Friday, July 3, 2020

सागर: साहित्य एवं चिंतन | पुनर्पाठ 1 | पूंछ हिलने की संस्कृति | व्यंग्य संग्रह | डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh
प्रिय मित्रों, स्थानीय दैनिक समाचार पत्र "आचरण" में प्रकाशित मेरा कॉलम "सागर साहित्य एवं चिंतन " । जिसमें इस बार मैंने नई श्रंखला शुरू की है पुस्तकों के पुनर्पाठ की...पहली कड़ी के रूप में प्रस्तुत है - सागर नगर के सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार डॉ. सुरेश आचार्य का व्यंग संग्रह "पूंछ हिलाने की संस्कृति" का पुनर्पाठ।

 सागर: साहित्य एवं चिंतन

 पुनर्पाठ : पूंछ हिलने की संस्कृति

               -डॉ. वर्षा सिंह
                         
               पुस्तकों का महत्व जीवन में बहुत अधिक होता है और इस बात को हर पढ़ा लिखा व्यक्ति बखूबी समझ सकता है। पुस्तकें अनेक विधाओं की होती हैं। अनेक विषयों की होती हैं। कुछ किताबें जीवन के सिद्धांतों से परिचित कराती हैं, तो कुछ जीना सिखाती हैं और कुछ समाज को आइना दिखाती हैं। इसी तरह कुछ किताबें अपनी वैचारिक गुणवत्ता के कारण कहावत बनकर स्मृतियों से जुड़ जाती हैं। ऐसी ही एक पुस्तक है डाॅ सुरेश आचार्य का व्यंग्य संग्रह ‘‘पूंछ हिलाने की संस्कृति’’। इस व्यंग्य संग्रह का प्रथम संस्करण सन 1984 में प्रकाशित हुआ किन्तु इसकी प्रासंगिकता यथावत है। मैं इसे दसियों बार पढ़ चुकी हूं। मैं जितनी बार इस संग्रह को पढ़ती हूं उतनी ही बार इस के व्यंग्यों के विविध आयाम मेरे सामने आते हैं। यूं भी डॉ सुरेश आचार्य ने अपने एक अन्य ग्रंथ ‘‘व्यंग्य का समाज दर्शन’’ में व्यंग्य रचनाओं के बारे में लिखा है कि ‘‘ईमानदार व्यंग्य रचना सदैव सामाजिक यथार्थ से संबंधित होती है। यह कहीं भी अमूर्त नहीं होती बल्कि सदैव सत्य से साक्षात करती चलती है।  दैनंदिन जीवन के कष्ट आडंबर मिथ्याचार और अनीतियों का तिरस्कार, उद्घाटन और उपहास ही उसका लक्ष्य होता है।’’
            जब भी समाज में विद्रूपता आने लगती है तो व्यंग्य स्वतः जन्म लेने लगता है। इसीलिए व्यंग्य साहित्य का इतिहास बहुत पुराना है। हिंदी साहित्य में व्यंग्यय लेखन का आगमन बहुत पहले हो गया था स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व से ही व्यंग्य लेखन हिंदी साहित्य में चलन में आ गया था। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद इसमें एक अलग तरह की प्रखरता आ गई। तीखापन आ गया। भारतेंदु युग में अंग्रेजी शासन को लेकर अनेक व्यंग्य रचनाएं लिखी गईं। उस समय व्यंग्य का मूल उद्देश्य था स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए एक उद्दीपक वातावरण तैयार करना। भारतेंदु युग में बालकृष्ण भट्ट, राधाचरण गोस्वामी, प्रताप नारायण मिश्र, बद्रीनारायण चैधरी, बालमुकुंद गुप्त आदि ने राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और धार्मिक विषयों पर व्यंग्य लिखते हुए इन सभी क्षेत्रों में व्याप्त विसंगतियों पर जमकर प्रहार किया। भारतेंदु युग में व्यंग्य नाटक भी लिखे गए। जिनमें भारतेंदु हरिश्चंद्र का ‘‘अंधेर नगरी’’ सबसे प्रसिद्ध नाटक है। भारतेंदु युग के बाद द्विवेदी युग में व्यंग्य रचनाओं में वह धार नहीं रही जो भारतेंदु युग में थी। लेकिन परसाईं युग आते-आते यह विधा और अधिक मंज कर, तीखी होकर सामने आई। परसाई के बाद के क्रम में डॉ सुरेश आचार्य के व्यंग्यों में वह पैनी धार देखी जा सकती है।
पूंछ हिलाने की संस्कृति @ साहित्य वर्षा


