Dr. Varsha Singh |
लॉकडाउन के इन दिनों के मेरे अनुभव को प्रकाशित किया है "नवदुनिया" ने... इस हेतु "नवदुनिया" को हृदय से आभार.🙏
सालों बाद चिड़िया की चहचहाहट सुन रही हूं, देख रही हूं गिलहरियों का पेड़ पर चढ़ना
- डॉ. वर्षा सिंह
इन दिनों लॉकडाउन के कारण जाहिर है कि और सभी लोगों की तरह मैं भी अपने घर की हदों में कैद हूं। जी हां, दरवाज़े पर लगा ताला मुझे इस बात की याद दिलाता है कि बाहर कोरोना वायरस का खतरा है और मुझे अपने परिवार के साथ घर के भीतर ही रहना है। बाहर न निकल पाने से होने वाली छटपटाहट लॉकडाउन के शुरुआती दिनों में मैंने महसूस की, लेकिन फिर मैंने महसूस किया कि कभी-कभी ऐसी स्थिति हमें स्वयं के करीब लाने और उन चीजों से जोड़ने का एक बेहतरीन अवसर देती है जिनको हम अपनी रोजमर्रा की व्यस्त जिंदगी में इग्नोर कर देते हैं। मसलन चिड़ियों का चहचहाना, घर के सामने वाली सड़क पर से गुजरती हुई गायों का निकलना और उन्हें रोटी देने पर ठिठक कर कृतज्ञता भरी नजरों से देखना, घर के सामने लगे हुए चांदनी के पेड़ पर गिलहरियों का चढ़ना उतरना इधर-उधर देखते हुए फिर हाथों में लिए हुए कुछ सामान को धीरे-धीरे कुतरना …. ऐसी कितनी सारी चीजें हैं जिन्हें हम अपनी जिंदगी में देख कर भी अनदेखा करते चलते हैं।
तो मुझे बार-बार यह महसूस होता है कि यदि लॉकडाउन नहीं होता तो इन चीजों को महसूस करने का मौका भी नहीं मिलता। इन दिनों जबकि बाहर जाने का कोई भी काम नहीं है जैसे सब्जी लाना, किराना शॉपिंग, माताजी के लिए दवा का प्रबंध, सामाजिक कार्यों- साहित्यिक आयोजनों में भागीदारी … तो ऐसे समय में मेरी दिनचर्या में जुड़ गए हैं वह कार्य जिन्हें मैं पहले चाह कर भी नहीं कर पा रही थी। हां, मैंने कुछ अच्छी क़िताबें पढ़ीं हैं, कुछ कविताएं- कुछ लेख लिखे हैं, कुछ स्केच बनाए हैं, घर की साफ सफाई की है।
इन दिनों मैं अपनी माताजी की कही हुई छोटी-छोटी बातों को भी सुन पा रही हूं, उनसे बातचीत कर पा रही हूं और महसूस कर पा रही हूं कि वे अपनी इस वृद्धावस्था के दौर में किस तरह स्वयं को एकाकी महसूस करती रहती हैं। हम अपने कामों में उलझे रहते हैं तरह-तरह की व्यस्तताओं के चलते हम यह नहीं समझ पाते कि हमारे बुजुर्ग हमसे कितना कुछ कहना चाह रहे हैं, हमसे कौन-कौन सी अपेक्षाएं करना चाह रहे हैं जिस वक्त वे हमें आवाज़ देते हैं, उस वक्त हम अपनी व्यस्तता में उलझे रहने के कारण उन्हें सुन नहीं पाते हैं और बाद में जाकर जब उनसे पूछते हैं कि वे क्या कहना चाहते हैं तो तब तक हमारे बुजुर्ग भूल जाते हैं कि वे हमसे क्या कहना चाह रहे थे। संवादों में इस प्रकार का गैप हमारे बुजुर्गों को छटपटाहट से भर देता है और हमें हमारे बुजुर्गों से दूर कर देता है। इन दिनों लॉक डाउन के कारण जबकि मैं लगातार घर में ही हूं और अपनी माता जी द्वारा पुकारे जाने पर तत्काल ही उनकी बात सुनकर रिस्पांस देती हूं तो मैंने यह महसूस किया है कि मेरी माता जी की आंखों में चमक आ जाती है उनकी ममता-करुणा छलकने लगती है। वे आत्म सुख का अनुभव करती हैं और उनके उस आत्मसुख को महसूस कर मुझे भी आंतरिक खुशी प्राप्त होती है। यही तो है रिश्तों की तरलता जिसे कितने ही बरसों के बाद अब जाकर मैं महसूस कर पा रही हूं। ऐसा नहीं है कि मैं अपनी माता जी की सेवा नहीं करती या उनकी बातें नहीं सुनती लेकिन जिस वक्त वह कुछ कहती हैं ठीक उसी वक्त उसे सुनना महत्वपूर्ण होता है। आगे-पीछे की बातें बेमानी हो जाती है।
मुझे लगता है कि लॉकडाउन के इन लंबे दिनों में लॉकडाउन के अनुभवों से सीख लेकर हम अपने भविष्य की जिंदगी में भी कुछ समय ऐसा निकालें कि मानो हम लॉकडाउन में ही जी रहे हों। सप्ताह में अथवा पक्ष या माह में कम से कम एक दिन बाहरी दुनिया से अपने आप को काट कर घर और घर-परिवार में रहने वालों की बातें सुनें। वह सब कुछ महसूस करें जो हम बाहर आते-जाते हुए लगातार इग्नोर करते रहते हैं और महसूस नहीं कर पाते हैं तो इससे हमें अपने जीवन में एक बहुत बड़ी तब्दीली महसूस होगी और यह सकारात्मक तब्दीली हमें जीवन जीने का एक नया रास्ता दिखाएगी, एक नया दिशा बोध कराएगी। लॉकडाउन को मजबूरी न समझते हुए जीवन में मिलने वाली एक उपलब्धि के रूप में स्वीकार करें, तो शेष बचे दिन भी बड़ी सहजता से गुजर जाएंगे और हम आईने के सामने खड़े होने पर स्वयं को देखते हुए यह अनुभव करेंगे कि हमने खोया कुछ भी नहीं है बल्कि बहुत कुछ पा लिया है और यह पाने का सुख हमें हमसे परिचित कराएगा। यह जीवन का नियम है कि हर बुरी घटना बहुत सी अच्छी सीख दे जाती है। आज ऐसी ही सीखों को महसूस करने और आत्मसात करने का समय है।
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