Sunday, December 22, 2019

नागरिकता संशोधन कानून के परिप्रेक्ष्य में : आपस में तक़रार ग़लत - डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh

आपस में तक़रार  ग़लत
       - डॉ. वर्षा सिंह

हर मुद्दे पर झंझट - झगड़ा  ठीक  नहीं
शांति भंग कर बेजा लफड़ा ठीक नहीं

बात-बात में आपस में तक़रार  ग़लत
हिंसा  के  रस्ते  का  पचड़ा ठीक नहीं

फूल खिले हों, तरह-तरह की ख़ुशबू हो
 देश बाग़ है, गर  यह उजड़ा ठीक नहीं

"वर्षा" अपना है जग सारा, सब अपने
यूं  ही  रहना उखड़ा-उखड़ा ठीक नहीं

नवदुनिया समाचारपत्र सागर संस्करण में आज दिनांक 22.12.2019 को प्रकाशित

        

Friday, December 20, 2019

सागर: साहित्य एवं चिंतन 69 .... सामाजिक सरोकारों के कवि रमेश दुबे - डाॅ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh

                  स्थानीय दैनिक समाचार पत्र "आचरण" में प्रकाशित मेरा कॉलम "सागर साहित्य एवं चिंतन " । जिसमें इस बार मैंने लिखा है मेरे शहर सागर के कवि रमेश दुबे पर आलेख। पढ़िए और जानिए मेरे शहर के वर्तमान साहित्यिक परिवेश को ....

सागर: साहित्य एवं चिंतन

      सामाजिक सरोकारों के कवि रमेश दुबे
                                  - डाॅ. वर्षा सिंह               
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परिचय:- रमेश दुबे
जन्म:-  09 जुलाई 1944
जन्म स्थान:- ग्राम सहजपुर, जिला सागर (मप्र)
माता-पिता:- श्रीमती बेनीबाई एवं हरिनारायण दुबे
शिक्षा:- बी.ए.,
लेखन विधा:- पद्य
प्रकाशन:- पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित
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           जीवन के अनुभवों से उपजी कविताओं का अपना अलग महत्व होता है। ऐसी कविताएं शैली अथवा भाषा पर केंद्रित न होकर भावनाओं पर तथा विचारों पर केंद्रित होती हैं। इस प्रकार की कविताओं की महत्ता से इंकार नहीं किया जा सकता है। सागर के साहित्य जगत में कवि रमेश दुबे का नाम ऐसी ही कवियों की पंक्ति में सम्मान रखा जा सकता है, जिन्होंने समाज और परिवेश से अनुभव जताते हुए उन्हें अपने काव्य में पिरोया है और इस प्रकार से जन करते हुए उन्होंने अभिव्यक्ति को महत्ता दी है जबकि शैली की विशेषताएं उनके लिए गौण रही हैं।

          सागर जिले के ग्राम सहजपुर में पंडित हरि नारायण दुबे एवं श्रीमती बेनी भाई के घर 9 जुलाई 1944 को जन्मे रमेश दुबे एक प्रतिभा संपन्न बालक के रूप में अपने माता-पिता की प्रिय रहे।

 कक्षा चौथी तक ग्रामीण परिवेश में रहने के बाद सन 1954 में रमेश दुबे जी सागर आ गए। यहां मैट्रिक उत्तीर्ण करने के बाद सागर विश्वविद्यालय में पढ़ाई की। जहां बाद में उन्हें आजीविका भी प्राप्त हो गई। सन 2004 में सेवानिवृत्ति के बाद स्थानीय तीनबत्ती स्थित खादी भंडार में साहित्यकारों से उनका मिलना होने लगा। जहां वे अपने मित्रों से साहित्य की चर्चाएं करते रहे। साहित्य में रुझान के चलते सरस्वती वाचनालय में होने हर शनिवार को होने वाली हिंदी साहित्य सम्मेलन की कवि गोष्ठी में निरंतर सहभागी बनते रहे, जिससे उन्हें साहित्य सृजन की प्रेरणा मिलती रही। वे बताते हैं कि एक दिन निर्मल चंद निर्मल जी ने हमसे कहा- पढ़े-लिखे हो तुम भी कविता लिखना शुरु कर दो। मैं धीरे-धीरे अपनी मन की बात जो मैं देखा करता था उसी पर लिखने लगा। मेरी पहली कविता 'प्यार के अभाव में दिल कठोर होता है' लिखी उसी समय भीतर बाजार में एक कवि गोष्ठी हुई उसमें सागर के सब कवि आए थे। मुझसे सबसे पहले कविता पढ़ने को कहा गया। मैंने यही कविता पढ़ी। निर्मल जी तथा कई कवियों को यह कविता अच्छी लगी। बस, इसके बाद मेरा का सृजन आरंभ हो गया।"


     'समस्या' शीर्षक कविता में उस समस्या को बड़ी गंभीरता से उठाया है जिससे आज पूरा देश ही नहीं पूरा विश्व ग्रस्त है। यह समस्या है निरंतर बढ़ती आबादी की। जो भीड़ के रूप में हमारे सामने है। कवि ने इस समस्या को ना केवल अनुभव किया है, उस पर चिंतन किया है, अपितु उस पर व्यंग भी किया है। देखिए यह कविता-

