क्षेत्र की संस्कृति और सभ्यता को पहचानने में लोकगीतों का अभूतपूर्व योगदान रहता है। बुंदेलखंड की पहचान भी यहां की लोक भाषा बुंदेली में गाए जाने वाले लोकगीत हैं। बुंदेली बोली बहुत मीठी, सरल, सहज, प्रेम और लालित्य से भरी बोली-भाषा है , जिसकी अपनी अलग पहचान है।
लोकगीतों में लोक अर्थात् जनजीवन का सच्चा दर्द, रस-उल्लास, आनंद-उत्सव, रीति-रिवाज, लोक परंपराएं, राग-विराग और सुख-दुख के आख्यान साथ ही आत्मसम्मान, आत्मगौरव और स्वाधीनता की अनकही बातें व्यक्त होती हैं। किसी जनपद या ग्रामांचल के लोकगीतों में ढलकर हवा में गूँज उठने वाले स्वर ही गाँव की सीधी-सादी अनपढ़ जनता के गीत हैं, पर वे इस भारत देश की महान संस्कृति और हजारों बरस पुरानी लोक परंपराओं के वाहक भी हैं, जिनसे इस देश की कोटि-कोटि जनता के मन और आत्मा का साक्षात्कार किया जा सकता है। अलग-अलग बोलियाँ और भाषा बोलने वाले जनपद और ग्रामांचलों के ये लोकगीत मिलकर एक ऐसा साझा पुल बनाते थे, जिसे समझे बिना इस महान देश की हजारों बरस पुरानी सभ्यता और संस्कृति को समझना असंभव है। ज्यादातर लोकगीत गांव की पृष्ठभूमि से उपजे हैं। लेकिन ‘लोक’ की परिव्याप्ति ज्यादा है तथा वह एक ऐसी चेतना की उपज है जो मनुष्य और मनुष्य में फर्क नहीं करती, ग्रामीण और शहरी जीवन में भी नहीं। लोक साहित्य पर सबसे पहला अधिकार जनता का है, ‘धरतीपुत्रों’ का है. पढ़े-लिखे बुद्धिजीवी, तथाकथित संस्कृति चिंतक और विश्वविद्यालयों के प्रोफेसर इनकी बारीक-बारीकतर व्याख्याएँ भले ही कर लें, पर रहेंगी ये ग्राम्य जीवन की धरोहर ही।
चिर-परिचित शब्द, चिर-परिचित बातें, चिर-परिचित स्वर... यही लोकगीत की शक्ति है। कोई गीत पहाड़ी पगडंडी के समान ऊँचा-नीचा तो कोई समतल प्रदेश के दूर तक फैले हुए क्षितिज की छवि लिए हुए, नीरव, उदास दोपहरी के गीतों का प्रतिरूप होता है तो कोई गीत रात्रि के गीतों का प्रतिरूप। समय-चक्र के साथ लोकगीत के पहिए निरंतर चलते रहते हैं।
बुंदेलखंड क्षेत्र हमेशा से वीरता का प्रतीक रही है। महाराज छत्रसाल बुंदेला ने मुगलशासक औरंगजेब के समक्ष कभी घुटने नहीं टेके।
हार ना मानी छत्ता तैंने
मुगलन को दई धूर चटाय।
कभऊं ना हिम्मत हारी तनकऊ
महाबली राजा कहलाय।
बुंदेलखंड में "आल्हा" गायन की परम्परा आज भी कायम है। प्रसिद्ध आल्ह- रुदल तेईस मैदान और बावन लड़ाइयों की सप्रसंग व्याख्या है, जिसको सुनकर ही लोग वीरता की भावना से ओत- प्रोत हो जाते हैं। आल्ह खंड में प्रेम और युद्ध के प्रसंग घटना- क्रम में सुनाये जाते हैं। पूरे काव्य में नैनागढ़ की लड़ाई सबसे रोचक व लोकप्रिय मानी जाती है।
अन्य कई लोक- गाथाओं की तरह आल्ह- रुदल भी समय के साथ अपने मूल रुप में नहीं रह गया है। इसने अपने आँचल में नौं सौ वर्ष समेटे हैं। विस्तार की दृष्टि से यह राजस्थान के सुदूर पूर्व से लेकर आसाम के गाँवों तक गाया जाता है। इसे गानेवाले "अल्हैत' कहलाते हैं। साहित्यिक दृष्टि से यह "आल्हा' छंद में गाया जाता है। हमीरपुर (बुंदेलखंड) में यह गाथा "सैरा' या "आल्हा' कहलाती है। इसके अंश "पँवाड़ा', "समय' या "मार' कहे जाते हैं। सागर, दमोह में भी आल्हा गायकों की कमी नहीं। वीरता के लोकमूल्य को उजागर करती ' आल्हा' की कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं-
