Thursday, August 23, 2018

सागर : साहित्य एवं चिंतन - 25 गीत-ग़ज़ल के साधक कवि ऋषभ समैया ‘जलज’ - डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh

       स्थानीय दैनिक समाचार पत्र "आचरण" में प्रकाशित मेरा कॉलम "सागर साहित्य एवं चिंतन " । जिसमें इस बार मैंने लिखा है मेरे शहर सागर के कवि ऋषभ समैया "जलज" पर आलेख। पढ़िए और जानिए मेरे शहर के साहित्यिक परिवेश को ....

सागर : साहित्य एवं चिंतन

गीत-ग़ज़ल के साधक कवि ऋषभ समैया ‘जलज’
                   - डॉ. वर्षा सिंह
               
सागर नगर में गीत और हिन्दी ग़ज़ल की रसधार समान रूप से बहती रही है। काव्य-साधकों ने अपनी रुचि के अनुरूप साहित्य की विधाओं को अपना कर नगर की साहित्यिक संपदा को समृद्ध किया है। नगर के एक समृद्ध व्यवसायी परिवार में 07 सितम्बर 1947 जन्मे ऋषभ समैया ने अपनी पारिवारिक विरासत को पूरी लगन से परवान चढ़ाते हुए साहित्य के प्रति अपने रुझान को भी पर्याप्त अवसर दिया। ‘‘जलज’’ उपनाम अपनाते हुए गीत और ग़ज़ल विधा को अपनाया। हिन्दी और बुंदेली में काव्यसृजन करने वाले ऋषभ समैया ‘जलज’ डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर से एम.काम. किया। इसके बाद उन्होंने कानून की पढ़ाई की। पारिवारिक जिम्मेदारियों एवं व्यावसायिक व्यस्तताओं के कारण एल.एल.बी. की पढ़ाई अधूरी छोड़नी पड़ी। सामाजिक कार्यों में भी अपना योगदान देने वाले ऋषभ समैया की काव्य रचनाएं आकाशवाणी एवं दूरदर्शन से प्रसारित होती रही हैं। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में उनकी रचनाओं का प्रकाशन हुआ है। स्थानीय दैनिक समाचार पत्र ‘पदचाप’ के मानसेवी संपादक रहते हुए पत्रिकरता की बारीकियों को भी भली-भांति जाना और समझा। साहित्य सृजन एवं समाजसेवा के लिए उन्हें अनेक संस्थाओं से सम्मानित किया जा चुका है।

सागर : साहित्य एवं चिंतन -25 गीत-ग़ज़ल के साधक कवि ऋषभ समैया ‘जलज’ - डॉ. वर्षा सिंह
ऋषभ समैया ‘जलज’ की कविताओं में पारिवारिक दायित्वों एवं संबंधों का गहन चिंतन मिलता है। मां और पिता प्रत्येक परिवार की महत्वपूर्ण इकाई होते हैं। ये ही परिवार के वे दो स्तम्भ होते हैं जो प्रत्येक पीढ़ी को न केवल जन्म देते हैं वरन उनमें परम्पराओं एवं संस्कारों को संजोते हैं। इसीलिए मां की महत्ता के प्रति ध्यान आकर्षित करते हुए ऋषभ समैया लिखते हैं-
जीवन  देने  वाली  है मां।
पालन-पोषण वाली  है मां।
मन भर नेह  परोसा करती
प्रिय भोजन की थाली है मां।
जितनी ज़्यादा लदी फलों से
उतनी झुकती  डाली है मां।
बहुत  दूरदृष्टि  रखती, पर
पापा  को  घरवाली है मां।

ऋषभ समैया जहां मां को परिवार की धुरी के रूप में देखते हैं और उसके त्याग, उसकी ममता एवं परिवार के प्रति उसके समर्पण की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हैं वहीं उनकी कवि दृष्टि यह भी देख लेती है कि पिता के लिए मां का स्वरूप एक ‘घरवाली’ का ही है। पुरुषवादी समाज में पिता अपनी अर्द्धांगिनी के सम्पूर्ण गुणों को नहीं देख पाता है। लेकिन इसका कारण भी कवि ढूंढने में सक्षम है। कवि को अहसास है कि पिता इतने अधिक दायित्वों से घिरे रहते हैं कि कई बार उन्हें खुद पर भी ध्यान देने का अवसर नहीं मिलता है। पिता भी मां की भांति दायित्वों का निर्वहन करते हैं और सारी पीड़ाओं को अपने मन में ही दबाए रखते हैं। पिता पर केन्द्रित रचना की इन पंक्तियों को देखिए -
स्मृतियों से बंधे पिता जी।
दायित्वों से लदे पिता जी।
जीवन की पथरीली राहें
ठिठके, फिसले, सधे पिता जी।
घर भर की नींदें मीठी हों
रात-रात भर जगे पिता जी।
ऋषभ समैया 'जलज'

कवि ‘जलज’ ने अपने गीतों में सामाजिक सरोकारों का भी बखूबी बयान किया है। वे मानते हैं कि जीवन का सौंदर्य सद्भावना से ही निर्मित होता है। आपसी प्रेम-व्यवहार एवं सद्भाव ज़िन्दगी को फूल, नदी और झरने के समान सुनदर बना देता है। अपने इस भाव को कवि ने इन पंक्तियों में कुछ इस तरह पिरोया है-
सहेजें सद्भावना से
धरोहर सी ज़िन्दगी।
नदी-सी निश्छल रवानी
तदों से हिल-मिल बहे
फले-फूले कछारों में
गेह सागर की गहे।
कभी झरना, कभी निश्चल
सरोवर सी ज़िन्दगी।

जीवन में संतोष से बड़ा कोई धन नहीं होता - इस तथ्य को वर्तमान बाज़ारवादी युग मानो भूलता जा रहा है। और-और की चाहत ने लोगों का सुख-चैन छीन रखा है। उपभोक्ता संस्कृति ने इंसान को भौतिकवादी बना दिया है। कवि का मानना है कि यदि व्यक्ति के पास जो है, उसी में संतुष्ट रहे तो जीवन सुख-यांति से व्यतीत हो सकता है। ये पंक्तियां देखिए -
जो  प्राप्त  है,   पर्याप्त है।
सुख-शांति इसमें व्याप्त है।
ईर्ष्या,  अहम्,  तृष्णा, वहम
यश, चैन, चहक समाप्त है।
दुर्गन्ध है   या  सुगन्ध है
यह ज़िन्दगी की शिनाख़्त है।
अपना भला,   सबका  बुरा
यह सोच कलुष, विषाक्त है।




शहरों की ज़िन्दगी जिस तरह प्रदूषित और भागमभाग वाली हो गई है उससे भी कवि का चिन्तित होना स्वाभाविक है। ये पंक्तियां देखिए -
हड़बड़ाते, हांफते से
अधमरे होते शहर।
सो रहे हैं सुध बिसर कर
बांसुरी की, भोर की
कान को आदत पड़ी है
चींख भरते शोर की
देर रातों तक लगाते
मदभरे गोते शहर।

ऋषभ समैया ‘जलज’ के गीतों एवं ग़ज़लों में समाज और समय के प्रति जिस प्रकार की प्रतिबद्धता का स्वर ध्वनित होता है, वह उन्हें एक सजग कवि के रूप में स्थापित करता है।
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( दैनिक, आचरण  दि. 23.08.2018)
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