Tuesday, January 26, 2021

गणतन्त्रदिवसः शुभाशयाः | गणतंत्र दिवस की शुभकामनाएं | डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh

आशास्महे नूतनहायनागमे भद्राणि पश्यन्तु जनाः सुशान्ताः।
निरामयाः क्षोभविवर्जितास्सदा मुदा रमन्तां भगवत्कृपाश्रयाः।।
गणतन्त्रदिवसः शुभाशयाः

अर्थात् मैं ईश्वर से आपके उज्जवल भविष्य और हमारे सम्बन्धों में वृद्धि की कामना करती हूँ। आप सब को और आप के परिवार को गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं।
                       - डॉ. वर्षा सिंह

Monday, January 25, 2021

सागर: साहित्य एवं चिंतन | पुनर्पाठ 17 | चिन्तन की गलियों से | पुस्तक | डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh

प्रिय मित्रों, स्थानीय दैनिक समाचार पत्र "आचरण" में प्रकाशित मेरा कॉलम "सागर : साहित्य एवं चिंतन " जिसमें पुस्तकों के पुनर्पाठ की श्रृंखला के अंतर्गत सत्रहवीं कड़ी के रूप में प्रस्तुत है - सागर नगर के प्रतिष्ठित विचारक, चिन्तक, लेखक एवं उद्योगपति स्व. मोतीलाल जैन की पुस्तक " चिन्तन की गलियों से" का पुनर्पाठ।
हार्दिक आभार आचरण 🙏
   
