Friday, January 25, 2019

प्रगतिशील लेखक संघ की पाक्षिक कवि गोष्ठी - डॉ. वर्षा सिंह


       
Dr. Varsha Singh
प्रगति शब्द का अर्थ है आगे बढ़ना और उन्नति करना। प्रगतिवाद को हम समाज, साहित्य आदि की निरन्तर उन्नति करते रहने का सिद्धांत कह सकते हैं। साहित्य के संदर्भ में यदि कहें तो यह साहित्य का एक आधुनिक सिद्धांत है जिसका लक्ष्य जनवादी विचारों को संपादित कर भौतिक यथार्थवादी ध्येय की संपूर्ति करना है। हिन्दी सहित्य कोश, भाग 1 में प्रगतिवाद के संबंध में लिखा गया है- ''प्रगतिवाद सामाजिक यथार्थवाद के नाम पर चलाया गया वह साहित्यिक आंदोलन है, जिसमें जीवन और यथार्थ के वस्तु सत्य को उत्तर छायावाद काल में प्रश्रय मिला और जिसने सर्वप्रथम यथार्थवाद की ओर समस्त साहितियक चेतना को अग्रसर होने की प्रेरणा दी। प्रगतिवाद का उद्देश्य था साहित्य में उस सामाजिक यथार्थवाद को प्रतिष्ठित करना, जो छायावाद के पतनोन्मुख काल की विसंगतियों को नष्ट करके एक नये साहित्य और नये मानव की स्थापना करे और उस सामाजिक सत्य को, उसके विभिन्न स्तरों को साहित्य में प्रतिपादित होने का अवसर प्रदान करे। वर्ग-संघर्ष की साम्यवादी विचारधारा और उस संदर्भ में नये मानव, नये हीरो की कल्पना इस साहित्य का उद्देश्य था। इसकी मूल प्रेरणा मार्क्सवाद से विकसित हुई थी।







