प्रिय ब्लॉग पाठकों,
स्थानीय दैनिक समाचार पत्र "आचरण" में प्रकाशित मेरा कॉलम "सागर : साहित्य एवं चिंतन " जिसमें पुस्तकों के पुनर्पाठ की श्रृंखला के अंतर्गत दसवीं कड़ी के रूप में प्रस्तुत है - सागर नगर के कवि स्व. रमेशदत्त दुबे के गीत संग्रह "तिल के फूल - तिली के दाने" का पुनर्पाठ।
सागर : साहित्य एवं चिंतन
पुनर्पाठ : ‘तिल के फूल-तिली के दाने’ गीत संग्रह
- डॉ. वर्षा सिंह
इस बार पुनर्पाठ के लिए मैंने चुना है सागर के कवि स्व. रमेशदत्त दुबे की पुस्तक ‘तिल के फूल-तिली के दाने’। यह एक ऐसा गीत संग्रह है जिसके गीत बच्चों के लिए हैं।
कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं होगा जिसने अपने बचपन में राजा-रानी, हाथी-घोड़े, शेर-भालू, राक्षस-परी आदि की कहानियां और कविताएं न सुनी हों। हमारी दादी, नानी और मां ने हमें बचपन में ढेर सारी कहानियां सुनाई हैं और बाल कविताएं याद करवाई हैं। अगर मैं अपनी व्यक्तिगत बात करूं तो मुझे मेरे नानाजी हमें संत ठाकुर श्यामचरण सिंह पंचतंत्र, हातिमताई, चहार दरवेश, चन्द्रकांता, रामायण, महाभारत से ले कर महात्मा गांधी के जीवन से जुड़ी कहानियां सुनाया करते थे। यदि बात की जाए पंडित विष्णु शर्मा के पंचतंत्र की, तो उसमें निहित कथाएं उन राजकुमारों को रोचक ढंग से शिक्षा देने के लिए पशु-पक्षियों को आधार बना कर तैयार की गई थीं जो राजकुमार पढ़ने में घोर अरुचि रखते थे। पंडित विष्णु शर्मा का यह प्रयास सफल रहा। एक उदाहरण हम अपने जीवन से भी उठा सकते हैं। हम सभी ने अपने बचपन में वह कविता तो अवश्य पढ़ी होगी जो चार पंक्तियों में मछली के जीवन से अवगत करा देती है -
मछली जल की रानी है
जीवन जिसका पानी है
हाथ लगाओ डर जाएगी
बाहर निकालो मर जाएगी
कहने का आशय यह है कि बच्चों के लिए जो साहित्य रचा जाए उसमें सरल शब्द और रोचक शैली के माध्यम से जीवन से जुड़ा ज्ञान दिया जाए। ऐसा ज्ञान जो बच्चों की कल्पना शक्ति और व्यक्तित्व का एक साथ विकास करे। बच्चों के लिए मुद्रित साहित्य की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए नेशनल बुक ट्रस्ट के अंतर्गत सन् 1957 में “चिल्ड्रन बुक ट्रस्ट” की स्थापना में की गई, ताकि बच्चों के लिए ज्ञानवर्द्धक, रोचक एवं स्तरीय साहित्य प्रकाशित उपलब्ध कराया जा सके। अन्य प्रकाशकों ने भी बाल साहित्य की ओर ध्यान दिया। चम्पक, नंदन, चंदामामा, पराग आदि पत्रिकाएं प्रकाशित की जाती रही हैं। फिर भी बाल साहित्य कहीं पीछे छूटता गया। लेकिन कुछ साहित्यकार जितनी गम्भीरता से बड़ों के लिए साहित्य रच रहे थे उतनी ही गम्भीरता से बच्चों के लिए भी गीत रच रहे थे। कवि रमेश दत्त दुबे ने बच्चों के लिए कई गीत लिखे। जिनमें से अट्ठाइस गीत ‘तिल के फूल-तिली के दाने’ नामक गीत संग्रह के रूप में संग्रहीत हैं। इस गीत संग्रह को मैंने कई बार पढ़ा है। जब भी मैं इसके गीतों को पढ़ती हूं तो अपने बचपन के दिनों में जा पहुंचती हूं। सीधे-सरल शब्दों में लयात्मकता से भरे ये गीत मुझे उन दिनों की याद दिलाते हैं जब मैंने स्कूल की प्रतियोगिता के लिए एक गीत लिखा था। मुझे याद है कि जब मैं कक्षा 06 में पढ़ती थी तब विद्यालय में एक कविता लेखन प्रतियोगिता आयोजित की गई थी। इसमें प्रतियोगियों के लिए कक्षावार तीन वर्ग निर्धारित किए गए थे- प्रायमरी, माध्यमिक और उच्चतर माध्यमिक। मैंने माध्यमिक वर्ग में अपना नाम लिखा दिया। अब समस्या थी कविता लिखने की। मैंने इस संबंध में नानाजी से मदद मांगी, तो उन्होंने कहा - तुम प्रतिभागी हो इसलिए स्वयं कविता लिखो। तब मैंने पूछा कि मैं कैसे लिखूं। नानाजी ने कहा अपनी छोटी बहन पर कविता लिख डालो। और फिर क्या था, मैंने फटाफट अपनी छोटी बहन शरद पर कविता लिख डाली। मुझे उस कविता पर प्रथम पुरस्कार भी मिला। मेरी वह कविता थी -
मेरी बहना, मेरी बहना
