Friday, September 25, 2020

सागर: साहित्य एवं चिंतन | पुनर्पाठ 9 | हल्ला कन्हैया का | भजन संग्रह | डॉ. वर्षा सिंह

प्रिय ब्लॉग पाठकों, 
               स्थानीय दैनिक समाचार पत्र "आचरण" में प्रकाशित मेरा कॉलम "सागर : साहित्य एवं चिंतन " जिसमें पुस्तकों के पुनर्पाठ की श्रृंखला के अंतर्गत  नौवीं कड़ी के रूप में प्रस्तुत है - सागर नगर के कवि आर.के. तिवारी के भजन संग्रह  "हल्ला कन्हैया का" का पुनर्पाठ।

सागर : साहित्य एवं चिंतन

 पुनर्पाठ : ‘हल्ला कन्हैया का’ भजन संग्रह
                          - डॉ. वर्षा सिंह
                           
       इस बार पुनर्पाठ में मैंने जिस कृति को चुना है वह भक्तिरस से परिपूर्ण है। कृति का नाम है ’’हल्ला कन्हैया का‘‘। यह भजन संग्रह है आर. के. तिवारी का। भक्ति हमारे जीवन का अभिन्न अंग है। हम एक परमशक्ति को किसी न किसी रूप में स्वीकार करते हैं और उसकी आराधना करते हैं। हमें लगता है कि जब हम पर कोई संकट आएगा तो यह परमशक्ति हमें उस संकट से बचा लेगी। यह विश्वास ही तो है भक्ति का मूल आधार। चाहे राम कहें, कृष्ण कहें, अल्लाह या ईसा मसीह कहें, किसी भी रूप या स्वरूप में हम उसकी सत्ता को स्वीकार करें किन्तु उसकी कल्पना हमारे भीतर आत्मविश्वास और धैर्य का संचार करती है। अपनी भक्ति को प्रकट करने तथा उस परमशक्ति से तादात्म्य स्थापित करने के लिए कोई नाचता है तो कोई गाता है, कोई चित्र बनाता है तो कोई साहित्य की रचना करता है।
         विपरीत राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक परिस्थितियों में जनमानस में आत्मविश्वास जगाने के लिए समय-समय पर संतों ने भक्तिकाव्य की रचनाएं कीं। हिन्दी साहित्य में एक पूरा काल ही भक्तिकाल के नाम से जाना जाता है क्यों कि इस अवधि में सर्वाधिक भक्ति रचनाओं की सर्जना हुई। ये सभी लिखित नहीं थीं, इनमें कुछ वाचिक भी थीं जिन्हें दूसरे लोगों के द्वारा लिपिबद्ध किया गया। रामचंद्र शुक्ल ने ‘‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’’ में कालखंड निर्धारित करते हुए भक्तिकाल को 1375 से 1700 तक माना है। इस कालखण्ड को हिंदी साहित्य का श्रेष्ठ युग माना गया है। जिसको जॉर्ज ग्रियर्सन ने स्वर्णकाल, श्यामसुन्दर दास ने स्वर्णयुग, आचार्य राम चंद्र शुक्ल ने भक्ति काल एवं हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लोक जागरण कहा। भक्ति काव्य की अलख जागी दक्षिण भारत से। दक्षिण में आलवार हुए जो अधिक  पढे-लिखे नहीं थे, किन्तु सत्य के ज्ञानी थे। उन्होंने अपने काव्य द्वारा जनमानस को ईश्वर की परमसत्ता के प्रति मोड़ा। आलवारों के पश्चात दक्षिण में आचार्यों की एक परंपरा चली जिसमें रामानुजाचार्य प्रमुख थे।         
        रामानुजाचार्य की परंपरा में रामानंद हुए। उन्होंने भक्ति के क्षेत्र में ऊंच-नीच का भेद का खुल कर विरोध किया। सभी जातियों के अधिकारी व्यक्तियों को आपने शिष्य बनाया। महाप्रभु वल्लभाचार्य ने पुष्टि-मार्ग की स्थापना की और विष्णु के कृष्णावतार की उपासना करने का प्रचार किया। उनके द्वारा जिस लीला-गान का उपदेश हुआ उसने देशभर को प्रभावित किया। अष्टछाप के सुप्रसिद्ध कवियों ने उनके उपदेशों को मधुर कविता में प्रतिबिंबित किया। इसके उपरांत माधव तथा निंबार्क संप्रदायों का भी जनसमाज पर प्रभाव पड़ा है। साधना-क्षेत्र में दो अन्य संप्रदाय भी उस समय विद्यमान थे। नाथों के योग-मार्ग से प्रभावित संत संप्रदाय चला जिसमें प्रमुख व्यक्तित्व संत कबीरदास का है। संक्षेप में भक्ति-युग की चार प्रमुख काव्य-धाराएं मिलती हैं- ज्ञानाश्रयी शाखा, प्रेमाश्रयी शाखा, कृष्णाश्रयी शाखा और रामाश्रयी शाखा, प्रथम दोनों धाराएं निर्गुण मत के अंतर्गत आती हैं, शेष दोनों सगुण मत के।
         कुछ ने ईश्वर को साकार माना तो कुछ ने निराकार। संत साहित्य में सूरदास, नामदेव, ज्ञानेश्वर, तुलसीदास, मीराबाई, कबीर, दादूदयाल, रहीम, रसखान, रैदास आदि महत्वपूर्ण संत कवि हुए। आज भी हम उन्हीं के भजनों को गा कर, सुन कर आत्मिक सुख की तलाश करते हैं। वर्तमान बाज़ारवाद एवं भौतिकतावाद के दौर में भक्तिकाव्य का नवसृजन कहीं पीछे छूट चला है। हिन्दी साहित्य में अनेक काव्य विधाओं के होते हुए भी भक्तिकाव्य का सृजन कम हो गया है। जो सृजन हो रहा है उसमें भजन प्रमुख हैं। इनकी विशेषता इनकी गेयता में होती है। इन भजनों में धर्म, दर्शन, जीव, जगत, ब्रह्म आदि संबंधी विचार काव्यात्मक रूप में पिरोए जाते हैं। साहित्य के अंतर्गत एक विरोधाभासी स्थिति यह है कि भजनों को धर्म की वस्तु मान कर उतनी गंभीरता से आज नहीं लिया जाता है जितनी गंभीरता से भक्तिकाल के काव्य को लिया गया। धार्मिक उत्सवों के समय भजन डिज़िटल रूप में बजाए जाते हैं और सुने जाते हैं किन्तु शेष समय इन्हें साहित्य की श्रेणी में गंभीरता से नहीं लिया जाता है। जबकि भजन भी साहित्य की वह प्रस्तुति है जिसमें भावना, छंद, लय, ताल, आदि सभी कुछ होता है। ‘‘हल्ला कन्हैया का’’ भजन संग्रह पहली बार पढ़ते हुए मुझे उसमें संग्रहीत कवि आर. के. तिवारी के भजनों में भक्तिरस के जिस भावप्रभाव का अनुभव हुआ, वही अनुभव उसका पुनर्पाठ करते समय भी हुआ। जैसा कि संग्रह के नाम से ज्ञात हो जाता है कि इस संग्रह में संग्रहीत भजन श्रीकृष्ण की लीलाओं को समर्पित हैं। जब कृष्णभक्ति काव्य की बात चलती है तो स्वतः स्मरण हो आता है भक्तकवि सूरदास का। सूरदास ने सखाभाव से कृष्ण की लीलाओं का वर्णन किया है। इसीलिए वे कृष्ण को उलाहना देने से भी नहीं चूके हैं। जबकि तुलसीदास जब श्रीराम के जीवन का वर्णन करते हैं तो वे स्वयं को उनका दास या सेवक मानते हैं। अतः उनके काव्य में उस प्रकार उलाहने का स्वर सुनाई नहीं देता है जैसा कि सूरदास के काव्य में। इसका एक सबसे बड़ा कारण यह भी है कि श्रीराम मर्यादा पुरुषोत्तम है और श्रीकृष्ण लीलाधारी। इसीलिए श्रीकृष्ण के भजन लिखते समय सखाभाव स्वतः आ जाता है और कृष्ण के नटखटपन का बिम्ब काव्य में समाने लगता है।