सागर: साहित्य एवं चिंतन

     पुनर्पाठ: मोतीलाल जैन कृत ‘चिंतन की गलियों से’
                        -डॉ. वर्षा सिंह                                                                                    
         इस बार पुनर्पाठ के लिए मैंने चुना है एक ऐसी पुस्तक को जो जीवन में चिंतन के महत्व को स्थापित करती है। यह पुस्तक है चिंतक एवं विचारक मोतीलाल जैन की पुस्तक ‘चिंतन की गलियों से’।
         प्रत्येक व्यक्ति संवेदनशील होता है जिसके कारण उसे सुख और दुख की अनुभूति होती है। सुख प्राप्त होने पर व्यक्ति सुख के कारणों पर चिंतन नहीं करता है। लेकिन जब दुख प्राप्त होता है तो वह दुख के कारणों का न केवल पता लगाता है बल्कि उन कारणों से छुटकारा पाने के लिए उपाय सोचना शुरू कर देता है, और वहीं से शुरू हो जाती है चिंतन प्रक्रिया। जो व्यक्ति हर स्थिति में चिंतनशील होता है वह दुख और सुख का विभाजन किए बिना जीवन के प्रत्येक तत्व के प्रति चिंतन करता है। लेखक मोतीलाल जैन सर्वकालिक चिंतक थे। वे धर्म, राजनीति, समाज, अर्थ, परमार्थ, स्वार्थ आदि प्रत्येक तत्व के प्रति सजग रहते हुए सतत चिंतनशील बने रहते थे। उन्होंने अपने विचारों को सरल शब्दों में छोटे-छोटे लेखों में निबद्ध किया जो कि वर्ष 1997 में ‘‘चिंतन की गलियों से’’ नामक पुस्तक के रूप में प्रकाशित हुए। इस पुस्तक के आरम्भ में अपना मंतव्य देते हुए डाॅ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर के तत्कालीन कुलपति शिवकुमार श्रीवास्तव ने लिखा है - ‘‘चित्त है, चैतन्य है तो चिंता होगी - चिंतन होगा। चिंता से चिंतन तक की यात्रा प्रतिकूल वेदना से अनुकूल वेदना तक की यात्रा है। जब चिंतन का स्तर प्राप्त होता है तो चिंता पीछे छूट जाती है।’’ वे आगे लिखते हैं कि - ‘‘मोतीलाल जी हर प्रश्न से चिंतन के स्तर पर जूझते हैं और निष्कर्षों तक पहुंचते हैं। ये निष्कर्ष मानव मात्र की कल्याण कामना के मधुर फल हैं। मोतीलाल जी ने सोच की सुस्पष्ट प्रणाली विकसित की है।’’
        ‘‘चिंतन की गलियों से’’ नामक पुस्तक को पढ़ते हुए लेखक मोतीलाल जी की मौलिक चिंतन प्रणाली का स्पष्ट बोध होता है। मोतीलाल जी ने अपनी बात के अंतर्गत लिखा है की ‘‘कहने में लिखने में और स्वयं पालन करने में बहुत अंतर होता है। मन में एक विचार आया तो कह दिया और लिख भी दिया। इस कहने और लिखने में हमारी कषाय ही मूल कारण है। कषाय है प्रशंसा पाने की, मान पाने की, बुद्धिजीवी कहलाने की। सो अंतरंग में जब यह कषाय जोर मारती है सो मुझे लिखने बैठना पड़ता है और फिर लिखे हुए पढ़ाने में भी उसी कषाय और अधिक पोषण होता है। इसे सोच कहे विचारना कहें, विवेक कहें, वृत्ति कहें या आसक्ति कहें। कह कुछ भी लें, परंतु पोषण तो प्रशंसा पाने की कषाय का ही होगा।’’
         जैन दर्शन के सिद्धांत कोश में कषाय की सरल व्याख्या की गई है जिसके अनुसार आत्मा के भीतरी कलुष परिणाम को कषाय कहते हैं। यद्यपि क्रोध मान माया लोभ ये चार ही कषाय प्रसिद्ध हैं पर इनके अतिरिक्त भी अनेकों प्रकार की कषायों का निर्देश आगम में मिलता है। हास्य रति अरति शोक भय ग्लानि व मैथुन भाव ये नोकषाय कही जाती हैं, क्योंकि कषायवत् व्यक्त नहीं होती। इन सबको ही राग व द्वेष में गर्भित किया जा सकता है। आत्मा के स्वरूप का घात करने के कारण कषाय ही हिंसा है। मिथ्यात्व सबसे बड़ी कषाय है। एक दूसरी दृष्टि से भी कषायों को निर्देश मिलता है। वह चार प्रकार है-अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान व संज्जवलन-ये भेद विषयों के प्रति आसक्ति की अपेक्षा किये गये हैं और क्योंकि वह आसक्ति भी क्रोधादि द्वारा ही व्यक्त होती है इसलिए इन चारों के क्रोधादिक के भेद से चार-चार भेद करके कुल 16 भेद कर दिये हैं। तहाँ क्रोधादि की तीव्रता मंदता से इनका संबंध नहीं है बल्कि आसक्ति की तीव्रता मंदता से है। हो सकता है कि किसी व्यक्ति में क्रोधादि की तो मंदता हो और आसक्ति की तीव्रता। या क्रोधादि की तीव्रता हो और आसक्ति की मंदता। अतरू क्रोधादि की तीव्रता मंदता को लेश्या द्वारा निर्दिष्ट किया जाता है और आसक्ति की तीव्रता मंदता को अनंतानुबंधी आदि द्वारा। कषायों की शक्ति अचिंत्य है। कभी-कभी तीव्र कषायवश आत्मा के प्रदेश शरीर से निकलकर अपने बैरी का घात तक कर आते हैं, इसे कषाय समुद्घात कहते हैं।
        कषाय के बारे में जिज्ञासा को जगाने वाले लेख लिखने वाले लेखक मोतीलाल जी अपने ‘‘मिथ्या’’ शीर्षक लेख में मिथ्या के बारे में लिखते हैं कि -’’ असत्य, झूठ, धोखा, फरेब, भ्रम आदि शब्दों से जो भाव प्रकट होता है, वह मिथ्या भाव है। मिथ्या का अर्थ है जो मिट जावे, यानी जो हमेशा रहता नहीं। साथ न देने वाला अभी है फिर ना रहे, चंचल चलाएमान। अभी हम सुखी होना मान रहे हैं, थोड़ी देर बाद हमारा यह भाव मिट जाए और हम दुखी होने लगें तो हमारा सुखी होने का भाव मिट गया, ऐसा माना जाएगा। फिर कुछ समय बाद हमारा वह दुख घट जाए या बढ़ जाए, तो यह घटना बढ़ना भी असत्य यानी मिथ्या  कहा जाएगा। इससे यही तात्पर्य निकलता है कि हमारे चित्त में मन के द्वारा जो भी परिणमन होता है वह मिटता रहता है। एक विकल्प होता है, कुछ देर टिकता है, फिर उसको अन्य दूसरा विकल्प मिटा देता है। दूसरा विकल्प भी तीसरे के द्वारा मिट जाता है और इस प्रकार विकल्प होते हैं और मिट जाते हैं। परंतु जिस चित्त में, चेतन में, आत्मा में यानी जीव में विकल्प होते हैं वह जीव नहीं मिटता है। जीव तो वेदना सहता रहता है इसीलिए जीव सत्य है और उसका वेदना सहना भी सत्य है। वेदना अच्छी भी हो सकती है और बुरी भी हो सकती है। जो वेदन सुहावे, रुचिकर लगे, उसे पुण्य रूप यानी शुभ कहा गया है और जो वेदन अरुचिकर लगे उसे पाप रूप यानी अशुभ कहा गया है। परंतु जीवन की वेदना सहना यह सत्य है क्योंकि वेदना मिटती नहीं। वेदना का साता असाता रूप परिवर्तन ही होता रहता हैं।’’
वर्तमान जीवन परिवेश में मिथ्या का बोलबाला है। बाज़ार और विज्ञापन की दुनिया सच के चमकीले आवरण में झूठ का विक्रय करने पर उतारू रहती है। लेकिन मिथ्या केवल बाज़ार में ही नहीं है, वह हमारे जीवन का अभिन्न हिससा बनतर जा रही है। मोतीलाल जी के ‘‘मिथ्या’’ शीर्षक लेख को पढ़ते समय ही मेरे मन में जिज्ञासा ने जन्म लिया कि आखिर जैन दर्शन ‘‘मिथ्या’’ के बारे में क्या कहता है? और मैने पाया कि जैनदर्शन के अभिमत से जहां भी एकान्तिकता होती है, वहां वह विचार मिथ्या बन जाता है। अनादिकाल से यह जीव अज्ञान के वश में आकर विषयों और कषायों में प्रवृत्ति करता हुआ इस संसार में भटक रहा है। इस भ्रमण में इस जीव ने अनन्तों बार चैरासी लाख योनियों में जन्म लिया, कभी अच्छे कर्मों के उदय से देवों के दिव्य-सुखों को भोग खुश, तो कभी त्रियंच-नरक और मनुष्य गति के दुखों को भोग कर विचलित होता रहा। अपने सच्चे आत्म-स्वरुप का दर्शन न हो सकने के कारण अनादि-काल से इस जीव की दृष्टि विपरीत ही रही है ! जीव की इस विपरीत दृष्टि के कारण ही उसे ‘‘मिथ्यादृष्टि’’ कहा जाता है। मिथ्यादृष्टि जीव मिथ्या को छोड़कर किस प्रकार से यथार्थ दृष्टि (सम्यग्दृष्टि) वाला बनता है, और किस प्रकार अपने गुणों का विकास करते हुए परमात्मा बनता है, उसके इस क्रमिक विकास में आत्मा के गुणों के जिन-जिन स्थानो पर वो रुकता है, उन्हें गुण-स्थान कहते हैं अर्थात् बहिरात्मा (मिथ्यादृष्टि) से अंतरात्मा (सम्यग्दृष्टि) और फिर परमात्मा बनने के लिए इस जीव को आत्मिक गुणों की आगे-आगे प्राप्ति करते हुए, जिन-जिन स्थानो से गुजरना पड़ता है, उन्हें गुण-स्थान कहते हैं।

