प्रिय मित्रों, स्थानीय दैनिक समाचार पत्र "आचरण" में प्रकाशित मेरा कॉलम "सागर : साहित्य एवं चिंतन " जिसमें पुस्तकों के पुनर्पाठ की श्रृंखला के अंतर्गत सत्रहवीं कड़ी के रूप में प्रस्तुत है - सागर नगर के प्रतिष्ठित विचारक, चिन्तक, लेखक एवं उद्योगपति स्व. मोतीलाल जैन की पुस्तक " चिन्तन की गलियों से" का पुनर्पाठ।
हार्दिक आभार आचरण 🙏
सागर: साहित्य एवं चिंतन
पुनर्पाठ: मोतीलाल जैन कृत ‘चिंतन की गलियों से’
-डॉ. वर्षा सिंह
इस बार पुनर्पाठ के लिए मैंने चुना है एक ऐसी पुस्तक को जो जीवन में चिंतन के महत्व को स्थापित करती है। यह पुस्तक है चिंतक एवं विचारक मोतीलाल जैन की पुस्तक ‘चिंतन की गलियों से’।
प्रत्येक व्यक्ति संवेदनशील होता है जिसके कारण उसे सुख और दुख की अनुभूति होती है। सुख प्राप्त होने पर व्यक्ति सुख के कारणों पर चिंतन नहीं करता है। लेकिन जब दुख प्राप्त होता है तो वह दुख के कारणों का न केवल पता लगाता है बल्कि उन कारणों से छुटकारा पाने के लिए उपाय सोचना शुरू कर देता है, और वहीं से शुरू हो जाती है चिंतन प्रक्रिया। जो व्यक्ति हर स्थिति में चिंतनशील होता है वह दुख और सुख का विभाजन किए बिना जीवन के प्रत्येक तत्व के प्रति चिंतन करता है। लेखक मोतीलाल जैन सर्वकालिक चिंतक थे। वे धर्म, राजनीति, समाज, अर्थ, परमार्थ, स्वार्थ आदि प्रत्येक तत्व के प्रति सजग रहते हुए सतत चिंतनशील बने रहते थे। उन्होंने अपने विचारों को सरल शब्दों में छोटे-छोटे लेखों में निबद्ध किया जो कि वर्ष 1997 में ‘‘चिंतन की गलियों से’’ नामक पुस्तक के रूप में प्रकाशित हुए। इस पुस्तक के आरम्भ में अपना मंतव्य देते हुए डाॅ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर के तत्कालीन कुलपति शिवकुमार श्रीवास्तव ने लिखा है - ‘‘चित्त है, चैतन्य है तो चिंता होगी - चिंतन होगा। चिंता से चिंतन तक की यात्रा प्रतिकूल वेदना से अनुकूल वेदना तक की यात्रा है। जब चिंतन का स्तर प्राप्त होता है तो चिंता पीछे छूट जाती है।’’ वे आगे लिखते हैं कि - ‘‘मोतीलाल जी हर प्रश्न से चिंतन के स्तर पर जूझते हैं और निष्कर्षों तक पहुंचते हैं। ये निष्कर्ष मानव मात्र की कल्याण कामना के मधुर फल हैं। मोतीलाल जी ने सोच की सुस्पष्ट प्रणाली विकसित की है।’’
‘‘चिंतन की गलियों से’’ नामक पुस्तक को पढ़ते हुए लेखक मोतीलाल जी की मौलिक चिंतन प्रणाली का स्पष्ट बोध होता है। मोतीलाल जी ने अपनी बात के अंतर्गत लिखा है की ‘‘कहने में लिखने में और स्वयं पालन करने में बहुत अंतर होता है। मन में एक विचार आया तो कह दिया और लिख भी दिया। इस कहने और लिखने में हमारी कषाय ही मूल कारण है। कषाय है प्रशंसा पाने की, मान पाने की, बुद्धिजीवी कहलाने की। सो अंतरंग में जब यह कषाय जोर मारती है सो मुझे लिखने बैठना पड़ता है और फिर लिखे हुए पढ़ाने में भी उसी कषाय और अधिक पोषण होता है। इसे सोच कहे विचारना कहें, विवेक कहें, वृत्ति कहें या आसक्ति कहें। कह कुछ भी लें, परंतु पोषण तो प्रशंसा पाने की कषाय का ही होगा।’’
