Dr Varsha Singh |
स्थानीय दैनिक समाचार पत्र "आचरण" में प्रकाशित मेरा कॉलम "सागर साहित्य
एवं चिंतन " । जिसकी पहली कड़ी में है मेरे शहर सागर के वरिष्ठ "कवि
'निर्मल' के दोहों में प्रकृति और पर्यावरण " शीर्षक मेरा आलेख। पढ़िए और
मेरे शहर के साहित्यिक परिवेश को जानिए ....
सागर: साहित्य एवं चिंतन - 1
कवि ‘निर्मल’ के दोहों में प्रकृति और पर्यावरण
- डाॅ. वर्षा सिंह
कवि ‘निर्मल’ के दोहों में प्रकृति और पर्यावरण
- डाॅ. वर्षा सिंह
पर्यावरण हमारी पृथ्वी के अस्तित्व का आधार है। जब तक पर्यावरण अपने
संतुलित रूप में विद्यमान है तब तक पृथ्वी पर जीवन का क्रम सतत् रूप से
चलता रहेगा। प्रगति के नाम पर हमने अपने आवासीय क्षेत्रों का इतना विस्तार
किया कि हमारे गांव और शहर अपने प्रदूषणमय वातावरण के साथ वनक्षेत्रों पर
अतिक्रमण करते चले गए। परिणाम यह हुआ कि जंगल कटते चले जा रहे हैं, वन्यपशु
निराश्रित हो रहे हैं और हम कांक्रीट का मरुस्थल फैलाते चले जा रहे हैं।
पर्यावरण के इस असंतुलन के कारण ऋतुओं ने अपना समय बदल लिया है। बारिश का
समय कम हो गया है और तपन भरे सूखे का विस्तार होता जा रहा है। इक्कीसवीं
सदी के सरोकारों में यदि सबसे बड़ा कोई सरोकार है तो वह निश्चित रूप से वह
पर्यावरण ही है। बचपन से हम सुनते और गुनते आ रहे हैं कि जल ही जीवन है फिर
भी जल संरक्षण के प्रति हम इतने लापरवाह हो चले हैं कि कुंए, तालाब जैसे
जलस्रोत गंदे और उथले हो गए हैं और नदियां सूखने लगी हैं। सम्पूर्ण विश्व
आज निरन्तर बढ़ते ‘पर्यावरण-प्रदूषण की विभीषिका’ से संत्रस्त है। प्राकृतिक
संसाधनों के अंधाधुंध दोहन के कारण प्रकृतिक असंतुलन अपने चरमशिखर की ओर
बढ़ चला है। इसीलिए आज विश्व में पर्यावरण चिन्तन का प्रमुख बिन्दु बन गया
है।
Sagar Sahitya Chintan -1 - Kavi Nirmal Ke Doho me Prakriti aur Paryavaran - Dr Varsha Singh |
पर्यावरण की उपयोगिता उसके बढ़ते महत्व को सृजनकारों द्वारा विविध माध्यमों से रेखांकित किया जाता रहा हैं। कविता का सम्बन्ध चूंकि मानव हृदय से है इसलिए प्रकृति की सहचरी कविता अपने विविध रंग-रूपों में सदियों से रही है। दोहों में पर्यावरण चिन्ता आज के रचनाकार सम्भवतः इस लिए अधिकाधिक व्यक्त कर रहे हैं कि छोटा सा दोहा छन्द आदमी की स्मृति में सरलता से बस जाता है। कवि निर्मल चन्द ‘निर्मल’ अपने समय के एक गहनचिन्तनशील एवं सजग रचनाकार हैं। सन् 1931 की 06 मार्च को जन्में वरिष्ठ कवि ‘निर्मल’ अपने जीवन के दीर्घ अनुभवों के आधार पर सप्रमाण संवाद करते हैं।
कवि ‘निर्मल’ ने सही कहा है कि यदि वनस्पतियां नहीं होतीं तो औषधियां भी नहीं होतीं। ये वनस्पतियां ही हैं जो हमें जीवनरक्षक औषधियां प्रदान करती हैं।-