चिन्तन की गलियों से - मोतीलाल जैन

         सभी धर्मों में लगभग एक सी बातें कही गईं हैं। फिर सभी धर्म अलग-अलग क्यों हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि धार्मिक भिन्नताओं के पीछे असली कारण उनसे जुड़ी मान्यताओं की विविधता तो नहीं हैं? इस गूढ़ विषय पर चिंतन करते हुए लेखक मोतीलाल जी ने ‘‘भिन्न-भिन्न मान्यताएं क्यों?’’ शीर्षक लेख में लिखा है कि -‘‘संसार में मनुष्य विचारशील एवं चिन्तन -मनन की विशेष योग्यता रखने वाला जीव हैं। मनुष्य के सिवाय अन्य किसी और प्राणी में इतनी और योग्यता इस पृथ्वी पर किसी अन्य को नहीं है। मनुष्य अपने अनुभव की बात अन्य दूसरों को जताने की इच्छा करता है। यह इच्छाशक्ति भी मनुष्य की विशेष योग्यता है। ...... अनुभूति हो जाने पर ही वस्तु पदार्थ आदि के गुण-अवगुण पर श्रद्धा व विश्वास होता है। जो अनुभूति हो पाती है उतनी बात पर ही उसे विश्वास होता है और विश्वास होजाने का ही दूसरा नाम मान्यता है। इसी मान्यता के आधार पर सिद्धांत बना दिए जाते हैं। जितना जो जानता है उतना ही उसका सिद्धांत रहता है क्योंकि उतना ही उसे सिद्ध है, ज्ञात है।’’ लेखक के कहने का आशय यही है कि अनुभवजनित ज्ञान ही मान्यता निर्धारित करता है और मान्यताओं की विविधता विविध धार्मिक स्वरूप गढ़ती है।
        मनुष्य जीवन में जब पारस्परिक संबंधो की बात हो तो मोह एक बड़े घटक के रूप में सामने आता है। कई बार मोह के साथ राग शब्द भी प्रयुक्त होता है। तो प्रश्न उठता है कि मोह और राग में क्या संबंध अथवा क्या अंतर है? इस बारे में मोतीलाल जी ने अपने लेख ‘‘मोह और राग’’ में लिखा है कि - ‘‘मोह जहां है वहीं राग-द्वेष होता है। मोह की आराधना राग से होती है। मोह के अभाव में राग-द्वेष नहीं होता है। राग की विराधना द्वेष से होती है। जितनी तीव्र मोह दशा होती है उतना ही तीव्र राग उत्पन्न होता है। जिस पदार्थ एवं वस्तु अथवा जीव से जीव को जितना गहरा प्रेम व राग होता है, उतना ही गहरा उससे द्वेष उत्पन्न हो जाता है।’’
मोतीलाल जैन जी की पुस्तक ‘‘चिंतन की गलियों से ’’ उनके विविध विषयों पर लिखे गए लेखों का रोचक संग्रह है। जैसा कि पुस्तक के आरंभ में डाॅ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर के तत्कालीन प्रोफेसर तथा अध्यक्ष हिन्दी विभाग एवं बुंदेलीपीठ डाॅ. सुरेश आचार्य, डी.लिट. ने लिखा है कि -‘‘संस्कृति, धर्म, साहित्य और समाज पर केन्द्रित उनके विषय संबंधी ये लेख अपने गम्भीर चिंतन से हमें सोचने को प्रेरित करते हैं। वे ज्ञान भक्ति के दरवाजे सभी को खोलने के पक्षधर हैं।’’ वस्तुतः मोतीलाल जैन जी की यह पुस्तक उन सभी पाठकों के लिए महत्वपूर्ण है जो जीवन से जुड़े धर्म और दर्शन के पक्षों को समझना चाहते हैं। यह पुस्तक ऐसी पठनीय सामग्री को समेटे हुए है जो इसके पुनर्पाठ को प्रेरित करती है।
 