अपने इस देश में
जनता ही चिंता बढ़ती जा रही है तभी तो रोजगार और
रहने की कमी आ रही है
रोजगार पाने युवकों की भीड़ है रहने के लिए मकानों में भीड़ है जहां देखो वहां भीड़ है
मोटर और टेंपो में भीड़ है अस्पतालों और स्कूलों में भीड़ है सड़कों पर चलने में भीड़ है
यहां से वहां दौड़ने में भीड़ है
जहां नज़र डालो राशन पानी की भीड़ है
हर जगह समस्या की भीड़ है कारखाने खुल गए खेत और खलिहान में
हजारों मकान बन गए बगीचों और श्मशान में
अंतिम संस्कार को जगह नहीं श्मशान में
बढ़ती गई जनता तो रोजगार कहां से लाएंगे
रहने को कहा जाएंगे
खेतों का अन्य कहां से लाएंगे
कटते रहे पेड़ तो हवा पानी कहां से लाएंगे
इन सब के लिए क्या चंद्रलोक में जाएंगे?

      कवि रमेश दुबे समाज में व्याप्त सभी समस्याओं पर बारीकी से चिंतन करते हैं और उन्हें अपने काव्य में बखूबी पिरोते हैं। उनकी एक कविता है 'कम उम्र में शादी'। इस कविता में उन्होंने कम उम्र में विवाह होने पर व्यक्ति के जीवन में तथा परिवार में होने वाले दुष्परिणाम को बड़ी गहराई से सामने रखा है। कविता इस प्रकार है-

गरीब की कम उम्र में शादी
उसकी बर्बादी
कई बच्चों के बाप बन जाना
ज्यादा खर्च के चक्कर में उलझ कर रह जाना
बच्चे पौष्टिक आहार से दूर
रुखा-सूखा खाने को मजबूर
बच्चे पढ़ने-लिखने से दूर
मां-बच्चों का बोझ लादे-लादे
कम उम्र में बूढ़ी हो चली है
बाप सुबह से शाम तक बच्चों को पालने के चक्कर में
जब असमर्थ नजर आता है
बड़े बेटे को जो दस साल का है साथ चलने, काम करने को मजबूर करने लगता है
कुछ दिन बाद सभी बच्चे रुखा-सूखा खाकर
बिना पढ़े-लिखे
स्कूल न जाकर स्कूल की दीवार के पत्थर ढोने में लगे रहते हैं
स्कूल क्या है वे नहीं जानते
सिर्फ सिर पर पत्थर रखकर स्कूल तक ले जाना जानते हैं।
कवि रमेश दुबे

       इस समय जब सारी दुनिया प्रदूषण की समस्या से जूझ रही है तो कभी प्रदूषण के बारे में चिंता ना करें यह भला कैसे संभव है? प्रत्येक संवेदनशील व्यक्ति की भांति एक कवि भी समाज में व्याप्त समस्याओं पर मनन चिंतन करता है और उसकी तह तक पहुंचने का प्रयास करता है। रमेश दुबे की कविता जिसका शीर्षक है    'प्रदूषण' में उन्होंने परिवार के भीतर मौजूद प्रदूषण की बात उठाई है। दरअसल, यह प्रदूषण मानसिक प्रदूषण है जो विचारों को दूषित कर के घर के भीतर रिश्तों के बीच दीवारें खड़ी कर देता है। इस कविता पर गौर कीजिए-

अपने घर के द्वार
खिड़कियां खोल दिए जाएं
मेरी तरफ से कोई बाधा नहीं होगी उजियारे के आने में।
अवरोध तो अपने बच्चों द्वारा बंद किए गए खिड़की दरवाजे ही हैं, उनके कारण ही रुका हुआ है उजियारा ।
बच्चों ने घर में जगह-जगह दीवारें बनाकर रोक रखा है उजियारा, उनके कारण ही भीतर उसका प्रवेश नहीं हो रहा है
उनकी होशियारी, उनकी चालाकी उनकी कुशलता है बाधा बनी हुई है उजियारे के आने में।
कमरे में शुद्ध वायु का आना
गंदी वायु का निकल जाना ही
खुली खिड़कियों के रोशनदान और दरवाजों का योगदान है।


    जिस धरा पर मनुष्य का जीवन मौजूद है उस धरा और उस माटी की महत्ता को समझना भी मनुष्य के लिए आवश्यक है इसी मर्म को ध्यान में रखते हुए कवि रमेश दुबे ने 'माटी' शीर्षक से यह कविता लिखी है -

खुद को पूरा गलाकर
माटी गुणवान बन गई है अलग-अलग भागों में बंट गई है कुछ गमलों, मटकों और सुराही में बदल गई है
कुछ फूल और फुलवारी में बदल गई
कुछ खेतों और खलिहान में बदल गई
कुछ रूपवान बनकर आस्था की देवी बन गई
सारी दुनिया उसके चरणों में झुक गई
माटी पालनहार है माटी बिन सब सून
माटी में पैदा हुए माटी खाकर खड़े हुए
माटी से सब पल रहे खा-खा कर उसका अन्न
देश तरक्की कर रहा
उसी धरा पर पल रहा
माटी है तो जगत है
माटी बिन सब सून।