         भक्तिकाल के मध्यकालीन परिवेश से आज का परिवेश पूरी तरह भिन्न है। आज के समाज में धार्मिक कट्टरता का कोई स्थान नहीं है। आज सामाजिक एवं धार्मिक सौहाद्र्य के वातावरण में जो कृष्ण काव्य रचा जाएगा उसमें नटखट माखनचोर एवं बांसुरी वाले कृष्ण की शरारतों और रास के वर्णन को अधिक स्थान मिलेगा। यही विशेषता मिलती है ‘‘हल्ला कन्हैया का’’ भजन संग्रह के भजनों में। इन भजनों में निश्चिंत मन की उन्मुक्त भक्ति को अनुभव किया जा सकता है। भक्ति काव्य की एक विशेषता यह भी है कि उनमें आंचलिक बोली-भाषा का प्रयोग किया जाता है। बृज और अवधी की तरह बुंदेली में भी कृष्ण काव्य लिखे गए हैं। कवि आर. के. तिवारी ने भी अपने भजन में बुंदेली में लिखे हैं इसीलिए इन भजनों में माटी के सोंधेपन जैसा एक आकर्षण और सहजता है। उदाहरण देखें -
कान पकर के कै रई यशोदा
जो का मोहन कर डारो
पूरो गावों बाहर ठारों
भारी भीड़ लगी है दुआरे
गांव के सबरे बाहर ठाड़े
कोउ की टुकड़ा-टुकड़ा गगरी
रो-रो कै रई हमसे सबरी
न्याय हमारो करवाओ

       कृष्णकथा का बखान हो और उसमें यमुना में नहाती हुई गोपियों के वस्त्रहरण की शरारत का स्मरण न किया जाए यह सम्भव नहीं है। इस भजन संग्रह में भी एक भजन इसी संदर्भ का है जिसमें गोपियां कृष्ण के द्वारा वस्त्र उठा ले जाने की शिकायत कर रही हैं -
ले गओ, ले गओ, ले गओ री
चीर मुरारी ले गओ री
हम गए कल री जमुना नहावे
छोड़ चुनरिया अपने किनारे
घुस गए जल में हम तो सारे
श्याम कहूं से आ गओ री
चुपके-चुपके आओ कन्हैया
चोरी-चोरी आओ कन्हैया
झपट चुनरिया ले गओ री

        श्री कृष्ण के बांसुरी वादन से जो स्वर लहरियां निकलती थीं वे गोप, गोपियां और राधा, सभी को सम्मोहित कर लेती थीं। आकर्षण इतना कि जेठ की तपती दोपहर में राधा जब कृष्ण की बांसुरी का स्वर सुनती है तो वह स्वयं को रोक नहीं पाती है और पानी भरने का बहाना करके कृष्ण से मिलने निकल पड़ती है। कवि ने इस दृश्य का बहुत सुन्दर वर्णन किया है -
तपती दुफर में निकरी है राधा
सुन मोहन की बांसुरिया
सर पै धरे चली गगरियां
सोला गज को घंघरा पैने
सात गजी की सारी पैने
पांच गजी की चुनरिया
सर पै धरे चली गगरियां

       कृष्ण और होली के त्यौहार का गहरा संबंध है। जिस प्रकार कृष्ण का स्मरण मन को प्रफुल्लित कर देता है ठीक उसी प्रकार होली का त्यौहार मन को रंगों के उत्साह से भर देता है। श्री कृष्ण और राधा के बीच की होली जीवन में उमंग, उत्साह और आह्लाद की पर्याय है। इस दृश्य की कल्पना कीजिए कि बृज में बनवारी अर्थात् कृष्ण होली खेल रहे हैं और गोपिकाएं उनसे बचने का प्रयास करती हुई राधा को सचेत कर रही हैं -
भगो, भगो राधा! भगो, भगो री
रंगवा लयै है बनवारी
रंगवा लयै है बनवारी
भगो, भगो री ...
बृज की ग्वालन दौड़त फिर रईं
श्याम से सबरी लुकाछिपी कर रईं
कै रई राधा - भगो, भगो री
रंगवा लयै है बनवारी
भगो, भगो री ...

       ‘‘हल्ला कन्हैया का’’ भजन संग्रह के भजनों की सबसे बड़ी खूबी उनकी गेयता है। जो पढ़ने के साथ ही गुनगुनाने को विवश कर देती है। और यही विशेषता भजन-शैली को एक जनकाव्य-शैली बना देती है। कवि आर.के. तिवारी द्वारा रचित ये भजन स्वयं पुनर्पाठ करने के लिए प्रेरित करते है।

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( दैनिक, आचरण  दि.25.09.2020)
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Saturday, September 19, 2020

सागर: साहित्य एवं चिंतन | पुनर्पाठ 8 | पिछले पन्ने की औरतें | उपन्यास | डॉ. वर्षा सिंह

प्रिय मित्रों, 
               स्थानीय दैनिक समाचार पत्र "आचरण" में प्रकाशित मेरा कॉलम "सागर : साहित्य एवं चिंतन " जिसमें पुस्तकों के पुनर्पाठ की श्रृंखला के अंतर्गत आठवीं कड़ी के रूप में प्रस्तुत है - सागर नगर निवासी, राष्ट्रीय स्तर पर ख्यात लेखिका डॉ. (सुश्री) शरद सिंह, जो मेरी अनुजा भी हैं, के उपन्यास  "पिछले पन्ने की औरतें" का पुनर्पाठ।