प्रगतिवाद में व्यक्ति और समाज के आगे बढ़ने, उसकी उन्नति पर बल है। जैसे ठहरा हुआ पानी कुछ समय बाद दुर्गंधयुक्त हो जाता है और प्रयोग करने योग्य नहीं रहता, किन्तु नदी का बहता पानी जहाँ-जहाँ से बहता है वहाँ की भौगोलिक सिथति के अनुसार अपनी जगह बनाता हुआ, आस-पास के लोगों को आनंद देता हुआ आगे बढ़ता जाता है। बहते पानी में गंदगी रुकती नहीं अत: उसका पानी प्रयोग में आने योग्य रहता है। ठीक वैसे ही, जो समाज अपने समय की आवश्यकताओं को नहीं समझता और वर्षों पूर्व बनाये गये सिद्धांतों, नियमों, मान्यताओं और विश्वासों में जकड़ा रहता है वह भी कभी आगे नहीं बढ़ता और रुके हुए पानी की भाँति बदबूदार हो जाता है। प्रगतिवाद उन रूढ़ियों, नियमों, मान्यताओं, पद्धतियों का विरोध करता है जो समाज की प्रगति में बाधक हैं, और उन नियमों-मान्यताओं को अपनाने पर बल देता है जो वर्तमान के अनुकूल हैं। दूसरी बात है सामाजिक यथार्थ और जीवन- यथार्थ के वस्तु सत्य की, अभिव्यक्ति की। हम जिस समाज में रहते हैं, उसकी अच्छाइयों और बुराइयों से प्रभावित होते हैं। गुणदोषोें से भरपूर इस समाज में ही हमारे व्यक्तित्व का निर्माण होता है और अपने व्यक्तित्व, इच्छाओं, आकांक्षाओं के सहारे इस समाज को भी हम बनाते-बिगाड़ते हैं। फिर सामाजिक यथार्थ क्या है? क्या समाज में व्याप्त अच्छाइयाँ, या बुराइयाँ? सामाजिक यथार्थ की बात जब हम करते हैं तो उसके अंतर्गत अच्छाइयाँ और बुराइयाँ दोनों ही आते हैं। साहित्य में यदि केवल अच्छाइयों का ही चित्रण हो तो वह आदर्शवादी साहित्य कहलाता है ओर यदि केवल बुराइयों का ही चित्रण हो, तो नग्न यथार्थवादी । प्रसिद्ध कथाकार प्रेमचंद ने कहा था कि यथार्थ केवल प्रकाश या केवल अंधकार नहीं है, बल्कि अंधकार के पीछे छिपा प्रकाश और प्रकाश के पीछे छिपा अंधकार है। प्रगतिवाद उन स्थितियों को पहचानने पर बल देता है जिनके कारण हमारा समाज अंधकारग्रस्त है और उन स्थितियों को पहचानने पर भी बल देता है जिनके बलबूते पर इस अंधकार को हराया जा सकता है। तीसरी बात प्रगतिवाद का प्रेरक कारण मार्क्सवाद का सिद्धांत हैं। यह सिद्धांत शोषक परिस्थितियों का विरोध करता है और शोषित समाज में चेतना जगाने, उन्हें अपने अधिकारों और समवेत परिस्थितियों के प्रति भरोसा करने पर बल देता है। यह उस सामंतवादी और पूंजीवादी मानसिकता और संस्कृति का विरोध करता है जो शक्ति और धन को कुछ मुट्टीभर लोगों के हाथों में केन्द्रित कर देती है, जिससे वे स्वार्थी और दंभी हो जाते हैं और अपनी शक्ति और धन का दुरुपयोग कर उन लोगों का शोषण करते हैं जिनके परिश्रम के बल पर वे सुख भोगते हैं। प्रगतिवाद भी सामंतवाद और पूँजीवाद का विरोध करता है जो समाज में व्याप्त अंधकार का कारण है और उन गरीबों मजदूरों-किसानों को प्रकाश-पुंज मानता है जिनके बल पर यह अंधकार नष्ट हो सकेगा। प्रगतिवाद की दृष्टि में यही श्रमशील मानव नयामानव और नया हीरो है। चौथी बात, इस उद्देश्य में छायावाद के पतनोन्मुख काल की विपत्तियों को नष्ट कर नये समाज के निर्माण की बात कही है। छायावादी कविता में इतिहास, कल्पना, आदर्श, प्रेम, विरह, प्रकृति की सुंदरता और सुकुमारता पर विशेष बल था। प्रगतिवाद में इतिहास को नकारा नहीं गया, इतिहास अतीत के मोह से मुक्ति की बात की गयी है। इसके लिए व्यक्ति का उन्नयन समाज के सभी वर्गों की समान रूप से उन्नति, रूढ़ियों, अंधविश्वासों से मुक्ति आदि वस्तु सत्य प्रधान हैं इसलिए र्इश्वर, रहस्य, प्रकृति की सुंदरता, वैयक्तिक प्रेम, विरह के लिए वहाँ कोर्इ स्थान नहीं।




हिन्दी कविता में प्रगतिवाद का आरंभ 1936 के आसपास माना जाता है। परंतु कविता के प्रगतिवादी तत्त्वों का समावेश कोई आकसिमक घटना नहीं थी। इसके अंकुर आधुनिक काल के आरंभ में ही भारतेंदु युग से फूटने लगे थे। ब्रिटिश राज्य की जनविरोधी नीतियों, उनके अत्याचारों के परिणामस्वरूप लोगों का ध्यान देश की दुर्दशा, और उसके मूल कारणों की ओर आकृष्ट हुआ। नवजागरण के प्रभाव से भी इस दुर्दशा के मूल कारणों की पड़ताल की आवश्यकता अनुभव की जाने लगी। अशिक्षा, अंधविश्वासों, रूढि़यों, संप्रदायवाद को प्रगति विरोधी माना जाने लगा। विदेशी दासता से मुक्ति पाने की छटपटाहट जोर पकड़ने लगी।