      रमेश दुबे की कविताओं का स्वरूप भले ही अनगढ़ प्रतीत हो किंतु उनके भावों और विचारों की गहनता उनकी कविताओं को प्रभावी बना देती है। उनकी कविताओं में मौजूद जीवन के प्रति चिंतन एवं चिंता दोनों ही महत्वपूर्ण ढंग से सामने आती हैं जो युवा कवियों का मार्ग प्रशस्त करने की दिशा में महत्वपूर्ण हैं।
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( दैनिक, आचरण  दि. 20.12.2019)
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Monday, December 16, 2019

विमोचन समारोह - डॉ. वर्षा सिंह


     मोबाईल और इंटरनेट वाले इस दौर में किताबों का समारोहपूर्वक विमोचन बहुत सुखद लगता है.... कल दिनांक 15.12.2019 को  श्यामलम् संस्था के तत्वावधान में आयोजित पुस्तक विमोचन कार्यक्रम की कुछ तस्वीरें...


विमोचन समारोह में मैं यानी इस ब्लॉग की लेखिका डॉ. वर्षा सिंह एवं बहन डॉ. (सुश्री) शरद सिंह




Tuesday, December 10, 2019

"सेवासदन" के शताब्दी वर्ष पर विशेष आलेख : एक शताब्दी बाद भी प्रासंगिक है प्रेमचंद की कृति "सेवासदन" - डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh

एक शताब्दी बाद भी प्रासंगिक है प्रेमचंद की कृति "सेवासदन"
  - डॉ. वर्षा सिंह
             "सेवासदन" उपन्यास हिन्दी कथाकारों में कथासम्राट के रूप में प्रतिष्ठित कथाकार प्रेमचंद द्वारा रचित एक ऐसा उपन्यास है जिसे प्रेमचंद ने  सन् 1916 में उर्दू भाषा में लिखा था। वस्तुतः उर्दू में यह "बाज़ारे-हुस्न" नाम से लिखा गया था। बाद में उन्होंने स्वयं सन 1919 में  इसका हिन्दी अनुवाद किया। इस मायने में यह प्रेमचंद का पहला हिन्दी उपन्यास है और 2019 का वर्ष "सेवासदन" के लेखन का शताब्दी वर्ष है।
  सेवासदन की प्रासंगिकता प्रकाशित होने के 100 साल बाद आज भी बनी हुई है। इसकी कहानी बीसवीं सदी में वाराणसी की पृष्ठभूमि पर केन्द्रित है जहां नायिका सुमन अपने पति के साथ रहती है। सुमन इसकी प्रमुख नारी पात्र  है जो भारतीय समाज में महिलाओं की दशा का उदाहरण है। वह एक साहसी, निडर सुंदर महिला है किन्तु प्रेम के अभाव में उसका दाम्पत्य जीवन सुखद नहीं था। दुखी और उदास सुमन पुलिस दारोगा कृष्णचन्द्र की पुत्री है जो सज्जन एवं जनप्रिय अफसर है । अधिकांश पुलिस अधिकारियों की भांति रिश्वत माँगकर आडंबरपूर्ण जीवन बिताना उन्हें पसन्द नहीं था। वे रिश्वत नहीं लेते थे और दूसरों को भी रिश्वत लेने से रोकते थे। उनके वेतन से पत्नी गंगाजली, बड़ी पुत्री सुमन तथा छोटी पुत्री बेटी शांता का जीवन भलीभांति पोषित हो रहा था। सुमन सुंदर, सुशील और सुशिक्षित लड़की है । वह बहुत महत्वाकांक्षी थी । जब सुमन विवाह योग्य हुई तो दहेज की समस्या कृष्णचन्द्र को परेशान करने लगी। उसी के चलते वे एक मुकदमे में फंसे महंत रामदास से तीन हज़ार रुपये रिश्वत मांग बैठे और रंगे हाथों पकड़े गए, जिसके परिणामस्वरूप उन्हें चार वर्ष की सज़ा सुना दी गई। तब उनकी पत्नी गंगाजली बेटियों सुमन और शांता के साथ वाराणसी में अपने भाई के घर पर निवास करने लगीं। इस पूरे प्रकरण के कारण सुमन का विवाह रुक गया। सुमन के मामा पक्ष ने किसी तरह दहेज दिए बिना सुमन से आयु में बड़े गजाधर पांडे नामक व्यक्ति से सुमन का विवाह संपन्न करा दिया। आयु में ही नहीं स्वभाव में भी पति और पत्नी में बड़ा अंतर था। अनेक सदमे झेलती सुमन की मां का इस दौरान निधन हो गया। गजाधर मितव्ययी प्रवृत्ति का था वह सुमन को बेहतर खाना, कपड़ा जैसी मूलभूत चीज़ों, सुख-सुविधाओं से वंचित रखता। सुमन प्रेम के साथ ही भौतिक सुख के लिए तरसती। आखिर एक दिन दोनों के वैवाहिक जीवन का ताल-मेल टूट गया ।  गजाधर ने सुमन को घर से निकाल दिया ।


