Saturday, August 15, 2020

1943 में हमें मार सकता था सिपाही | डाॅ विद्यावती ‘‘मालविका’’ | आज़ादी के संघर्ष से जुड़ा संस्मरण | डॉ. वर्षा सिंह



🇮🇳 स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं  🇮🇳

प्रिय मित्रों, आज "पत्रिका" समाचारपत्र में मेरी माताजी डॉ. विद्यावती "मालविका" जी का आज़ादी के संघर्ष से जुड़ा संस्मरण प्रकाशित हुआ है।
हार्दिक धन्यवाद "पत्रिका" 🇮🇳🙏🇮🇳

1943 में हमें मार सकता था सिपाही 

             - डाॅ विद्यावती ‘‘मालविका’’, वरिष्ठ साहित्यकार, सागर
        वह सन् 1943 का समय था। उस समय मेरी उम्र लगभग 14-15 साल थी। उन दिनों हम लोग राजनांदगांव (जो अब छग में है) में रह रहे थे। वहां मेरे पिताजी ठाकुर श्यामचरण सिंह स्कूल में हेडमास्टर थे। पिताजी वहां महात्मा गांधी का मद्यनिषेध अभियान भी चला रहे थे। वे शराबबंदी के लिए घर-घर जाते और छोटी-छोटी सभाएं करते। एक दिन पिताजी के साथ मैं स्कूल से लौट रही थी। पिताजी को नशाबंदी की एक मीटिंग में जाना था। हमें पता नहीं था कि अचानक किसी झड़प के कारण कफर््यू लगा दिया गया था। जैसे ही हम लोग मुख्य सड़क पर आए वैसे ही एक सिपाही ने हमें ललकारा और वापस लौट जाने की चेतावनी दी। पिताजी उससे नहीं डरे और उन्होंने कहा-‘‘मैं तो स्कूल से वापस ही लौट रहा हूं। मैं हेडमास्टर हूं। ये मेरी बेटी है। मुझे इसे घर पहुंचाना है।’’ 
‘‘पहुंचाने से मतलब? क्या तुम घर से फिर बाहर निकलोगे? यदि ऐसा किया तो मैं तुम्हें गोली मार दूंगा।’’ सिपाही बेअदबी से तू-तड़ाक के लहज़े में बोला। 
पिताजी ने भी उसे डपटते हुए जवाब दिया,‘‘हां, मैं निकलूंगा। चाहे तुम मुझे गोली मार दो। क्योंकि यदि मैं नहीं निकला तो जो पांच लोग आज नशाबंदी की शपथ लेने वाले हैं, उनका मन बदल जाएगा और फिर पांच घर बरबाद हो जाएंगे।’’
      पिताजी की बात सुन कर वह सिपाही चकित रह गया। वह अंग्रेजी शासन का भारतीय सिपाही था। उसे ऐसे उत्तर की उम्मींद नहीं थी। उसने कहा,‘‘आप तो गांधी जैसे बोल रहे हैं।’’ वह ‘तुम’ से ‘आप’ में आ गया। तब पिताजी ने उससे कहा,‘‘हम सब के भीतर एक महात्मा गांधी होते हंै, बस, उन्हें पहचानने की देर होती है। तुम्हारे भीतर भी हैं तभी तो तुमने मुझे पहले चेतावनी दी, देखते ही गोली नहीं मार दी। जबकि आजकल देखते ही गोली मार देने के आदेश रहते हैं।’’
      यह सुन कर सिपाही सोच में पड़ गया फिर बोला,‘‘ठीक है, आप जा सकते हैं लेकिन बेटी को पहले सुरक्षित घर पहुंचाइए।’’ उसकी यह बात सुन कर पिताजी मुस्कुराए और बोले,‘‘तुम सच्चे भारतीय हो।’’ और फिर मैं और पिताजी जब घर की ओर चल पड़े तो उन्होंने मुझसे कहा,‘‘देखो विद्या, अब हम भारतीय एक-दूसरे की बातें समझने लगे हैं। देखना हम जल्दी ही स्वतंत्रता प्राप्त कर लेंगे। यह गांधीजी के व्यक्तित्व का प्रभाव है। इसे हमेशा याद रखना।’’ और इस घटना के लगभग चार साल बाद 15 अगस्त को देश को गुलामी से आज़ादी मिल ही गई।


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10 comments:

  1. प्रेरक संस्मरण । प्रस्तुति के लिए आभार । स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं ।

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  2. बहुत सुन्दर सृजन ! स्वतन्त्रता दिवस की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं वर्षा जी ।

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    1. हार्दिक धन्यवाद 🙏

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  3. बहुत अच्छी पोस्ट ।स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ ।

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    1. शुक्रिया तहेदिल से 🙏

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  4. बहुत सुन्दर रचना

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  5. प्रेरक संस्मरण

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