सागर: साहित्य एवं चिंतन

       पुनर्पाठ: ‘पिछले पन्ने की औरतें’ उपन्यास

                          -डॉ. वर्षा सिंह
                           
         इस बार पुनर्पाठ में मैं जिस उपन्यास की चर्चा करने जा रही हूं उसका नाम है ’’पिछले पन्ने की औरतें‘‘। इस उपन्यास की लेखिका है डॉ. शरद सिंह। यह उपन्यास मुझे हर बार प्रभावित करता है इसलिए नहीं कि यह मेरी छोटी बहन शरद के द्वारा लिखा गया है बल्कि इसलिए कि इसे हिंदी साहित्य का बेस्ट सेलर उपन्यास और हिंदी साहित्य का टर्निंग प्वाइंट माना गया है। इसे बार-बार पढ़ने की ललक इसलिए भी जागती है कि इसमें एक अछूते विषय को बहुत ही प्रभावी ढंग से उठाया गया है। जी हां, इस उपन्यास में हाशिए में जी रही उन महिलाओं के जीवन की गाथा उनकी सभी विडंबनाओं के साथ सामने रखी गई है, जिन्हें हम बेड़नी के नाम से जानते हैं। समग्र हिन्दी साहित्य में स्त्रीविमर्श एवं आधुनिक हिन्दी कथा लेखन के क्षेत्र में सागर नगर की डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह का योगदान अतिमहत्वपूर्ण है। उन्होंने अपने पहले उपन्यास ‘‘पिछले पन्ने की औरतें’’ से हिन्दी साहित्य जगत में अपनी विशेष उपस्थिति दर्ज कराई। ‘‘पिछले पन्ने की औरतें’’ उपन्यास का प्रथम संस्करण सन् 2005 में प्रकाशित हुआ था। इसके बाद अब तक इस उपन्यास के हार्ड बाऊंड और पेपर बैक सहित अनेक संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। यह न केवल पाठकों में बल्कि शोधार्थियों में भी बहुत लोकप्रिय है। देश के अनेक विश्वविद्यालयों में इस उपन्यास पर शोध कार्य किया जा चुका है और वर्तमान में भी अनेक विद्यार्थी इस उपन्यास पर शोध कार्य कर रहे हैं।
हिन्दी साहित्य में ’’पिछले पन्ने की औरतें‘‘ ऐसा प्रथम उपन्यास है जिसका कथानक बेड़नियों के जीवन को आाधार बना कर प्रस्तुत किया गया है। इस उपन्यास की शैली भी हिन्दी साहित्य के लिए नई है। यह उपन्यास अतीत और वर्तमान की कड़ियों को बड़ी ही कलात्मकता से जोड़ते हुए इसे पढ़ने वाले को वहां पहुंचा देता है जहां बेड़नियों के रूप में औरतें आज भी अपने पैरों में घंघरू बांधने के लिए विवश हैं। यह उपन्यास ‘‘रहस्यमयी श्यामा’’ से लेखिका की मुलाकात से आरम्भ होता है। कहने को तो यह मामूली सी घटना है कि लेखिका को सागर से भोपाल की बस-यात्रा के दौरान एक महिला सहयात्री मिलती है। लेकिन कथानक का श्रीगणेश ठीक वहीं से हो जाता है जब लेखिका को बातचीत में पता चलता है उस स्त्री का नाम श्यामा है और वह एक बेड़नी है। श्यामा राई नृत्य करती है और नृत्य करके अपने परिजन का पेट पालती है। यहीं से आरम्भ होती है एक जिज्ञासु यात्रा। इसके बाद लेखिका बेड़िया समाज के इतिहास और पारिवारिक संरचना पर अपनी शोधात्मक दृष्टि डालती है। वह स्वयं उन गांवों में जाती है जहां बेड़नियां रहती हैं। उनसे बात करती है, उनके जीवन को टटोलती है और उनके साथ, उनके घर पर रह कर उनके जीवन की बारीकियों को समझने का प्रयास करती है। यह एक बहुत बड़ा क़दम था। वाचिक और लिखित स्रोतों और ज़मीनी कार्यों के बीच तालमेल बिठाती हुई लेखिका शरद सिंह उपन्यास की अंतर्कथा के रूप में लिखती हैं गोदई की नचनारी बालाबाई की मर्मांतक कथा। जब एक गर्भवती बेड़नी को भी देह-पिपासु पुरुषों ने भावी मंा नहीं अपितु मात्र स्त्रीदेह के रूप में ही देखा। यह कथा मन को विचलित कर देती है। उपन्यास आगे बढ़ता है चंदाबाई, फुलवा के जीवन से होता हुआ रसूबाई के जीवन तक जा पहुंचता है। स्त्री को मात्र देह मानने वालों के द्वारा स्त्री के सम्मान और स्वाभिमान पर चोट पहुंचाने, उन पर अत्याचार करने वालों की दुर्दांत कुचेष्टाएं झेलती ये स्त्रियां। जिनके बारे में शरद सिंह कहती हैं कि ये वे औरतें हैं जिन्हें समाज अपनी खुशियों को बढ़ाने के लिए अपने पारिवारिक उत्सवों में नाचने के लिए तो बुलाता है लेकिन इन्हें अपने परिवार में शामिल करने से हिचकता है। वह इनकी खुशियों से कतई सरोकार नहीं रखना चाहता है।


