Friday, December 20, 2019

सागर: साहित्य एवं चिंतन 69 .... सामाजिक सरोकारों के कवि रमेश दुबे - डाॅ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh

                  स्थानीय दैनिक समाचार पत्र "आचरण" में प्रकाशित मेरा कॉलम "सागर साहित्य एवं चिंतन " । जिसमें इस बार मैंने लिखा है मेरे शहर सागर के कवि रमेश दुबे पर आलेख। पढ़िए और जानिए मेरे शहर के वर्तमान साहित्यिक परिवेश को ....

सागर: साहित्य एवं चिंतन

      सामाजिक सरोकारों के कवि रमेश दुबे
                                  - डाॅ. वर्षा सिंह               
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परिचय:- रमेश दुबे
जन्म:-  09 जुलाई 1944
जन्म स्थान:- ग्राम सहजपुर, जिला सागर (मप्र)
माता-पिता:- श्रीमती बेनीबाई एवं हरिनारायण दुबे
शिक्षा:- बी.ए.,
लेखन विधा:- पद्य
प्रकाशन:- पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित
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           जीवन के अनुभवों से उपजी कविताओं का अपना अलग महत्व होता है। ऐसी कविताएं शैली अथवा भाषा पर केंद्रित न होकर भावनाओं पर तथा विचारों पर केंद्रित होती हैं। इस प्रकार की कविताओं की महत्ता से इंकार नहीं किया जा सकता है। सागर के साहित्य जगत में कवि रमेश दुबे का नाम ऐसी ही कवियों की पंक्ति में सम्मान रखा जा सकता है, जिन्होंने समाज और परिवेश से अनुभव जताते हुए उन्हें अपने काव्य में पिरोया है और इस प्रकार से जन करते हुए उन्होंने अभिव्यक्ति को महत्ता दी है जबकि शैली की विशेषताएं उनके लिए गौण रही हैं।

          सागर जिले के ग्राम सहजपुर में पंडित हरि नारायण दुबे एवं श्रीमती बेनी भाई के घर 9 जुलाई 1944 को जन्मे रमेश दुबे एक प्रतिभा संपन्न बालक के रूप में अपने माता-पिता की प्रिय रहे।

 कक्षा चौथी तक ग्रामीण परिवेश में रहने के बाद सन 1954 में रमेश दुबे जी सागर आ गए। यहां मैट्रिक उत्तीर्ण करने के बाद सागर विश्वविद्यालय में पढ़ाई की। जहां बाद में उन्हें आजीविका भी प्राप्त हो गई। सन 2004 में सेवानिवृत्ति के बाद स्थानीय तीनबत्ती स्थित खादी भंडार में साहित्यकारों से उनका मिलना होने लगा। जहां वे अपने मित्रों से साहित्य की चर्चाएं करते रहे। साहित्य में रुझान के चलते सरस्वती वाचनालय में होने हर शनिवार को होने वाली हिंदी साहित्य सम्मेलन की कवि गोष्ठी में निरंतर सहभागी बनते रहे, जिससे उन्हें साहित्य सृजन की प्रेरणा मिलती रही। वे बताते हैं कि एक दिन निर्मल चंद निर्मल जी ने हमसे कहा- पढ़े-लिखे हो तुम भी कविता लिखना शुरु कर दो। मैं धीरे-धीरे अपनी मन की बात जो मैं देखा करता था उसी पर लिखने लगा। मेरी पहली कविता 'प्यार के अभाव में दिल कठोर होता है' लिखी उसी समय भीतर बाजार में एक कवि गोष्ठी हुई उसमें सागर के सब कवि आए थे। मुझसे सबसे पहले कविता पढ़ने को कहा गया। मैंने यही कविता पढ़ी। निर्मल जी तथा कई कवियों को यह कविता अच्छी लगी। बस, इसके बाद मेरा का सृजन आरंभ हो गया।"


     'समस्या' शीर्षक कविता में उस समस्या को बड़ी गंभीरता से उठाया है जिससे आज पूरा देश ही नहीं पूरा विश्व ग्रस्त है। यह समस्या है निरंतर बढ़ती आबादी की। जो भीड़ के रूप में हमारे सामने है। कवि ने इस समस्या को ना केवल अनुभव किया है, उस पर चिंतन किया है, अपितु उस पर व्यंग भी किया है। देखिए यह कविता-

अपने इस देश में
जनता ही चिंता बढ़ती जा रही है तभी तो रोजगार और
रहने की कमी आ रही है
रोजगार पाने युवकों की भीड़ है रहने के लिए मकानों में भीड़ है जहां देखो वहां भीड़ है
मोटर और टेंपो में भीड़ है अस्पतालों और स्कूलों में भीड़ है सड़कों पर चलने में भीड़ है
यहां से वहां दौड़ने में भीड़ है
जहां नज़र डालो राशन पानी की भीड़ है
हर जगह समस्या की भीड़ है कारखाने खुल गए खेत और खलिहान में
हजारों मकान बन गए बगीचों और श्मशान में
अंतिम संस्कार को जगह नहीं श्मशान में
बढ़ती गई जनता तो रोजगार कहां से लाएंगे
रहने को कहा जाएंगे
खेतों का अन्य कहां से लाएंगे
कटते रहे पेड़ तो हवा पानी कहां से लाएंगे
इन सब के लिए क्या चंद्रलोक में जाएंगे?

