Sunday, August 19, 2018

सागर : साहित्य एवं चिंतन - 8 डॉ. मनीष झा : सागर के साहित्याकाश के एक विशेष नक्षत्र - डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh

स्थानीय दैनिक समाचार पत्र "आचरण" में प्रकाशित मेरा कॉलम "सागर साहित्य एवं चिंतन " । जिसमें इस बार मैंने लिखा है मेरे शहर सागर के वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. मनीष झा के साहित्यिक अवदान पर। पढ़िए और मेरे शहर के साहित्यिक परिवेश को जानिए ....

सागर : साहित्य एवं चिंतन
डॉ. मनीष झा : सागर के साहित्याकाश के एक विशेष नक्षत्र
- डॉ. वर्षा सिंह

चयनित साहित्य से तादात्म्य स्थापित किए बिना अनुवादकार्य नहीं किया जा सकता है। उस पर पद्यानुवाद का कार्य तो और अधिक धैर्य, ज्ञान, सतर्कता और समर्पण की मांग करता है। पद्यानुवाद करने वाले के लिए यह अत्यावश्यक हो जाता है कि वह मूल सामग्री के मर्म को आत्मसात करे और साथ ही उसे इतना प्रचुर शब्द ज्ञान हो कि वह मूल के मर्म को काव्यात्मकता के साथ प्रस्तुत करने के लिए सही शब्द का चयन कर सके। जिससे मूल सामग्री अपने पूरे प्रभाव के साथ पद्यानुवाद में ढल सके। डॉ. मनीष चंद्र झा ने ‘‘श्रीमद्भगवद्गीता’’ का पद्यानुवाद ‘गीतगीता’ के रूप में करते हुए पद्यानुवाद के सभी मानकों पर खरे उतरे हैं। उन्होंने पद्यानुवाद में भी कठिन मार्ग को चुना। डॉ. झा ने ‘गीता’ के श्लोकों को मुक्तछंद में नहीं बल्कि छंदबद्ध करते हुए दोहे और चौपाइयों में उतारा है। छंद अपने आप में विशेष श्रम मांगते हैं और यह श्रम डॉ. झा ने किया है।

बायें से:- डॉ. मनीष झा, डॉ. वर्षा सिंह, अयाज़ सागरी एवं  क्रांति जबलपुरी

26 सितम्बर 1969 में भागलपुर (बिहार) के ग्राम भ्रमरपुर में जन्मे डॉ. मनीष चंद्र झा ने मध्यप्रदेश के जबलपुर मेडिकल कॉलेज से एम.बी. बी. एस. तथा एम.एस. (अस्थिरोग) की उपाधि प्राप्त करने के बाद चिकित्साकार्य के लिए सागर नगर को अपने कार्यस्थल के रूप में चुना। उल्लेखनीय है कि उनकी जीवनसंगिनी डॉ. आराधना झा भी अस्थिरोग विशेषज्ञ हैं। सागर नगर के चिकित्सा क्षेत्र में झा दंपत्ति एक प्रतिष्ठित नाम हैं। चिकित्सा के साथ ही डॉ. मनीष चंद्र झा की साहित्य में भी अपार रूचि है और इसी रूचि के परिणाम स्वरूप उनकी प्रथम कृति ‘गीतगीता’ के रूप में पाठकों के सामने आई। 

बायें से:- डॉ. विद्यावती मालविका, डॉ. वर्षा सिंह, डॉ. मनीष झा एवं डॉ. (सुश्री ) शरद सिंह

‘‘श्रीमद्भगवद्गीता’’ का महत्व आज भी प्रसंगिक है। आज के उपभोक्तावादी युग में व्यक्ति कोई भी काम करने से पहले उसके अच्छे परिणाम पाने की कामना करने लगता है और इस चक्कर में वह अपना संयम गवां बैठता है। ऐसे में अच्छे परिणाम नहीं मिलते हैं और वह हताश हो कर ग़लत क़दम उठाने लगता है। अतः आज के वातावरण में ‘गीता’ का यह सुप्रसिद्ध श्लोक मार्गदर्शक का काम करता है-
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतु र्भूर्मा ते संगोस्त्वकर्मणि ।।

