Monday, April 26, 2021

अल्विदा मेरी मां डॉ. विद्यावती "मालविका" | डॉ.वर्षा सिंह

डॉ. विद्यावती "मालविका"
13.03.1928- 20.04.2021



      प्रिय ब्लॉग पाठकों, मेरी स्वर्गीय माता जी डॉ. विद्यावती "मालविका" की जन्मभूमि मध्यप्रदेश के मालवा की उज्जैयिनी है और उनका कर्मक्षेत्र रहा है बुंदेलखंड का पन्ना और सागर। मालवा और बुंदेलखंड दोनों क्षेत्रों के प्रति स्नेहांजलि स्वरूप लिखा उनका यह गीत आज उन्हीं को श्रद्धांजलि स्वरूप यहां प्रस्तुत है-

प्रिय है धरा बुंदेली

          - डॉ. विद्यावती "मालविका"

मैं मालव कन्या हूं मुझको, प्रिय है धरा बुंदेली।
शिप्रा मेरी बहिन सरीखी, सागर झील सहेली।।

उज्जैयिनी ने सदा मुझे स्नेह दिया
विक्रम की धरती ने मेरा मान किय,
बुंदेली वसुधा ने मुझे दुलार दिया
गौर भूमि ने मुझे सदा सम्मान दिया,

सदा लुभाती मुझको सुंदर ऋतुओं की अठखेली।
मैं मालव कन्या हूं मुझको, प्रिय है धरा बुंदेली।।

महाकाल के चरणों में बचपन बीता 
रहा न मेरा अंतस साहस से रीता,
यहां बुंदेली संस्कृति को अपनाने पर
हुई समाहित मेरे मन में ज्यों गीता,

ऋणी रहूंगी मैं नतमस्तक, बांधे युगल हथेली।
मैं मालव कन्या हूं मुझको, प्रिय है धरा बुंदेली।।
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#सागर #मध्यप्रदेश #उज्जैन #मालवा #बुंदेलखंड #डॉ_विद्यावती_मालविका #DrVidyawatiMalvika

Tuesday, April 13, 2021

रानगिर की देवी हरसिद्धि | नवरात्रि की शुभकामनाएं । डॉ. वर्षा सिंह

🙏 नवरात्रि पर्व पर हार्दिक शुभकामनाएं 🙏
प्रिय ब्लॉग पाठकों,
 कोरोना संक्रमण के कहर के चलते एक बार फिर पूरे मध्यप्रदेश में लॉकडाउन के हालात बन रहे हैं। सागर ज़िले में भी अभी पिछले शुक्रवार 09 अप्रैल की शाम से सोमवार 12 अप्रैल की सुबह तक क लिए दो दिन का लॉकडाउन लागू हो चुका है। स्थिति की गम्भीरता को देखते हुए जिला प्रशासन द्वारा चैत्र नवरात्र के अवसर पर सागर ज़िले की रहली तहसील के ग्राम रानगिर में स्थित हरसिद्धि देवी मंदिर परिसर के आसपास लगने वाला रानगिर मेला स्थगित कर दिया है।
कोविड गाइडलाइन के लगातार दूसरे साल भी मेला स्थगित होने से जहां मां हरसिद्धि के श्रद्धालुओं में निराशा है, तो वहीं इस मेले के जरिए व्यवसाय करने वाले व्यापारी भी निराश हैं। रानगिर मेला न केवल लोगों की आस्था का केन्द्र है, बल्कि हजारों परिवारों की आजीविका का साधन भी है। गरीब और छोटे-छोटे फुटपाथी दुकानदार मेले में अपनी-अपनी दुकानें लगाते हैं। मेले में व्यापार कर मुनाफा कमाकर अपनी पारिवारिक जरूरतों को पूरा करते हैं।




ग्राम रानगिर में देवी हरसिद्धि अथवा हरसिद्धी का ऐतिहासिक और प्राचीन मंदिर स्थित है। रहली  तहसील मुख्यालय से लगभग 16 कि.मी और  सागर से लगभग 34 कि.मी. की दूरी पर देहार नदी के तट पर स्थित है।  यह क्षेत्र शक्ति साधना के लिए जाना जाता है।

मंदिर का निर्माण कब और कैसे हुआ इसका कोई प्रमाण नहीं है परन्तु यह मंदिर अतिप्राचीन और ऐतिहासिक है। इतिहासकारों के अनुसार कुछ लोग इसे महाराज छत्रसाल द्वारा बनवाए जाने की संभावना व्यक्त करते हैं क्योंकि सन् 1726 में सागर ज़िले में महाराज छत्रसाल द्वारा आगमन का उल्लेख इतिहास में वर्णित है। सिंधिया राज घराने का संबंध भी रानगिर से होना बताया जाता है। यह भी कहा जाता है कि रानगिर में हरसिद्धि माता मंदिर का निर्माण मराठा शासन काल में हुआ था। ऐतिहासिक दृष्टि से 1732 में सागर क्षेत्र पर मराठों की सत्ता थी। पंडित गोविंद राव का शासन था। उनके समय में नदी के किनारे हरसिद्धि माता का मंदिर निर्माण किया गया। मान्यता है कि तभी से मेला की परंपरा रही है। 