भारतेंदु और द्विवेदी युग की रचनाओं में जाति और धर्म के बंधनों के प्रति प्रश्नचिहन लगने लगे थे क्योंकि इन्हीं के कारण देश अनेक वर्गों में बंट गया था, कमजोर हो गया था, और समाज का एक बड़ा वर्ग उपेक्षा और अत्याचार सहने को विवश था। हिन्दी में छायावाद युग में साहित्य में प्रेम-विरह की निजी अनुभूतियों, स्वप्नों, रहस्यों को प्रधानता दी गयी। लगभग इसी समय में यूरोप में रह रहे भारतीय साहित्यकारों ने लंदन में प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना की। उन्होंने अपने परिपत्रा में रुढ़िवादी, जड़तावादी, परंपरावादी विचारों से समाज को मुक्त कराने पर बल दिया। उन्होंने देश की सामाजिक-आर्थिक अवनति के मूल कारणों को पहचानने पर बल दिया और कहा कि साहित्यकारों को कल्पना-लोक से बाहर निकल कर यथार्थ की भूमि पर खड़े होना होगा। इस संघ पर मार्क्सवाद का स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है, जो वंचितों शोषितों और किसान-मजदूरों का पक्षधर था। भारत में सन् 1936 में लखनऊ में इस संघ की बैठक हुर्इ जिसकी अध्यक्षता प्रेमचंद ने की थी। इस नवीन चेतना और प्रगतिशील लेखक-संघ की इस बैठक का प्रभाव हिंदी लेखकों-कवियों पर व्यापक रूप से हुआ। छायावाद के प्रमुख स्तंभ माने जाने वाले सुमित्रानंद पंत और सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' की रचनाओं में यह परिवर्तन स्पष्ट देखा जा सकता हैं। सुमित्रानंदन पंत जी सन् 1938 में कालाकांकर से प्रकाशित ' रूपाभ ' नामक पत्र के संस्थापक भी रहे । प्रकृति के सुकुमार कवि पंत 'रूपाभ' के संपादकीय में लिखते हैं- ''इस युग में जीवन की वास्तविकता ने जैसा उग्र आकार धारण कर लिया है उससे प्राचीन विश्वासों में प्रतिषिठत हमारे भाव और कल्पना के मूल हिल गये हैं। अतएवं इस युग की कविता स्वप्नों में नहीं पल सकती, उसकी जड़ों को पोषण सामग्री ग्रहण करने के लिए कठोर आश्रय लेना पड़ रहा है। 'जुही की कली और संèया सुंदरी के रचयिता निराला जी 'विधवा, 'वह तोड़ती पत्थर, 'कुकुरमुत्ता और 'गुलाब जैसी कविताएँ लिखने लगते हैं। सन 1936 से आंरभ हुआ प्रगतिवाद का यह दौर सन् 1950 के लगभग तक माना जाता है। उसके बाद प्रगतिवाद आंदोलन के रूप में भले ही न रहा हो, किंतु उसके द्वारा स्थापित मूल्य परवर्ती कविता में भी किसी न किसी रूप में विधमान हैं। मुक्तिबोध, नागार्जुन, धूमिल, त्रिलोचन, केदारनाथ अग्रवाल आदि अनेक कवियों की रचनाओं में यह प्रभाव स्पष्ट देखा जा सकता है।





सागर में प्रगतिशील लेखक संघ अनेक वर्षों से सक्रिय है। विगत वर्ष इसकी मकरोनिया इकाई की भी शुरूआत की गई है। जो पाक्षिक गोष्ठियों के जरिये लेखकों, कवियों को प्रगतिशील विचारधारा से जुड़ने के लिए प्लेटफार्म देने का कार्य गम्भीरतापूर्वक कर रही है।




       दिनांक 20.01.2019, रविवार की शीत भरी दोपहरी बड़ी सार्थक बीती। शिक्षा के मंदिर यानी विद्यालय प्रांगण में खुले आसमान के नीचे कुनकुनी धूप में काव्य गोष्ठी का हम सबने भरपूर आनंद उठाया ... जी हां, प्रगतिशील लेखक संघ, सागर की मकरोनिया शाखा द्वारा आयोजित इस काव्य गोष्ठी में ख़ूब कविताएं पढ़ी गयीं, ग़ज़लें गायी गयीं और खुल कर विचार विमर्श किये गये।

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