Monday, December 2, 2019

सागर: साहित्य एवं चिंतन 68 : हिन्दी साहित्य की विशिष्ट समालोचक साहित्यकार डाॅ.लक्ष्मी पांडेय - डाॅ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh

                  स्थानीय दैनिक समाचार पत्र "आचरण" में प्रकाशित मेरा कॉलम "सागर साहित्य एवं चिंतन " । जिसमें इस बार मैंने लिखा है मेरे शहर सागर की साहित्यकार डॉ. लक्ष्मी पाण्डेय पर आलेख। पढ़िए और जानिए मेरे शहर के वर्तमान साहित्यिक परिवेश को ....

सागर: साहित्य एवं चिंतन

          हिन्दी साहित्य की विशिष्ट समालोचक साहित्यकार डाॅ.लक्ष्मी पांडेय
                      - डाॅ. वर्षा सिंह
                                       
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परिचय:- डाॅ लक्ष्मी पांडेय
जन्म:-  10 मार्च 1968
जन्म स्थान:- धारना कला, जिला सिवनी (मप्र)
माता-पिता:- श्रीमती शैलकुमारी पांडेय एवं स्व. डॉ.सूरजनाथ पांडेय
शिक्षा:- एम.ए., डी लिट्
लेखन विधा:- गद्य एवं पद्य
प्रकाशन:- 29 पुस्तकें प्रकाशित
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           सागर नगर में साहित्य की समालोचना विधा के क्षेत्र में वर्तमान में जो नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है वह है डाॅ लक्ष्मी पांडेय का नाम। सिवनी के एक छोटे से गांव धारणा कला में 10 मार्च 1968 को जन्मीं लक्ष्मी पांडेय अपने छः भाई-बहनों में तीसरी संतान हैं। पिता डॉ सूरजनाथ पांडेय और माता श्रीमती शैल कुमारी पांडेय से मिले संस्कारों के कारण लक्ष्मी पांडेय को बाल्यावस्था से ही पठन-पाठन में रुचि रही। वे अपने पिता को ‘‘बाबूजी’’ के नाम से पुकारती थीं। सन् 2007 में ‘‘बाबू जी’’ का निधन लक्ष्मी पांडेय के जीवन का एक दुखद पृष्ठ था। उनकी बाल्यावस्था ग्राम धारना कला में ही व्यतीत हुई तथा आरम्भिक शिक्षा भी वहीं हुई। धारना कला में पहली से पांचवी तक पुत्री शाला में तथा छठवीं से आठवीं तक को-एजुकेशन विद्यालय में पढ़ाई की। उस समय गांव के स्कूल में अंग्रेजी शिक्षण का चलन नहीं था अतः लक्ष्मी पांडेय के पिताजी ने घर पर ही उन्हें अंग्रेजी की शिक्षा दी। वे चाहते थे कि उनकी बेटी डॉक्टर बने। आठवीं कक्षा पास करने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए उन्हें निकट के दूसरे गांव बरघाट में दाखिला लेना पड़ा।
        धारना कला से बरघाट बस द्वारा प्रतिदिन आना-जाना पड़ता था। आरंभ में वे अपने गांव की अकेली लड़की थीं जो इस प्रकार बस से दूसरे गांव पढ़ने आया-जाया करती थीं। फिर शीघ्र ही उन्हें देख कर दो-तीन और लड़कियों ने दाखिला ले लिया। सन 1984 में बाॅयोलाॅजी विषय के साथ 11वीं हायरसेकेंडरी बोर्ड परीक्षा पास करने के उपरांत सिवनी के डिग्री कॉलेज में बीएससी में दाखिला लिया। यहां भी बस द्वारा रोज आना-जाना पड़ता था। बीएससी उत्तीर्ण करने के बाद एमएससी केमिस्ट्री में एडमिशन लिया। उन दिनों सिवनी डिग्री कॉलेज सागर विश्वविद्यालय के अंतर्गत आता था। कतिपय कारणों से एमएससी की परीक्षाएं लगभग 6 माह विलंब से हुईं जिससे लक्ष्मी पाडेय के पेपर बिगड़ गए जिससे उनका मन खिन्न हो गया और उन्होंने एमएससी की पढ़ाई छोड़ दी। इसके बाद हिंदी साहित्य में प्राइवेट छात्रा के रूप में एम.