Dr Varsha Singh |
सागर साहित्य एवं चिंतन
संस्मरणाचार्य प्रो. कांति कुमार जैन
- डॉ. वर्षा सिंह
सागर की उर्वर भूमि ने हिन्दी साहित्य को विभिन्न विधाओं के उद्भट विद्वान दिये हैं। कविता, कहानी, उपन्यास, ललित निबन्ध आदि के क्रम में संस्मरण लेखन को एक प्यी पहचान देने का श्रेय सागर के साहित्यकार को ही है , जिनका नाम है प्रो. कांति कुमार जैन। 09 सितम्बर 1932 को सागर के देवरीकलां में जन्में कांति कुमार जैन ने तत्कालीन कोरिया स्टेट (छत्तीसगढ़) के बैकुंठपुर से सन् 1948 में मैट्रिक उत्तीर्ण किया। मैट्रिक में हिन्दी में विशेष योग्यता के लिये उन्हें कोरिया दरबार की ओर से स्वर्ण पदक प्रदान किया गया। स्कूली शिक्षा पूर्ण करने के बाद उच्च शिक्षा के लिये वे पुनः सागर आ गये। सागर विश्वविद्यालय के प्रतिभावान छात्रों में स्थान बनाते हुए उन्होंने सभी परीक्षाएं प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण कीं तथा स्वर्ण पदक प्राप्त किया। प्रा.े कांति कुमार जैन को अध्ययन- अध्यापन से आरम्भ से ही लगाव रहा। सन् 1956 से मध्यप्रदेश के अनेक महाविद्यालयों में शिक्षण कार्य करने के उपरांत सन् 1978 से 1992 तक डॉ, हरी सिंह गौर विश्वविद्यालय में माखनलाल चतुर्वेदी पीठ पर हिन्दी प्रोफेसर एवं विभागाध्यक्ष रहे। प्रो. कांति कुमार जैन सागर विश्वविद्यालय की बुंदेली पीठ से प्रकाशित होने वाली बुंदेली लोकसंस्कृति पर आधारित पत्रिका ‘ईसुरी’ का कुशल सम्पादन करते हुए इसकी ख्याति को अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक पहुंचाया।
प्रो. कांति कुमार जैन ने कई महत्वपूर्ण शोधात्मक पुस्तकें लिखीं। जिनमें ‘छत्तीसगढ़ी बोली : व्याकरण और कोश’, ‘नई कविता’, ‘भारतेंदु पूर्व हिन्दी गद्य’, ‘कबीरदास’, ‘इक्कीसवीं शताब्दी की हिन्दी’ तथा ‘छायावाद की मैदानी और पहाड़ी शैलियां’ आदि विशेष उल्लेखनीय हैं। ललित एवं आलोचनात्मक निबन्धों के साथ ही जब संस्मरण लेखन में सक्रिय हुए तब उनकी विशिष्ट शैली ने हिन्दी साहित्य जगत में मानों एक नयी धारा चला दी। सन् 2002 में उनकी पहली संस्मरण पुस्तक ‘लौट कर आना नहीं होगा’ प्रकाशित हुई। मुक्तिबोध और परसाई के घनिष्ठ मित्रों में रहे प्रो. कांति कुमार जैन ने एक संस्मरण पुस्तक लिखी ‘तुम्हारा परसाई’ जो सन् 2004 में प्रकाशित हुई । इसके बाद सन् 2006 में ‘जो कहूंगा सच कहूंगा’, सन् 2007 में ‘अब तो बात फैल गई’ और सन् 2011 में ‘बैकुण्ठपुर में बचपन’ प्रकाशित हुई।
Sagar Sahitya Chintan -11 Sansmarnacharya Pro. Kanti Kumar Jain - Dr Varsha Singh |