        मुसीबत की मारी, पति से उपेक्षित सुमन वकील पद्मसिंह की शरण में गयी, किन्तु वहां भी उसे सहारा नहीं मिला। तब एक  भोली नामक वेश्या ने सुमन को शरण दी। आत्मग्लानि से पीड़ित गजाधर पांडे कालांतर में साधु का जीवन व्यतीत करने लगा।
 सेवासदन उपन्यास का एक और प्रमुख पात्र सदनसिंह एक सुंदर एवं बलिष्ठ युवक है जो अपने गांव से बनारस में आकर अपने चाचा पद्मसिंह के यहां रहकर पढ़ता था। उसकी दृष्टि सुमन पर पड़ गई। समय गुज़रता गया। समाज सुधारक विट्ठलदास ने सुमन को भोली वेश्या के चंगुल से छुड़ाने का प्रयत्न किया। तर्क-वितर्क के पश्चात सुमन ने वेश्यालय छोड़कर समाज सुधारकों द्वारा संचालित विधवा आश्रम में रहने का निश्चय किया । इसी बीच चार साल की अवधि की सज़ा काट कर सुमन के पिताजी कृष्णचन्द्र जेल से बाहर आ गए। सदनसिंह से शांता का विवाह तय हो गया, किंतु तरह- तरह की अफवाहों के डर से सदन ने विवाह नहीं किया वरन् सदन और सुमन के बीच मेलजोल बना रहा। अपनी बेटियों के असफल जीवन पर दुःखी होकर कृष्णचन्द्र ने घर का त्याग कर दिया। रास्ते में उन्हें एक साधु से मिला जो सुमन का पति गजाधर पांडे था । गजाधर ने अपना नाम गजानन्द रख लिया था । पारिवारिक जीवन की विफलता के कारण वह पहले ही साधु बन चुका था। पहले तो कृष्णचन्द्र ने गजाधर के साथ रहने का निश्चय किया किंतु बाद में रात को चुपके उठकर पास ही प्रवाहमान गंगा नदी में कूद कर आत्महत्या कर ली ।

उधर गंगा के तट पर रहने वाला सदनसिंह मल्लाहों का नेता बन गया। उसने दो-चार नावें भी खरीद लीं। सदन ने सोच-विचार कर सुमन की छोटी बहन शांता को पत्नी के रूप में स्वीकार कर नदी के तट पर बनी झोंपड़ी में रहना शुरू किया। सुमन भी इस झोंपड़ी में रहती थी। अंतर्द्वन्द्व से घिरी सुमन झोंपड़ी से निकली तब रास्ते में उसे एक साधू मिला, सुमन नहीं जानती थी कि वह साधु और कोई नहीं बल्कि उसका पति गजाधर है। उन दिनों गजाधर ने पद्मसिंह के सहायता से एक आश्रम बनाकर निराश्रित युवतियों को संरक्षण देने का कार्य शुरू कर दिया था । सुमन भी इस सेवासदन नामक आश्रम से जुड़ कर सेवा कार्य में लग गई ।


        इस प्रकार “सेवासदन” समाज में नारी के अधोपतन के मूल में छिपे सामाजिक कारणों को उजागर करने वाला उपन्यास है । पत्नी के रूप में प्रताड़ित सुमन और वेश्या के रूप में सुख-सुविधा भोगी किन्तु मानसिक रूप से अशांत सुमन। भारतीय समाज में स्त्री के इन दो रूपों को चित्रित कर प्रेमचंद ने समाज की कुरीतियों को उजागर किया है।

“सेवासदन” की मुख्य कथा गजाधर और सुमन से संबंधित है तो गौण कथा सदन सिंह और शांता से संबंधित कथा है । गजाधर की कथा का अंत साधु जीवन को वरण करने पर है तो सुमन की कथा का अंत सेवाश्रम (सेवासदन) में होता है ।

       समाज में व्याप्त कुरीतियां और स्त्री की स्थिति आज भी काफी हद तब सुधरी नहीं है। स्त्री को ग़लत रास्तों पर धकेलने को जिम्मेदार परिस्थितियों में वैसा क्रांतिकारी बदलाव नहीं आया है जैसा 21वीं सदी में दरकार था। इसीलिये “सेवासदन”  भौतिक और आत्मिक दोनों सुखों की प्राप्ति से सुखी जीवन की अवधारणा को बल देने वाला लेखन के 100 वर्ष बाद भी प्रासंगिक उपन्यास है।
      यहां सागर नगर में रहती थी कुसुम (परिवर्तित नाम) नामक युवती। सुंदर, बोल्ड युवती.... भृत्य पिता और घरों में कामवाली बाई का कार्य करने वाली अनपढ़ मां की पढ़ी-लिखी पुत्री कुसुम। मैंने देखा है कि किस तरह भौतिक सुख-सुविधा की लालसा में पड़ कर अपनी उम्र से 20 वर्ष बड़े पुरुष की रखैल बन कर उसने अपना जीवन तबाह कर लिया। इतना ही नहीं उस पुरुष द्वारा त्यागे जाने पर वह कॉलगर्ल बन कर समाज की विद्रूपताएं झेलती रही। अंतोगत्वा मानसिक शांति की तलाश में भटकते हुए  एक दिन थक-हार कर उसने रेल से कट कर अपनी जान दे दी। उसके छोटे भाई- बहन भी नारकीय जीवन जीने को विवश थे। वर्तमान में वह परिवार कहीं सुदूर शहर जा कर किस तरह रह रहा है, पता नहीं। "सेवासदन" की 20वीं सदी की सुमन और मेरे शहर की वर्तमान समय की .... 21वीं सदी की कुसुम... अनेक समानताएं हैं दोनों की जीवनगाथा में।
      हां, इसलिए मैं दावे से यह बात कह सकती हूं कि "सेवासदन" आज भी प्रासंगिक है।

