैं। ये दोहे जीवन के दार्शनिक पक्ष को बखूबी उभारते हैं-
जीवनदर्शन में भरा, है जीवन का सार।
जो इसमें डूबे रहे, वो हो भव से पार।।
सत्य नाम की बेल को जो जन सींचे धाय।
बन कर वो धर्मात्मा, उपकारी कहलाय।।
पराशक्ति आराधना, परमशक्ति अनुभूत।
तम हर सब को करे, आनन्दानुभूत ।।
अनासक्त रह भोग ही, पूर्ण योग कहलाय।
पूरण से हम आय हैं, पूर्ण ओर ही जाय।।
पंच तत्व की देह में अंश प्रकृति का जान।
चेतन आत्म स्वरूप जो, अंश ईश का मान।।

           ऐसा नहीं है कि डॉ. वंदना गुप्ता ने सामाजिक और दार्शनिक कविताएं ही लिखी हों। उन्होंने बाल कविताएं भी लिखी हैं। उनके बालगीत संग्रह ‘‘अपना बचपन बड़ा निराला’’ में बालमन पर आधारित बहुत सुंदर कविताएं हैं। एक कविता है-‘मां ने पालक साग खरीदी’। इस कविता में शब्दों की सादगी और बालअभिव्यक्ति का लालित्य देखते ही बनता है-
यब्जी का इेला है आया
ताजी-ताजी सब्जी लाया
आलू, गोभी, प्याज, टमाटर
भिंडी, ककड़ी वो है लाया
मां ने पालक साग खरीदी
साथ में धनिया, अदरक, अरवी
पालक साग रोज जो खाए
खून कमी न उसे सताए

       सहज व्यवहार, मुस्कुराहट सहेजे मृदुल स्वभाव और काव्य के प्रति सजग रहने वाली एक उत्साही कवयित्री के रूप में डॉ वंदना गुप्ता की वैयक्तिक ऊर्जा को उनकी विशिष्टता के रूप में रेखांकित किया जा सकता है।
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( दैनिक, आचरण  दि. 04.01.2019)
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