इस उपन्यास का एक और पहलू है कि यह उपन्यास परिचित कराता है उस औरत से जिसने अल्मोड़ा में जन्म लिया, लेकिन अपने जीवन का उद्देश्य बेड़िया समाज के लिए समर्पित करते हुए ‘बेड़नी पथरिया’ नामक गंाव में ‘सत्य शोधन आश्रम’ की स्थापना की। उसका नाम था चंदाबेन। इस उपन्यास की खांटी वास्तविक पात्र हैं चंदाबेन, जिन्होंने अपने जीवन के विवरण को इस उपन्यास का हिस्सा बनने दिया। वस्तुतः ’’पिछले पन्ने की औरतें‘‘ एक उपन्यास होने के साथ-साथ यथार्थ का औपन्यासिक दस्तावेज़ भी है। इसमें बेड़िया समाज का इतिहास है, बेड़नियों के त्रासद जीवन का रेशा-रेशा है, बेड़नियों के संघर्ष का विवरण है, उनकी आकांक्षाओं एवं आशाओं का लेखा-जोखा है। यही तो है सच्चा स्त्रीविमर्श कि जब किसी उपन्यास में जीवन की सच्चाई को पिरो कर उसे सच के क़रीब ही रखा जाए, इतना क़रीब कि इस उपन्यास को पढ़ने वाला पाठक बेड़नियों की त्रासदी से उद्वेलित हुए बिना नहीं रह पाए और उपन्यास के अंतिम पृष्ठ तक पहुंचते हुए बेड़नियों के उज्ज्वल भविष्य की दुआएं करने लगे।    
परमानंद श्रीवास्तव जैसे समीक्षकों ने उनके इस उपन्यास को हिन्दी उपन्यास शैली का ‘‘टर्निंग प्वाइंट’’ कहा है। यह हिन्दी में रिपोर्ताजिक शैली का ऐसा पहला मौलिक उपन्यास है जिसमें आंकड़ों और इतिहास के संतुलित समावेश के माध्यम से कल्पना की अपेक्षा यथार्थ को अधिक स्थान दिया गया है। यही कारण है कि यह उपन्यास हिन्दी के ‘‘फिक्शन उपन्यासों’’ के बीच न केवल अपनी अलग पहचान बनाता है अपितु शैलीगत एक नया मार्ग भी प्रशस्त करता है। शरद सिंह जहां एक ओर नए कथानकों को अपने उपन्यासों एवं कहानियों का विषय बनाती हैं वहीं उनके कथा साहित्य में धारदार स्त्रीविमर्श दिखाई देता है।
‘‘पिछले पन्ने की औरतें’’ शरद सिंह द्वारा लिखित उनका पहला शोधपरक उपन्यास है जिसमें सामाजिक स्तरों में दबी-कुचली और पिछले पन्नों में दर्ज कर भुला दी गईं औरतों को मुखपृष्ठ पर लाने का सफल प्रयास किया है। तीन भागों और सत्ताईस उपभागों में लिखे गए उपन्यास के स्त्री पात्र महत्वपूर्ण हैं। किसी स्त्री की वेदना एवं पीडा को रिर्पोताज शैली में लेखन करना लेखिका की कुशलता का परिचायक है। विभिन्न औरतों से होकर संपूर्ण भारतीय औरतों के अस्तित्व, अधिकार पर लेखिका ने प्रकाश डाला है। ’पिछले पन्ने की औरतें’ उपन्यास में शरदसिंह ने समाज की आन्तरिक और बाह्य परतों को खोलने का प्रयास किया वे समाज के कुरूप सत्य को बड़े ही बोल्ड ढंग से प्रस्तुत करती हैं उनकी लेखकीय क्षमता की विशेषता है कि वे जीवन और समाज के अनछुए विषयों को उठाती हैं।
जब भी मैं इस उपन्यास को पढ़ती हूं तो मुझे सुप्रसि़द्ध समीक्षक स्व. परमानंद श्रीवास्तव का वह समीक्षा-लेख याद आने लगता है जो उन्होंने ‘‘पिछले पन्ने की औरतें’’ के बारे में लिखा था - “ रोमांस की मिथकीयता के लिए कोई भी कथा छलांग लगा सकती है। शरद सिंह का उपन्यास ‘‘पिछले पन्ने की औरतें’’ बेड़िया समाज की देह व्यापार करने वाली औरतों की यातना भरी दास्तान है। शरद सिंह की प्रतिभा ‘तीली-तीली आग’ कहानी संग्रह से खुली। स्त्री विमर्श में उनका हस्तक्षेप और प्रामाणिक अनुभव अनुसंधान के आधार पर है। शरद सिंह वर्जना मुक्त हो कर इस अंधेरी दुनिया में धंसती हैं। उन्हें पता है कि स्त्री देह के संपर्क में हर कोई फायदे में रहना चाहता है। शरद सिंह ने ईश्वरचंद विद्यासागर, ज्योतिबाफुले आदि के स्त्री जागरण को समझते हुए इस नरककुंड से सीधा साक्षात किया है। शरद सिंह को दुख है कि जब देश में स्त्री उद्धार के आंदोलन चल रहे थे तब बेड़िया जाति की नचनारी, पतुरिया-जैसी स्त्रियों की मुक्ति का सवाल क्यों नहीं उठा? नैतिकता के दावेदार कहां थे? विडम्बना यह कि जो पुरुष इन बेड़िया औरतों को रखैल बना कर रखते, उन्हीं के घर के उत्सवों में इन्हें नाचने जाना पड़ता था।......शरद सिंह का बीहड़ क्षेत्रों में प्रवेश ही इतना महत्वपूर्ण है कि एक बार ही नहीं, कई-कई बार इस कृति को पढ़ना जरूरी जान पड़ेगा। अंत में शरद सिंह के शब्द हैं- ‘लेकिन गुड्डी के निश्चय को देख कर मुझे लगा कि नचनारी, रसूबाई, चम्पा, फुलवा और श्यामा जैसी स्त्रियों ने जिस आशा की लौ को अपने मन में संजोया था, वह अभी बुझी नहीं है.....।’ शरद सिंह ने जैसे एक.सर्वेक्षण के आधार पर बेड़नियों के देहव्यापार का कच्चा चिट्ठा लिख दिया है। तथ्य कल्पना पर हावी है। शरद सिंह की बोल्डनेस राही मासूम रजा जैसी है। या मृदुला गर्ग जैसी। या लवलीन जैसी। पर शरद सिंह एक और अकेली हैं। फिलहाल उनका कोई प्रतिद्वन्द्वी कथाक्षेत्र में नहीं है। ‘पिछले पन्ने की औरतें’’ उपन्यास लिखित से अधिक वाचिक (ओरल) इतिहास पर आधारित है। इस बेलाग कथा पर शील-अश्लील का आरोप संभव नहीं है। अश्लील दिखता हुआ ज्यादा नैतिक दिख सकता है। भद्रलोक की कुरूपताएं छिपी नहीं रह गई हैं। शरद सिंह के उपन्यास को एक लम्बे समय-प्रबंध की तरह पढ़ना होगा जिसके साथ संदर्भ और टिप्पणियों की जानकारी जरूरी होगी। पर कथा-रस से वंचित नहीं है यह कृति ‘पिछले पन्ने की औरतें’’। जब दलित विमर्श और स्त्री विमर्श केन्द्र में हैं, संसद में स्त्री सीटों के आरक्षण पर जोर दिया जा रहा हो पर पुरुष वर्चस्व के पास टालने के हजार बहाने हों- यह उपन्यास एक नए तरह की प्रासंगिकता अर्जित करेगा।”
निःसंदेह यह उपन्यास तब तक प्रासंगिक रहेगा जब तक औरतें समाज के पिछले पन्नों में क़ैद रखी जाएंगी। और अंत में मैं दे रही हूं बार-बार पढ़े जाने योग्य इस उपन्यास के आरम्भिक पन्ने में लिखी शरद सिंह की ही वे काव्य पंक्तियां जो एक नए स्त्रीविमर्श के पक्ष में आवाज़ उठाती हैं-
छिपी रहती है
हर औरत के भीतर
एक और औरत
लेकिन
लोग अक्सर
देखते हैं
सिर्फ बाहर की औरत।