Friday, December 6, 2019

राहगीरी में मनाया गया डॉ (सुश्री) शरद सिंह का जन्मदिन

      राहगीरी में मेरी बहन प्रख्यात लेखिका, समाजसेवी डॉ (सुश्री) शरद सिंह का जन्मदिन,जो कि 29 नवम्बर है, दिनांक 01.12.2019 रविवार को केक काट कर कदम संस्था, सागर की ओर से वृक्षारोपण कर  मनाया गया।
   इस अवसर पर शरद सिंह ने उपस्थित जनसमूह एवं राहगीरी में आए प्रतिभागी बच्चों को सम्बोधित करते हुए कहा कि
"पढ़ाई के साथ-साथ दूसरी एक्टीविटीज पर भी ध्यान दिया जाना ज़रूरी है। जिसके लिए  राहगीरी का प्लेटफार्म सबसे बढ़िया है। बिना किसी भेदभाव के सभी बच्चों को अपना टेलेंट दिखाने का अवसर मिलता है। बच्चों को सही रास्ते का चयन करने में किताबें भी अपनी अहम भूमिका निभाती हैं। अच्छी और ज्ञानवर्धक किताबें गुरू और मित्र दोनों बन कर सहायता करती हैं। अपनी कविताओं का वाचन करते हुए एवं किताबों के महत्व पर प्रकाश डालते हुए शरद सिंह ने अपना एक मुक्तक पढ़ा -
हंसाती,   रुलाती,  जगाती   किताबें
बहुत  सारी   बातें    बताती किताबें
किताबों की  दुनिया  बड़ी है निराली
कि दुनिया से सबको मिलाती किताबें"

इस अवसर पर मैंने यानी इस ब्लॉग की लेखिका  डॉ. वर्षा सिंह ने बच्चों के द्वारा  ड्राइंग प्रतियोगिता में बनायी गई ड्राइंग की सराहना की और विजयी प्रतिभागियों को पुरस्कृत करने में अपना सहयोग दिया।






























Monday, December 2, 2019

सागर: साहित्य एवं चिंतन 68 : हिन्दी साहित्य की विशिष्ट समालोचक साहित्यकार डाॅ.लक्ष्मी पांडेय - डाॅ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh

                  स्थानीय दैनिक समाचार पत्र "आचरण" में प्रकाशित मेरा कॉलम "सागर साहित्य एवं चिंतन " । जिसमें इस बार मैंने लिखा है मेरे शहर सागर की साहित्यकार डॉ. लक्ष्मी पाण्डेय पर आलेख। पढ़िए और जानिए मेरे शहर के वर्तमान साहित्यिक परिवेश को ....

सागर: साहित्य एवं चिंतन

          हिन्दी साहित्य की विशिष्ट समालोचक साहित्यकार डाॅ.लक्ष्मी पांडेय
                      - डाॅ. वर्षा सिंह
                                       
