Dr. Varsha Singh |
सागर : साहित्य एवं चिंतन
सघन भावाभिव्यक्ति के कवि हुकुमचंद सागरी
- डॉ. वर्षा सिंह
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परिचय :- हुकुमचंद सागरी
पिता : - स्व.करोड़ी लाल
माता : - स्व. गुलाब रानी
जन्म तिथि :- 02.01.1958
जन्म स्थान :- मढ़िया विट्ठल नगर, सागर
लेखन विधा :- पद्य
प्रकाशन :- पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित
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साहित्य के प्रति रुझान किसी विशेष वातावरण पर निर्भर नहीं होता है। व्यक्ति किसी भी वातावरण में रह रहा हो किंतु यदि उसके मन में असीम संवेदनाएं हैं तो वह साहित्य के प्रति सहज ही आकृष्ट हो जाता है। यह तथ्य सागर के कवि हुकुमचंद सागरी के संदर्भ में सटीक बैठता है। हुकुमचंद सागरी का जन्म 2 जनवरी 1958 को नगर के मढ़िया विट्ठल नगर क्षेत्र में हुआ था। उनके पिता स्व. करोड़ी लाल एवं माता स्व. गुलाब रानी धर्मनिष्ठ व्यक्ति थे। उनके सामाजिक सरोकार थे किंतु साहित्य के प्रति उनका रुझान नहीं के बराबर था। ऐसे परिवार में जन्में हुकुमचंद सागरी जिनका मूल नाम है- हुकुमचंद लड़िया, उनके मन में साहित्य के प्रति लगाव जागृत हुआ। अपनी आरंभिक शिक्षा पूर्ण करने के बाद हुकुमचंद लड़िया ने विद्युत मंडल में नौकरी आरंभ की तथा सेवानिवृत्त तक वहींं सेवारत रहे। नौकरी के दौरान ही हुकुमचंद लड़िया को साहित्यिक रुझान मिला और वे साहित्य की विभिन्न प्रवृत्तियों को समझने का प्रयास करने लगे। वे बताते हैं कि सन 1987 से वह साहित्य के प्रति गंभीर हुए और उन्होंने मार्क्सवादी साहित्य तथा लोक साहित्य दोनों को ही समझने का प्रयास आरंभ कर दिया। वे गोष्ठियों में जाने लगे तथा विचार विनिमय में भाग लेने लगे इसी के साथ उन्होंने 'सागरी' उपनाम से कविताएं लिखनी आरंभ की। साहित्य सेवा के लिए कवि हुकुमचंद सागरी को अनेक सम्मान से सम्मानित किया जा चुका है, जिनमें सबसे प्रमुख है दिल्ली का "डॉ. भीमराव अंबेडकर फैलोशिप सम्मान"। कवि सागरी की रचनाएं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं। आकाशवाणी से भी इनकी रचनाओं का प्रसारण हो चुका है।
हुकुम चंद सागरी की कविताओं में आम जनजीवन विशेष रूप से समाज के दलित वर्ग की यथार्थ स्थिति का विवरण मिलता है उनकी यह कविता देखें -
बेकसूर लोगों की बस्तियां जला डालींं ।
तुमने क्यों गरीबों की झुग्गियां जला डालींं ।
खत लिखा तुम्हें हमने यह कसूर था मेरा
और तुमने हाथों की उंगलियां जला डालींं ।
जंगलों से लोगों पेड़ काटकर तुमने
आजकल हवाओं की सुर्खियां जला डालींं।
जन्मदिन की बारिश का है असर गरीबों पर
भूख ने गरीबों की दुनिया जला डालींं ।
अरे 'हुकुम' जमाने ने कर दिया करम इतना
मुफ़लिसों के चंदे से अर्थियां जला डालींं।
हुकुमचंद लड़िया की रचनाओं में जहां आम आदमी की समस्याएं दिखाई देती है, वहीं उन समस्याओं के प्रति एक आक्रोश भी मिलता है यह ग़ज़ल देखें-
है आन बान शान बचाने को आदमी ।
है बोझ गरीबी का उठाने को आदमी ।
इस राह दोस्ती से भी हट कर ऐ दोस्त ,
है नाते रिश्ते खूब निभाने को आदमी ।
आगे नहीं आता है अब इस दौर में कोई ,
भूले हुए को राह दिखाने को आदमी ।
करता रहा है कोशिशें हर दौर में नादान ,
नफरत की आग घर लगाने को आदमी ।
अच्छाइयों को मेरी ठुकरा के 'हुकुम'
बेताब है बुराई सुनाने को आदमी।
Sagar Sahitya avam Chintan - Dr. Varsha Singh |