ए. की परीक्षा पास की। इस दौरान उनके दो भाइयों का दाखिला सागर विश्वविद्यालय में क्रमशः बीए और बीकाॅम में हो गया, जिनकी देखरेख के लिए उन्हें बार-बार सागर आना पड़ता था। अतः यह निर्णय लिया गया कि भाइयों की देखरेख के लिए लक्ष्मी को सागर में ही रहना होगा तथा वहीं रहते हुए वे भी अपने उच्च अध्ययन करती रहेंगी। दोनों भाई ग्रेजुएशन के बाद वापस घर चले गए किंतु लक्ष्मी पांडेय जिन्होंने पीएचडी के लिए रजिस्ट्रेशन करा लिया था, वे सागर में ही रुकी रहीं। अपना शोधकार्य पूरा करते हुए सन् 1996 में ‘‘स्वातंत्र्योत्तर उपन्यासों में ग्रामों का स्वरूप’’ विषय में पीएच डी तथा सन 2009 में ‘‘ आचार्य भगीरथ मिश्र एवं आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी का अवदान संदर्भ भारतीय काव्यशास्त्र’’ विषय में डिलिट् की उपाधि प्राप्त की। इससे पूर्व उन्होंने सन् 1999 में यूजीसी की स्लेट (नेट) की परीक्षा भी उत्तीर्ण की।
         लक्ष्मी पांडेय को लेखन का शौक आरंभ से ही रहा। उनके द्वारा लिखे गए निबंध संग्रह, समीक्षात्मक शोध ग्रंथ, उपन्यास तथा उनके द्वारा किए गए संपादन सहित अब तक उनकी लगभग 29 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है।
          लक्ष्मी पांडेय का अपने लेखन के संबंध में कहना है कि -‘‘अंतर्मुखी होने के कारण मित्र-सहेलियां कम रहीं। अप-डाउन करके 9वीं से बीएससी तक की पढ़ाई करते हुए जगत-जगत अनेक तरह के मनुष्यों को देखा, रिश्तों में, प्रशासन में, समाज और राजनीति में जो विसंगतियां, विडंबनाएं देखीं, वे आहत करती रहीं। बोलने की आदत तब बिलकुल नहीं थी, इसलिए लिखने लगी।’’ अपने लेखन के संबंध में वे आगे बताती हैं कि -‘‘समष्टिगत चिंतन ने आलोचना के लिए प्रेरित किया।         विश्वविद्यालय से आरम्भ से जुड़ी रही अतः शैक्षणिक जगत और राजनीति के गहन व्यापक संबंधों ने मुझे दहलाने की हद तक चिंतित किया और मैं लिखती चली गई। स्वंतःसुखाय तो हर लेखक लिखता ही है। मैं भी। वह लोकमंगल के लिए काम आ जाए तो लेखन की सार्थकता मानती हूं।’’
             डाॅ लक्ष्मी पांडेय को मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन द्वारा ‘‘साहित्याचार्य पन्नालाल जैन सम्मान’’, हिन्दी-उर्दू मजलिस द्वारा ‘‘परिधि’’ सम्मान, पं. शंकरदत्त चतुर्वेदी साहित्यकार सम्मान, साहित्य मंडल नाथद्वारा (राजस्थान) द्वारा ‘‘हिन्दी साहित्य भूषण 2018’’ के सम्मान से सम्मानित किया जा चुका है। भाषा विज्ञान, भारतीय काव्यशास्त्र एवं आलोचना संबंधी उनकी लगभग दस पुस्तकें अनेक विश्वविद्यालयों में एमए के दूरस्थ शिक्षा पाठ्यक्रमों में सम्मिलित हैं। वे ‘‘आद्या’’ नामक महाविद्यालयीन पत्रिका का संपादन कर चुकी हैं तथा वर्तमान में श्री सरस्वती पुस्तकालय एवं वाचनालय की पत्रिका ‘‘साहित्य सरस्वती’’ का उपसंपादक के रूप में संपादन कर रही हैं।
विभिन्न साहित्यिक संस्थाओं की सदस्यता का दायित्व सम्हालते हुए डाॅ लक्ष्मी पांडेय आमंत्रित वक्ता के रूप में अपने वक्तव्य देने भी जाती हैं।
सागर: साहित्य एवं चिन्तन - डाॅ. वर्षा सिंह # साहित्य वर्षा