जैन दर्शन के सिद्धांत कोश में कषाय की सरल व्याख्या की गई है जिसके अनुसार आत्मा के भीतरी कलुष परिणाम को कषाय कहते हैं। यद्यपि क्रोध मान माया लोभ ये चार ही कषाय प्रसिद्ध हैं पर इनके अतिरिक्त भी अनेकों प्रकार की कषायों का निर्देश आगम में मिलता है। हास्य रति अरति शोक भय ग्लानि व मैथुन भाव ये नोकषाय कही जाती हैं, क्योंकि कषायवत् व्यक्त नहीं होती। इन सबको ही राग व द्वेष में गर्भित किया जा सकता है। आत्मा के स्वरूप का घात करने के कारण कषाय ही हिंसा है। मिथ्यात्व सबसे बड़ी कषाय है। एक दूसरी दृष्टि से भी कषायों को निर्देश मिलता है। वह चार प्रकार है-अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान व संज्जवलन-ये भेद विषयों के प्रति आसक्ति की अपेक्षा किये गये हैं और क्योंकि वह आसक्ति भी क्रोधादि द्वारा ही व्यक्त होती है इसलिए इन चारों के क्रोधादिक के भेद से चार-चार भेद करके कुल 16 भेद कर दिये हैं। तहाँ क्रोधादि की तीव्रता मंदता से इनका संबंध नहीं है बल्कि आसक्ति की तीव्रता मंदता से है। हो सकता है कि किसी व्यक्ति में क्रोधादि की तो मंदता हो और आसक्ति की तीव्रता। या क्रोधादि की तीव्रता हो और आसक्ति की मंदता। अतरू क्रोधादि की तीव्रता मंदता को लेश्या द्वारा निर्दिष्ट किया जाता है और आसक्ति की तीव्रता मंदता को अनंतानुबंधी आदि द्वारा। कषायों की शक्ति अचिंत्य है। कभी-कभी तीव्र कषायवश आत्मा के प्रदेश शरीर से निकलकर अपने बैरी का घात तक कर आते हैं, इसे कषाय समुद्घात कहते हैं।
कषाय के बारे में जिज्ञासा को जगाने वाले लेख लिखने वाले लेखक मोतीलाल जी अपने ‘‘मिथ्या’’ शीर्षक लेख में मिथ्या के बारे में लिखते हैं कि -’’ असत्य, झूठ, धोखा, फरेब, भ्रम आदि शब्दों से जो भाव प्रकट होता है, वह मिथ्या भाव है। मिथ्या का अर्थ है जो मिट जावे, यानी जो हमेशा रहता नहीं। साथ न देने वाला अभी है फिर ना रहे, चंचल चलाएमान। अभी हम सुखी होना मान रहे हैं, थोड़ी देर बाद हमारा यह भाव मिट जाए और हम दुखी होने लगें तो हमारा सुखी होने का भाव मिट गया, ऐसा माना जाएगा। फिर कुछ समय बाद हमारा वह दुख घट जाए या बढ़ जाए, तो यह घटना बढ़ना भी असत्य यानी मिथ्या कहा जाएगा। इससे यही तात्पर्य निकलता है कि हमारे चित्त में मन के द्वारा जो भी परिणमन होता है वह मिटता रहता है। एक विकल्प होता है, कुछ देर टिकता है, फिर उसको अन्य दूसरा विकल्प मिटा देता है। दूसरा विकल्प भी तीसरे के द्वारा मिट जाता है और इस प्रकार विकल्प होते हैं और मिट जाते हैं। परंतु जिस चित्त में, चेतन में, आत्मा में यानी जीव में विकल्प होते हैं वह जीव नहीं मिटता है। जीव तो वेदना सहता रहता है इसीलिए जीव सत्य है और उसका वेदना सहना भी सत्य है। वेदना अच्छी भी हो सकती है और बुरी भी हो सकती है। जो वेदन सुहावे, रुचिकर लगे, उसे पुण्य रूप यानी शुभ कहा गया है और जो वेदन अरुचिकर लगे उसे पाप रूप यानी अशुभ कहा गया है। परंतु जीवन की वेदना सहना यह सत्य है क्योंकि वेदना मिटती नहीं। वेदना का साता असाता रूप परिवर्तन ही होता रहता हैं।’’