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( दैनिक, आचरण  दि.19.09.2020)
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Friday, September 18, 2020

अंगना में ठाड़े बड्डे | बुंदेली व्यंग्य | डॉ. वर्षा सिंह

प्रिय ब्लॉग पाठकों, आज मेरा बुंदेली व्यंग्य लेख "पत्रिका" समाचारपत्र में प्रकाशित हुआ है।
हार्दिक आभार "पत्रिका" 🙏
बुंदेली व्यंग्य
              अंगना में ठाड़े बड्डे
                              - डॉ. वर्षा सिंह

       हमाए एक बड़े भैया जी आंए, जोन से हम बड्डे कहत हैं। भौतई नोनो सुभाव है उनखों। जोन चाए की मदद खों तैयार रैत हैं, मनो ना कहबो तो उन्ने सीखोई नईंया। बरहमेस, दूसरन के लाने अपनो पूरो टेम दे देत हैं। उनकी जेई आदत पे भौजी सो भारी खिजात हैं उन पे। मनो तनक सी डांट- डपट कर के बे सोई बड्डे खों संग देन लगत हैं। अब करें भी का। कोनऊ की मदद करे बिना उनखों जी सोई नईं मानत है। 
      हमाए बड्डे आयोजन करवाबे में भौतई एक्सपर्ट आएं। बे जोन आयोजन कराबे के लाने ‘‘हऔ’’ बोल देत हैं, तो मनो ऊ आयोजन कभऊं फेल तो होई नईं सकत आए। जा कोरोनाकाल के पैलें आयोजन कराबे के लाने उनके ऐंगर भीड़ लगी रैत्ती। काय से के उन्ने ऐसे-ऐसे आयोजन कराए के लोग देखतई रै गए। कोरोनाकाल में उन्ने भीड़-भाड़ बारो आयोजन खों काम बंद कर दौ है। काय से के बे कोरोना गाइडलाइन खों पालन कर रए हैं। बाकी कल बड्डे के संगे भौतई गजब भऔ। भओ जे के कल जब बे दुपैरी खों अपने अंगना में ठाड़े हते, उनके ऐंगर हरीरो सो सलूखा पैरे एक आदमी आओ, औ कहन लगो के हमाए लाने एक आयोजन करा देओ। 

    ‘‘काय को आयोजन?’’- बड्डे ने पूछी।

   ‘‘मोय सम्मान कार्यक्रम कराने है।’’ ऊने बड्डे से कही। फेर बोलो -‘‘अच्छो बड़ो सो आयोजन, जीमें हजार-खांड़ लुगवा-लुगाई जुड़ जाएं सो मनो मजो आ जाए।’’
‘‘अब न जुड़हें हजार-खांड, तुमें ओनलाईन कराने हो सो बोलो’’ बड्डे ने कही।

   ‘‘जे ओन-फोनलाईन हमें नईं करानें। हमाए लाने तो तीनबत्ती से पूरो कटरा बजारे लों भर दइयो। बो भी रात नौ के बाद, काय से के दिन में तो उते हमाए भक्तन की भीड़ जुड़ई रैत आय। सम्मान करबे खों मजा तो मनो रातई में आहै।’’ हरीरो सलूखा बारे ने कही।

    ‘‘कोन को सम्मान, कैसो सम्मान, हमाई कछ्छू समझ में ने आ रओ। काय से के ई टेम पे भीड़-भाड़़ जोड़बे वारो कौनऊ आयोजन हम नईं करवा रए। औ रात की तो सोचियो भी नई।’’ बड्डे ने कही।

   ‘‘ऐसो न बोलो भैय्या, तुमाओ बड़ो नाम सुनो है, तुमाए ऐंगर बड़ी आसा ले के आएं हैं।’’ बा गिड़गिड़ात भओ बोलो।

   ‘‘मनो तुम हो कौन? औ कौन को सम्मान करो चात हो?’’ बड्डे खिझात भए बोले।

   ‘‘हओ, सो तुम काए चीनहो हमाए लाने। काय से के तुम तो घरई में पिड़े रैत हो। चलो, हमाई बता देत हैं के हम को आएं। तो सुनो, हम कोरोना आएं। औ हमें उन औरन खों सम्मान करने है जो बिना मास्क लगाए, बिना डिस्टेंसिंग बनाए बजार-हाट में नांए-मांए घूमत रैत हैं। कोनऊ की नईं सुनत हैं। बे हमाए से मिलबे खों उधारे से फिरत हैं। सो हमें भी लग रओ है के हमें अपने ऐसे भक्तन खों सम्मान कारो चइए। काय, ठीक सोची ने हमने?’’ ऊने कही।

   अंगना में ठाड़े बड्डे ने इत्ती सुनी, औ लगा दई दौड़ कमरा के भीतरे। कोरोना हतो सो, अपनो सो मों ले के लौट गओ, बाकी हमाए बड्डे तभई, ओई टेम से उन औरन खों पानी पी-पी के कोस रए हैं जो गाइड- माइड लाईन भुला के कोरोना खों मूड़ पे बिठाए गली-गैल, बजार-हाट में खुल्ला मों लेके नांय-मांय सटत फिरत हैं। सो बड्डे कभऊं कोरोना खों गरियात हैं, सो कभऊं कोरोना भक्तन खों।
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Saturday, September 12, 2020

सागर : साहित्य एवं चिंतन | पुनर्पाठ 7 | समय के पृष्ठ | काव्य संग्रह | डॉ. वर्षा सिंह

प्रिय ब्लॉग पाठकों, 
               स्थानीय दैनिक समाचार पत्र "आचरण" में प्रकाशित मेरा कॉलम "सागर : साहित्य एवं चिंतन " जिसमें पुस्तकों के पुनर्पाठ की श्रृंखला के अंतर्गत सातवीं कड़ी के रूप में प्रस्तुत है - सागर नगर के कवि स्व. जी.पी.चतुर्वेदी '' के काव्य संग्रह  "समय के पृष्ठ" का पुनर्पाठ।
हार्दिक आभार आचरण 🙏

