Dr. Varsha Singh |
नवसंवत्सर 2076 का आरम्भ 6 अप्रैल 2019 से हो रहा है। ज्योतिषशास्त्र के अनुसार है कि जिस दिन से नया संवत् आरंभ होता है उस दिन के ग्रह को वर्ष का राजा माना जाता है। वर्ष के राजा का अपना वाहन होता और वाहनों के अनुसार वर्ष का ज्योतिषी आकलन किया जाता है। इस वर्ष राजा का वाहन भैंसा होगा।
नवसंवत्सर के प्रथम मास चैत्र में नवरात्रि में देवी के नौ रूपों की आराधना की जाती है। माता दुर्गा के सिद्ध क्षेत्रों में विशेष रूप से श्रद्धालुओं की भीड़ मेले के रूप में एकत्र होती है।
मध्यप्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र में सागर जिले की रहली तहसील का ग्राम रानगिर न केवल सुरम्य वन ,सुंदर पर्वत श्रृंखलाओं और कलकल करती देहार नदी की प्राकृतिक सुंदरता के लिए जाना जाता है, बल्कि- यह गाँव दक्षप्रजापति की पुत्री और भगवान शिव की पत्नी सती की स्मृतियों को भी ताज़ा किये हुए है ।
रानगिर में शब्द का शाब्दिक अर्थ देखें तो रान अर्थ है जंघा जो कि संस्कृत के ऊरू शब्द का समानार्थी है ।
देवी हरसिद्धि रानगिर, साहित्य वर्षा |
एक जनश्रुति के अनुसार जब सती ने यज्ञ-कुण्ड में कूदकर अपना देह-त्याग कर दिया था तो उनके शरीर के बावन खण्ड हो गए थे जो पवनदेव द्वारा भारत के विभिन्न बावन स्थलों पर गिरा दिए गए थे, ये सभी स्थल आज भी भारतीय धर्म मनीषा में बावन शक्तिपीठ के नाम से विख्यात हैं। यह भी मान्यता है कि यहाँ सती की रानें अर्थात् जंघाएँ गिरी थीं इसलिए इस स्थान का नाम रानगिर पड़ा ।
देवी हरसिद्धि रानगिर, साहित्य वर्षा |
इस हिन्दू धार्मिक स्थल में पुराण प्रसिद्ध मां हरसिद्धि का मंदिर है । मंदिर के परकोटे का प्रवेशद्वार पूर्व दिशा में है, जिससे कुछ सीढ़ियां उतरकर हम मंदिर की परिधि में पहुंचते हैं । इस धार्मिक स्थल तक जाने के दो मार्ग हैं एक मार्ग है सागर शहर से दक्षिण में झांसी-लखनादौन राष्ट्रीयकृत राजमार्ग क्र. 26 पर 24 कि.मी. चलकर तिराहे से पूर्व में 8 कि.मी. पक्की सड़क से सीधे मंदिर पहुंचा जा सकता है, और दूसरा मार्ग है रहली से सागर मार्ग पर 8 कि.मी. चलकर पांच मील से दक्षिण में पक्की सड़क से 12 कि.मी. चलने पर सीधे मंदिर ही पहुंचता है।
देवी हरसिद्धि रानगिर, साहित्य वर्षा |
यह विशेष बात है कि रानगिर में विराजमान मां हरसिद्धि की प्रतिमा देखने में अनगढ़ प्रतीत होती है जैसे इसे किसी शिल्पी ने नहीं गढ़ा अन्यथा यह अधिक सुंदर और सुडौल होती और न ही किसी पुरोहित ने इस प्रतिमा की प्राण-प्रतिष्ठा की अन्यथा यह भूमितल से ऊंचे मंदिर में ऊंची वेदिका पर विराजमान होती जबकि यह प्रतिमा भूमितल से नीचे विराजमान है । वस्तुतः कन्या रूप धारिणी यह प्रतिमा ऐंसे दृष्टिगोचर होती है जैसे कोई कन्या यहां खड़ी-खड़ी पाषण में रूपांतरित हो गई हो ।