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साहित्य वर्षा

( दैनिक, आचरण  दि.25.01.2021)
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Friday, January 8, 2021

सागर: साहित्य एवं चिंतन | पुनर्पाठ 16 | बात कैत दो टूक कका जू | बुंदेली ग़ज़ल संग्रह | डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh

प्रिय मित्रों, स्थानीय दैनिक समाचार पत्र "आचरण" में प्रकाशित मेरे कॉलम "सागर : साहित्य एवं चिंतन " में पुस्तकों के पुनर्पाठ की श्रृंखला के अंतर्गत सोलहवीं कड़ी के रूप में प्रस्तुत है - सागर  ज़िले के कवि महेश कटारे 'सुगम' के बुंदेली ग़ज़ल संग्रह "बात कैत दो टूक कका जू" का पुनर्पाठ।
हार्दिक आभार आचरण 🙏
     
सागर : साहित्य एवं चिंतन

 पुनर्पाठ : बात कैत दो टूक कका जू
                           -डॉ. वर्षा सिंह
                            
            इस बार पुनर्पाठ के लिए मैंने चुना है सागर जिले के बीना तहसील मुख्यालय में निवासरत बुंदेलखंड के चर्चित कवि महेश कटारे ‘सुगम’ के बुंदेली गजल संग्रह - ‘‘बात कैत दो टूक कका जू’’ को। बुंदेली एक लोकभाषा है। यह लोकभाषा बोली से भाषा तक के सफर में संघर्षरत है लेकिन इसकी साहित्य संपदा पर्याप्त समृद्ध है। यूं भी जब किसी बोली में मौलिक साहित्य सृजन होने लगता है तो वह भाषा के समीप पहुंच जाती है। यदि हिन्दी भाषा की बोलियों और उपभाषा की चर्चा की जाए तो उत्तर भारत की बोलियों ने निरंतर विकास किया है। भाषाई परिभाषा के आधार पर उत्तर भारत की जो प्रमुख बोलियां मानी गई हैं, उनमें प्रमुख हैं- ब्रज, कन्नौजी, बुंदेली, बघेली, अवधी, भोजपुरी, मगधी, छत्तीसगढ़ी, हरियाणवी, राजस्थानी और रोहेलखण्ड में बोली जाने वाली खड़ी बोली। इन सभी बोलियों में उत्कृष्ट साहित्य सृजन किए जाने की उल्लेखनीय परम्परा चली आ रही है, जो इन बोलियों को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल किए जाने योग्य सिद्ध करती है। बुंदेली में एक से बढ़ कर एक काव्य सृजन किए गए हैं। चाहे वीर रस में जगनिक के ‘‘आल्ह खण्ड’’ की बात की जाए या फिर श्रृंगार रस में ईसुरी की फागों की। बुंदेली में गजब का लचीलापन है। इसने अपनी परम्परागत जातीय गरिमा को बनाए रखते हुए विभिन्न भाषाओं के शब्दों को इस तरह आत्मसात किया है कि मानों वे शब्द ठेठ बुंदेली के हों। बुंदेली में छंदबद्ध रचनाएं लिखी गईं तो छंदमुक्त रचनाएं भी लिखी गईं। दोहे, घनाक्षरी, अतुकांत कविताओं के साथ ही गजलें भी बुंदेली में लिखी गई हैं और लिखी जा रही हैं। बुंदेली गजल के क्षेत्र में एक चिरपरिचित नाम है कवि महेश कटारे ‘सुगम’ का। 24 जनवरी 1954 को ललितपुर में जन्में कवि ‘सुगम’ मध्यप्रदेश के स्वास्थ्य विभाग में प्रयोगशाला तकनीशियन के पद से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति के बाद बीना में निवासरत हैं। ‘‘बात कैत दो टूक कका जू’’ गजल संग्रह सन् 2018 में प्रकाशित हुआ, जिसकी गजलें कवि के बुंदेली के प्रति समर्पण और समसामयिक परिदृश्य पर पैनी निगाह की परिचायक हैं।
वर्तमान परिदृश्य व्यवस्थाओं की दृष्टि से स्वस्थ नहीं कहा जा सकता है। तरह-तरह के फर्जी बाड़े के समाचारों से अखबारों के पन्ने भरे रहते हैं। लोग एक-दूसरे के दुख-दर्द के प्रति असंवेदनशील हो चले हैं। यह सब एक संवेदनशील कवि के रूप में महेश कटारे ‘सुगम’ को रोष से भर देता है। उनका यह रोष उनकी इस गजल में देखा जा सकता है-
भैया तू भौतई फर्जी है
खूब चला रओ मनमर्जी है
दुनिया भर में घूमत फिर रओ
घरे रुके की एलरजी है
काट लेत सींवौ नई जानत
एसौ जो कैसो दर्जी है
को का कै रओ कभऊं नई सुनत
फेंक देत सबकी अर्जी है