जड़ी-बूटियों ने दिया, औषधियों का ज्ञान।
जंगल देते हैं हमें आत्मशुद्धि वा ध्यान।।
जंगल देते हैं हमें आत्मशुद्धि वा ध्यान।।
वन पर्यावरण को संतुलन प्रदान करते हैं और यही वन अने जीवों को आश्रय भी
देते हैं। आज हम आए दिन ऐसे समाचार सुनते और पढ़ते रहते हैं कि फलां गांव
में तेंदुआ घुस आया तो फलां गांव में शेर ने किसी आदमी को मार डाला। यह
सोचने का विषय है कि वन्यपशु अपना आवास छोड़ कर गांवों की ओर क्यों रुख करते
हैं? एक बेघर, भूखा-प्यासा जीव कहीं तो जाएगा न। यदि वन नहीं रहेंगे तो
वन्य पशु-पक्षी कहां रहेंगे? यह चिन्ता कवि के मन को सालती है और यह दोहा
मुखर होता है-
मोर, पीहा, रीछ कपि, शेरों का आवास।
छेड़ें क्यों वन खण्ड को, पशुओं का मधुमास।।
मोर, पीहा, रीछ कपि, शेरों का आवास।
छेड़ें क्यों वन खण्ड को, पशुओं का मधुमास।।
कवि ‘निर्मल’ ने वनसंपादा की महत्ता को समझाने का बारम्बार प्रयास किया
है। वे चाहते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति प्रकृति के तत्वों के महत्व को समझे
जिससे वह अपने विनाशकारी कदम रोक सके। कवि ‘निर्मल’ याद दिलाते हैं कि -
बाग-बगीचों की हवा और नीम की छांव।
बरगद का आशीष है, पीपल प्रभु का ठांव।।
रही निकटता नीर से, मानव पशु की जाति।
स्थावर के प्राण भी सब प्राणों की भांति।।
बाग-बगीचों की हवा और नीम की छांव।
बरगद का आशीष है, पीपल प्रभु का ठांव।।
रही निकटता नीर से, मानव पशु की जाति।
स्थावर के प्राण भी सब प्राणों की भांति।।
कवि ‘निर्मल’ मात्र अतीत अथवा भावुकता के संदर्भों के साथ ही जंगल के व्यावहारिक महत्व को भी प्रमुखता से गिनाते हैं-
जंगल जल के स्रोत हैं, करना नहीं विनष्ट।
सूखी धरती निर्जला, सदा भोगती कष्ट।।
उदधि नीर जल जीव का, बहुविध है आवास।
इनके बिना अपूर्ण है, संसारी इतिहास।।
जंगल जल के स्रोत हैं, करना नहीं विनष्ट।
सूखी धरती निर्जला, सदा भोगती कष्ट।।
उदधि नीर जल जीव का, बहुविध है आवास।
इनके बिना अपूर्ण है, संसारी इतिहास।।
पर्वत, नदियां आदि भौगालिक सीमाएं तय करती रही हैं और मानव की विविध
सभ्यताओं के विकास में सहायक रही हैं। इनकी संास्कृतिक महत्ता भी है। इन
तथ्यों कवि ने इन शब्दों में व्यक्त किया है कि -
विंध्याचल आरावली, हिम आलय बलवान।
ये रक्षक हैं देश के, इनमें भी हैं प्राण।।
गंगा यमुना नर्मदा, जल स्रोतों की खान।
ब्रह्मपुत्र और सिंधु पर, भारत को अभिमान।।
विंध्याचल आरावली, हिम आलय बलवान।
ये रक्षक हैं देश के, इनमें भी हैं प्राण।।
गंगा यमुना नर्मदा, जल स्रोतों की खान।
ब्रह्मपुत्र और सिंधु पर, भारत को अभिमान।।
जल कुआ, तालाब, नदी, पोखर आदि चाहे जिस भी स्त्रोत से प्राप्त हो, वह
