Dr Varsha Singh |
सागर : साहित्य एवं चिंतन
डॉ. अनिल जैन ‘अनिल’ की ग़ज़लों के सरोकार
- डॉ. वर्षा सिंह
सागर नगर में साहित्य की उर्वरा भूमि ने सभी विधाओं को समान रूप से अवसर दिया है। यहां कवि भी हैं, शायर भी हैं, नाटककार भी हैं, निबंधकार, कहानीकार भी हैं। जहां तक ग़ज़लों का सवाल है तो यह सार्वभौमिक रूप से सागर में भी बेहद लोकप्रिय विधा है। सागर में ग़ज़लगोई करने वालों में एक उल्लेखनीय नाम है अनिल जैन ‘अनिल’ का जिन्हें डॉ. अनिल जैन और डॉ. अनिल कुमार जैन के भी नाम से लोग जानते हैं। 27 जून 1956 को सागर में जन्में डॉ. अनिल जैन बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं। वे बी.फर्मा हैं, वैद्य विशारद और आयुर्वेद रत्न उपाधि प्राप्त होने के साथ ही पंजीकृत आयुर्वेद चिकित्सक भी हैं। विशेषता यह कि उन्होंने इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय खैरागढ़ से मास्टर ऑफ म्यूजिक की उपाधि भी प्राप्त की है, जो उनके संगीत प्रेम का भी द्योतक है। डॉ. अनिल की अभिनय और फोटोग्राफी में भी बेहद दिलचस्पी है। साहित्य सृजन के क्षेत्र में उन्होंने ग़ज़लों के साथ ही गीत, दोहे, रुबाईयां, लघुकथायें, व्यंग्य लेख और नाटक भी लिखे हैं। ‘जज़्बा’ के नाम से उनका एक ग़ज़ल संग्रह भी प्रकाशित हो चुका है। डॉ. अनिल जैन हिन्दी-उर्दू मजलिस नामक साहित्यिक संस्था के संस्थापक हैं तथा विगत 16 वर्षां से साहित्यिक वार्षिक पत्रिका ‘परिधि’ का संपादन कर रहे हैं।
डॉ. अनिल जैन की ग़ज़लों में आघ्यात्म और भावना का सुन्दर समन्वय मिलता है। उनकी ग़ज़लों में अव्यवस्थाओं के प्रति प्रतिकार की भावना है और एक साफगोईपन है, जैसे ये शेर देखें -
हमको मत समझाओ हम सब जानते हैं।
हम वही करते हैं जो हम ठानते हैं।
तुम कहो, कुछ भी कहो, कहते रहो तुम
हम तो बस अपनी अक़ीदत मानते हैं।
बायें से :- डॉ. अनिल जैन, डॉ. (सुश्री) शरद सिंह एवं डॉ. वर्षा सिंह |
अनुभवों के अनेकों पड़ावों से गुज़रते हुए डॉ. अनिल जैन ‘अनिल’ हर लम्हे की वास्तविकता को अपनी दृष्टि से परखते हैं और फिर उन्हें अपनी ग़ज़लों में पिरोते हैं। डॉ. अनिल की ग़ज़लों में अदायगी की खूबी है तो कहन की वज़नदारी भी। समय की गंभीरता है तो श्रृंगार का कोमलपन भी। वे बड़ी संज़ीदगी से इश्क़ की बात करते हैं-
इश्क़ में वो मुक़ाम आया है।
दिल को खोया है दर्द पाया है।
आह, आंसू, उदास शामो-सहर
इश्क़ तोहफ़े में साथ लाया है।
Sagar Sahitya Chintan -7 Dr Anil Jain Anil Ki Ghazalon Ke Sarokar sarokar - Dr Varsha Singh |
किसी शांत स्वच्छ झील में एक कंकर उछाला जाता है तो पानी में तरंगें उठने लगती हैं। वैसे ही जब कोई बात मन को छू जाती है तो मन में भावनाओं की तरंगे हिलोरे लेने लगती हैं और तभी सृजित होती है इस प्रकार की ग़ज़ल -
इसी उम्मींद में हम तो इधर निकल आए।
नदी नहीं न सही, इक नहर निकल आए।
यूं हाथ, हाथ पे रख बैठने से क्या होगा
करें कुछ आप कोई रहगुज़र निकल आए।
अभिव्यक्त का लहज़ा हरेक ग़ज़लकार की अलग पहचान बन जाता है. ग़ज़लगोई एक संवेदनशील क्रिया है। वस्तुतः यह एक अनुभूति है जो मन की भावनात्मक हलचल से उपजती है और काव्यात्मक अभिव्यक्ति के लिए विवश कर देती है। लेकिन यह अभिव्यक्ति तभी सार्थकता का चोला पहनती है जब उसे पढ़ने और सुनने वाला उसे अपनी अभिव्यक्ति महसूस कर गुनगुना उठता है। डॉ. अनिल की ग़ज़लों में यह खूबी है। एक बानगी देखिए -
हर मौसम का आना-जाना इन आंखों ने देखा है।
फूल का खिलना फिर मुरझाना इन आंखों ने देखा है।
कैसा प्यार, मुहब्बत कैसी, सभी क़िताबी बातें हैं
खेल के दिल से दिल बहलाना इन आंखों ने देखा है।
आज हम जिस परिवेश और यथार्थ में सांसें ले रहे हैं, वह पूरी तरह से चुनौतीभरा है। एक प्रवुद्ध ग़ज़लकार के नाते डॉ. अनिल जैन ‘अनिल’ इस पीड़ा को अच्छी तरह समझते हैं और अपनी ग़ज़लों में व्यक्त करते हैं। उनके शेर वर्तमान हालात पर कटाक्ष करते हैं -
खो गई सारी दुआएं, शहर में क्या गांव में।
अब नहीं मिलती वफ़ाएं, शहर में क्या गांव में।
क्या ग़लत है, क्या सही है, आदमी की जात को
सर नहीं इसमें खपाएं, शहर में क्या गांव में।
यथार्थ की विसंगतियों की खुरदरी ज़मीन तैयार करता है तो दूसरी ओर कल्पना और सौन्दर्य एक ऐसी दुनिया रचता है जिसमें सब कुछ मीठा और मधुर अहसास कराता है। जैसे डॉ़ अनिल के लम्बे बहर के इन शेरों में अनुभव कीजिए -
निखर गई कली-कली, चमन-चमन महक उठा, बहार ही बहार है।
ये कान में मेरे सनम, है भंवरा गुनगुना रहा, बहार ही बहार है।
ये दिल फ़रेब वादियां, ये शोख-शोख तितलियां, गिरा रही हैं बिजलियां
ये मौसमें बहार है, बहार राग तो सुना, बहार ही बहार है।
डॉ. अनिल जैन ‘अनिल’ की ग़ज़लों के सरोकार दुख से हैं तो सुख से भी हैं, विरह से हैं तो मिलन से भी हैं, जीवन के कठोर यथार्थ से हैं तो कोमल कल्पनाओं से भी हैं। कुलमिला कर एक ऐसी समग्रता डॉ. अनिल की ग़ज़लों में देखने को मिलती है जो उनके भीतर के शायर को अभिव्यक्ति की ऊंचाइयों तक ले जाती है।
-----------------------
( दैनिक, आचरण दि. 25.04.2018)
#आचरण #सागर_साहित्य_एवं_चिंतन #वर्षासिंह #मेरा_कॉलम #MyColumn #Varsha_Singh #Sagar_Sahitya_Evam_Chinta
No comments:
Post a Comment