Monday, March 4, 2019

कालः क्रीड़ति पर समीक्षा गोष्ठी डॉ. (सुश्री) शरद सिंह के मुख्य आतिथ्य में


Dr. Varsha Singh
दिनांक 28 फरवरी 2019 को मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी की पाठक मंच, सागर इकाई में डॉ श्यामसुंदर दुबे के ललित निबंध संग्रह "कालः क्रीडति" पर समीक्षा आलेख का वाचन तथा विचार विमर्श किया गया  जिसमें डॉ. (सुश्री) शरद सिंह मुख्य अतिथि थीं।


इस अवसर पर डॉ. शरद सिंह  द्वारा दिये गये उद्बोधन के कुछ मुख्य अंश यहां प्रस्तुत हैं ….
डॉ. शरद सिंह ने अपने एक शेर से अपनी बात की शुरुआत की...
जो लहज़ा नर्म हो तो, बात सबको भा ही जाती है
नज़ाकत आ ही जाती है, शराफ़त आ ही जाती है

उन्होंने कहा कि ललित निबंध की भी यही खूबी है।

निबंध में लालित्य के पुट को समझने के लिए एक उदाहरण दे रही हूं कि देखिए यह एक कमरा है। यहां लोग बैठे है। यहां हवा और उजाला भी है।
... यह एक महत्वपूर्ण  कक्ष है। यहां विद्वतजन विराजमान हैं। यहां प्राणवायु का संचरण हो रहा है तथा यहां बौद्धिक प्रकाश फैला हुआ है।

डॉ श्याम सुंदर दुबे जी के सात निबंध संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। उनके इस निबंध संग्रह 'कालः क्रीडति' के ना से मुझे याद आ रहा है शंकराचार्य रचित 'चर्पटपञ्जरिकास्तोत्रम्'   का यह श्लोक है -

दिनमपि रजनी सायं प्रातः शिशिरवसन्तौ पुनरायाताः ।
कालः क्रीडति गच्छत्यायुस्तदपि न मुञ्चत्याशावायुः।।

अर्थात् – दिन तथा रात, प्रातः, सायं शिशिर एवं वसंत ऋतु फिर-फिर आते हैं। समय खेलता है, आयु व्यतीत होती है, फिर भी आशा रूपी प्राणवायु छूटती नहीं।

ललित निबंधों की परम्परा में अनेक नाम हैं किन्तु यहां मैं सिर्फ़ दो उदाहरण दूंगी जिनमें से एक है विद्यानिवास मिश्र का ललित निबंध "तुम चंदन हम पानी"। इसका एक अंंश ललित निबंधोंं की रोचकता सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है-
"शायद कुछ लोग 'प्रभुजी हम चंदन, तुम पानी'कहकर मानव की क्षुद्रता और दुर्बलता को गौरव देना चाहें और कहें कि जरा-सा-उलट दिया, बात तो वही है,चाहे खरबूज गिरे छुरी पर या छुरी गिरे खरबूजे पर,खरबूजे का कटना अवश्यम्भावी है, चाहे प्रभुजी चंदन हों और हम पानी हों चाहे हम चंदन हों, प्रभुजी पानी हों, घिसना तो अवश्यम्भावी है, तो उनका तर्क तो बहुत ठीक है; परंतु चंदन तब नहीं घिसेगा। तो जरा-सा हमारा पानी लगता है और प्रभु का चंदन पसीज जाता है; पर हमार छोटा-सा चंदन प्रभु के अपार कृपा सिंधु में होरसा समेत बह निकलेगा, फिर चंदन घिसने की बात भी समाप्त हो जाएगी।"
  
दूसरा उदाहरण है हजारीप्रसाद द्विवेदी का निबंध ‘वसंत आ गया है’। इसका भी एक अंश देखें-
"महुआ बदनाम है कि उसे सबके बाद वसंत का अनुभव होता है; पर जामुन कौन अच्छा है। वह तो और भी बाद में फूलता है। और कालिदास का लाडला यह कर्णिकार? आप जेठ में मौज में आते हैं। मुझे ऐसा लगता है कि वसंत भागता-भागता चलता है। देश में नहीं, काल में। किसी का वसंत पन्द्रह दिन का है तो किसी का नौ महीने का। मौजी है अमरूद। बारह महीने इसका वसंत ही वसंत है।"

यही रोचकता डॉ श्याम सुंदर दुबे के ललित निबंध संग्रह "कालः क्रीडति" में संग्रहीत निबंधों में है।

आज संचार माध्यमों की रिपोर्ताजिक भाषा ने गद्य साहित्य में भी सपाटपन ला दिया है, ऐसे शुष्क समय में "काल : क्रीडति" जैसे ललित निबंध लिखे जाने जरूरी हैं। डॉ.श्याम सुंदर दुबे सिद्धहस्थ ललित निबंधकार हैं। उनके निबंध हमें बताते हैं कि लालित्यपूर्ण गद्य में कितने प्रतिशत काव्यात्मकता होनी चाहिए। दरअसल, काव्यात्मक तत्व निबंधों की पठनीयता को सरस बना देते हैं और पाठकों में गद्य के प्रति रुझान बढ़ाते हैं।










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