             आनंद प्रकाश दीक्षित के अनुसार - ‘‘बाह्य दृश्य जगत और मनुष्य के अदृश्य अंतर्जगत में शेष सृष्टि के साथ उसके सम्बंध-असम्बंध या विरोध को लेकर किये जानेवाले कर्म-व्यापार तथा होनेवाली या की जानेवाली क्रिया-प्रतिक्रिया की समष्टि चेतना का नाम है जीवन। इस द्वंद्वमय जीवन के दो पहलू हैं- सुख और दुख. संसार के विकास, विस्तार और परिवर्तन के साथ उक्त दो मूल प्रवृत्तियों का भी नाना रूपों में विकास हुआ, भावों या मनोवेगों के अनेक रूप दीख पड़े. लेकिन रहे वे सुख-दुखावस्था के रूप में ही।’’ सुख और दुख की ये अवस्थाएं उपन्यासों में विविध घटनाओं के साथ उपजी मनोभावनाओं के रूप में दिखाई देती हैं। डाॅ लक्ष्मी पांडे के उपन्यासों में सुख-दुखावस्था वस्तुतः अनुभव और जीवन दर्शन के रूप में एक साथ उभर कर सामने आते हैं। उनके उपन्यास ‘‘उसकी अधूरी डायरी’’ का यह अंश देखें-
‘‘कुछ यात्राएं बड़ी त्रासद होती हैं। वह यात्रा भी बड़ी त्रासद थी। बहुत कुछ छूट गया, बहुत कुछ खो गया। ऐसे-ऐसे वाक्य सुने जिन्हें सुन कर मर जाना चाहिए था। पत्थर हो जाना चाहिए था। लेकिन अपनी सहनशक्ति को दाद देती हूं कि खून के आंसू बहाए लेकिन संसार ने सिर्फ मुस्कुराते होंठ ही देखे मेरे। सोचती हूं वो टोटका लोगों ने मेरे साथ किया होता तो मैं भी सब भूल सकती। जिन लोगों के साथ मैंने यह टोटका नहीं किया वह भी तो सब मुझे भूल गए। कैसे आसानी से सब कुछ भूल जाते हैं लोग? क्यों नहीं हो सका मुझसे यहां मन पर एक-एक छोटी से छोटी घड़ी की स्मृति ताजे जख्म की तरह ताजी है और टीसती है। लोग मुझसे छल करते हैं तो उनकी ऐसी नैतिकता पर मैं शर्मिंदा होती हूं। लोग अपने सुखों के लिए अपने लाभ के लिए मेरा सहारा लेते हैं और फिर मुझे ठुकराते हैं तो मैं उनकी इस नैतिकता पर अनजान बनने की कोशिश करती हूं, शर्मिंदा होती हूं। ऐसे लोगों के लिए मन में कभी दया और घृणा उपजती है। केंचुए जैसे, ऐसे लोगों के जीवन को ईश्वर किस उद्देश्य से बनाता है? ऐसा बनाकर उन्हें कहां, किस ओर ले जाना चाहता है? पता नहीं। ...बहरहाल इस कलयुग में झूठ का पेड़ ही फल-फूल रहा है। झूठ की आवाज बुलंद है। अपने आहत मन को राहत देने के लिए ईश्वर को साक्षी मानकर एक झूठ मैंने भी बोला है, देखूं इसका निर्वाह कहां तक हो पाता है?’’ ( उसकी अधूरी डायरी, पृ. 58)
             डॉ लक्ष्मी पांडेय के दूसरे उपन्यास ‘‘परिभाषित’’ में जीवन के उन पक्षों को रेखांकित किया गया है जिनमें भावनाओं का बहाव व्यक्ति को प्रेम, पीड़ा और अभिव्यक्ति के झंझावात में उलझा देता है। इस उपन्यास का यह अंश इस तथ्य का एक सटीक उदाहरण है -
‘‘मौन की भाषा उस मौन से तादात्म्य स्थापित करके ही समझी जा सकती है। जिसने जीवन की जटिलता को जाना नहीं, पीड़ा का अर्थ नहीं जाना, वेदना की परिभाषा नहीं जाना, जिसके लिए जीवन एक मनोरंजक खेल हो, वह किसी के भी मौन से तादात्म्य में कैसे स्थापित कर सकता है? डॉली आज इस मौन या अभिव्यक्ति, जीवन, प्रेम, पीड़ा किसी भी विषय पर सोचना नहीं चाहती किंतु सोचो पर अंकुश लगाना क्या संभव है? आज उसने एक नए वसंत में कदम रखा है ना, इसीलिए भावनाएं हृदय को उद्वेलित कर रही हैं कि आज जिस प्रतीक्षा का अंत हुआ है, उसकी शुरुआत कैसे? कब? कहां? और क्यों? हुई थी, इस पर सोचे। किंतु सच स्मृतियां चाहे कितनी ही मधुर, खुशनुमा क्षणों की क्यों ना हो, याद आने पर दुख ही देती हैं। तभी तो मन बार-बार भीग रहा है। गले में आंसुओं का गोला दहकता सा लगता है। सोचती है कि इस बिखरे टूटे जीवन को क्या कभी समझ पाएगी? क्या ऐसी इच्छा होगी कि इस बिखरे जीवन को समेट ले? समेटे तो किसके लिए? नहीं, अब यह संभव नहीं। मन कैसा धुआं-धुआं सा हो रहा है। जैसे इस श्मशान घाट पर लाशों के जलने के बाद सारा वातावरण धुंए से आच्छादित रहता है। फिर कोई सिसकी सुनाई देती है जैसे प्रियजन को अग्नि के सुपुर्द कर देने पर कहीं अंधेरे कोने में किसी ने सिसकारी ली हो। हां, आज उसने भी आशाओं से लिपटी प्रतीक्षा को हृदय के श्मशान घाट पर ही जलाकर भस्म कर दिया है, किंतु यह सिसकी किसकी है? शायद नहीं, शायद नहीं, निश्चित ही उसके अंदर छिपी उस औरत की सिसकी है, जो अब भी प्रतीक्षारत है।’’ (अपरिभाषित, पृ. 28)
Dr. Laxmi Pandey