महेश कटारे की गजलों में एक खास बात यह है कि वे बुंदेली के रोजमर्रा के शब्दों को अपने शेरों में पिरोते हैं। ’ढिंगा’, ‘फुइया’, ‘ओली’, ‘कुठरिया’ जैसे खांटी बुंदेली शब्दों के साथ खड़ी बोली के ‘शुद्ध’ जैसे शब्द को बड़ी सुंदरता के साथ प्रयोग में लाते हैं, जिससे बुंदेली की विशेषता भी बनी रहती है और कथ्य की वजनदारी भी। उदाहरण देखिए-
तनक छांयरे में सुस्ता लो
भूख लगी तौ रोटी खा लो
काम लगो रेनें जीवन भर
बैठो आओ ढिंगा बतया लो
फुइया से मौड़ा मौड़ी हैं
ओली ले के इने खिला लो
सड़ रहे काय कुठरिया भीतर
बाहर आ कें शुद्ध हवा लो

गांव के विकास की बातें हर जगह की जाती हैं। अकसर आंकड़ों में गांवों कें विकास के दम भरे जाते हैं लेकिन ज़मीनी सच्चाई कुछ अलग ही तस्वीर दिखाती है। इसी बात पर कवि कटारे प्रश्न उठाते हैं कि -
गांव अबै तक जां के तां हैं
सड़कें बिजली पानी कां हैं
काय जांय हम तीरथ करवे
घर में जब दद्दा अम्मा हैं
अपनौ ईशुर बस मेनत है
तुमखों सब विष्णु बिरमा हैं
जात धरम उर बोली बानी
झगड़े झांसे खामोखां हैं

ऐसा नहीं है कि सिर्फ़ व्यवस्था और राजनीति में ही दोहरापन आया हो, मानवीय आचरण में भी दोहरापन समा गया है। आज अकसर व्यक्ति अपने अधिकार की लड़ाई में अकेला ही खड़ा दिखाई पड़ता है। इस तथ्य पर महेश कटारे ने बड़ी बेबाकी से शेर कहे हैं-
अब आपस में प्यार कितै है
मनचीनौ व्यवहार कितै है
दुख में सैकर परौ आदमी
लड़वे खौं तैयार कितै है
सबरे गुड़ीमुड़ी हो जाते
जनता में हुंकार कितै है

बुंदेलखंड 2004 से ही सूखे की चपेट में रहा। जब बहुत शोर मचा तो पहली बार इलाके को 2007 में सूखाग्रस्त घोषित किया गया। 2014 में ओलावृष्टि की मार ने किसानों को तोड़ दिया। सूखा और ओलावृष्टि से यहां के किसान अब तक नहीं उबर पाए हैं। खेती घाटे का सौदा बन गई है और किसान तंगहाली में पहुंच चुके हैं। जब किसान तंगहाल होता है तो शेष व्यवसाय भी लड़खड़ाने लगते हैं। बुंदेलखंड की भुखमरी भी सुर्खियों में रही है। इस समाचार ने पूरे देश को स्तब्ध कर दिया था कि ‘‘बुंदेलखंड में लोग घास की रोटियां बनाकर खा रहे हैं’’। बुंदेलखंड में खेती खत्म होने, उद्योग न होने और बेरोजगारी-भुखमरी के कारण पलायन की विवशता जागी। किसान दूसरे प्रांतों में मजदूरी करने को विवश हो गए। इस कटु यथार्थ को बड़े ही मार्मिक ढंग से अपनी ग़ज़ल में व्यक्त किया है महेश कटारे ने-
हो हो कें हैरान मरौ है
फांसी लगा किसान मरौ है
मरतौ नईं तौ फिर का करतौ
फसलन कौ मीजान मरौ है
अन्न उगा कें पेट भरततौ
भूखन कौ वरदान मरौ है
गांव गांव में जाकें देखौ
खेत और खरियान मरौ है


बात कैत दो टूक कका जू (बुंदेली ग़ज़ल संग्रह) - महेश कटारे 'सुगम' 


       जीवन में दिखावे की प्रवृत्ति इस कदर प्रभावी हो जा रही है कि लोग ममत्व, अपनत्व और मानवीयता को दरकिनार करने लगे हैं। ऐसे लोगों को विलासिता पर व्यय करते समय उन भूखे-प्यासे इंसानों की याद नहीं आती है। देश में न जाने कितने बच्चे, बूढ़े, महिलाएं, पुरुष भिखारियों का जीवन बिता रहे हैं। उन्हें कभी एक समय की रोटी मिल जाती है तो कभी दो-दो, तीन-तीन दिन फांके करने पड़ते हैं। आत्मकेंद्रित जीवन के चलन में वृद्ध माता-पिता के दुख-पीड़ा भी भुला दी जाती है। यह परिदृश्य किसी भी कवि की आंखों में आंसू ला सकता है। कवि महेश कटारे भी इस परिदृश्य से द्रवित हो उठते हैं। लेकिन वे आंसू बहा कर चुप नहीं रह जाते हैं वरन् ऐसे आत्मकेन्द्रित लोगों को ललकारते हैं तथा उनकी चेतना जगाने का प्रयास करते हैं-  
भूखन खौं दुत्कार भगा रये शरम करौ
पथरन खौं तुम खीर चढ़ा रये शरम करौ
अम्मा दद्दा भूखे बैठे हैं घर में
पुण्य कमाने तीरथ जा रये शरम करौ
धरम करम ईमान टांग दऔ खूंटा पै
पैसा खौं कैसे भैरा रये शरम करौ
बच्चा भूखे रो रये हैं फुटपातन पै
कुत्ता घर में बिस्कुट खा रये शरम करौ