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परिचय:- डाॅ लक्ष्मी पांडेय
जन्म:-  10 मार्च 1968
जन्म स्थान:- धारना कला, जिला सिवनी (मप्र)
माता-पिता:- श्रीमती शैलकुमारी पांडेय एवं स्व. डॉ.सूरजनाथ पांडेय
शिक्षा:- एम.ए., डी लिट्
लेखन विधा:- गद्य एवं पद्य
प्रकाशन:- 29 पुस्तकें प्रकाशित
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           सागर नगर में साहित्य की समालोचना विधा के क्षेत्र में वर्तमान में जो नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है वह है डाॅ लक्ष्मी पांडेय का नाम। सिवनी के एक छोटे से गांव धारणा कला में 10 मार्च 1968 को जन्मीं लक्ष्मी पांडेय अपने छः भाई-बहनों में तीसरी संतान हैं। पिता डॉ सूरजनाथ पांडेय और माता श्रीमती शैल कुमारी पांडेय से मिले संस्कारों के कारण लक्ष्मी पांडेय को बाल्यावस्था से ही पठन-पाठन में रुचि रही। वे अपने पिता को ‘‘बाबूजी’’ के नाम से पुकारती थीं। सन् 2007 में ‘‘बाबू जी’’ का निधन लक्ष्मी पांडेय के जीवन का एक दुखद पृष्ठ था। उनकी बाल्यावस्था ग्राम धारना कला में ही व्यतीत हुई तथा आरम्भिक शिक्षा भी वहीं हुई। धारना कला में पहली से पांचवी तक पुत्री शाला में तथा छठवीं से आठवीं तक को-एजुकेशन विद्यालय में पढ़ाई की। उस समय गांव के स्कूल में अंग्रेजी शिक्षण का चलन नहीं था अतः लक्ष्मी पांडेय के पिताजी ने घर पर ही उन्हें अंग्रेजी की शिक्षा दी। वे चाहते थे कि उनकी बेटी डॉक्टर बने। आठवीं कक्षा पास करने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए उन्हें निकट के दूसरे गांव बरघाट में दाखिला लेना पड़ा।
        धारना कला से बरघाट बस द्वारा प्रतिदिन आना-जाना पड़ता था। आरंभ में वे अपने गांव की अकेली लड़की थीं जो इस प्रकार बस से दूसरे गांव पढ़ने आया-जाया करती थीं। फिर शीघ्र ही उन्हें देख कर दो-तीन और लड़कियों ने दाखिला ले लिया। सन 1984 में बाॅयोलाॅजी विषय के साथ 11वीं हायरसेकेंडरी बोर्ड परीक्षा पास करने के उपरांत सिवनी के डिग्री कॉलेज में बीएससी में दाखिला लिया। यहां भी बस द्वारा रोज आना-जाना पड़ता था। बीएससी उत्तीर्ण करने के बाद एमएससी केमिस्ट्री में एडमिशन लिया। उन दिनों सिवनी डिग्री कॉलेज सागर विश्वविद्यालय के अंतर्गत आता था। कतिपय कारणों से एमएससी की परीक्षाएं लगभग 6 माह विलंब से हुईं जिससे लक्ष्मी पाडेय के पेपर बिगड़ गए जिससे उनका मन खिन्न हो गया और उन्होंने एमएससी की पढ़ाई छोड़ दी। इसके बाद हिंदी साहित्य में प्राइवेट छात्रा के रूप में एम.ए. की परीक्षा पास की। इस दौरान उनके दो भाइयों का दाखिला सागर विश्वविद्यालय में क्रमशः बीए और बीकाॅम में हो गया, जिनकी देखरेख के लिए उन्हें बार-बार सागर आना पड़ता था। अतः यह निर्णय लिया गया कि भाइयों की देखरेख के लिए लक्ष्मी को सागर में ही रहना होगा तथा वहीं रहते हुए वे भी अपने उच्च अध्ययन करती रहेंगी। दोनों भाई ग्रेजुएशन के बाद वापस घर चले गए किंतु लक्ष्मी पांडेय जिन्होंने पीएचडी के लिए रजिस्ट्रेशन करा लिया था, वे सागर में ही रुकी रहीं। अपना शोधकार्य पूरा करते हुए सन् 1996 में ‘‘स्वातंत्र्योत्तर उपन्यासों में ग्रामों का स्वरूप’’ विषय में पीएच डी तथा सन 2009 में ‘‘ आचार्य भगीरथ मिश्र एवं आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी का अवदान संदर्भ भारतीय काव्यशास्त्र’’ विषय में डिलिट् की उपाधि प्राप्त की। इससे पूर्व उन्होंने सन् 1999 में यूजीसी की स्लेट (नेट) की परीक्षा भी उत्तीर्ण की।
         लक्ष्मी पांडेय को लेखन का शौक आरंभ से ही रहा। उनके द्वारा लिखे गए निबंध संग्रह, समीक्षात्मक शोध ग्रंथ, उपन्यास तथा उनके द्वारा किए गए संपादन सहित अब तक उनकी लगभग 29 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है।
          लक्ष्मी पांडेय का अपने लेखन के संबंध में कहना है कि -‘‘अंतर्मुखी होने के कारण मित्र-सहेलियां कम रहीं। अप-डाउन करके 9वीं से बीएससी तक की पढ़ाई करते हुए जगत-जगत अनेक तरह के मनुष्यों को देखा, रिश्तों में, प्रशासन में, समाज और राजनीति में जो विसंगतियां, विडंबनाएं देखीं, वे आहत करती रहीं। बोलने की आदत तब बिलकुल नहीं थी, इसलिए लिखने लगी।’’ अपने लेखन के संबंध में वे आगे बताती हैं कि -‘‘समष्टिगत चिंतन ने आलोचना के लिए प्रेरित किया।         विश्वविद्यालय से आरम्भ से जुड़ी रही अतः शैक्षणिक जगत और राजनीति के गहन व्यापक संबंधों ने मुझे दहलाने की हद तक चिंतित किया और मैं लिखती चली गई। स्वंतःसुखाय तो हर लेखक लिखता ही है। मैं भी। वह लोकमंगल के लिए काम आ जाए तो लेखन की सार्थकता मानती हूं।’’
             डाॅ लक्ष्मी पांडेय को मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन द्वारा ‘‘साहित्याचार्य पन्नालाल जैन सम्मान’’, हिन्दी-उर्दू मजलिस द्वारा ‘‘परिधि’’ सम्मान, पं. शंकरदत्त चतुर्वेदी साहित्यकार सम्मान, साहित्य मंडल नाथद्वारा (राजस्थान) द्वारा ‘‘हिन्दी साहित्य भूषण 2018’’ के सम्मान से सम्मानित किया जा चुका है। भाषा विज्ञान, भारतीय काव्यशास्त्र एवं आलोचना संबंधी उनकी लगभग दस पुस्तकें अनेक विश्वविद्यालयों में एमए के दूरस्थ शिक्षा पाठ्यक्रमों में सम्मिलित हैं। वे ‘‘आद्या’’ नामक महाविद्यालयीन पत्रिका का संपादन कर चुकी हैं तथा वर्तमान में श्री सरस्वती पुस्तकालय एवं वाचनालय की पत्रिका ‘‘साहित्य सरस्वती’’ का उपसंपादक के रूप में संपादन कर रही हैं।
विभिन्न साहित्यिक संस्थाओं की सदस्यता का दायित्व सम्हालते हुए डाॅ लक्ष्मी पांडेय आमंत्रित वक्ता के रूप में अपने वक्तव्य देने भी जाती हैं।
सागर: साहित्य एवं चिन्तन - डाॅ. वर्षा सिंह # साहित्य वर्षा