एक किंवदंती भी है कि रानगिर में एक अहीर था जो दुर्गा का परम भक्त था उसकी नन्हीं बेटी जंगल में रोज़ गाय-भैंस चराने जाती थी जहाँ पर उसे एक कन्या रोज़ भोजन भी कराती थी और चांदी के सिक्के भी देती थी ।यह बात बिटिया रोज़ अपने पिता को सुनाती थी । एक दिन झुरमुट में छिपकर अहीर ने देखा कि एक दिव्य कन्या बिटिया को भोजन करा रही है तो वह समझ गया कि यह तो साक्षात जगदम्बा हैं जैसे ही अहीर दर्शन के लिए आगे बढ़ा तो कन्या अदृश्य हो गई और उसके बाद वहां यह अनगढ़ पाषाण प्रतिमा प्रकट हो गई और इसके बाद इसी अहीर ने इस प्रतिमा पर छाया प्रबंध कराया तब से प्रतिमा आज भी उसी स्थान पर विराजमान है ।
देवी हरसिद्धि रानगिर, साहित्य वर्षा |
अनेक जनश्रुतियों के अनुसार शिवभक्त रावण ने इस पर्वत पर घोर तपस्या की फलस्वरूप इस स्थान का नाम रावणगिरि रखा गया जो कालांतर में संक्षिप्त होकर रानगिर बन गया । किंतु पुराण-पुरुष भगवान राम ने भी वनवास के समय इस पर्वत पर अपने चरण रखें हों और इस पर्वत का नाम रामगिरि रखा गया हो जो अपभ्रंश स्वरूप आज का रानगिर बन गया हो ऐंसा भी संभव प्रतीत होता है क्योंकि इस पर्वत के समीप स्थित एक गाँव आज भी रामपुर के नाम से जाना जाता है
देवी हरसिद्धि, रानगिर, साहित्य वर्षा |
इस प्नाचीन स्थल रानगिर के बारे में बहुत सारी किवदन्तियां मौजूद है, रानगिर क्षेत्र को रावण गिरी के नाम से भी जाना जाता है। इस स्थान को लेकर प्रचलित कथाओं व किवदंतियों में इस बात का जिक्र आता है कि रावण ने खुद को और ज्यादा बलशाली बनाने के लिए यहां गौरीदांत की पहाड़ी कंदराओं में घोर तपस्या की थी। स्वामी सियावरदास जी भी रानगिर की गुफाओं में तपस्या करते थे। वे अक्सर बताया करते थे कि इन्हीं गुफाओं में की कभी रावण ने भी साधना की। इसी कारण से इसका नाम रावण गिरी पड़ा। धीरे-धीरे इसे रानगिर कहने लगे। मार्कंडेय ऋषि भी यहां धूनी रमा चुके हैं। । एक और किवदंतियों के अनुसार कहा जाता है कि वनवास काल के दौरान अयोध्यानरेश रामजी के चरण भी इस भूमि पर पड़े, जिससे इसे रामगिरी के नाम से भी जाना गया। बुंदेलखंड की धरा पर छत्रसाल बुंदेला और धामौनी के मुगल शासक फौजार खलिक के बीच युद्ध भी इसी स्थान पर हुआ था। इस युद्ध में छत्रसाल विजयी हुए। जिसके बाद राजा छत्रसाल ने यहां हरसिद्धी के मंदिर का निर्माण कराया।
देवी हरसिद्धि, रानगिर, साहित्य वर्षा |
विद्वान इतिहासकारों के अनुसार 1732 में सागर का रानगिर परगना मराठों की राजधानी था। जिसके शासक पं गोविंदराव थे। 1760 में पं गोविंदराव की मृत्यु के बाद यह स्थल खंडहर में तब्दील हो गया। यहां पर सन 1939 के लगभग हर साल बलि प्रथा और हिंसक कर्मकांड प्रचलित थे। गौरीपर्वत में बहुत सी कन्दरायें मौजूद है जो कितनी गहरी है इसका पता लगाना तो कठिन है । शिलाओं के लेख के अनुसार सन 1986 के आस-पास कुछ धर्मावलबियों ने यहां की शिलाओं पर मानजीवन से जुड़ी कल्याणकारी, देशभक्ति से ओतप्रोत कथन ऊंची शिलाओं, चट्टानों पर पाली भाषा, ब्राहृी लिपि, हिन्दी, अंग्रेजी में उकेरी। यहां से दूर-दूर तक फैला दुर्दान्त जंगल का दृश्य दर्शनीय है, वन्यजीवों की बहुलता के कारण यह क्षेत्र अंग्रेजों व शिकारियों की पसन्दीदा जगहों में रहा। देहार नदी के किनारे बरबस ही मनमोह लेते हैं।
देहार नदी , रानगिर, साहित्य वर्षा |