 देवी की अनगढ़ प्रतिमा के बारे में प्राचीन काल से ऐसी मान्यता है कि माता से जो भी मन्नत मांगी जाती है वह पूर्ण होती है। इसी कारण माता को हरसिद्धि माता के नाम से जाना जाता है। सिद्धिदात्री माता दिन में तीन रूप धारण करने को भी प्रसिद्ध हैं। मान्यता है कि प्रातः काल में माता बाल कन्या के रूप में दर्शन देती हैं। दोपहर बाद माता नवयुवती-नवशक्ति का रूप धारण कर लेती हैं। शाम ढलने के बाद वह वृद्ध माता के रूप में भक्तों को आशीर्वाद देती हैं। 

हरसिद्धि माता के बारे में कई किवदन्तियां प्रचलित हैं। एक किवदन्ती के अनुसार रानगिर में एक चरवाहा हुआ करता था। चरवाहे की एक छोटी बेटी थी। बेटी के साथ एक वन कन्या रोज आकर खेलती थी एवं अपने साथ भोजन कराती थी तथा रोज एक चांदी का सिक्का देती थी। चरवाहे को जब इस बात की जानकारी लगी तो एक दिन छुपकर दोनों कन्या को खेलते देख लिया चरवाहे की नजर जैसे ही वन कन्या पर पड़ी तो उसी समय वन कन्या ने पाषाण रूप धारण कर लिया। बाद में चरवाहे ने कन्या का चबूतरा बना कर उस पर छाया आदि की और यहीं से मां हरसिद्धि की स्थापना हुई।

दूसरी किवदन्ती के अनुसार आदि देव शिव ने एक बार देवी सती के शव को हाथों में लेकर क्रोध में तांडव नृत्य किया था। नृत्य के दौरान देवी सती  के अंग पृथ्वी पर गिरे थे। देवी सती के अंग जिन जिन स्थानों पर गिरे वह सभी शक्ति पीठों के रूप में प्रसिद्ध हैं। ऐसी मान्यता है कि रानगिर में देवी सती की रानें अर्थात् जंघा गिरी थीं इसीलिए इस क्षेत्र का नाम रानगिर पड़ा। रानगिर के पास ही गौरीदांत नामक क्षेत्र है यहां देवी सती  के दांत गिरना माना जाता है। 

एक अन्य किंवदन्ती के अनुसार त्रेतायुग में राम ने वनवास के दौरान रानगिर के पर्वतों पर विश्राम किया था और इस कारण इस क्षेत्र का नाम रामगिरी था जो बाद में रानगिर हो गया।

  

सिद्धक्षेत्र रानगिर में विराजित हरसिद्धि माता बुंदेलखण्ड के लाखों कुल कुटंब की कुलदेवी के रूप में पूजी जाती है। माता के दरबार में चैत्र नवरात्रि में रोजाना हजारों श्रद्धालु जन जल, सुहागिन चोला समेत आस्था अनुरूप भेंट करने के लिए आते हैं। अंबे मां के दरबार में संतान, विवाह, गृह, नौकरी, व्यापार समेत सुख शांति समृद्धि की कामना करते हैं। मन्नतें पूरी होने की खुशी में भी श्रद्धालु जन दरबार में माथा टेकते हैं। 


हरसिद्धि देवी की एक झलक पाने के लिए लंबी कतारें लगती हैं। जवारे और बाने लेकर श्रद्धालु पहुंचते हैं। राई नृत्य होता है और देवीगीत गाए जाते हैं....

पत रखियो रानगिर वाली
पत रखियो सब जन की मोरी मैया। 
मैया के मड़पे चम्पा धनेरो।
महक भरी फुलवन की।
मोरी मैया...
मैया के मड़ पे गौयें धनेरी
बाढ़ भई बछड़न की।
मोरी मैया...
मैया के मड़ में भक्त बहुत हैं
भीड़ भई लड़कन की।
मोरी मैया...
मैया के मड़ में जज्ञ रचो है
हवन होय गुड़ घी को।
मोरी मैया...

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माय भवानी मोरी पाहुनी हो मां।
चन्दन पटली बैठक डारों,
दूधा पखारों दोऊ पांव। भवानी...
दार दरों मैं मूंग की माता,
राधौं मुठी भर भात। भवानी...
खाके जूंठ मैया अचवन लागीं,
मुख भर देतीं असीस। भवानी...
दूध पूत मैया तोरे दये हैं,
बरुआ अमर हो जायें। भवानी...
सुमिर-सुमिर मैया तोरे जस गाऊं,
चरण छोड़ कहां जाऊं। भवानी...