             आनंद प्रकाश दीक्षित के अनुसार - ‘‘बाह्य दृश्य जगत और मनुष्य के अदृश्य अंतर्जगत में शेष सृष्टि के साथ उसके सम्बंध-असम्बंध या विरोध को लेकर किये जानेवाले कर्म-व्यापार तथा होनेवाली या की जानेवाली क्रिया-प्रतिक्रिया की समष्टि चेतना का नाम है जीवन। इस द्वंद्वमय जीवन के दो पहलू हैं- सुख और दुख. संसार के विकास, विस्तार और परिवर्तन के साथ उक्त दो मूल प्रवृत्तियों का भी नाना रूपों में विकास हुआ, भावों या मनोवेगों के अनेक रूप दीख पड़े. लेकिन रहे वे सुख-दुखावस्था के रूप में ही।’’ सुख और दुख की ये अवस्थाएं उपन्यासों में विविध घटनाओं के साथ उपजी मनोभावनाओं के रूप में दिखाई देती हैं। डाॅ लक्ष्मी पांडे के उपन्यासों में सुख-दुखावस्था वस्तुतः अनुभव और जीवन दर्शन के रूप में एक साथ उभर कर सामने आते हैं। उनके उपन्यास ‘‘उसकी अधूरी डायरी’’ का यह अंश देखें-
‘‘कुछ यात्राएं बड़ी त्रासद होती हैं। वह यात्रा भी बड़ी त्रासद थी। बहुत कुछ छूट गया, बहुत कुछ खो गया। ऐसे-ऐसे वाक्य सुने जिन्हें सुन कर मर जाना चाहिए था। पत्थर हो जाना चाहिए था। लेकिन अपनी सहनशक्ति को दाद देती हूं कि खून के आंसू बहाए लेकिन संसार ने सिर्फ मुस्कुराते होंठ ही देखे मेरे। सोचती हूं वो टोटका लोगों ने मेरे साथ किया होता तो मैं भी सब भूल सकती। जिन लोगों के साथ मैंने यह टोटका नहीं किया वह भी तो सब मुझे भूल गए। कैसे आसानी से सब कुछ भूल जाते हैं लोग? क्यों नहीं हो सका मुझसे यहां मन पर एक-एक छोटी से छोटी घड़ी की स्मृति ताजे जख्म की तरह ताजी है और टीसती है। लोग मुझसे छल करते हैं तो उनकी ऐसी नैतिकता पर मैं शर्मिंदा होती हूं। लोग अपने सुखों के लिए अपने लाभ के लिए मेरा सहारा लेते हैं और फिर मुझे ठुकराते हैं तो मैं उनकी इस नैतिकता पर अनजान बनने की कोशिश करती हूं, शर्मिंदा होती हूं। ऐसे लोगों के लिए मन में कभी दया और घृणा उपजती है। केंचुए जैसे, ऐसे लोगों के जीवन को ईश्वर किस उद्देश्य से बनाता है? ऐसा बनाकर उन्हें कहां, किस ओर ले जाना चाहता है? पता नहीं। ...बहरहाल इस कलयुग में झूठ का पेड़ ही फल-फूल रहा है। झूठ की आवाज बुलंद है। अपने आहत मन को राहत देने के लिए ईश्वर को साक्षी मानकर एक झूठ मैंने भी बोला है, देखूं इसका निर्वाह कहां तक हो पाता है?’’ ( उसकी अधूरी डायरी, पृ. 58)
             डॉ लक्ष्मी पांडेय के दूसरे उपन्यास ‘‘परिभाषित’’ में जीवन के उन पक्षों को रेखांकित किया गया है जिनमें भावनाओं का बहाव व्यक्ति को प्रेम, पीड़ा और अभिव्यक्ति के झंझावात में उलझा देता है। इस उपन्यास का यह अंश इस तथ्य का एक सटीक उदाहरण है -
‘‘मौन की भाषा उस मौन से तादात्म्य स्थापित करके ही समझी जा सकती है। जिसने जीवन की जटिलता को जाना नहीं, पीड़ा का अर्थ नहीं जाना, वेदना की परिभाषा नहीं जाना, जिसके लिए जीवन एक मनोरंजक खेल हो, वह किसी के भी मौन से तादात्म्य में कैसे स्थापित कर सकता है? डॉली आज इस मौन या अभिव्यक्ति, जीवन, प्रेम, पीड़ा किसी भी विषय पर सोचना नहीं चाहती किंतु सोचो पर अंकुश लगाना क्या संभव है? आज उसने एक नए वसंत में कदम रखा है ना, इसीलिए भावनाएं हृदय को उद्वेलित कर रही हैं कि आज जिस प्रतीक्षा का अंत हुआ है, उसकी शुरुआत कैसे? कब? कहां? और क्यों? हुई थी, इस पर सोचे। किंतु सच स्मृतियां चाहे कितनी ही मधुर, खुशनुमा क्षणों की क्यों ना हो, याद आने पर दुख ही देती हैं। तभी तो मन बार-बार भीग रहा है। गले में आंसुओं का गोला दहकता सा लगता है। सोचती है कि इस बिखरे टूटे जीवन को क्या कभी समझ पाएगी? क्या ऐसी इच्छा होगी कि इस बिखरे जीवन को समेट ले? समेटे तो किसके लिए? नहीं, अब यह संभव नहीं। मन कैसा धुआं-धुआं सा हो रहा है। जैसे इस श्मशान घाट पर लाशों के जलने के बाद सारा वातावरण धुंए से आच्छादित रहता है। फिर कोई सिसकी सुनाई देती है जैसे प्रियजन को अग्नि के सुपुर्द कर देने पर कहीं अंधेरे कोने में किसी ने सिसकारी ली हो। हां, आज उसने भी आशाओं से लिपटी प्रतीक्षा को हृदय के श्मशान घाट पर ही जलाकर भस्म कर दिया है, किंतु यह सिसकी किसकी है? शायद नहीं, शायद नहीं, निश्चित ही उसके अंदर छिपी उस औरत की सिसकी है, जो अब भी प्रतीक्षारत है।’’ (अपरिभाषित, पृ. 28)
Dr. Laxmi Pandey

