Dr Varsha Singh |
सागर : साहित्य एवं चिंतन
पुष्पदंत हितकर : सहज अभिव्यक्ति ही जिनकी खूबी है
- डॉ. वर्षा सिंह
परिचय :- कवि पुष्पदंत हितकर
जन्म :- 25 मार्च 1954
जन्म स्थान :- सागर नगर
पिता एवं माताः- स्व. गुलाबचंद एवं स्व. शांतिबाई
शिक्षा :- बी.एस-सी. फाइनल (सागर विश्वविद्यालय)
लेखन विधा :- कविताएं
प्रकाशन :- विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में
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सागर नगर में 25 मार्च 1954 श्री गुलाबचंद जी के घर जन्में कवि पुष्पदंत हितकर की माता जी श्रीमती शांतिबाई अत्यंत सहृदय एवं धार्मिक विचारों की महिला थीं तथा पिताश्री नगर की एक प्रतिष्ठित फर्म में मैनेजर के पद पर कार्य करते रहे। कवि हितकर के जीवन पर अपने माता-पिता के धार्मिक विचारों एवं सहृदयता का गहरा प्रभाव पड़ा। सागर विश्वविद्यालय से बी.एस-सी. फाइनल तक शिक्षा ग्रहण करने वाले पुष्पदंत हितकर ने सन् 1975 से लेखन कार्य आरम्भ किया। साहित्य में रुचि रखने वाले कवि हितकर की कविताएं अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहीं। झांसी से प्रकाशित साप्ताहिक भारती, तीर्थंकर पत्रिका (इंदौर), अहिंसावाणी (अलीगढ़) त्रैमासिक पत्रिका ‘व्यंग्यम’ (जबलपुर) आग और अंगार (दमोह), सिंधुधारा तथा विंध्यकेसरी (सागर) आदि में कवि हितकर की रचनाएं प्रकाशित हुईं हैं।
साहित्य सेवा के साथ ही पुष्पदंत हितकर समाज सेवा से जुड़ गए। इसी तारतम्य में जैन छात्र समिति के द्वारा प्रकाशित वार्षिक पत्रिका ‘रश्मि’ का संपादन किया। इसी दौरान उन्हें जैन संतो ंके समागम में काव्यपाठ का सुअवसर प्राप्त हुआ। सन् 1993 में पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव में आचार्य श्री विद्यासागर महराज का सानिध्य प्राप्त होने के साथ ही कवि हितकर को गजरथ स्मारिका का संपादन करने का अवसर भी प्राप्त हुआ। कवि हितकर का अभी तक कोई काव्य संकलन तो प्रकाशित नहीं हो सका है किन्तु नगर की साहित्यिक गोष्ठियों में उनकी सक्रियता निरंतर बनी रहती है।
Sagar Sahitya Chintan - 28 - Dr Varsha Singh |
बायें से:- डॉ वर्षा सिंह, गजाधर सागर, विश्व जी, डॉ (सुश्री) शरद सिंह, पुष्पदंत हितकर एवं संतोष सरसैंया |
वर्तमान शिक्षा व्यवस्था ने बच्चों के कोमल कंधों पर भारी बस्तों का बोझ लाद रखा हैं इस व्यवस्था पर चोट करते हुए कवि हितकर ने जो गीत लिखा है उसका अंश देखें -
छोटे- छोटे कांधों पर हैं
भारी- भारी बस्ते
मन्द-मन्द मुस्कान बिखेरें
सबको करें नमस्ते
सपनें हैं इनकी आंखों के
कैसे बने फरिश्ते
मन्द-मन्द मुस्कान बिखेरें......
खुली हवा, छप्पर के नीचे
करना पड़े पढ़ाई
देश को ऊंचा यही उठायेंगे
पा कर तरुणाई
एक दिन फूलों से भर देंगे
कांटों वाले रस्ते
मन्द-मन्द मुस्कान बिखेरें......