यूं तो जीवन में अनेक समस्याएं हैं लेकिन इनमें से कई समस्याएं जिस कारण से पैदा होती हैं वह है - मंहगाई। वर्तमान समय में मंहगाई की समस्या अत्यंत विकराल रूप धारण कर चुकी है। कालाधन, जमाखोरी, भ्रष्टाचार, मुद्रा का अवमूल्यन आदि कारण गिनाए जा सकते हैं इस बढ़ती हुई मंहगाई के लिए। किन्तु मात्र कारण गिनाने से समस्या का समाधान नहीं हो सकता है। समाज का निम्न वर्ग और मध्यम वर्ग मंहगाई की सबसे अधिक मार झेलता है। वह अपनी आवश्यक जरूरतें पूरी करने के लिए कर्ज लेता है और कर्ज न चुका पाने की स्थिति में या तो तिल-तिल कर मरता रहता है या फिर आत्महत्या का रास्ता ढूंढने लगता है। यह जीवन की कटुता भरी सच्चाई है। मंहगाई जीवन की सरसता को किस तरह सोख लेती है वह महेश कटारे के इन शेरों में महसूस किया जा सकता है -
सुख कौ पन्ना मोरौ भैया
रऔ कोरो को कोरौ भैया
हत्यारी ई मेंगाई नें
सब कौ गरौ मरोरौ भैया

‘‘बात कैत दो टूक कका जू’’ गजल संग्रह की गजलों में वह लोकभाषाई आत्मीयता है जो इन्हें बार-बार पढ़ने के लिए उकसाती है। इस संग्रह की गजलों में महेश कटारे ने ग्रामीण और कस्बाई जिन्दगी की समस्याओं को बिना किसी लागलपेट के सामने रखा है। वे भूख, गरीबी, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, सामाजिक तथा आर्थिक विषमता जैसी समस्याओं पर खुल कर कलम चलाते दिखाई देते हैं। ये सभी मुद्दे समसामयिक गजलकारों की गजलों में बखूबी देखी जा सकती है। लेकिन महेश कटारे की गजलें यदि उनमें अपनी अलग पहचान बना पाई हैं तो उसका मूल कारण है उन गजलों का बुंदेली में लिखा जाना और यही इसके पुनर्पाठ का सबसे बड़ा प्रेरक तत्व भी है। अपनी बोली का सोंधापन भला किसे नहीं भाता।

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( दैनिक, आचरण  दि.08.01.2021)
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Saturday, January 2, 2021

सागर: साहित्य एवं चिंतन | पुनर्पाठ 15 | जगत मेला चलाचल का | काव्य संग्रह | डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh

प्रिय ब्लॉग पाठकों, स्थानीय दैनिक समाचार पत्र "आचरण" में प्रकाशित मेरे कॉलम "सागर : साहित्य एवं चिंतन " में पुस्तकों के पुनर्पाठ की श्रृंखला के अंतर्गत पंद्रहवीं कड़ी के रूप में प्रस्तुत है - सागर नगर के वयोवृद्ध साहित्यकार निर्मलचंद "निर्मल" की पुस्तक "जगत मेला चलाचल का" का पुनर्पाठ।
हार्दिक आभार आचरण 🙏
     

सागर: साहित्य एवं चिंतन

       पुनर्पाठ: जगत मेला चलाचल का

                 - डॉ. वर्षा सिंह

                              

इस बार पुनर्पाठ के लिए मैंने चुना है एक ऐसी पुस्तक को यूं तो जिसका प्रकाशन वर्ष 2020 में ही हुआ है किन्तु इसे मैं कई बार पढ़ चुकी हूं और मुझे लगता है कि जो भी पाठक इस पुस्तक को पढ़ेगा वह पुस्तक के मूल मर्म की गहराई में उतरने और चिन्तन करने के लिए इसे बार-बार पढ़ेगा। ‘‘जगत मेला चलाचल का’’ सागर नगर के कवि निर्मलचंद ‘‘निर्मल’’ का काव्य संग्रह हैं जिसमें रोजमर्रा के जीवन से जुड़े तथ्यों के साथ ही जगत की संरचना एवं उपादेयता की काव्यात्मक व्याख्या की गई है। इस संग्रह में संग्रहीत कुल 64 काव्य रचनाएं जीवन दर्शन और आध्यात्मिकता का सम्वेत स्वर प्रवाहित करती हैं। जैसा कि पुस्तक के नाम से ही स्पष्ट है कि कवि इस बात का स्मरण कराना चाहता हैं कि संसार नश्वर है। इस संदर्भ में मुझे याद आता है प्रसिद्ध शास्त्रीय गायक पण्डित कुमार गंधर्व का गाया यह भजन -