इस श्लोक का सुंदर पद्यानुवाद डॉ. मनीष चंद्र झा ने इन शब्दों में किया है-
कहि प्रभु फल तजि कामनाए कर्म करे निष्काम।
संयासी योगी वही, नहिं अक्रिय विश्राम।।
Sagar - Sahitya awam Chintan -8 Dr Manish Jha - Sagar Ke Sahityakash Ke Ek Vishesh Nakshatra - Dr Varsha Singh
इसी तरह वर्तमान जीवन में दिखावा इतना अधिक बढ़ गया है कि मन की शांति ही चली गई है। यह भी मिल जाए, वह भी मिल जाए की लालसा व्यक्ति को निरन्तर भटकाती रहती है। आज युवा पीढ़ी कर्मशील मनुष्य नहीं बल्कि ‘पैकेज़’ में क़ैद दास बनते जा रहे हैं। दुख की बात यह है कि उन्हें इस दासत्व के मार्ग में माता-पिता और अभिभावक ही धकेलते हैं। जबकि ऐसा करके वे अपने बुढ़ापे का सहारा भी खो बैठते हैं। इस संबंध में ‘‘श्रीमद्भगवद्गीता’’ में कहा गया है -
विहाय कामान्यः कर्वान्पुमांश्चरति निस्पृहः।
निर्ममो निरहंकार स शांति मधि गच्छति।।
अर्थात् मन में किसी भी प्रकार की इच्छा व कामना को रखकर मनुष्य को शांति प्राप्त नहीं हो सकती। इसलिए शांति प्राप्त करने के लिए सबसे पहले मनुष्य को अपने मन से इच्छाओं को मिटाना होगा। तभी मनुष्य को शांति प्राप्त होगी। डॉ. मनीष चंद्र झा के शब्दों में इसी भाव को देखिए -
विषयन इन्द्रिन के संयोगा, जे आरम्भ सुधा सम भोगा।
अंत परंतु गरल सम जेकी, वह सुख राजस कहहि विवेकी।।

धृतराष्ट्र संजय से कहते हैं कि कुरुक्षेत्र के युद्धीभूमि पर जो भी हो रहा है, वह मुझे अपनी दिव्यदृष्टि से देख कर बताओ-
कहि राजा धृतराष्ट्र हे संजय कहो यथार्थ।
धर्म धरा कुरुक्षेत्र में, जिन ठाड़े समरार्थ।।
मेरे सुत औ पांडु के, सैन्य सहित सब वीर।
कौन जतन करि भांति के, देखि बताओ धीर।।

इस पर संजय अपनी दिव्यदृष्टि से कुरुक्षेत्र का विवरण देना आरम्भ करते हैं-
संजय कहि देखि भरि नैना, व्यूह खड़े पांडव की सेना।
द्रोण निकट दुर्योंधन जाई, राजा कहे वचन ऐहि नाई।।

ऐसा सरल पद्यानुवाद किसी भी पाठक के मन-मस्तिष्क को प्रभावित कर के ही रहेगा। यह समय भी ‘गीता’ के उपदेशों को अपने जीवन में उतारने का है। आज ‘‘श्रीमद्भगवद्गीता’’ के महत्व को सभी स्वीकार रहे हैं। बड़े-बड़े मैनेजमेंट गुरु ‘‘श्रीमद्भगवद्गीता’’ में मैनेजमेंट के गुर ग्रहण कर लोगों को बता रहे हैं। जीवन को सही दिशा देने वाली ‘‘श्रीमद्भगवद्गीता’’ का सरल भाषा में पद्यानुवाद कर डॉ. मनीष चंद्र झा ने अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य किया है। उन्होंने ‘गीता’ को सामान्य बोलचाल की भाषा में अनूदित कर सामान्य जन के लिए ‘गीता’ के मर्म को समझने योग्य बना दिया है।

बायें से:- डॉ. मनीष झा, डॉ. (सुश्री) शरद सिंह एवं असरार अहमद
 यूं तो डॉ. मनीष चंद्र झा आकाशवाणी और दूरदर्शन में भी अपनी छंदमुक्त और छंदबद्ध रचनाओं का पाठ कर चुके हैं तथा साहित्यसृजन में सतत् सक्रिय रहते हैं किन्तु इसमें कोई संदेह नहीं है कि ‘गीतगीता’ उनकी एक अनुपमकृति है और उन्हें सागर के साहित्याकाश में एक विशेष नक्षत्र की भांति स्थापित करती है।
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( दैनिक, आचरण दि. 10.05.2018)
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