डॉ. वर्षा सिंह |
सागर : साहित्य एवं चिंतन
हिन्दी ग़ज़लों में खरे उतरते अशोक मिजाज़
- डॉ. वर्षा सिंह
23 जनवरी 1957 को सागर में जन्मे, उर्दू ग़ज़ल में अच्छी-खासी दखल रखने वाले शायर अशोक मिज़ाज ने जब हिन्दी ग़ज़ल के क्षेत्र में क़दम रखा तो ग़ज़ल के छांदासिक निभाव की कोई कठिनाई उनके सामने नहीं थी। अशोक मिज़ाज ने हिन्दी ग़ज़ल के यथार्थवाद को बड़ी खूबसूरती से साधा है। अशोक मिज़ाज की ग़ज़लों का सरोकार आज की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और यहां तक कि पारिवारिक दशाओं से भी है। मिज़ाज कहते हैं कि -
मेरे लफ़्जों के परदे में मेरा संसार देखोगे
कभी तनहाइयों में जब मेरे अश्आर देखोगे
दिखाई कुछ नहीं देगा, समझ में कुछ न आएगा
गुज़रती रेल की जब पास से रफ़्तार देखोगे
अशोक मिज़ाज एक ग़ज़लकार ही नहीं अपितु ग़ज़ल के शिल्प और कथ्य के प्रति सजग और अध्ययनशील चिंतक भी हैं। शिल्पगत रूप में ग़ज़ल को ठीक उसी रूप में स्वीकार करने में कोई कोताही नहीं बरतते हैं जिस रूप में ग़ज़ल अरबी, फ़ारसी कर बहरों की रचना-ध्वनि के निश्चित क्रम में अपनी पैदाईश के समय सामने आई थी। शिल्प के मामले में अशोक मिज़ाज जहां एक ओर चौकन्ने रह कर अरबी की प्रचीन बहरों में अपनी प्रतिबद्धता प्रकट करते हैं, वहीं कथ्य और भाषा के मामले में अर्वाचीन प्रयोगवादिता को स्वीकार करते हुए समकालीन सोच की दस्तावेज़ी ग़ज़लें कहने में अपनी पूरी क्षमता का प्रदर्शन करते हैं। उनकी ग़ज़लों में वैयक्तिक प्रबुद्धता साफ़ दिखाई देती है। जैसे यह शेर -
बदल रहे हैं यहां सब रिवाज़ क्या होगा
मुझे ये फ़िक्र है, कल का समाज क्या होगा
दिलो-दिमाग़ के बीमार हैं जहां देखो
मैं सोचता हूं यहां रामराज क्या होगा
Sagar Sahitya Chintan -13 Hindi Ghazalon me khare utarate Ashok Mizaj - Dr Varsha Singh |
फैला हुआ है ज़हरे-सियासत कहां-कहां
करते फिरेंगे आप हिफ़ाज़त कहां-कहां
मज़हब धरम के नाम पे हमने ये क्या किया
शरमा रही है आज रफ़ाक़त कहां-कहां
बायें से : - डॉ. वर्षा सिंह, डॉ. (सुश्री) शरद सिंह एवं अशोक 'मिज़ाज' |
सियासत में हमारा भी कुछ ऐसा हाल है जैसे
किसी बदनाम औरत से शराफ़त हार जाती है
बड़े लोगों के कपड़ों तक कहां कीचड़ पहुंचता है
अगर दौलत हो, ओहदा हो, ज़िल्लत हार जाती है
भूमंडलीकरण और उपभोक्तावाद की भागमभाग में जीवन की सरसता कहीं खोती जा रही है। औद्योगिक नगरों के रूप में असंवेदनशीलता का विस्तृत मरुथल सामने दिखाई देता है। जो शहर अभी आत्मीयता का अर्थ जानते हैं, वे भी तेजी से अपरिचय का लबादा ओढ़ते जा रहे हैं। इस तथ्य को अत्यंत बारीकी से शायर ने कुछ इस तरह बयान किया है -
ये नगर भी कारखानों का नगर हो जाएगा
इन दरख़्तों की जगह कुछ चिमनियां रह जाएंगी
इस प्रकार की ग़ज़लों में मात्र गहन मानवीय सरोकार है। अशोक मिज़ाज के सरोकार समाज और राजनीति पर आ कर ही नहीं ठहर जाते हैं वरन् काव्य की समकालीन दशा के प्रति भी चिन्ता प्रकट करते हैं। उनकी चिन्ता ग़ज़ल जैसी कोमल विधा से खिलवाड़ करने वालों को ले कर भी है। ग़ज़ल जैसी विधा को गंभीरता से न लेने वालों के लिए वे कहते हैं-
कल क्या थी और आज ये क्या हो गई ग़ज़ल
ग़ज़लों की भीड़-भाड़ में ही खो गई ग़ज़ल
अशोक मिज़ाज के संदर्भ में यह बेझिझक कहा जा सकता है कि ग़ज़लकार को समकालीन ग़ज़ल कहने का शऊर हासिल है, उनकी ग़ज़लों में ग़ज़ल का मिज़ाज मौज़ूद है तो अश्आर अपने फ़ॉर्म और तक़नीकी पहलुओं पर खरे उतरते हैं।
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( दैनिक, आचरण दि. 03.05.2018)
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