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बिनती सुनो मैया रानगिर वाली
बिनती सुनो महरानी भवानी। 
बिनती सुनो...
कष्ट निवारो संकट काटो,
दुख टारो महरानी भवानी। 
बिनती सुनो...
कितने भक्त हैं तारे तुमने,
मोह तारो महरानी भवानी। 
बिनती सुनो...
ना हम जाने आरती पूजा,
ना भक्ति महरानी भवानी। 
बिनती सुनो...
कैसे तुम्हारे दरशन पाऊं,
कैसे चरण दबाऊं महरानी। 
बिनती सुनो...
अपनी शक्ति दिखाओ मैया,
शरण तुम्हारे आऊँ भवानी। 
बिनती सुनो...

यहां प्रतिवर्ष चैत्र नवरात्रि और शारदीय नवरात्रि पर विशाल मेले का आयोजन किया जाता है। पूरे बुंदेलखंड में रानगिर में आयोजित होने वाले चैत्र नवरात्रि के मेले का अपना महत्व है। 

हर साल इस मेले में लाखों की संख्या में श्रद्धालु पहुंचते हैं, लेकिन कोरोना के बढ़ते कहर के कारण जिला प्रशासन के निर्देश पर इस मेला को निरस्त कर दिया गया। रानगिर मंदिर ट्रस्ट द्वारा कोविड-19 गाइडलाइन का पालन करते हुए लिए गए फैसले के अनुसार मंदिर का गर्भगृह बंद रहेगा। मंदिर के तीन अलग-अलग चैनल गेट हैं। वह भी पूरी तरह से बंद रहेंगे।श्रद्धालुओं को चैनल गेट के अंदर जाने की अनुमति नहीं होगी।

Wednesday, April 7, 2021

ब्रह्मवादिनी | काव्य संग्रह | समीक्षा | गहोई दर्पण | डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh


प्रिय ब्लॉग पाठकों,

    विगत दिनांक 05.04.2021 को ग्वालियर से प्रकाशित होने वाले समाचार पत्र 'गहोई दर्पण' में मेरी लिखी "ब्रह्म वादिनी' पुस्तक की समीक्षा प्रकाशित हुई है।

हार्दिक आभार 'गहोई दर्पण' 🙏


मैं बताना चाहूंगी कि श्री गहोई वैश्य प्रगतिशील समाज द्वारा ग्वालियर| से प्रकाशित साप्ताहिक समाचार पत्र की यह विशेषता है कि इसमें गहोई समाज के व्यक्तियों के कार्य कलापों , उनकी उपलब्धियों आदि के बारे में विस्तृत जानकारी प्रकाशित की जाती है। चूंकि "ब्रह्मवादिनी" काव्य संग्रह की लेखिका डॉ सरोज गुप्ता गहोई समाज की हैं अतः उनकी पुस्तक पर मेरे द्वारा लिखी समीक्षा को "गहोई दर्पण" ने भी मेरी अनुमति से प्रकाशित किया है।



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Sunday, April 4, 2021

पानी बचाओ, झिन पानी बचाओ | बुंदेली वार्ता | डॉ. वर्षा सिंह


Dr. Varsha Singh

पानी बचाओ, झिन पानी बचाओ 

                       

              - डॉ. वर्षा सिंह


एक दिना बे हते जब हमई ओरें शान से कहत ते के -

बुंदेलन की सुनो कहानी, बुंदेलन की बानी में

पानीदार इते हैं सबरे,  आग इते के पानी में 


अब जे दिना आ गए हैं के पानीदार तो सबई हैं, पर पानी खों तरस रए। ताल, तलैया, कुआ, बावड़ी, बंधा-बंधान सबई सूखत जा रये। अपने बुंदेलखण्ड में पानी की कमी कभऊ ने रही। बो कहो जात है न, के -

इते ताल हैं,  उते तलैया,  इते कुआ, तो उते झिरैया।।

खेती कर लो, सपर खोंर लो, पानी कम न हुइये भैया।।


मगर पानी तो मानो रूठ गओ है। औ रूठहे काए न, हमने ऊकी कदर भुला दई। हमें नल औ बंधान से पानी मिलन लगो, सो हमने कुआ, बावड़ी में कचरा डालबो शुरू कर दओ। हम जेई भूल गए के जे बेई कुआ आएं जिनखों पूजन करे बगैर कोनऊ धरम को काम नई करो जात हतो। कुआ पूजबे के बादई यज्ञ-हवन होत ते। नई बहू को बिदा की बेरा में कुआ में तांबे को सिक्का डालो जात रहो और रस्ते में पड़बे वारी नदी की पूजा करी जात हती। जो सब जे लाने करो जात हतो के सबई जल के स्रोतन की इज्ज्त करें, उनको खयाल रखें।

पानी से नाता जोड़बे के लाने जचकी भई नई-नई मां याने प्रसूता को कुआ के पास ले जाओ जात है औ कहूं-कहूं मां के दूध की बूंदें कुआ के पानी में डरवाई जात हैं। काए से के जैसे मां अपने दूध से बच्चे को जिनगी देत है, ऊंसई कुआ अपने पानी से सबई को जिनगी देत है। सो, प्रसूता औ कुआ में बहनापो सो बन जात है। पर हमने तो मानो जे सब भुला दओ है। लेकिन वो कहो जात है न, सुबह को भूलो, संझा घरे आ जाए तो भुलो ने कहात आए। हमें पानी को मोल समझनई परहे। पानी नईं सो जिंदगानी नईं।