विश्वास और ईमानदारी ही खूबियां है जो मनुष्य को श्रेष्ठ बनाती है, उन्हें एक अलग पहचान देती है। जो व्यक्ति विश्वास अर्थात यकीन को भगवान मानता है वही इस समाज में इस दुनिया में अपनी एक अलग पहचान बना पाता है, यह विचार हुकुमचंद की इन पंक्तियों में मुखरित हुआ है-
यक़ीन ही सच्चा है यक़ीन ही भगवान है ।
चलता है सही राह जो बस वही इंसान है ।
सच्ची लगन की मेहनत बेकार नहीं जाती ,
दुनिया में इक गरीब भी धनवान है, धनवान है ।
औरों के काम आए होता है मसीहा वो
फिर आज आदमी क्यों इस बात से अनजान है ।
खिदमत करोगे उनकी तो फल मिलेगा अच्छा ,
मां, बाप से औलाद की हरेक जगह पहचान है ।
हुकुमचंद सागरी की काव्य रचनाओं में विषय की विविधता देखी जा सकती है । उनकी रचनाओं में जहां दलित शोषित वर्ग के प्रति आवाज उठती हुई सुनाई देती है वही ईश्वर की उपस्थिति और प्रेम संबंधों का घनत्व मिलता है । हुकुमचंद सागरी बंदगी को अपनी अलग ही दृष्टि से देखते हैं -
बंदगी तेरी में इस तरह निभा सकता हूं ।
एक दिया तेरे मुकाबिल तो जला सकता हूं।
वो बियाबान हो, सहरा हो अगर तू कह दे
वही इंसाफ का दरबार लगा सकता हूं ।
वेश साधु का अभी मैं भी बना सकता हूं ,
यह करिश्मा भी जमाने को दिखा सकता हूं ।
मोहताजों के संघर्ष में मदर टेरेसा सहारा बनी ,
वह मसीहा है उसे फूल तो चढ़ा सकता हूं।
'हुकुम' कुदरत जो चाहे उसका तो अभी
इक पल में ही जमाने को हिला सकता हूं।
काव्य एक ऐसा माध्यम है जिसके द्वारा अपने विचारों को बड़े ही कोमल ढंग से प्रस्तुत किया जा सकता है । यदि कोमलता को आत्मसात कर के कवि जब संवेदनाओं की बात करता है तो वह एक खूबसूरत रचना बनकर सामने आती है। इस संदर्भ में हुकुमचंद की यह पंक्तियां ध्यान देने योग्य है -
यह तबस्सुम सजा न बन जाए ।
जिंदगी बद्दुआ ना बन जाए ।
देखकर यार इस हाल में मुझको
मेरा दुश्मन खुदा न बन जाए ।
अश्क़ ज़हराब ही सही लेकिन
दर्द दिल की दवा न बन जाए ।
उनके हाथों में यह लहू अपना
कहीं रंगे हिना न बन जाए ।
'हुकुम' डर है मुझको गम ही मेरा
जीने का आसरा न बन जाए।
जीवन में घटित होने वाली प्रत्येक घटना कवि को प्रभावित करती है चाहे वह देश के भीतर अन्याय अत्याचार या भ्रष्टाचार हो अथवा देश की सीमा पर जवानों की कुर्बानियां हो । कवि मन इन सब से समान भाव से प्रभावित होता है ।देश के लिए अपनी जान देने वाली जवानों पर कवि ने यह पंक्तियां कही है-
भारत की सर जमीन पर कुर्बान हो गए ।
यारों अमर वतन के नौजवान हो गए ।
लहरा दिया सरहद पर हर सिम्त तिरंगे को
वह लोग ही भारत की पहचान हो गए ।
करते हैं इसी से तो वीरों को नमन हम सब
इस मुल्क के परचम की जो शान हो गए ।
सीने पर खाकर गोली हरदम जो रहे हंसते
कहते हैं पूरे अब अरमान हो गए ।
वह फर्ज निभाते हैं सीने को ठोंक कर के
दुश्मन भी देखकर हैरान हो गए ।
दुश्मन को कभी ना वो पीठ दिखाएंगे
भगवान जिसके दिल में मेहमान हो गए ।
कब्रों पे शहीदों की गुल जब से चढ़ाए हैं
हर काम 'हुकुम' के अब आसान हो गए ।
हुकुमचंद सागरी की काव्य रचनाओं में शिल्प की कमी भले ही पाई जाए किंतु भावनात्मक मुखरता की कमी कदापि नहीं है। उनकी कविताओं में संवेदनाएं अपने पूरे प्रभाव के साथ प्रस्फुटित होती दिखाई देती हैं तथा पढ़ने वाले के मन को गहरे तक स्पर्श करती हैं और यही उनके काव्य की सबसे बड़ी विशेषता है।
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( दैनिक, आचरण दि. 28.02.2019)
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