वर्तमान जीवन परिवेश में मिथ्या का बोलबाला है। बाज़ार और विज्ञापन की दुनिया सच के चमकीले आवरण में झूठ का विक्रय करने पर उतारू रहती है। लेकिन मिथ्या केवल बाज़ार में ही नहीं है, वह हमारे जीवन का अभिन्न हिससा बनतर जा रही है। मोतीलाल जी के ‘‘मिथ्या’’ शीर्षक लेख को पढ़ते समय ही मेरे मन में जिज्ञासा ने जन्म लिया कि आखिर जैन दर्शन ‘‘मिथ्या’’ के बारे में क्या कहता है? और मैने पाया कि जैनदर्शन के अभिमत से जहां भी एकान्तिकता होती है, वहां वह विचार मिथ्या बन जाता है। अनादिकाल से यह जीव अज्ञान के वश में आकर विषयों और कषायों में प्रवृत्ति करता हुआ इस संसार में भटक रहा है। इस भ्रमण में इस जीव ने अनन्तों बार चैरासी लाख योनियों में जन्म लिया, कभी अच्छे कर्मों के उदय से देवों के दिव्य-सुखों को भोग खुश, तो कभी त्रियंच-नरक और मनुष्य गति के दुखों को भोग कर विचलित होता रहा। अपने सच्चे आत्म-स्वरुप का दर्शन न हो सकने के कारण अनादि-काल से इस जीव की दृष्टि विपरीत ही रही है ! जीव की इस विपरीत दृष्टि के कारण ही उसे ‘‘मिथ्यादृष्टि’’ कहा जाता है। मिथ्यादृष्टि जीव मिथ्या को छोड़कर किस प्रकार से यथार्थ दृष्टि (सम्यग्दृष्टि) वाला बनता है, और किस प्रकार अपने गुणों का विकास करते हुए परमात्मा बनता है, उसके इस क्रमिक विकास में आत्मा के गुणों के जिन-जिन स्थानो पर वो रुकता है, उन्हें गुण-स्थान कहते हैं अर्थात् बहिरात्मा (मिथ्यादृष्टि) से अंतरात्मा (सम्यग्दृष्टि) और फिर परमात्मा बनने के लिए इस जीव को आत्मिक गुणों की आगे-आगे प्राप्ति करते हुए, जिन-जिन स्थानो से गुजरना पड़ता है, उन्हें गुण-स्थान कहते हैं।
सभी धर्मों में लगभग एक सी बातें कही गईं हैं। फिर सभी धर्म अलग-अलग क्यों हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि धार्मिक भिन्नताओं के पीछे असली कारण उनसे जुड़ी मान्यताओं की विविधता तो नहीं हैं? इस गूढ़ विषय पर चिंतन करते हुए लेखक मोतीलाल जी ने ‘‘भिन्न-भिन्न मान्यताएं क्यों?’’ शीर्षक लेख में लिखा है कि -‘‘संसार में मनुष्य विचारशील एवं चिन्तन -मनन की विशेष योग्यता रखने वाला जीव हैं। मनुष्य के सिवाय अन्य किसी और प्राणी में इतनी और योग्यता इस पृथ्वी पर किसी अन्य को नहीं है। मनुष्य अपने अनुभव की बात अन्य दूसरों को जताने की इच्छा करता है। यह इच्छाशक्ति भी मनुष्य की विशेष योग्यता है। ...... अनुभूति हो जाने पर ही वस्तु पदार्थ आदि के गुण-अवगुण पर श्रद्धा व विश्वास होता है। जो अनुभूति हो पाती है उतनी बात पर ही उसे विश्वास होता है और विश्वास होजाने का ही दूसरा नाम मान्यता है। इसी मान्यता के आधार पर सिद्धांत बना दिए जाते हैं। जितना जो जानता है उतना ही उसका सिद्धांत रहता है क्योंकि उतना ही उसे सिद्ध है, ज्ञात है।’’ लेखक के कहने का आशय यही है कि अनुभवजनित ज्ञान ही मान्यता निर्धारित करता है और मान्यताओं की विविधता विविध धार्मिक स्वरूप गढ़ती है।