सागर: साहित्य एवं चिंतन

       पुनर्पाठ: ‘समय के पृष्ठ’ काव्य संग्रह

                             -डॉ. वर्षा सिंह

        इस बार पुनर्पाठ के लिए मैंने चुना है जी.पी.चतुर्वेदी ‘‘अनंत’’ की पुस्तक ‘समय के पृष्ठ’ को। हम अपने जीवन को समय में बांटते हैं और समय से अंाकते हैं। बचपन का समय, जवानी का समय, बुढ़ापे का समय, अच्छा समय, बुरा समय - मानों हम समय से संचालित होते हैं। समय क्या है? इसे परिभाषित करना टेढ़ी खीर है। दुनिया के बड़े-बड़े वैज्ञानिक भी एक मत हो कर समय को परिभाषित नहीं कर सके। अरस्तू ने कहा कि ‘‘समय गति का प्रभाव हो सकता है, लेकिन गति धीमी या तेज हो सकती है पर समय नहीं।’’ आइंस्टाइन ने अपने सापेक्षतावाद के सिद्धांत में अरस्तू की बात को नकारते हुए कहा कि समय की गति में परिवर्तन संभव है। जाॅन एलीस मैकटैगार्ट के अनुसार समय व्यतीत होना एक भ्रम मात्र है केवल वर्तमान ही सत्य है। मैकटैगार्ट ने समय के अपने सिद्धांत को सिद्ध करने के लिए ‘‘ए,बी,सी श्रृंखला’’ द्वारा विश्लेषण पद्धति बताई। मैकटैगार्ट का सबसे महत्वपूर्ण निष्कर्ष यह था कि ऐतिहासिक घटनाओं तथा मानवरचित साहित्य के गुण एक जैसे होते हैं। उदाहरण के लिए मानवरचित साहित्य तथा भूतकाल की ऐतिहासिक घटनाओं की तुलना करने पर, दोनों में पूर्व और पश्चात के साथ भूत, वर्तमान और भविष्य होता है जो यह दर्शाता है कि भूतकाल घटनाओं की स्मृति मात्र है तथा साहित्यकार की कल्पना के अतिरिक्त उसका अस्तित्व नहीं है। समय की व्याख्या करते हुए मैकटैगार्ट ने साहित्य की समीक्षा कर डाली। वस्तुतः साहित्य समय को आकार देता है। चाहे वह बीता हुआ समय हो, वर्तमान का समय हो अथवा भविष्य का समय। साहित्य अपने अस्तित्व के माध्यम से न केवल रचनाकार के समय में पहुंचाता है अपितु रचनाकार को भी सदा जीवित रखता है।
जी.पी.चतुर्वेदी ‘‘अनंत’’ का यह काव्य संग्रह ‘‘समय के पृष्ठ’’ उनकी मृत्यु के उपरांत सन् 1999 में प्रकाशित हुआ। विरासत को सम्हालना एक बड़ी जिम्मेदारी होती है। उस पर साहित्यिक विरासत को संजोना और प्रकाशित करवाना आर्थिक के साथ -साथ गहन भावनात्मक जिम्मेदारी है। 31 जनवरी 1997 को जी.पी.चतुर्वेदी ‘‘अनंत’’ की मृत्यु के बाद उनके पुत्रों आदित्य चतुर्वेदी तथा अम्बर चतुर्वेदी ‘‘चिन्तन’’ के प्रयासों से इस संग्रह ने पुस्तक का आकार लिया।  इसलिए इस पुस्तक को पढ़ते हुए पिता के साहित्य कर्म के प्रति पुत्रों के अवदान का बोध भी बना रहता है। इस पुस्तक में एक सांस्कृतिक परम्परा का निर्वहन ध्वनित होता रहता है। जी.पी.चतुर्वेदी ‘‘अनंत’’ का जन्म 21 जुलाई 1937 को हुआ था। उन्होंने एम.ए., एल.एल.बी. की शिक्षा ग्रहण की। इसके बाद आजीविका की व्यस्तताओं से समय निकाल कर वे कविताएं एवं ललित निबंध लिखते रहे। ‘‘समय के पृष्ठ’’ काव्य संग्रह की कविताओं में तत्कालीन समय का भावबोध, मूल्यबोध ओर शब्दसत्ता का सुन्दर सामंजस्य देखा जा सकता है। जीवन में जैसे-जैसे बाजार की सत्ता बढ़ने लगी वैसे-वैसे आर्थिक विपन्नता, नैराश्य, कुण्ठा और संधर्ष बढ़ने लगा। समकालीन कविता के परिदृश्य में कवि ‘‘अनंत’’ की कविताएं महत्वपूर्ण दस्तक देती हैं। उनकी एक कविता है ‘‘दीप जल गया है’’ जिसमें प्रकाश और अंधकार के माध्यम से तत्कालीन परिदृश्य को बखूबी वर्णित किया है - 
दीप एक या अनेक
प्रकाश एक।
जितना प्रकाश बढ़ता है
अंधेरा उतना
उदास होता है
घटता है।
किन्तु न मालूम क्यों 
दीपों की संख्या
बढ़ने पर भी
प्रकाश उतना बढ़ नहीं रहा है
अंधकार घट नहीं रहा है
 
अंधकार का क्षेपक लेते हुए कवि ने विसंगतियों के कारण का आकलन करने का जो प्रयास किया है वह रचनात्मकता और भावप्रवणता के तादात्म्य का अत्यंत प्रभावी प्रतिफलन है। ‘‘सघन तिमिर में सिसक-सिसक कर ’’ शीर्षक कविता की ये पंक्तियां देखिए -
अंधकार में प्रश्नचिन्ह को 
कोई देख न पाता
थोड़े से प्रकाश में भी 
वह अपना रूप दिखाता
अनचाहे सारे उपक्रम को 
अंधकार पनपाता
पर प्रकाश की क्षीण शिखा में
वह विलीन हो जाता
सघन तिमिर में सिसक-सिसक कर
पीड़ा के स्वर पलते
जो प्रकाश के साथ बिखरकर
अपनी गाथा कहते

इस संग्रह में एक छोटी सी कविता है जो हर बार पढ़ते हुए एक नया बिम्ब प्रस्तुत करती है। कविता का शीर्षक है ‘‘आर्डनरी और स्पेशल’’। इस कविता में यथार्थबोध की विलक्षण परिपक्वता है। कविता इस प्रकार है -
मैंने अभावों को समेट लिया है
और कुर्ते, पायजामें में
काम चलाने लगा, किन्तु
एक दिन बस में 
एक फुलपेंटधारी मुझसे 
अकड़ कर बोला
पीछे बैठो, जगह बहुत खाली है
तुम आर्डनरी और मैं 
स्पेशल जीवधारी हूं
मैं तुमसे भारी हूं

इसी संग्रह की एक ओर कविता मुझे बार-बार आकर्षित करती है क्योंकि इस कविता में समय की मूल्यवत्ता के समक्ष व्यक्ति के अस्तित्व की बड़े सीधे सरल शब्दों में और सहजता के साथ व्याख्या की है वह अद्भुत है। कविता का शीर्षक है ‘‘संदर्भ’’ -
वर्तमान के भी / अतीत ओर आगामी
अपनी परिधि/ पृष्ठभूमि/ और 
सीमाओं में 
सिमटते, बनते, मिटते हैं
हम अपने आप 
एक संदर्भ हैं!
आज यहां कल वहां
इतिहास के पन्नों तक / पहुंचने की
एक साध लिए 
कई अल्प, पूर्ण या / अर्धविरामों के साथ
संदर्भ ओर इतिहास के
बीव के भंवर में ही / खो जाते हैं
संदर्भ ही रह जाते हैं