संस्मरण हिन्दी में अपेक्षाकृत नयी विधा है जिसका आरम्भ द्विवेदी युग से माना जाता है। परंतु इस विधा का असली विकास छायावादी युग में हुआ। इस काल में सरस्वती, सुधा, माधुरी, विशाल भारत आदि पत्रिकाओं में संस्मरण प्रकाशित हुए। संस्मरण को साहित्यिक निबन्ध की एक प्रवृत्ति भी माना गया है। साहित्य से इतर लोगों में अकसर आत्मकथा और संस्मरण को लेकर मतिभ्रम होने लगता है। किन्तु संस्मरण और आत्मकथा के दृष्टिकोण में मौलिक अन्तर है। आत्मकथा के लेखक का मुख्य उद्देश्य अपनी जीवनकथा का वर्णन करना होता है। इसमें कथा का प्रमुख पात्र स्वयं लेखक होता है। संस्मरण लेखक का दृष्टिकोण भिन्न रहता है। संस्मरण में लेखक जो कुछ स्वयं देखता है और स्वयं अनुभव करता है उसी का चित्रण करता है। लेखक की स्वयं की अनुभूतियां तथा संवेदनायें संस्मरण का ताना-बाना बुनती हैं। संस्मरण लेखक एक निबन्धकार की भांति अपने स्मृतियों को गद्य के रूप में बांधता है और एक इतिहासकार के रूप में तत्संबंधित काल को प्रदर्शित करता है। कहने का आशय है कि संस्मरण निबंध और इतिहास का साहित्यिक मिश्रण होता है और जिसका मूल संबंध संस्मरण लेखक की स्मृतियों से होता है। वह अपने चारों ओर के जीवन का वर्णन करता है।
डॉ. (सुश्री) शरद सिंह |
मध्य में डॉ. कांति कुमार जैन पत्नी साधना जी और एक प्रशंसक के साथ |
लेखन क्षेत्र में सतत् सक्रिय रहने वाले प्रो. कांति कुमार जैन ने अपने मि़त्र मुक्तिबोध से जुड़ी स्मृतियों को सहेजते हुए ‘महागुरू मुक्तिबोध : जुम्मा टैंक की सीढ़ियों पर’ नाम से संस्मरण पुस्तक लिखी, जो सन् 2014 में प्रकाशित हुई। इसी क्रम में सन् 2015 में कोरिया के राजा पर ’एक था राजा’ प्रकाशित हुई, जिसकी भूमिका में प्रो. कांति कुमार जैन ने लिखा है- ‘एक था राजा में कोरिया के राजा रामानुज प्रताप सिंहदेव के प्रादर्श प्रभाव और प्रशासन के नख चित्रात्मक संस्मरण। ये संस्मरण पूरे या सांगोपांग प्रकृति के नहीं हैं। बल्कि 65-70 वर्ष बाद भी जो व्यक्ति, स्थान, घटनायें या प्रसंग मेरी स्मृति में हिलते रह गये हैं, उनका कहीं हल्का, कहीं विस्तृत उल्लेख। प्रायः हल्का ही। यह सामग्री मैंने कुछ अपनी स्मृति से जुटाई है , कुछ जनश्रुतियों से, अधिकांश राजा रामानुज प्रताप सिंहदेव के चौथे पुत्र डॉ रामचंद्र सिंहदेव के सौजन्य से।’
प्रो. कांति कुमार जैन का एक बहुत ही रोचक संस्मरण है- ‘पप्पू खवास का कुनबा’ वे अपने संस्मरण लेखन में जिस प्रकार चुटेले शब्दों का सहज भाव से प्रयोग करते हैं उससे उनक ेलेखन में सदैव ताजा टटकेपन का बोध होता है। अपने संस्मरण लेखन के कारण कई बार उन्हें संकटों का भी सामना करना पड़ा, विरोध भी झेलना पड़ा, किन्तु उन्होंने अपनी लेखनी को रुकने नहीं दिया। वर्तमान हिन्दी साहित्य जगत में प्रो. कांति कुमार जैन संस्मरण लेखन के पुरोधा एवं ‘संस्मरणाचार्य’ के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त कर चुके हैं।
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( दैनिक, आचरण दि. 31.05.2018)
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