             चाहे गद्य हो या पद्य हो, रस की उपस्थिति साहित्य को सरस बना देती है। इसीलिए साहित्य में रस की उपस्थिति को विशेष माना गया है। रस के लिए कहा गया है कि सब कुछ नष्ट हो जाय, व्यर्थ हो जाय पर जो भाव रूप तथा वस्तु रूप में बचा रहे, वही रस है। रस के रूप में जिसकी निष्पत्ति होती है, वह भाव ही है। जब रस बन जाता है, तो भाव नहीं रहता। केवल रस रहता है। उसकी भावता अपना रूपांतर कर लेती है। रस अपूर्व की उत्पत्ति है। नाट्य की प्रस्तुति में सब कुछ पहले से दिया रहता है, ज्ञात रहता है, सुना हुआ या देखा हुआ होता है। इसके बावजूद कुछ नया अनुभव मिलता है। वह अनुभव दूसरे अनुभवों को पीछे छोड़ देता है। अकेले एक शिखर पर पहुंचा देता है। रस का यह अपूर्व रूप अप्रमेय और अनिर्वचनीय है। रस काल और समय के अनुसार संज्ञानुभूति को प्रभावित करता है।
             डॉ.लक्ष्मी पांडेय भारतीय काव्यशास्त्र में न केवल रस की मीमांसा करती हैं बल्कि वे वर्तमान जीवन दशाओं में रस के स्वरूप और उसमें आने वाले परिवर्तन की भी मीमांसा करती है यह मीमांसा उनकी पुस्तक ‘‘भारतीय काव्यशास्त्र: रस विमर्श’’ में पढ़ी जा सकती है-
‘‘रस सर्वकालिक, नित्य और सदा प्रासंगिक है। यह काव्य में भावों के रूप में उपस्थित रहता है। समय बदलता है, परिवेश बदलता है तो मनुष्य की प्रकृति उसका स्वभाव भी उसके अनुसार संचालित होता है। स्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व श्रृंगार, करुणा, शांत, वात्सल्य, वीर रसों की प्रधानता थी। यह रस मनुष्यों और साहित्य का प्रधान अंग थे। समाज में जीवन में भय था कि कहीं कोई अपना भी छोड़ ना जाए, कोई दुखी ना हो जाए, हमसे किसी का अहित ना हो जाए। प्रेम था। आपसदारी थी। प्रेम के साथ ही भय का जन्म होता है। प्रिय की चिंता भय को जन्म देती है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद विज्ञान और तकनीक ने महत्वाकांक्षाओं की दौड़ ने, विकास के नए सोपानों के साथ भ्रष्टाचार, शोषण, अन्याय, स्वार्थ, कुटिलता, छल, दोगलेपन को जन्म दिया। पाश्चात्य सभ्यता और संस्कृति के प्रभाव में आधुनिकता की गलत परिभाषा को अपनाकर भारतीय समाज कुछ इस तरह विकृत हुआ है कि अब श्रृंगार का रूप विकृत हो गया है। हास्य की जगह व्यंग ने ले ली है। जुगुप्सा उत्पन्न करने वाले वीभत्स दृश्य और समाचारों का बाहुल्य है। क्रोध और संयमहीनता के कारण भयानक घटनाएं जो मनुष्यता को लक्षित करने वाली हैं घटित होती रहती हैं। सत्य, न्याय, ईमानदारी, सदाचार दुबके हुए हैं। और जो कि साहित्य समाज का जीवन का आईना है अतः साहित्य में इन्हीं रसों का प्राधान्य है।’’ ( भारतीय काव्यशास्त्र: रस विमर्श, पृष्ठ 8)
           सागर के साहित्य जगत में विशेष उपलब्धि के रूप में डॉ लक्ष्मी पांडेय का योगदान हिंदी व्याकरण पक्ष की मीमांसा करते हुए साहित्य को समृद्ध करने में विशेष उल्लेखनीय है। इस संदर्भ में उनका योगदान नवीनशोधकर्ताओं के लिए भी दिशा प्रदान करने वाला है।
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( दैनिक, आचरण  दि. 02.12.2019)
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