जब मूल्यवत्ता की बात होती है तो इस भूमण्डलीकरण और उपभोक्तावाद के दौर में मानवमूल्य का आकलन स्वतः आरम्भ हो जाता है। निर्जीव उपभोक्ता वस्तुओं से जीवित मनुष्यांे की क्रय शक्ति की तुलना मानवमूल्य का निर्धारण करने लगती है और यहीं से मानवमूल्य का ह्रास आरम्भ हो जाता है। इस संग्रह में एक कविता है ‘‘मानवमूल्य’’ जिसमें मानवमूल्य के सौदे का यथार्थपरक वर्णन किया गया है। कविता का एक अंश देखिए -  
सच, ईमानदारी, विश्वास
बहुतों के पास से
कोसों दूर चला गया है
इसलिए वस्तुओं का मूल्य बढ़ रहा है
और आदमी का मूल्य घट रहा है
एक छलकते जाम में
लाखों का सौदा हो रहा है
चैराहे पर पड़ा शव
म्यूनिसिपल की गाड़ी 
और पुलिस की बाट में
चिरनिद्रा में सो रहा है
मानवमूल्यों का सौदा हो रहा है

एक समृद्ध भाषा शिल्प, सघन बिम्बों से सृजित कवि ‘‘अनंत’’ की कविताओं में समय को लांघती हुई अनेक अंतध्र्वनियां एवं अनुगूंज हैं जो उनके इस काव्य संग्रह ‘समय के पृष्ठ’ को बार-बार पढ़ने को प्रेरित करती है और पाठक को सौंपती है विचारों का एक अनंत और अथाह सागर।
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( दैनिक, आचरण  दि.12.08.2020)
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Friday, September 4, 2020

'अन्वेषिका' | संकट के दौर में एक महत्वपूर्ण पत्रिका | समीक्षा | डॉ. वर्षा सिंह

 















प्रिर ब्लॉग पाठकों, मेरे द्वारा लिखी सागर से प्रकाशित 'अन्वेषिका' पत्रिका की समीक्षा आज दैनिक 'आचरण' समाचार पत्र में प्रकाशित हुई है। जिसे मैं यहां आप सब से शेयर कर रही हूं।
हार्दिक धन्यवाद आचरण 🙏🌹🙏
दिनांक 03.09.2020

'अन्वेषिका' पत्रिका की समीक्षा

    संकट के दौर में एक महत्वपूर्ण पत्रिका
                                       - डॉ. वर्षा सिंह
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 पत्रिका - अन्वेषिका (ई-पत्रिका)
 अंक  -  बेटी विशेषांक
 वर्ष -  2019-20
 प्रधान संपादक - सुनीला सराफ
 प्रकाशक - हिन्दी लेखिका संघ, सागर, म.प्र.
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       जब एक ओर कादम्बिनी और नंदन जैसी पत्रिकाओं के प्रकाशन बंद होने की सूचना ने साहित्यप्रेमियों को चौंका दिया, वहीं दूसरी ओर एक ऐसी पत्रिका ऑनलाईन प्रकाशित हो कर सामने आई और पाठकों के द्वारा रुचि ले कर पढ़ी जा रही है। जबकि यह एक स्मारिका है तथा इसका प्रकाशन वार्षिक है। पत्रिका का नाम है- अन्वेषिका। यह हिन्दी लेखिका संघ, सागर, म.प्र. का वार्षिक प्रकाशन है। विगत वर्ष इसका प्रथमांक आया था। सुन्दर मुद्रण के साथ। किन्तु इस वर्ष कोरोना संकट के कारण ई पत्रिका के रूप में प्रकाशित किया गया। ताकि यह सुगमता से पाठकों तक पहुंच सके।  पत्रिका की प्रधान संपादक सुनीला सराफ हैं तथा संपादन सहयोग डॉ. चंचला दवे और डॉ. सरोज गुप्ता ने किया है। साहित्यिक पत्रिका संपादन के क्षेत्र में नवोदित टीम होते हुए भी परिष्कृत कलेवर वाली एक सुन्दर पत्रिका का स्वरूप स्मारिका को दिया है जिससे उसकी साहित्यिक मूल्यवत्ता को महसूस किया जा सकता है।
       वर्तमान समय दोहरे संकट का समय है। यह दोहरा संकट है साहित्यिक पत्रिकाओं का प्रकाशन निरंतर बंद होते जाना और दूसरा संकट कोरोना महामारी का। हिन्दी की साहित्यिक पत्रिकाओं की ओर दृष्टि डाली जाए तो दिखाई देता है कि धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, सारिका, दिनमान जैसी पत्रिकाएं वर्षों पहले बंद हो गईं। इन पत्रिकाओं के बंद होने के पीछे के कारणों को टटोला जाए तो प्रकाशकों का कहना था कि इन पत्रिकाओं के प्रकाशन से उन्हें आर्थिक घाटा हो रहा था। साथ ही यह भी चर्चा उठी कि हिन्दी में साहित्यिक पत्रिकाओं के पाठकों में कमी होती जा रही है। पाठक संख्या और उत्पादन की मात्रा दोनों परस्पर पूरक कहे जा सकते हैं। यदि कोई पत्रिका पढ़ेगा नहीं तो वह किसके लिए प्रकाशित की जाएगी  लेकिन यह मिथक जल्दी ही टूट गया। हंस, वागर्थ, नया ज्ञानोदय, वर्तमान साहित्य, समीक्षा, पाखी, सामयिक सरस्वती, तद्भव आदि साहित्यिक पत्रिकाओं के प्रति पाठकों की ललक ने साबित कर दिया कि पाठकों की संख्या में उतनी भी गिरावट नहीं आई है जितनी कि समझी जाने लगी थी।
       भारतेंदु हरिश्चंद्र ने वाराणसी से कविता केंद्रित पत्रिका ’कविवचनसुधा’ का प्रकाशन 15 अगस्त, 1867 को प्रारंभ किया था। इस तरह हिंदी की साहित्यिक पत्रकारिता के 150 वर्ष पूरे हुए। भारतेंदु ’कवि वचन सुधा’ में आरंभ में पुराने कवियों की रचनाएँ छापते थे जैसे चंद बरदाई का रासो, कबीर की साखी, जायसी का पदमावत, बिहारी के दोहे, देव का अष्टयाम और दीन दयाल गिरि का अनुराग बाग। लेकिन जल्द ही पत्रिका में नए कवियों को भी स्थान मिलने लगा। भारतेंदु ने एक स्त्री शिक्षोपयोगी मासिक पत्रिका की जरूरत को शिद्दत से महसूस किया और जनवरी, 1874 में ’बाला बोधिनी’ नामक आठ पृष्ठों की डिमाई साइज की पत्रिका प्रकाशित की। उसके मुखपृष्ठ पर यह कविता प्रकाशित होती थी -
जो हरि सोई राधिका जो शिव सोई शक्ति।
जो नारि सोई पुरुष या में कुछ न विभक्ति।।
सीता अनुसूया सती अरुंधती अनुहारि।
शील लाज विद्यादि गुण लहौ सकल जग नारि।।
पितु पति सुत करतल कमल लालित ललना लोग।
पढ़ै गुनैं सीखैं सुनै नासैं सब जग सोग।।
और प्रसविनी बुध वधू होई हीनता खोय।
नारी नर अरधंग की सांचेहि स्वामिनि होय।।