मानसु देही जा दुरलभ हैस आहै समै न बारंबार ।
पात टूट कें ज्यों तरवर को कभऊँ लौट न लागै डार ।।
मरद बनाये मर जैबे कों खटिया पर कें मरै बलाय ।
जे मर जैहैं रनखेतन मा, साकौ चलो अँगारुँ जाय ।।
इन पंक्तियों में युद्ध के मैदान में वीरतापूर्वक जूझ जाने को परम मूल्य माना गया है और उसी में व्यक्ति और समाज के युगधर्मी कल्याण अंतर्निहित हैं । विदेशी आक्रमणकारियों से सुरक्षा में सभी का हित है और मनुष्य की देह को दुर्लभ मानने में मानव और मानवता की गरीमा सुरक्षित है । यूद्ध में मृत्यु का वरण करने से कीर्ति पाने का लोकविश्वास बहुत प्राचीन है और जब तक युद्ध रहेगा, तब तक बना रहेगा । इसी तरह शरीर को पेड़ के पत्ते की तरह नश्वर मानना भी शाश्वत लोकमूल्य है, जो आज भी लोकप्रचलित है।
बुंदेलखंड की प्रसिद्ध लोकगाथाएं
'मनोगूजरी' और 'मथुरावली' नारी के बलिदान की प्रामाणिक गवाह हैं । मथुरावली खड़ी-खड़ी जल जाती है, उसका भाई कहता है-
राखी बहना पगड़ी की लाज,
बिहँस कहें राजा बीर,
ठाँड़ी जरै मथुरावली ।
दरअसल पगड़ी पुरुष के मान-सम्मान और प्रतिष्ठा की प्रतीक है। पगड़ी की लाज रखना उस समय का प्रमुख लोकमूल्य था, क्योंकि अनेक लोकगीतों में इसे प्रधानता मिलती है ।
स्वाधीनता संग्राम की बुनियादी प्रेरणा लोकगीतों - लोकगाथाएं से मिलती रही है।
सन् 1857 के विप्लवियों की वीरता पर एक से एक अद्भुत लोकगीत गाए गए। कई गीतों में वीर कुँवरसिंह और रानी लक्ष्मीबाई की वीरता का रोमांचकारी बखान है। ऐसे ही एक गीत में राजा बेनीमाधवबख्श सिंह की वीरता का अद्भुत का वर्णन है। अंग्रेज बार-बार चिट्ठी लिखकर उन्हें अपने साथ मिलने के लिए मना रहे हैं, उधर उनकी वीरता और पराक्रम ने अंग्रेजी सेना को दहला दिया है-
राजा बहादुर सिपाही अवध में,
धूम मचाई मोरे राम !
लिख-लिख चिठिया लाट ने भेजा,
आव मिलो राना भाई मोरे राम !
जंगी खिलत लंदन से मँगा दूँ,
अवध में सूबा बनाई मोरे राम !
जब तक प्राण रहें तन भीतर,
तुम कन खोद बहाई मोरे राम !
.... और 1940 के दशक में लोकप्रिय यह लोकगीत देखें, जिसमें तिरंगे झंडे के प्रति उच्च सम्मान की भावना झलकती है -
तीन रंग को प्यारो तिरंगा
ईको मान रखो भैय्या।
देस हमाओ जान से प्यारो
इतनो भान रखो भैय्या ।
इस लोकगीत में अंग्रेजी हुकूमत के प्रति नफ़रत की भावना दिखाई देती है -
गोरी मेम बनो ना बिन्ना
चलो चलिए भरन खों पनिया
हमसे कभऊं ना करियो बिन्ना
लाट- गवरनर की बतिया
... और यह एक अन्य लोकगीत -
विपदा सहत है धरती मइया,
कोऊ बखर हांके तो कोेऊ हाकें गइंया
अंगरेजन की हुकुम हुकूमत
हमाई लेत कौनऊ खबर नइंया
डांडी मार्च के समय जनमन को प्रतिध्वनित करने वाला यह लोकगीत भी सर्वत्र गूंजा था-
काहे पे आवें बीर जवाहर, काहे पे गांधी महराज?
काहे पे आवें भारत माता, काहे पे आवे सुराज ?
घोड़े पे आवें बीर जवाहर, पैदल गांधी महराज।
हाथी पे आवें भारत माता डोली पे आवे सुराज।
लोकगीत लोक के गीत हैं। जिन्हें कोई एक व्यक्ति नहीं बल्कि पूरा लोक समाज अपनाता है। बुंदेलखंड के ये लोकगीत भी बुंदेलखंड ही नहीं वरन् पूरे देश की धरोहर हैं।
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#मनोगूजरी #मथुरावली #छत्रसाल
शानदार रचना । मेरे ब्लॉग पर आप का स्वागत है ।
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद....