इस मंदिर निर्माण के बारे में यह भी कहा जाता है कि 1726 ईस्वी में इस पर्वत पर महाराजा छत्रसाल और धामोनी के फ़ौज़दार ख़ालिक के बीच युद्ध हुआ था यद्यपि महाराजा छत्रसाल ने सागर जिला पर अनेक बार आक्रमण किया जिसका विवरण लालकवि ने अपने ग्रंथ छत्रप्रकाश में इस प्रकार किया है –
“वहाँ तै फेरी रानगिर लाई , ख़ालिक चमूं तहौं चलि आई,
उमड़ि रानगिर में रन कीन्हों,ख़ालिक चालि मान मैं दीन्हौं”
इस लड़ाई में महाराजा छत्रसाल विजयी हुए थे तो हो सकता है रानगिर की महिमा से प्रभावित होकर उन्होंने ही मंदिर का निर्माण करवाया हो पर यह मूलतः अनुमान ही है ।
देवी हरसिद्धि, रानगिर, साहित्य वर्षा |
रानगिर के मंदिर का निर्माण दुर्ग-शैली में किया गया है बाहरी परकोटे से चौकोर बरामदा जोड़ा गया है जिसकी छत पर चढ़कर ऊपर ही ऊपर मंदिर की परिक्रमा की जा सकती है।
प्रसिद्ध ग्रंथ दुर्गा सप्तशती में दुर्गा कवच के आधार पर स्वयं ब्रह्मा जी ऋषियों को नवदुर्गा के नामों का उल्लेख करते हुए कहते है कि-
“प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी ।
तृतीयं चंद्रघण्टेति, कूष्माण्डेति चतुर्थकम् ।
पंचमं स्कंदमातेति,षष्ठं कात्यायनीति च ,
सप्तमं कालरात्रीति,महागौरीति चाष्टमम् ।
नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गा प्रकीर्तिताः।।
अर्थात् नवीं देवी सिद्धिदात्री भक्तों की मनोकामनाएं सिद्ध करने बाली देवी ही रानगिर में हरसिद्धि के रूप में विराजमान हैं
देवी हरसिद्धि, रानगिर, साहित्य वर्षा |
यहां पर यह मान्यता है की यह अनगढ़ प्रतिमा आज भी अपने भक्तों को प्रातःकाल कन्या, मध्याह्नकाल युवती और सांध्यकाल में वृद्धा के रूप में दर्शन देती हैं ।
वैसे मंदिर के अधिक पुरातन न होने के बाबज़ूद भी इस स्थान के पुरातन और सिद्ध होने के प्रमाण अवश्य मिलते हैं यहाँ पहले मंदिर दूर जंगल में भक्त अपनी मुराद पूरी होने पर पशुबलि देते थे। प्रसिद्ध गौभक्त रामचन्द्र शर्मा”वीर”ने 1930 से 1940 के बीच इस स्थल की तीन बार यात्रा कर विशाल जनांदोलन खड़ा करके पशुबलि प्रथा को समाप्त कराया था जिसका उल्लेख उन्होंने अपनी पुस्तक “विकटयात्रा” में भी किया है । नरबलि के ठोस प्रमाण तो अब यहाँ नहीं मिलते पर अभी भी यहाँ होने बाली पुरातन नरबलि की चर्चा जनश्रुतियों में हो ही जाती है ।
देवी हरसिद्धि, रानगिर, साहित्य वर्षा |
रानगिर तक जाने बाले दोनों मार्गों के किराने सागौन, तेंदू और पलाश के सघन वनों के साथ कहीं-कहीं पर आम,जामुन और आंवले के फलदार वृक्षों के बीच संयोग से वामपंथ में बहती हिमधवल सलिला देहार नदी,उत्तर में गौरीदांत पर्वत के नतोन्नत शिखर
पूर्व में विशाल सरोवर , पश्चिम में रानगिर गाँव के लिपे-पुते, कच्चे-पक्के घरों का नयनाभिराम दृश्य निश्चित ही किन्नर लोक का अवगाहन करता है । जनश्रुति है कि इन शिखरों पर सती के दांत गिरे थे इसलिए इस पर्वत का नाम गौरीदांत पड़ा।
देवी हरसिद्धि, रानगिर, साहित्य वर्षा |
मध्यप्रदेश का प्रसिद्ध तीर्थ होने के कारण यहाँ प्रतिवर्ष चैत्र शुक्ल पंचमी से चैत्र शुक्ल एकादशी तक विशाल मेले का आयोजन भी होता है जिसमें सुदूर प्रांतों से भी श्रद्धालुओं का आवागमन होता है।
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