सो भैया, जे गनीमत आए के अब पानी बचाबे के लाने  सबई ने कमर कस लई है। कुआ, बावड़ी, ताल, तलैया, चौपड़ा सबई की सफाई होन लगी है। जो अब लों आगे नई आए उनखों सोई आगे बढ़ के पानी बचाबे में हाथ बंटाओ चाइए। वाटर हार्वेस्टिंग से बारिश में छत को पानी जमीन में पोंचाओ, नलों में टोटियां लगाओ, कुआंं, बावड़ी गंदी ने करो औ पानी फालतू ने बहाओ फेर मजे से जे गीत गाओ- 


पानी बचाओ, झिन पानी बचाओ । 

कुंइया, तलैया खों फेर के जगाओ।।


मैके ने जइयो भौजी, भैया से रूठ के

भैया जू, भौजी खों अब ल्यौ मनाओ।।


पांच कोस दूर जाके, पानी हैं ल्याई

अब इतइ अंगना में कुंइया खुदवाओ।।


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Friday, April 2, 2021

रंगपंचमी पर पांच छंद पद्माकर के | डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh

प्रिय ब्लॉग पाठकों, रंग पंचमी की आप सभी को हार्दिक शुभकामनाएं !!!
   आज मैं अपने इस ब्लॉग पर बुंदेलखंड के गौरव एवं राष्ट्रीय स्तर पर ख्यातिलब्ध रीतिकालीन कवि पद्माकर के पांच छंद यहां प्रस्तुत कर रही हूं जो मूलतः होली पर केन्द्रित हैं -

1.
फागु के भीर अभीरन तें गहि, गोविंदै लै गई भीतर गोरी ।
भाय करी मन की पदमाकर, ऊपर नाय अबीर की झोरी ॥
छीन पितंबर कंमर तें, सु बिदा दई मोड़ि कपोलन रोरी ।
नैन नचाई, कह्यौ मुसक्याइ, लला ! फिर खेलन आइयो होरी ॥

कृष्ण और गोपियों के बीच होली खेली जा रही है।  पद्माकर कहते हैं कि राधा हुरियारों की भीड़ से कृष्ण का हाथ खींचकर राधा भीतर ले जाती हैं और अपने मन की करती हैं। वे कृष्ण पर अंबीर की झोली पलट देतीं हैं फिर उनकी कमर से पीतांबर छीन लेती हैं। कृष्ण को वे यूं ही नहीं छोड़ देतीं। जाते हुए उनके गाल गुलाल से मीड़ कर, नटखट दृष्टि से निहार कर हंसते हुए वे कहती हैं कि लला फिर से आना होली खेलने। 


2. 

एकै सँग हाल नँदलाल औ गुलाल दोऊ,
दृगन गये ते भरी आनँद मढै नहीँ ।
धोय धोय हारी पदमाकर तिहारी सौँह,
अब तो उपाय एकौ चित्त मे चढै नहीँ ।
कैसी करूँ कहाँ जाऊँ कासे कहौँ कौन सुनै,
कोऊ तो निकारो जासोँ दरद बढै नहीँ ।
एरी! मेरी बीर जैसे तैसे इन आँखिन सोँ,
कढिगो अबीर पै अहीर को कढै नहीँ ।

 राधा को कृष्ण ने गुलाल लगा दिया। राधा की चंचल चपल आँखों में गुलाल के साथ-साथ साँवले सलोने कृष्ण भी उतर गए। मानिनी राधा अपनी आँखों को यमुना के जल से धो-धो के हार गईं लेकिन नायक का प्रेम रंग उतारे नहीं उतरा। अब राधा किसको बोले, किससे कहे अपनी विवशता। अंत में थक हार कर राधा कहती हैं – मैंने बहुत प्रयास कर लिया और मेरी आँखों में पड़ा अबीर तो निकल गया पर वो ग्वाला अहीर  मेरी आँखों से नहीं निकलता।


3.

आई खेलि होरी, कहूँ नवल किसोरी भोरी,
बोरी गई रंगन सुगंधन झकोरै है ।
कहि पदमाकर इकंत चलि चौकि चढ़ि,
हारन के बारन के बंद-फंद छोरै है ॥
घाघरे की घूमनि, उरुन की दुबीचै पारि,
आँगी हू उतारि, सुकुमार मुख मोरै है ।
दंतन अधर दाबि, दूनरि भई सी चाप,
चौवर-पचौवर कै चूनरि निचौरै है ॥

इस छंद में होली खेलने आई राधा का सुंदर वर्णन है।

4.