      इलाहाबाद (वर्तमान में प्रयागराज) उ.प्र. से वर्ष 1939 से प्रकाशित होने वाली भारतीय महिलाओं के लिए सचित्र मासिक पत्रिका ‘दीदी’ में लेखिकाओं को प्रमुखता से स्थान दिया जाता था यद्यपि उन दिनों बहुत कम लेखिकाएं थीं। जिन लेखिकाओं की रचनाएं ‘दीदी’ में निरंतर प्रकाशित होती थीं उनमें प्रमुख नाम थे- डॉ. विद्यावती ‘मालविका’, कंचनलता सब्बरवाल आदि। इसके बाद प्रकाशित होने वाली साहित्यिक पत्रिकाओं में भी लेखिकाओं को पर्याप्त स्थान दिया जाता रहा है। क्योंकि एक लेखिका स्त्री जीवन को जितनी गहराई से साहित्य में अभिव्यक्त कर सकती है उतनी गहराई से एक लेखक नहीं कर सकता है। सद्यः प्रकाशित ‘अन्वेषिका’ इस अर्थ में और अधिक महत्वपूर्ण है कि इसमें लेखिकाओं के द्वारा लेखिकाओं की रचनाओं को प्रकाशित किया गया है।
       ‘अन्वेषिका’ का यह ताज़ा अंक ‘बेटी विशेषांक’ के रूप में प्रकाशित किया गया है। बेटी विषय पर केन्द्रित कुल 43 रचनाएं पत्रिका में हैं। इनमें सभी विधाओं को संजोया गया है। पत्रिका में हिन्दी साहित्य जगत की सुपरिचित कथालेखिका डॉ. शरद सिंह की कहानी ‘पराई बेटी’ के साथ ही निरंजना जैन की कहानी ‘सम्मान की खातिर’ तथा मधु गुप्ता की कहानी ’मेरा अक्स मेरी बेटी’ ने समाज में बेटियों के जीवन को बड़े रोचक एवं मर्मस्पर्शी ढंग से प्रस्तुत किया है।
‘बेटियां’ शीर्षकों के अंतर्गत दो पृथक-पृथक लेखों में आलोचक डॉ. लक्ष्मी पाण्डेय तथा संध्या दरे ने बेटियों की क्षमता और योग्यता को तार्किक ढंग से सामने रखा है। पत्रिका में बेटियों के जीवन पर केन्द्रित तीन ग़ज़लें हैं, जिनमें ‘बेटी’ शीर्षक से एक गजल डॉ. वर्षा सिंह (अर्थात् मेरी) की, इसी शीर्षक से दूसरी गजल डॉ. राजश्री रावत की तथा तीसरी गजल ज्योति विश्वकर्मा की है जिसका शीर्षक है- ‘दो कुलों का दीपक जलाती हैं ये’। ‘एक पाती बेटी के नाम’ शीर्षक से एक रोचक पत्र लेखिका राजश्री मयंक दवे ने लिखा है जिसमें एक मां की अपनी बेटी के प्रति गर्व भरी भावना का उद्घाटन है।
       पत्रिका में डॉ. प्रेमलता नीलम का गीत ‘बेटी की पीड़ा’ के अतिरिक्त शेष रचनाएं कविता के रूप में हैं - ‘राजदुलारी मेरी बेटी’ मघु दरे, ‘बेटियां फूल सी’ पुष्पा चिले, ‘मां मुझको जग में आने दो’ डॉ. वंदना गुप्ता, ‘मेरी प्यारी बेटी’ नंदनी चौधरी, ‘स्मृतियां’ डॉ. छाया चौकसे, ‘बिटिया’ डॉ. चंचला दवे, ‘बेटियां स्वाभिमान बेटियां सम्मान’ डॉ. सरोज गुप्ता, ‘बेटी तू मन को लुभाने लगी’ ज्योति झुड़ेले, ‘बेटी’ जयंती सिंह लोधी, ‘पत्र जो लिखा नहीं’ डॉ. कविता शुक्ला, ‘हिन्द की बेटी हूं’ सुनीला सराफ, ‘बेटियां’ क्लीं राय, ‘बेटियां’ पारुल दरे, ‘बेटी’ सरिता जैन, ‘बधाई हो बेटी हुई’ विनीता केशरवानी, ‘मेरी बेटी’ शशी दीक्षित, ‘बेटी’ डॉ. ऊषा मिश्रा, ‘नहीं पराई बेटियां’ डॉ. नम्रता फुसकेले, ‘बेटी’ निशा शाह, ‘मैं बेटी हूं हिन्द की’ पुष्पलता पाण्डेय, ‘बेटियां’ शोभा सराफ, ‘बेटी’ अनीता पाली, ‘भारत की बेटी’ डॉ. अनूपी सर्मया, ‘बेटी  खास अहसास’ स्मिता गोड़बोले, ‘झट से रूठ जाना’ अंशिका गुलाटी, ‘मां-बाप की बगिया में’ कंचन केशरवानी, ‘बेटी’ निधि यादव, ‘बेटी’ भारती सोनी, ‘बेटी’ ज्योति दीक्षित, ‘त्याग की मूरत है बेटी’ पूनम साहू, ‘बेटियां’ सुनीता जड़िया, ‘हमारी बेटियां’ ऊषा बर्मन, ‘खूबसूरत सा ख्वाब होती हैं बेटियां’ किरण सराफ।
‘अन्वेषिका’ के इस अंक में हिन्दी लेखिका संघ, सागर की वर्ष भर संचालित हुई गतिविधियों की तस्वीरें तथा संघ की उपलब्धियों एवं कार्यों का विवरण भी प्रकाशित किया गया है। महिला रचनाकारों की रचनाओं की विषयगत विशेषता ने इस अंक को पठनीय एवं संग्रहणीय बना दिया है। सकारात्मक पक्ष यह भी है कि कि यह अंक ई पत्रिका के रूप में होने के कारण सहज उपलब्ध है। आज जब साहित्य समाज साहित्य की पठनीयता को ले कर तथा हिन्दी की साहित्यिक पत्रिकाओं की घटता संख्या के विषय में चिंतित है, ऐसे समय में ‘अन्वेषिका’ का प्रकाशन महत्वपूर्ण एवं प्रशंसनीय है।  
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