मनुष्य जीवन में जब पारस्परिक संबंधो की बात हो तो मोह एक बड़े घटक के रूप में सामने आता है। कई बार मोह के साथ राग शब्द भी प्रयुक्त होता है। तो प्रश्न उठता है कि मोह और राग में क्या संबंध अथवा क्या अंतर है? इस बारे में मोतीलाल जी ने अपने लेख ‘‘मोह और राग’’ में लिखा है कि - ‘‘मोह जहां है वहीं राग-द्वेष होता है। मोह की आराधना राग से होती है। मोह के अभाव में राग-द्वेष नहीं होता है। राग की विराधना द्वेष से होती है। जितनी तीव्र मोह दशा होती है उतना ही तीव्र राग उत्पन्न होता है। जिस पदार्थ एवं वस्तु अथवा जीव से जीव को जितना गहरा प्रेम व राग होता है, उतना ही गहरा उससे द्वेष उत्पन्न हो जाता है।’’
मोतीलाल जैन जी की पुस्तक ‘‘चिंतन की गलियों से ’’ उनके विविध विषयों पर लिखे गए लेखों का रोचक संग्रह है। जैसा कि पुस्तक के आरंभ में डाॅ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर के तत्कालीन प्रोफेसर तथा अध्यक्ष हिन्दी विभाग एवं बुंदेलीपीठ डाॅ. सुरेश आचार्य, डी.लिट. ने लिखा है कि -‘‘संस्कृति, धर्म, साहित्य और समाज पर केन्द्रित उनके विषय संबंधी ये लेख अपने गम्भीर चिंतन से हमें सोचने को प्रेरित करते हैं। वे ज्ञान भक्ति के दरवाजे सभी को खोलने के पक्षधर हैं।’’ वस्तुतः मोतीलाल जैन जी की यह पुस्तक उन सभी पाठकों के लिए महत्वपूर्ण है जो जीवन से जुड़े धर्म और दर्शन के पक्षों को समझना चाहते हैं। यह पुस्तक ऐसी पठनीय सामग्री को समेटे हुए है जो इसके पुनर्पाठ को प्रेरित करती है।
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( दैनिक, आचरण दि.25.01.2021)
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बहुत अच्छी चिंतनशील प्रस्तुति
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद कविता रावत जी 🙏
Deleteअनुभवजनित ज्ञान ही मान्यता निर्धारित करता है । सांसारिक जीवन का इससे उच्चतर सत्य कोई अन्य नहीं । आपने एक उत्कृष्ट पुस्तक का बहूपयोगी पुनर्पाठ प्रस्तुत किया है एवं सुधी पाठकों का इस अनमोल पुस्तक से परिचय करवाया है । आभार एवं अभिनंदन वर्षा जी ।
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद आपको भी... मेरा लेख पढ़ कर उस पर अपनी बहुमूल्य राय प्रकट करने के लिए 🙏
Deleteसार्थक और सटीक समीक्षा
ReplyDeleteबधाई
हार्दिक धन्यवाद खरे जी 🙏
Deleteसुन्दर और सार्थक।
ReplyDelete--
गणतन्त्र दिवस की पूर्वसंध्या पर हार्दिक शुभकामनाएँ।
हार्दिक धन्यवाद आदरणीय शास्त्री जी 🙏
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