घर ना सुहात ना सुहात बन बाहिर हूं ,
बाग ना सुहात जो खुसाल खुसबोही सोँ ।
कहै पदमाकर घनेरे घन घाम त्यों ही ,
चैत न सुहात चाँदनी हू जोग जो ही सोँ ।
साँझहू सुहात न सुहात दिन मौझ कछू ,
व्यापी यह बात सो बखानत हौँ तोही सौं ।
राति हू सुहात न सुहात परभात आली ,
जब मन लागि जात काहू निरमोही सौँ ।

आशय यह कि राधा कह रही हैं कि जब से उस निर्मोही कृष्ण से मन लगा है कुछ भी नहीं अच्छा लगता।

5.

गैल में गाइ कै गारी दईं, फिर तारी दई औ दई पिचकारी,
त्यों पद्माकर मेलि उठी  , इत पाइ अकेली करी अधिकारी।
सौंहै बबा की करे हौं कहौं, यहि फागि कौ लेहूंगी दांव बिहारी,
का कबहूं मझि आइहौ ना, तुम नंद किसोर! वा खोरि हमारी। 

कृष्ण ने रास्ते में राधा को अकेला पाकर घेर लिया था, गा गा कर गालियां दी थीं, तालियां मार कर मजाक उड़ाया था और पिचकारी मारकर रंग दिया था। इस घटना के बाद ही राधा ने अपने पिता की सौगंध खा कर कृष्ण को चुनौती दे दी थी कि जिस दिन नंदकिशोर तुम हमारे गांव की गलियों में आ गए उस दिन दांव लगा कर इस फाग का बदला लिये बिना में मरूंगी भी नहीं। 


महाकवि पद्माकर रीतिकाल के अन्तिम श्रेष्ठ कवि माने जाते हैं। जाति से पद्माकर तैलंग ब्राह्मण थे। इनका जन्म 1753 ई. एवं मृत्यु 1833 ई. में हुई। पद्माकर का जन्म स्थान सागर, मध्यप्रदेश था। सागर नगर स्थित जिस लाखाबंजारा झील तट पर पद्माकर जन्मे, पले-बढ़े, उसका नाम ही भट्टोघाट रख दिया गया था। इनके पिता मोहन भट्ट भी कविताएं लिखते थे। पद्माकर उर्दू के शायर में मीर, नजीर, अकबरावादी और गालिब के समकालीन थे। उन्होंने मेलों, तीज- त्यौहारों यथा होली, दिवाली के वर्णन के साथ ही अपने छंदों में ऋतु वर्णन भी किया है।


बुंदेलखंड सहित राजस्थान और महाराष्ट्र के अनेक स्थानों पर राजाश्रय में रहते हुए पद्माकर ने अनेक रचनाएं की। उन्हें सागर नरेश रघुनाथ राव अप्पा, महाराज जैतपुर, सुगरा निवासी नोने अर्जुनसिंह दतिया के राजा महाराज पारीक्षित, सुजाउदौला के जागीरदार गोसाई, सतारा के रघुनाथराव, उदयपुर नरेश महाराजा भीमसिंह, जयपुर के महाराजा प्रतापसिंह एवं उनके पुत्र जगतसिंह का राजाश्रय प्राप्त था। पद्माकर ग्वालियर के महाराजा दौलतराव सिंधिया के यहाँ पर भी रहे थे।

पद्माकर की कुछ ज्ञात रचनाएं निम्नलिखित हैं -
1.पद्माभरण- 1810 ई. – जयपुर में (अलंकार निरूपण)
2. प्रतापसिंह विरूदावली – जयपुर में महाराजा प्रतापसिंह के आश्रय में
3. हिम्मत बहादुर विरूदावली – सुजाउदौला के सेनापति
4. प्रबोध पचासा
5. कलि पच्चीसी
6. जगद विनोद – 6 प्रकरण, 731 छन्द प्रतापसिंह पुत्र जगतसिंह पर
7.राम रसायन – वाल्मीकी रामायण का आधार लेकर
8.गंगा लहरी – अन्तिम समय में कानपुर में कुष्ठ रोग के निवारण हेतु

 

सागर नगर में महाकवि पद्माकर की एक कद आदम प्रतिमा लाखाबंजारा झील स्थित चकराघाट में स्थापित है।
सागर के साहित्यकार धुरेड़ी के अवसर पर अपनी परंपरानुसार महाकवि पद्माकर को गुलाल लगाकर होली मनाते हैं। इस हेतु बड़ी संख्या में कवि वहां चकराघाट में एकत्रित हो कर प्रतिमा को स्नान कराते हैं और उनके साथ होली खेलते हैं। साथ ही कवि गण पद्माकर की प्रतिमा के समक्ष अपनी रचनाओं की प्रस्तुति देते हैं। विगत 45-46 वर्षों से यह परम्परा अनवरत चली आ रही है। 

     इस वर्ष भी कोरोना आपदा में यह परम्परा टूट नहीं पाई। इस वर्ष भी नगर के कुछ साहित्यकारों ने चकरा घाट में पद्माकर की प्रतिमा के समक्ष उपस्थित होकर होली का शुभारंभ किया और अपनी कविताओं का पाठ किया।
  