सदा मानती मेरा कहना
खेल कूद से अधिक सुहाता
हरदम उसको लिखना-पढ़ना
यह कविता मुझे आज तक याद है जबकि आयु की परिपक्वता के साथ बाल कविताएं पीछे छूटती चली गईं। प्रायः सभी के साथ यही होता है। सरल सी प्रतीत होने वाली बाल कविताएं पीछे छूट जाती हैं और छंद, अलंकार तथा जीवन के गूढ़ विषयों से रची-बसी कविताएं सृजित होने लगती हैं। जो बाल कविताएं पढ़ने, सुनने में सहज और सरल लगती हैं उनको लिखना बड़ों के लिए लिखे जाने वाले साहित्य से कहीं अधिक कठिन होता है। यह बड़ा ही चुनौतीपूर्ण कार्य है। इसके लिए पहली शर्त है बाल मनोविज्ञान की समझ होना। जैसे रमेशदत्त दुबे ने लोक भावना और बच्चों के खेल गीतों का सम्मिश्रण करते हुए ऐसे रोचक गीत लिखे जो वर्तमान परिवेश से भी बच्चों को जोड़नो में सक्षम हैं और पहेलियां सी भी बुझाते हैं। उदाहरण के लिए ‘‘हाथी, घोड़ा, पालकी’’ शीर्षक उनका यह गीत देखें-
हाथी, घोड़ा, पालकी
बातें हैं उस काल की
मोटर, साइकिल, प्लेन की
बातें हैं इस काल की।
बातों-बातों से बनती हैं
बातें बिलकुल हाल की
सभी हाल की बातों से
छपते हैं अखबार
नौ नकद के सौदे में
तेरह हुए उधार
इस संग्रह में एक गीत है - ‘‘नानाजी’’ जिसमें नानाजी का वर्णन बड़े ही रोचक ढंग से किया गया है, उसका यह अंश देखें -
कैसे तो हैं नानाजी
कैसा इनका बानाजी
चश्मा उनका मोटा है
दांत लगाए हैं नकली
छड़ी सहारे चलते हैं
झुकी कमर उनकी पतली
कैसे तो हैं नानाजी
कुछ बोलो कुछ सुनते हैं
मन ही मन कुछ गुनते हैं
गुनी हुई हर बात को
धुनिया जैसा धुनते हैं
कैसे तो हैं नानाजी
‘‘पो संपा’’ शीर्षक गीत में कवि ने बुंदेलखंड के खेलगीत को बड़ी खूबसूरती से पिरोया है। इस गीत की पंक्तियां देखें -
पो संपा भई पो संपा
पो संपा ने क्या किया
पो संपा ने रेल बनाई
रेल बना कर खूब चलाई
अब तो रेल में जाना पड़ेगा
लटके-बैठे, खड़े-खड़े
साथ चलेंगे पेड़ खड़े
छुक-छुक करती चलती रेल
डिब्बों में है रेलम्पेल
कहीं बोगदा आ जाएगा
अंधकार तब छा जाएगा
इस गीत में ‘‘पो संपा’’ खेल गीत के बहाने कवि ने रेल यात्रा का परिचय दे दिया गया है। जो उन बच्चों के मन में भी रेल यात्रा के बारे में रुचि पैदा कर सकता है जिन्होंने कभी रेल देखी भी न हो। बच्चों को बंदर, भालू, बिल्ली आदि पशुओं से भी बड़ा लगाव रहता है। ‘‘एक से तीन’’ शीर्षक गीत में बड़े चुलबुले ढंग से बंदर, भालू, बिल्ली के बारे में लिखा गया है -
एक है बिल्ली, एक चिबिल्ली
एक है मुंबई, एक है दिल्ली
एक छमाछम नाच रही
एक उछलती, एक कूदती
बैठी-बैठी एक खांसती
एक फटाफट दौड़ रही
एक को ले गया भालू, बंदर
एक छुप गई घर के अंदर
एक सभी को ढ़ूंढ रही
एक मिल गया इस कोने में
एक मिल गया उस कोने में
एक एक से तीन हुई
इन गीतों को उन सभी के लिए पढ़ना जरूरी है जो अपने मन के भीतर मौजूद बचपन से दूर होते जा रहे हैं, और इसी बिन्दु पर बात आती है ऐसे गीतों को लिखे जाने की। आज हिन्दी में बड़ों के लिए लिखे जा रहे साहित्य की अपेक्षा बाल साहित्य कम लिखा जा रहा है। हिन्दी के प्रतिष्ठित साहित्यकार स्वयं प्रकाश ने अपने एक साक्षात्कार में कहा था कि ‘‘हिन्दी में बच्चों के लिए लिखने को दूसरे दर्जे का काम समझा जाता है। जबकि हर लेखक को बच्चों के लिए कुछ न कुछ जरूर लिखना चाहिए। समर्थ लोग हैं, लिख क्यों नहीं रहे हैं। साथ ही ऐसे लेखन को गम्भीरता से लिया जाना चाहिए। यह कोई दूसरे दर्जे का काम नहीं है।’’ आज जब बच्चे मोबाइल और कम्प्यूटर पर तरह-तरह के गेम्स में रमें रहते हैं तब उनके लिए बाल साहित्य और भी जरूरी हो जाता है। ऐसे समय में कवि स्व. रमेशदत्त दुबे की पुस्तक ‘तिल के फूल-तिली के दाने’ का पाठ एवं पुनर्पाठ दोनों महत्व रखते हैं।
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( दैनिक, आचरण दि.03.10.2020)
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