जीवनदायी ही होता है। इसीलिए भारतीय संस्कृति में जल की गणना पंचतत्वों में
की गई है। इसके साथ ही पानी को मनुष्य की प्रतिष्ठा और मान-सम्मान का
पर्याय भी माना गया है। जैसा कि रहीम ने कहा है- ‘रहिमन पानी राखिए, बिन
पानी सब सून। पानी गए न ऊबरे, मोती, मानुस, चून।।’ इसी सच्चाई को कवि
‘निर्मल’ ने कुछ इस प्रकार कहा है -
पंच तत्व में है प्रमुख, उदक राशि का नाम।
इसने ही संभव किए, जन-जीवन के काम।।
जंगल से शुद्धिकरण, जड़ें पोषती नीर।
रक्षित करना लाजमी, पाने स्वस्थ शरीर।।
पानी है संसार में, सम्मानों का रूप।
उतरा पानी मनुष का, धूमिल हुआ स्वरूप।।
पंच तत्व में है प्रमुख, उदक राशि का नाम।
इसने ही संभव किए, जन-जीवन के काम।।
जंगल से शुद्धिकरण, जड़ें पोषती नीर।
रक्षित करना लाजमी, पाने स्वस्थ शरीर।।
पानी है संसार में, सम्मानों का रूप।
उतरा पानी मनुष का, धूमिल हुआ स्वरूप।।
कवि ‘निर्मल’ ने पर्यावरण के औषधीय महत्व को भी अपने दोहे में बड़ी ही सुंदरता से प्रस्तुत किया है-
जड़ी-बूटियां छांट लें, उगे वनों के बीच।
गुण धर्मो को जान कर, लीजे जीवन सींच।।
जड़ी-बूटियां छांट लें, उगे वनों के बीच।
गुण धर्मो को जान कर, लीजे जीवन सींच।।
किन्तु कवि को यह चिन्ता है कि मनुष्य इस बात से लापरवाह हो चला है कि वह
अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिए प्र्यावरण का एक भयावह स्वरूप छोड़े जा रहा है
जिसमें जलसंकट प्रमुख है। आज यह कहा भी जाने लगा है कि यदि तीसरा
विश्वयुद्ध हुआ तो वह पानी के लिए ही होगा। प्रत्येक ग्रीष्म ऋतु आते ही जल
संकट अपने चरम पर पहुंच जाता है फिर भी जलसंरक्षण के प्रति हम चेत नहीं
रहे हैं। गंगा जैसी विशाल नदियों को हम मनुष्यों ने ही गंदा कर डाला है और
अनगिनत जलस्रोत हैं जो हमारी लापरवाही की भेंट चढ़ गए हैं। इसीलिए कवि
निर्मल कहते हैं कि हमारी लापरवाहियों को देख कर मानो प्रकृति भी भयभीत
रहने लगी है। यह दोहा देखिए -
नदियां डरतीं मनुज से, डरे हुए हैं ताल।
सुखा न देना उदधि को,अरज करे बैताल।।
नदियां डरतीं मनुज से, डरे हुए हैं ताल।
सुखा न देना उदधि को,अरज करे बैताल।।
कवि निर्मल चन्द ‘निर्मल’ ने अपने दोहों में जिस प्रकार पर्यावरण के
तत्वों की महत्ता को रेखांकित किया है तथा जिस गंभीरता से पर्यावरण के
प्रति चिन्ता प्रकट की है वह उनकी दोहों को कालजयी बनाने में सक्षम है।
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धन्यवाद आचरण !
( दैनिक, आचरण दि. 28.02.2018)
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From left Dr. Varsha Singh, Nirmal Chand Nirmal, Sunila Saraf |
आप से निवेदन है कि आप इलै.होम्यो.होम्योपैथिक भी कुछ लिखे ।
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