बुंदेलखंड में चैत्र मास के कृष्ण पक्ष की पंचमी को रंगपंचमी पर्व मनाया जाता है। रंगों का पर्व रंग पंचमी आज शुक्रवार दि. 02 अप्रैल 2021 को सागर जिले में उत्साह और उमंग के साथ मनाया जा रहा है। प्रति वर्ष रंगपंचमी पर नगर में हुलियारों की टोली निकलती है और जमकर रंग-गुलाल बरसता है, लेकिन कोरोना महामारी के चलते इस वर्ष प्रशासन द्वारा लोगों से घर पर ही होली मनाने की अपील की गई है। हालांकि बड़ा बाजार क्षेत्र के कई मंदिरों में फूलों के रंग की होली होती आई है। सागर के बिहारी जी के मंदिर की फूल होली प्रसिद्ध है। राधा-कृष्ण के स्मरण के बिना होली और रंगपंचमी अधूरी है।

Friday, March 26, 2021

ब्रह्मवादिनी : भारतीय संस्कृति से परिचित कराता काव्य संग्रह | पुस्तक समीक्षा | डाॅ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh



प्रिय ब्लॉग पाठकों,

     आज दिनांक 26.03.2021 को दैनिक समाचार पत्र 'आचरण' में मेरी लिखी पुस्तक समीक्षा प्रकाशित हुई है।

हार्दिक आभार 'आचरण' 🙏

इस ब्लॉग के सुधी पाठकों की पठन सुविधा हेतु वह समीक्षा  यहां प्रस्तुत है -

पुस्तक समीक्षा

ब्रह्मवादिनी : भारतीय संस्कृति से परिचित कराता काव्य संग्रह

            - डाॅ. वर्षा सिंह

                

 काव्य संग्रह - ब्रह्मवादिनी

 कवयित्री - डाॅ. सरोज गुप्ता

 प्रकाशक - जे.टी.एस. पब्लिकेशन्स, वी-508, गली नं. 17, विजय पार्क, दिल्ली-110053

 मूल्य - रुपए 595/-

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          संस्कृति मानव जीवन का परिष्कृत स्वरूप है। संस्कृति मनुष्य की वैचारिक परिपक्वता को प्रतिबिम्बित करती है। संस्कृति की व्युत्पत्ति ‘‘सम्यक कृतिः संस्कृतिः’’ की भांति पाणिनी के अनुसार ‘‘स्त्रियां क्तिन्’’ सूत्र से क्तिन् प्रत्यय से हो कर संस्कृति शब्द की उत्पत्ति होती है तथा भारत में विकसित होने वाली संस्कृति भारतीय संस्कृति कहलाती है। संस्कृति मनुष्य के भूत तथा भविष्य का आकलन एवं निर्धारण करती है। संस्कृति से ही संस्कार बनते हैं और संस्कार मनुष्य को संस्कारित करते हैं। भारतीय संस्कृति में स्त्रियों का विशेष स्थान रहा है। प्राचीन भारत में स्त्रियों को वैद पढ़ने और वैदिक मंत्रों के सृजन करेन का अधिकार था। भारत में पुरुषों के साथ ही भारतीय महिला दार्शनिकों तथा साध्वियों की लम्बी परंपरा रही है। वेदों की ऋचाओं को गढ़ने में भारत की बहुत-सी स्त्रियों का योगदान रहा है। ऋग्वेद के बहुत से मंत्र और सूक्त स्त्रियों द्वारा रचे गए हैं। इन लेखिकाओं को ‘‘ऋषिका’’ और ‘‘ब्रम्हवादिनी’’ कहा जाता था। इन्हीं में से एक, वाक नामक कवयित्री ने देवी सूक्त की रचना की थी। घोषा, लोपामुद्रा, शाश्वती, अपाला, इन्द्राणी, सिकता, निवावरी आदि विदुषी स्त्रियों के कई नाम मिलते हैं जो वैदिक मन्त्रों तथा स्तोत्रों की रचयिता हैं । ऋग्वेद में बृहस्पति तथा उनकी पत्नी जुहु की कथा मिलती है ।