      कवि रमेश दुबे समाज में व्याप्त सभी समस्याओं पर बारीकी से चिंतन करते हैं और उन्हें अपने काव्य में बखूबी पिरोते हैं। उनकी एक कविता है 'कम उम्र में शादी'। इस कविता में उन्होंने कम उम्र में विवाह होने पर व्यक्ति के जीवन में तथा परिवार में होने वाले दुष्परिणाम को बड़ी गहराई से सामने रखा है। कविता इस प्रकार है-

गरीब की कम उम्र में शादी
उसकी बर्बादी
कई बच्चों के बाप बन जाना
ज्यादा खर्च के चक्कर में उलझ कर रह जाना
बच्चे पौष्टिक आहार से दूर
रुखा-सूखा खाने को मजबूर
बच्चे पढ़ने-लिखने से दूर
मां-बच्चों का बोझ लादे-लादे
कम उम्र में बूढ़ी हो चली है
बाप सुबह से शाम तक बच्चों को पालने के चक्कर में
जब असमर्थ नजर आता है
बड़े बेटे को जो दस साल का है साथ चलने, काम करने को मजबूर करने लगता है
कुछ दिन बाद सभी बच्चे रुखा-सूखा खाकर
बिना पढ़े-लिखे
स्कूल न जाकर स्कूल की दीवार के पत्थर ढोने में लगे रहते हैं
स्कूल क्या है वे नहीं जानते
सिर्फ सिर पर पत्थर रखकर स्कूल तक ले जाना जानते हैं।
कवि रमेश दुबे

       इस समय जब सारी दुनिया प्रदूषण की समस्या से जूझ रही है तो कभी प्रदूषण के बारे में चिंता ना करें यह भला कैसे संभव है? प्रत्येक संवेदनशील व्यक्ति की भांति एक कवि भी समाज में व्याप्त समस्याओं पर मनन चिंतन करता है और उसकी तह तक पहुंचने का प्रयास करता है। रमेश दुबे की कविता जिसका शीर्षक है    'प्रदूषण' में उन्होंने परिवार के भीतर मौजूद प्रदूषण की बात उठाई है। दरअसल, यह प्रदूषण मानसिक प्रदूषण है जो विचारों को दूषित कर के घर के भीतर रिश्तों के बीच दीवारें खड़ी कर देता है। इस कविता पर गौर कीजिए-

अपने घर के द्वार
खिड़कियां खोल दिए जाएं
मेरी तरफ से कोई बाधा नहीं होगी उजियारे के आने में।
अवरोध तो अपने बच्चों द्वारा बंद किए गए खिड़की दरवाजे ही हैं, उनके कारण ही रुका हुआ है उजियारा ।
बच्चों ने घर में जगह-जगह दीवारें बनाकर रोक रखा है उजियारा, उनके कारण ही भीतर उसका प्रवेश नहीं हो रहा है
उनकी होशियारी, उनकी चालाकी उनकी कुशलता है बाधा बनी हुई है उजियारे के आने में।
कमरे में शुद्ध वायु का आना
गंदी वायु का निकल जाना ही
खुली खिड़कियों के रोशनदान और दरवाजों का योगदान है।


    जिस धरा पर मनुष्य का जीवन मौजूद है उस धरा और उस माटी की महत्ता को समझना भी मनुष्य के लिए आवश्यक है इसी मर्म को ध्यान में रखते हुए कवि रमेश दुबे ने 'माटी' शीर्षक से यह कविता लिखी है -

खुद को पूरा गलाकर
माटी गुणवान बन गई है अलग-अलग भागों में बंट गई है कुछ गमलों, मटकों और सुराही में बदल गई है
कुछ फूल और फुलवारी में बदल गई
कुछ खेतों और खलिहान में बदल गई
कुछ रूपवान बनकर आस्था की देवी बन गई
सारी दुनिया उसके चरणों में झुक गई
माटी पालनहार है माटी बिन सब सून
माटी में पैदा हुए माटी खाकर खड़े हुए
माटी से सब पल रहे खा-खा कर उसका अन्न
देश तरक्की कर रहा
उसी धरा पर पल रहा
माटी है तो जगत है
माटी बिन सब सून।



      रमेश दुबे की कविताओं का स्वरूप भले ही अनगढ़ प्रतीत हो किंतु उनके भावों और विचारों की गहनता उनकी कविताओं को प्रभावी बना देती है। उनकी कविताओं में मौजूद जीवन के प्रति चिंतन एवं चिंता दोनों ही महत्वपूर्ण ढंग से सामने आती हैं जो युवा कवियों का मार्ग प्रशस्त करने की दिशा में महत्वपूर्ण हैं।
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( दैनिक, आचरण  दि. 20.12.2019)
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