Deleteमैंने आपका ब्लॉग follow कर लिया है।
वाह!बहुत ही शानदार ...बुंदेलखंड के बारे में रौचक जानकारी देश प्रेम से ओतप्रोत।
ReplyDeleteसादर प्रणाम दी।
प्रिय अनीता सैनी जी बहुत बहुत हार्दिक धन्यवाद आपको 💐🙏💐
Deleteबुंदेलखंड के लोक-तत्वों का बहुत ही सुंदर और जीवंत चित्रण। ऐसे लेख आज के समय की मांग हैं। बधाई और आभार।
ReplyDeleteबहुत बहुत हार्दिक धन्यवाद विश्वमोहन जी 🙏💐🙏
Deleteनव-अनुभूति देती इस अंक हेतु बधाई और स्वतंत्रता दिवस की अग्रिम शुभकामनाएँ।
ReplyDeleteपुरुषोत्तम कुमार सिन्हा जी, बहुत बहुत धन्यवाद आपको 🙏
Deleteस्वतंत्रता दिवस पर आपको भी हार्दिक शुभकामनाएं 🙏💐
जी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शनिवार (१५-०८-२०२०) को 'लहर-लहर लहराता झण्डा' (चर्चा अंक-३७९७) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है
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अनीता सैनी
हार्दिक आभार अनीता सैनी जी 🙏
Deleteबुन्देलखण्ड वीरों की भूमि रहा है ,लोकमानस अपने वीरों की गाथाएँअपने स्वरों में गाता रहता है.कि आगत पीढ़ियाँ उनसे परिचित रहें.
ReplyDeleteजी हां प्रतिभा जी, सही कहा आपने 🙏
Deleteहार्दिक धन्यवाद एवं स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं 🇮🇳🙏🇮🇳
बहुत ही सुंदर संकलन,बुन्देल खंड के बारे में अच्छी जानकारी, स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं वर्षा जी
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद कामिनी जी 🙏
Deleteबहुत ही सुन्दर बुन्देलखण्डी लोकगीतों के साथ लोकगीतों पर शानदार लेख...
ReplyDeleteवाह!!!
हार्दिक धन्यवाद सुधा जी 🙏
Deleteहार ना मानी छत्ता तैंने
ReplyDeleteमुगलन को दई धूर चटाय।
कभऊं ना हिम्मत हारी तनकऊ
महाबली राजा कहलाय।
उल्लेख न किया जाए डॉ. वर्षा सिंह (सागर )का चर्चा अधूरी रहेगी।
मानसु देही जा दुरलभ हैस आहै समै न बारंबार ।
पात टूट कें ज्यों तरवर को कभऊँ लौट न लागै डार ।।
मरद बनाये मर जैबे कों खटिया पर कें मरै बलाय ।
जे मर जैहैं रनखेतन मा, साकौ चलो अँगारुँ जाय ।।
साम्य देखियेगा :
बड़े भाग मानुस तनु पावा ,
सुर दुर्लभ सब ग्रंथहि गावा ,
साधन धाम मोच्छ कर द्वारा ,
पाइ न जेहिं परलोक सिधारा।
इसी तरह शरीर को पेड़ के पत्ते की तरह नश्वर मानना भी शाश्वत लोकमूल्य है, जो आज भी लोकप्रचलित है।यहां भी एक और साम्य देखिये :
तरुवर बोला पात से सुनो पात एक बात ,
या घर याही रीति है ,एक आवत एक ज़ात।
लोकगीत लोक के गीत हैं। जिन्हें कोई एक व्यक्ति नहीं बल्कि पूरा लोक समाज अपनाता है। बुंदेलखंड के ये लोकगीत भी बुंदेलखंड ही नहीं वरन् पूरे देश की धरोहर हैं।
एक कलम कार के बतौर डॉ वर्षा सिंह भी हमारी राष्ट्रीय धरोहर हैं।संभाल के रखना है इन्हें हम सबको।
वीरू भाई
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आपकी इस अनमोल टिप्पणी हेतु हार्दिक धन्यवाद वीरेंद्र शर्मा जी 🙏
Deleteबचपन में सुने थे आल्हा उदल के जोश भरे गीत जबलपुर में. धुन तो याद आती है पर बोल नहीं.
ReplyDeleteआप आल्हा उदल कहना चाहते हैं या फिर आल्हा रुदल?
बहुत धन्यवाद हर्षवर्धन जी 🙏
Deleteसही नाम आल्हा ऊदल ही है , न कि आल्हा रुदल...