            समीक्ष्य पुस्तक ‘‘ब्रम्हवादिनी’’ यूं तो एक काव्य संग्रह है किन्तु यह प्राचीन भारत के यशस्वी पक्ष को सामने रखता है। विदुषी लेखिका एवं कवयित्री डाॅ. सरोज गुप्ता की इस काव्यात्मक कृति में ब्रह्मवादिनी ऋषिकाओं का विस्तृत परिचय मिलता है। यह काव्यसंग्रह कोरोनाकाल के अवसादी वातावरण को उत्साह में कदलते हुए लिखा गया। जैसा कि पुस्तक के प्रथम फ्लैप में आचार्य पंडित दुर्गाचरण शुक्ला ने लिखा है - ‘‘कोरोना महामारी की घोर निराशा भरी महानिशा जैसे दुष्काल में जब पूरे विश्व में मृत्यु के संत्रास से पूरी मानव जाति पीड़ित थी उसके बीच में भी कुछ मानुष मृत्यु को चुनौती दे रहे थे- ‘न मृत्यु अवतस्थेकदाचन’ (ऋग्वेद -10/49/5) मैं मृत्यु के लिए नहीं बना, मैं तो अमृत पुत्र हूं। डॉ सरोज गुप्ता उसी मानुष वर्ग की है। उसने महामारी की चुनौती स्वीकारी और आगम निगम ज्ञान की धाराओं के सामान्य परिचय प्रदान करने को मुझ से आग्रह किया। मैं तो जाने कब से यह आशा किए प्रतीक्षा कर रहा था कि कभी कोई जिज्ञासु ज्ञान की इन धाराओं के मूल उत्स को जानने समझने की इच्छा करे और मेरी संचित इस ज्ञान संपत्ति को सार्थकता प्रदान करे। इसी पृष्ठभूमि में अध्ययन प्रारंभ हुआ जिसका प्रथम प्रसून डॉ सरोज की यह ब्रह्मवादिनी काव्य संग्रह है।“




          वर्तमान वैश्विक युग में जब पाश्चात्य सांस्कृतिक मूल्य विभिन्न संचार माध्यमों से हर आयुवर्ग के स्त्री-पुरुषों को प्रभावित करते रहते हैं, तब ऐसे दौर में भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों की पुनस्र्थापना की आवश्यकता महसूस होने लगती है। इस दृष्टि से यह जानना महत्वपूर्ण हो जाता है कि प्राचीन भारत में, विशेष रूप से वैदिक युग में स्त्रियों की स्थिति कितनी सुदृढ़ थी। यह जान कर सुखद लगता है कि वैदिक युग में अनेक स्त्रियां ऐसी हुईं जिन्होंने ऋचाओं का सृजन किया। ऋचाओं का सृजन करने के कारण इन स्त्रियों को  ऋषिकाएं कहा गया। इन्हीं ऋषिकाओं के बारे में पंडित दुर्गाचरण शुक्ला ने ‘ब्रह्मवादिनी-दृष्ट मंत्र भाष्य एवं अवदान’ नामक पुस्तक लिखी। इस पुस्तक से प्रेरणा प्राप्त कर डाॅ. सरोज गुप्ता ने ऋषिकाओं पर काव्य रचा।

        कवयित्री डाॅ. सरोज गुप्ता ने ‘‘पूर्व पाठिका’’ के रूप में काव्य संग्रह की भूमिका में अपनी इस पुस्तक की प्रेरणा, आधार एवं सृजन के बारे में लिखा है- ‘‘जब लीक से अलग हटकर चिंतन मनन की दिशा बदलती है कुछ विशेष कार्य संपन्न होता है तो आत्मिक खुशी मिलती है। परमेश्वर की असीम अनुकंपा एवं गुरुदेव के आशीर्वाद के परिणाम स्वरूप मुझे वैदिक काल की ऋषिकाओं को पढ़ने का अवसर मिला। मुझे कोरोनाकाल में गुरुदेव आचार्य पंडित दुर्गाचरण शुक्ल जी की पुस्तक ‘ब्रह्मवादिनी-दृष्ट मंत्र भाष्य एवं अवदान’ प्राप्त हुई। सरल एवं सहज भाषा में संस्कृत की जटिलताओं से सर्वथा मुक्त ज्ञान गंगा की तरह निर्मल, शीतल जल के प्रवाह सी सतत प्रवाहमाना भाषा शैली, आत्मिक शांति प्रदान करने वाली अद्वितीय वैदिक ज्ञानगम्य पुस्तक मैंने पढ़ी। इस पुस्तक में वैदिक ऋषिकाओं की, ऋचाओं की, विद्वतापूर्ण गवेष्णात्मक व्याख्यायें, भाष्य टीका और गुरुदेव के अनुभवों और चिंतन की एक नवीन दृष्टि मुझे मिली। मैं ऋषिकाओं की कालजयी और कालातीत ऋचाओं के पढ़ने के आनंद को आज तक महसूस कर रही हूं। ऋषिका को पढ़ते-पढ़ते मन पर जो प्रतिक्रिया हुई, मन की आंखों ने कल्पना में भजन-पूजन करते-करते उन्हें जिस रूप में देखा, उसी को काव्य रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास इन रचनाओं में किया है। मुझे लगा कि हमारे भारत देश व बुंदेलखंड की स्त्रियां ज्ञान के क्षेत्र में इतनी आगे थीं तो यह आदर्श नई पीढ़ी एवं नारी शक्ति के समक्ष पहुंचना चाहिए। अतः ‘ब्रह्मवादिनी’  काव्य संग्रह वैदिक काल की ऋषिकाओं की तपस्या साधना व उनके द्वारा अंतर्भासिक दिव्य ज्ञानदृष्टि को जानने-समझने की दिशा में एक छोटा सा प्रयास है।’’