जइसे पात गिरे तरुवर के, मिलना बहुत दुहेला

ना जानूं किधर गिरेगा, लग्या पवन का रेला

उड़ जाएगा हंस अकेला, जग दर्शन का मेला

    अर्थात पेड़ से गिरे पत्ते को हवा कहां ले जाएगी किसी को पता नहीं होता। ठीक उसी तरह मृत्यु के बाद प्राण कहां जाएंगे यह भी कोई नहीं जानता। जन्म और मृत्यु के बीच जीवन के जो अनुभव मिलते हैं वे सुख-दख दोनों का अनुभव कराते हैं। ये अनुभव उस मेले के समान हैं जो जब तक लगा रहता है तब तक कोलाहल से भरपूर रहता है और मेला उठते ही गहन नीरवता छा जाती है। फिर भी प्रत्येक मनुष्य को अपने जीवनपर्यन्त किसी न किसी कर्म से जुड़े रहना पड़ता है। कर्म से अनुभव उपजता है और अनुभव मनुष्य को जीवन की दशाएं समझाता है। कवि निर्मल के इस संग्रह के नाम वाली रचना ‘‘जगत मेला चलाचल का’’ की ये पंक्तियां जगत के प्रति कवि के चिन्तन को सामने रखती हैं-

एक पल जो दूसरे से प्राप्त कर अनुभव बढ़ा है

एक पल अवरुद्ध हो कर ही अचेतन सा पड़ा है

एक पल जो सृष्टि का निर्माण करता आ रहा है

एक पल विध्वंस के ही गीत अब तक गा रहा है

एक पल हम, एक पल तुम, एक पल पूरा जगत है

एक पल की ही धरोहर सृष्टि का जीवन सतत है


इसी कविता की अंतिम पंक्तियों में कवि ने कहा है-

कट गए वो था भरोसा अब भरोसा नहीं पल का

रोज लगता रोज उठता जगत मेला चलाचल का


संसार और जीवन को ले कर दार्शनिकों ने सदा विचार मंथन किया है। विशेष बात यह है कि बात जब धर्म-दर्शन की आती है तो संसार को ले कर सभी धर्मों में लगभग एक सा निष्कर्ष दिखाई देता है। जैन दर्शन में संसार जन्म, मृत्यु और पुनर्जन्म के अनवरत क्रम को कहते हैं। इसमें संसार को दुखों से भरा हुआ और त्याज्य माना गया है। हिन्दू धर्म में भागवत पुराण के स्कंध 10 पूर्वाद्ध, अध्याय 2 में संसार की व्याख्या वृक्ष से तुलना करते हुए की गई है। इसमें कहा गया है कि संसार एक सनातन वृक्ष है। जिसके दो फल हैं - सुख और दुख। तीन जड़ें हैं - सत्व, रज और तम। चार रस हैं - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। इसके छः स्वभाव हैं - पैदा होना, रहना, बढ़ना, बदलना, घटना और नष्ट होना। इस प्रकार भागवत पुराण में संसार की विस्तृत व्याख्या की गई है। किन्तु मनुष्य इस सत्य को अर्थात् संसार की नश्वरता को भूल कर स्वार्थ में डूबा रहता है। यह स्वार्थ कभी परिवारों में दरार डालता है तो कभी समाज को आहत करता है ओर जब यही स्वार्थ विकराल रूप धारण कर लेता है तो देशों के बीच शत्रुता के भाव जगा देता है। जबकि इस प्रकार की सारी शत्रुताओं का अस्तित्व उसके लिए उसी समय तक रहता है जब तक वह जीवित है। इस तथ्य को कवि निर्मल ने अपनी इन पंक्तियों में बड़े ही सुन्दर ढंग से व्यक्त किया है -

संास की दीवार जिस दिन हट गई

दूरियां मुल्क-ए-अदम की पट गई

दिल समझने को नहीं राजी हुआ

जो इबारत मिट गई सो मिट गई


इसी रचना में कवि आगे लिखते हैं-

प्रश्न ‘‘निर्मल‘‘ आज तक सुलझा पहीं

मृत्यु अनगिन दर्शनों में बंट गई


वस्तुतः इस संसार और जीवन को समझना बहुत कठिन है। अनेक दार्शनिक और अनेक महापुरुष इसे समझने का प्रयास कर चुके हैं किन्तु आज भी अनेक प्रश्न अनुत्तरित हैं। इसीलिए कवि निर्मल अपनी कविता ‘‘ऐसा गीत लिखा है तूने’’ में इस सृष्टि के रचेता को संबांधित करके लिखते हैं -

ऐसा गीत लिखा है तूने

बांचन बारे थके समझ भी हारी

भाषाएं हैं भिन्न, धरातल भिन्न

नए-नए आयाम, नई पहचान

आते-जाते छंद सभी मेहमान

वर्तमान के और विगत के

अर्थ अलग हैं

खुलती जितनी पर्तें

उनकी शर्त अलग है

कबिरा ने बांचा इसको

तुलसी ने बांचा

नव लय पर ले तम्बूरा

मीरा ने नाचा

महाप्रभु चैतन्य खो गए इसकी धुन में

बाल्मीकि ने बांचा इसको गुन-अवगुन में

कुछ ने अर्थ लगाए गहरे

कुछ ने समझी मायाचारी

ऐसा गीत लिखा है तूने

बांचन बारे थके समझ भी हारी


जब सांसारिकता उलझन भरी और भ्रमित करने वाली हो तो यह तय करना कठिन हो जाता है कि कौन सा मार्ग चलने लायक है। इस संग्रह की कविता ‘‘सीधा मार्ग’’ में कवि निर्मल लिखते हैं -