           ‘‘पूंछ हिलाने की संस्कृति’’ व्यंग्य संग्रह का पहला व्यंग्य लेख इसी शीर्षक से है जिसमें डॉ सुरेश आचार्य ने समाज में व्याप्त चाटुकारिता को लक्षित करके करारा कटाक्ष किया है। वे लिखते हैं-  ‘‘सारे देश में उत्तर से दक्षिण और पूर्व से पश्चिम तक पूंछ हिलाने की संस्कृति जोर पकड़ रही है। समझदार पिता अपने नन्हों का कैरियर बनाने में लगे हैं। पूंछ हिलाऊ संघ बना रहे हैं। प्रशिक्षण चालू है - हां बेटा उछलो। अब आंखों में भक्तिभाव भरो। शाबाश! एक, दो, तीन। पूंछ  हिलाना शुरू करो। अपनी छोटी-छोटी दुमें लहराते हुए उछलते हैं।’’
          मनुष्य में स्वार्थ की भावना जब बलवती हो जाती है तो वह येन केन प्रकारेण लाभान्वित होना चाहता है। भले ही उसे इसके लिए किसी की चाटुकारिता ही क्यों ना करनी पड़े। राजनीतिक क्षेत्र में प्रायः यह प्रवृत्ति देखने को मिलती है। समाज के अन्य क्षेत्रों में भी चाटुकारों की कमी नहीं रहती है। अकसर देखा गया है कि जो चाटुकार होते हैं वे अपना स्वार्थ सिद्ध करने में कामयाब हो जाते हैं। चाहे अफसर की चाटुकारिता करके प्रमोशन पाने का मामला हो या परिवार में संपत्ति पाने के लिए अपने से बड़ों की चाटुकारिता करने का मामला हो, चाटुकार हमेशा फायदे में ही रहते हैं। वे किसी गुलाम की तरह लगातार ‘जी हां’ ‘जी हां’ करते हुए मानो किसी श्वान की भांति अपनी पूंछ हिलाते रहते हैं। वस्तुतः यही तो पूंछ हिलाने की संस्कृति है, विशुद्ध चाटुकारिता संस्कृति।
         डॉ सुरेश आचार्य के इस व्यंग्य संग्रह में और भी व्यंग्य हैं जैसे- जादू वाले वो जो हैं, किराए का मकान उर्फ बसना बलम का मन में, एक आदम की करुण-गाथा, छोटे गुरु की कथा, बिगड़ना बलम का और न खाना सुपारी, दो पैरों वाला कुत्ता, लौटना वापस जादुई चिराग का, फूल सिंग की लाज बचाई श्री भगवान ने, फूड ऑफिस में कविता कक्ष, खाना और रोना भारत मां के लाल का, जब मंत्री जी आए तो चले गए हनुमान, मूत्रपान करना: पिस्ते के स्वाद वाला, जाना और न जाना अस्पताल का, विश्रामगृहों की वेताल कथा, पुल का शिलान्यास उर्फ अध्यक्षता का धर्मयुद्ध, हथझोले में ईसीजी, पोजीशन सॉलिड है, द फटूरे आफ इंडिया, गढ़ाकोटा बारे कक्का और कैफ़ियत। ये सभी व्यंग्य अपने आप में विषयगत विविधता लिए हुए और कटाक्ष की दुधारी तलवार से सुसज्जित हैं। विशेष रुप से ‘‘पोजीशन सॉलिड है’’ एक और तीखा व्यंग्य है। जिसमें लेखक ने चुनाव के दौरान झूठे वादे और नेताओं के द्वारा फैलाए जाने वाले भ्रमजाल पर कटाक्ष किया है। यह अंश देखें - ‘‘सारे देश में नोच खाने की होड़ लगी है। संसार के सबसे बड़े लोकतंत्र में चुनाव भोजन का माध्यम हो गए हैं। मैं मुग्ध हूं। वाह रे मेरे देश के प्रजातंत्र... तूने कैसे कैसे कारीगर पैदा किए हैं। उप चुनाव सिर पर है। पानी इस साल गिरा नहीं। तालाब के कमल सूख रहे हैं। ज्वालामुखी, कांस और सेंवार पनप रही है। कीचड़ है। कचरा बढ़ रहा है और पोजीशन सॉलिड है।’’
        पूंछ हिलाने की संस्कृति व्यंग्य संग्रह एक ऐसी कृति है जिसकी प्रत्येक काल में प्रासंगिकता यथावत बनी रहेगी। जब तक समाज में चाटुकारिता भ्रष्टाचार और विसंगतियां है तब तक यह व्यंग्य संग्रह समसामयिक बना रहेगा। इसका जितनी बार पुनर्पाठ किया जाएगा यह अपने आस-पास की स्थितियों का आकलन करने की व्यक्ति की क्षमता को और अधिक बढ़ाएगा।
                  ---------------------
 
साहित्य वर्षा


( दैनिक, आचरण  दि. 03.07.2020)
#आचरण #सागर_साहित्य_एवं_चिंतन #वर्षासिंह #मेरा_कॉलम #पुनर्पाठ #पुस्तक #साहित्य #MyColumn #Varsha_Singh #डॉ_सुरेश_आचार्य #Sagar_Sahitya_Evam_Chintan #Sagar #Aacharan #Daily

No comments:

Post a Comment