        इस काव्य संग्रह में संग्रहीत प्रत्येक कविता एक-एक ब्रह्मवादिनी ऋषिका का परिचय प्रस्तुत करती है। लोपामुद्रा, रोमशा, विश्ववारा आत्रेयी, अपाला अत्रिसुता, शश्वती, नद्यः ऋषिका, यमी वैवश्वती, वसुक्रपत्नी, काक्षीवती घोषा, अगस्त्यस्वसा, दाक्षयणी अदितिः, सूर्या सावित्री, उर्वशी, दक्षिणा प्राजापत्या, सरमा देवशुनी, जुहूः ब्रह्मजाया, वाग आम्भृणी, रात्रि भारद्वाजी, गोधा, इंद्राणी, श्रद्धा कामायनी, देवजामयःइंद्रमातरः, पौलोमी शची, सार्पराज्ञी, निषद उपनिषद, लाक्षा, मेधा तथा श्री नामक ऋषिकाओं का सुंदर विवरण संग्रह में दिया गया है। छंद मुक्त इन कविताओं में सुंदर शब्दों का चयन एवं पठनीय लयात्मकता है। उदाहरण के लिए नद्यः ऋषिका कविता की यह पंक्तियां देखें -

नद्यः ऋषिका को पढ़ते पढ़ते

मैंने नदी को दृष्टि भर अपलक देखा

वह मुझमें मेरे अस्तित्व में समाती हुई

मां का वात्सल्य, बहिन का स्नेह, प्रेयसी का प्यार

उंड़ेलती हुई, अनंत गहराई लिए, तापसी सी।

अविराम अहिर्निश गति को साधती सी

कत्र्तव्यपथ की प्रेरणा बन, सम्मुख प्रस्तुत हुई

मौन, निःशब्द प्रार्थना के स्वर में झंकृत हो

मेरे ही कण्ठ से।


 


डाॅ. सरोज गुप्ता की इन कविताओं में संस्कृतनिष्ठ शब्दों से उत्पन्न भाव प्रभाव पाठक के मन को वैदिक अनुभूति कराने में सक्षम हैं। जैसे ऋषिका रात्रि भारद्वाजी पर केन्द्रित कविता की ये पंक्तियां -

दैदीप्यमान, प्रकाशवती विश्वाःश्रियाः

सृष्टि के मूल की रात्रि रूप महाबीज

विशिष्ट नक्षत्र रूप नेत्रों से सब ओर झांकती

तम रूप ओजस्वी ओढ़ती सारी चमक

जीवरात्रि, ईशरात्रि, महाप्रलयकालरात्रि

सृष्टि की अव्यक्त शक्ति

ब्रह्ममयी एकार्णव चित्तशक्ति

ऋषिका रात्रि भारद्वाजी


         कलेवर की दृष्टि से यह पुस्तक बहुत महत्वपूर्ण एवं पठनीय है। यह रेखाचित्रों से सुसज्जित नयनाभिराम आकर्षक आवरण वाली लगभग 150 पृष्ठों की हार्ड बाउंड पुस्तक है। किन्तु इस पुस्तक की कीमत रुपये 595/- है जो कि बहुत अधिक है। यदि इस पुस्तक की कीमत कुछ कम होती तो यह अधिक पाठकों द्वारा खरीद कर पढ़ी जा पाती। फिर भी इस काव्य संग्रह में पिरोए गए ज्ञान का महत्व इसके मूल्य से कहीं अधिक है। जैसा कि पुस्तक के दूसरे फ्लैप में भारतीय संस्कृति के अध्येता डाॅ. श्यामसुंदर दुबे ने इस काव्य संग्रह के बारे में बहुत महत्वपूर्ण टिप्पणी की है-‘‘ विदुषी लेखिका ने अपनी भूमिका में यह पूर्ण रूप से स्पष्ट कर दिया है कि ब्रह्मवादिनी उन सभी ऋषिकाओं के निमित्त है जो मंत्र दृष्टा रही हैं। इन ऋषिकाओं का जन्म क्षेत्र, उनका व्यक्तित्व और कृतित्व इस विशिष्ट कृति में समावेशित है। साथ ही साथ उनके काव्य के भावना परिदृश्य को भी इसमें प्रत्यक्ष किया है। भारतीय मेधा का यह प्राकट्य हमारे वर्तमान कालिक चिंतन को नवीन दिशा प्रदान करेगा और नारी विमर्श के परिदृश्य को विस्तारित करेगा। चित्रों से सुसज्जित यह कृति अपनी अभिराम शैली में अपने पाठक वर्ग को न केवल सम्मोहित करेगी बल्कि उसके ज्ञानात्मक अवबोधन के क्षेत्रफल का विस्तार भी करेगी।’’

         भारतीय संस्कृति के एक महत्वपूर्ण पक्ष को काव्यात्मक रूप में प्रस्तुत करके डाॅ. सरोज गुप्ता ने निश्चित रूप से एक महत्वपूर्ण कार्य किया है जिसके लिए वे बधाई की पात्र हैं।                                                                                           -----------------