             चाहे गद्य हो या पद्य हो, रस की उपस्थिति साहित्य को सरस बना देती है। इसीलिए साहित्य में रस की उपस्थिति को विशेष माना गया है। रस के लिए कहा गया है कि सब कुछ नष्ट हो जाय, व्यर्थ हो जाय पर जो भाव रूप तथा वस्तु रूप में बचा रहे, वही रस है। रस के रूप में जिसकी निष्पत्ति होती है, वह भाव ही है। जब रस बन जाता है, तो भाव नहीं रहता। केवल रस रहता है। उसकी भावता अपना रूपांतर कर लेती है। रस अपूर्व की उत्पत्ति है। नाट्य की प्रस्तुति में सब कुछ पहले से दिया रहता है, ज्ञात रहता है, सुना हुआ या देखा हुआ होता है। इसके बावजूद कुछ नया अनुभव मिलता है। वह अनुभव दूसरे अनुभवों को पीछे छोड़ देता है। अकेले एक शिखर पर पहुंचा देता है। रस का यह अपूर्व रूप अप्रमेय और अनिर्वचनीय है। रस काल और समय के अनुसार संज्ञानुभूति को प्रभावित करता है।
             डॉ.लक्ष्मी पांडेय भारतीय काव्यशास्त्र में न केवल रस की मीमांसा करती हैं बल्कि वे वर्तमान जीवन दशाओं में रस के स्वरूप और उसमें आने वाले परिवर्तन की भी मीमांसा करती है यह मीमांसा उनकी पुस्तक ‘‘भारतीय काव्यशास्त्र: रस विमर्श’’ में पढ़ी जा सकती है-
‘‘रस सर्वकालिक, नित्य और सदा प्रासंगिक है। यह काव्य में भावों के रूप में उपस्थित रहता है। समय बदलता है, परिवेश बदलता है तो मनुष्य की प्रकृति उसका स्वभाव भी उसके अनुसार संचालित होता है। स्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व श्रृंगार, करुणा, शांत, वात्सल्य, वीर रसों की प्रधानता थी। यह रस मनुष्यों और साहित्य का प्रधान अंग थे। समाज में जीवन में भय था कि कहीं कोई अपना भी छोड़ ना जाए, कोई दुखी ना हो जाए, हमसे किसी का अहित ना हो जाए। प्रेम था। आपसदारी थी। प्रेम के साथ ही भय का जन्म होता है। प्रिय की चिंता भय को जन्म देती है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद विज्ञान और तकनीक ने महत्वाकांक्षाओं की दौड़ ने, विकास के नए सोपानों के साथ भ्रष्टाचार, शोषण, अन्याय, स्वार्थ, कुटिलता, छल, दोगलेपन को जन्म दिया। पाश्चात्य सभ्यता और संस्कृति के प्रभाव में आधुनिकता की गलत परिभाषा को अपनाकर भारतीय समाज कुछ इस तरह विकृत हुआ है कि अब श्रृंगार का रूप विकृत हो गया है। हास्य की जगह व्यंग ने ले ली है। जुगुप्सा उत्पन्न करने वाले वीभत्स दृश्य और समाचारों का बाहुल्य है। क्रोध और संयमहीनता के कारण भयानक घटनाएं जो मनुष्यता को लक्षित करने वाली हैं घटित होती रहती हैं। सत्य, न्याय, ईमानदारी, सदाचार दुबके हुए हैं। और जो कि साहित्य समाज का जीवन का आईना है अतः साहित्य में इन्हीं रसों का प्राधान्य है।’’ ( भारतीय काव्यशास्त्र: रस विमर्श, पृष्ठ 8)
           सागर के साहित्य जगत में विशेष उपलब्धि के रूप में डॉ लक्ष्मी पांडेय का योगदान हिंदी व्याकरण पक्ष की मीमांसा करते हुए साहित्य को समृद्ध करने में विशेष उल्लेखनीय है। इस संदर्भ में उनका योगदान नवीनशोधकर्ताओं के लिए भी दिशा प्रदान करने वाला है।
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( दैनिक, आचरण  दि. 02.12.2019)
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