आज समस्या मात-पिता पर
ड्रेस कहां से लाएं
इन पर ही निर्भर रहती ये
कोमल सरल लताएं
फिर भी सब कुछ सहते हैं ये
देखो हंसते-हंसते
मन्द-मन्द मुस्कान बिखेरें......
उपभोक्ता दौर के प्रभाव में आज व्यक्ति आत्मप्रदर्शन पर अधिक ध्यान देने लगा है। जो जीवन की सुख सुविधाओं से संपन्न हैं वे दूसरे की गरीबी या लाचारी पर ध्यान दिए बिना अपने सुखों का बेजा प्रदर्शन करने लगते हैं। इस प्रवृत्ति पर कवि हितकर की कटाक्ष करने वाली यह व्यंग्य कविता ध्यान देने योग्य है-
शो रूम से निकली कार में
काली पट्टी लगाते हैं
धन के प्रदर्शन से
गरीब आदमी की
नज़र न लगे
दुनिया को दिखाते हैं।
पुष्पदंत हितकर यह मानते हैं कि यदि प्रत्येक मनुष्य मनुष्यता का पाठ पढ़ ले और स्वयं को बुराईयों से बचा ले तो व्यक्तिगत कठिनाईयों के साथ ही समाज में व्याप्त बुराईयां भी दूर हो सकती हैं। ‘‘हमें ऐसे इंसान चाहिए’’ शीर्षक कविता में उन्होंने अपनी इसी आकांक्षा को व्यक्त किया है -
क्या ज़रूरी है कि हम
गीता कुरान पर हाथ रख कर
झूठी कसमें खाएं
गुनाहों को छिपाने के लिए
और गुनाह करते जाएं।
हमें तोड़ने वाले धर्म नहीं
जोड़ने वाले मन चाहिए।
प्रार्थना, इबादत तो हम कभी भी
बैठ कर कर लेंगे
जो दूसरों के दुख-दर्द को समझें
हमें ऐसे इंसान चाहिए
जिस सुख की तलाश में व्यक्ति दुनिया भर में भटकता रहता है, वह सुख तो उसके भीतर ही मौजूद होता है। वस्तुतः यह सुख है संतोष सुख। यदि व्यक्ति सीमित साधनों में संतोष कर ले तो वह सुखी रह सकता है, जबकि असंतुष्ट प्रवृत्ति होने पर आकूत धन सम्पदा होने पर भी किसी काम की नहीं रहती है। जैसा कि कवि कबीर ने कहा है-
‘‘ गोधन, गजधन, बाजिधन और रतनधन खान।
जब आवे संतोषधन, सब धन धूरि समान।। ’’
कहने का आशय यह है कि कोई भी धन संतोषधन से बड़ा नहीं होता है और यह धन मनुष्य के भीतर रहता है तथा आत्मज्ञान का द्वार खोलता है। इसी भाव को कवि हितकर ने इन शब्दों में व्यक्त किया है-
पलकों के अंदर ही सुख का वास है
खुली दृष्टि से मिलता मोह का द्वार है।
निर्मल भावों की बहती इस सरिता में
आत्मज्ञान से मिलता मोक्ष का द्वार है।
कवि हितकर ने बाल सहित्य की भी रचना की है, बानगी देखें-
फुदक- फुदक कर चिड़ि़या रानी
दानें भर कर मुंह में आती
चीं-चीं कर वह शोर मचाती
बच्चों को वह निकट बुलाती
सबको अपने दानें देती
बचा-खुचा वह खुद खा लेती
बच्चे फुर्र-फुर्र उड़ जाते
आसमान में शोर मचाते
चिड़िया का मन पुलकित होता
हंसी-खुशी में जीवन कटता
कवि पुष्पदंत हितकर सरल शब्दों में अपने भाव व्यक्त करने वाले लगनशील कवि हैं, जो सागर की साहित्यिकता में वृद्धि करते रहते हैं।
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( दैनिक, आचरण दि. 12.09.2018) #आचरण #सागर_साहित्य_एवं_चिंतन
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