कौन से पथ पर चलूं कि मार्ग सीधा पा सकूं

भ्रमित हैं सारी दिशाएं वाकपटुता दिशाहीन

लालची शाखाओं को कैसे कहेंगे हम प्रवीण

शांति की दूकान में भी लोभ की पट्टी चढ़ी

क्या है पावन, क्या अपावन, समझ में दुविधा बढ़ी

शुद्धता के सूत्र कैसे किस तरह समझा सकूं

कौन से पथ पर चलें कि मार्ग सीधा पा सकूं



जब जीवन के उचित मार्ग का प्रश्न कवि ने उठाया तो उसका उत्तर भी उसने स्वयं ही दे दिया। ‘‘विश्व एक गांव’’ शीर्षक कविता में कवि निर्मल कहते हैं कि  -

कल्याण करने विश्व का आया मनुष्य है

शक्ति है कोई जिसने पठाया मनुष्य है

इस विश्व को तो एकता के सूत्र में बांधो

यह मानवीय दृष्टि भी लाया मनुष्य है

सम्हलो, सम्हल के अपने कदम आप बढ़ायें

निःस्वार्थ बने, नाति का उद्यान लगायें

कितने दिनों को आयें हैं रखना है इसका ध्यान

मानव समाज को यही संदेश पठायें


जब बात समाज और जीवन मार्ग की आती है तो साधना का मार्ग दो भागों में बंट जाता है - व्यष्टि साधना और समष्टि साधना। व्यष्टि साधना का तात्पर्य है व्यक्तिगत आध्यात्मिक उन्नति के लिए किए जाने वाले कर्म, जैसे- देवता का नाम जपना, आध्यात्मिक ग्रंथ पढ़ना आदि। व्यष्टि साधना निज उत्थान के लिए होती है जबकि समष्टि साधना सम्पूर्ण समाज के आध्यात्मिक उत्थान के लिए की जाती है। जिसका एक बहु प्रचलित उदाहरण है सत्संग का आयोजन। एक साधक को व्यष्टि साधना और समष्टि साधना के मध्य सामंजस्य बनाए रखना चाहिए। ये दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। जैसे यदि दीपक में रखा तेल व्यष्टि साधना है तो उसकी लौ समष्टि साधना है। यदि दीपक में तेल कम होगा तो प्रकाश भी कम समय के लिए मिलेगा। कहने का आशय यह है कि निज उत्थान से ही समाज उत्थान का मार्ग प्रशस्त होता है। निजता की बात करते हुए कवि निर्मल ने अपनी निजत्व शीर्षक कविता में लिखा है -

आप स्वयं स्वामी हैं खुद के

इतना ध्यान रहे

खोजो विश्व स्वयं में ही तुम

प्रज्ञा सबला होगी

निर्मोही स्वभाव के भीतर

मन बन जाता जोगी

विचलित न होना पथ में

इसका भान रहे

जो जाग्रत है नाम उसी का

रहता है जग में

भटकन वाले भटक रहे हैं

अनगिनती मग में

ज्ञानपुंज तलवार दुधारी

समता म्यान रहे


कवि निर्मल चंद निर्मल के इस काव्य संग्रह ‘‘जगत मेला चलाचल का’’ में जीवन दर्शन से रची बसी काव्य रचनाएं हैं जिनमें संसार के अस्तित्व, मनुष्य के कर्म, निजता और कर्तव्य जैसे बिन्दुओं की व्याख्या की गई है। इन रचनाओं की विशेषता यह है कि ये उपदेशात्मक नहीं हैं वरन् परस्पर विचार विमर्श की भांति हैं। इसीलिए ये बोझिल नहीं हैं अपितु इन्हें बारम्बार पढ़ने और चिंतन करने की इच्छा जागृत होती है। इस दृष्टि से पुनर्पाठ योग्य यह काव्य संग्रह अपने महत्व को स्वयं स्थापित करता है। और, अंत में प्रस्तुत हैं कवि निर्मल की ये चार पंक्तियां जो चिंतन का आह्वान करती हैं -

तेरा नहीं होता कभी मेरा नहीं होता

संसार में स्थाई बसेरा नहीं होता

तेरी हवस की दौड़ तुझे क्या निभाएगी

उड़ने के बाद डाल पै डेरा नहीं होता


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( दैनिक, आचरण  दि.02.01.2021)
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Friday, January 1, 2021

सुस्वागतम् नववर्ष 2021 | Happy New Year 2021| डॉ. वर्षा सिंह

🌟 नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं 🌟
आशासे यत् नववर्षं भवतु मङ्गलकरम् अद्भुतकरञ्च। 
जीवनस्य सकलकामनासिद्धिरस्तु।।
              अर्थात् मैं यह आशा करती हूं कि नववर्ष मंगलमय होगा और आपकी समस्त मनोकामनाएं पूर्ण होंगी।