Saturday, January 2, 2021

सागर: साहित्य एवं चिंतन | पुनर्पाठ 15 | जगत मेला चलाचल का | काव्य संग्रह | डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh

प्रिय ब्लॉग पाठकों, स्थानीय दैनिक समाचार पत्र "आचरण" में प्रकाशित मेरे कॉलम "सागर : साहित्य एवं चिंतन " में पुस्तकों के पुनर्पाठ की श्रृंखला के अंतर्गत पंद्रहवीं कड़ी के रूप में प्रस्तुत है - सागर नगर के वयोवृद्ध साहित्यकार निर्मलचंद "निर्मल" की पुस्तक "जगत मेला चलाचल का" का पुनर्पाठ।
हार्दिक आभार आचरण 🙏
     

सागर: साहित्य एवं चिंतन

       पुनर्पाठ: जगत मेला चलाचल का

                 - डॉ. वर्षा सिंह

                              

इस बार पुनर्पाठ के लिए मैंने चुना है एक ऐसी पुस्तक को यूं तो जिसका प्रकाशन वर्ष 2020 में ही हुआ है किन्तु इसे मैं कई बार पढ़ चुकी हूं और मुझे लगता है कि जो भी पाठक इस पुस्तक को पढ़ेगा वह पुस्तक के मूल मर्म की गहराई में उतरने और चिन्तन करने के लिए इसे बार-बार पढ़ेगा। ‘‘जगत मेला चलाचल का’’ सागर नगर के कवि निर्मलचंद ‘‘निर्मल’’ का काव्य संग्रह हैं जिसमें रोजमर्रा के जीवन से जुड़े तथ्यों के साथ ही जगत की संरचना एवं उपादेयता की काव्यात्मक व्याख्या की गई है। इस संग्रह में संग्रहीत कुल 64 काव्य रचनाएं जीवन दर्शन और आध्यात्मिकता का सम्वेत स्वर प्रवाहित करती हैं। जैसा कि पुस्तक के नाम से ही स्पष्ट है कि कवि इस बात का स्मरण कराना चाहता हैं कि संसार नश्वर है। इस संदर्भ में मुझे याद आता है प्रसिद्ध शास्त्रीय गायक पण्डित कुमार गंधर्व का गाया यह भजन -

जइसे पात गिरे तरुवर के, मिलना बहुत दुहेला

ना जानूं किधर गिरेगा, लग्या पवन का रेला

उड़ जाएगा हंस अकेला, जग दर्शन का मेला

    अर्थात पेड़ से गिरे पत्ते को हवा कहां ले जाएगी किसी को पता नहीं होता। ठीक उसी तरह मृत्यु के बाद प्राण कहां जाएंगे यह भी कोई नहीं जानता। जन्म और मृत्यु के बीच जीवन के जो अनुभव मिलते हैं वे सुख-दख दोनों का अनुभव कराते हैं। ये अनुभव उस मेले के समान हैं जो जब तक लगा रहता है तब तक कोलाहल से भरपूर रहता है और मेला उठते ही गहन नीरवता छा जाती है। फिर भी प्रत्येक मनुष्य को अपने जीवनपर्यन्त किसी न किसी कर्म से जुड़े रहना पड़ता है। कर्म से अनुभव उपजता है और अनुभव मनुष्य को जीवन की दशाएं समझाता है। कवि निर्मल के इस संग्रह के नाम वाली रचना ‘‘जगत मेला चलाचल का’’ की ये पंक्तियां जगत के प्रति कवि के चिन्तन को सामने रखती हैं-

एक पल जो दूसरे से प्राप्त कर अनुभव बढ़ा है

एक पल अवरुद्ध हो कर ही अचेतन सा पड़ा है

एक पल जो सृष्टि का निर्माण करता आ रहा है

एक पल विध्वंस के ही गीत अब तक गा रहा है

एक पल हम, एक पल तुम, एक पल पूरा जगत है

एक पल की ही धरोहर सृष्टि का जीवन सतत है


इसी कविता की अंतिम पंक्तियों में कवि ने कहा है-

कट गए वो था भरोसा अब भरोसा नहीं पल का

रोज लगता रोज उठता जगत मेला चलाचल का


संसार और जीवन को ले कर दार्शनिकों ने सदा विचार मंथन किया है। विशेष बात यह है कि बात जब धर्म-दर्शन की आती है तो संसार को ले कर सभी धर्मों में लगभग एक सा निष्कर्ष दिखाई देता है। जैन दर्शन में संसार जन्म, मृत्यु और पुनर्जन्म के अनवरत क्रम को कहते हैं। इसमें संसार को दुखों से भरा हुआ और त्याज्य माना गया है। हिन्दू धर्म में भागवत पुराण के स्कंध 10 पूर्वाद्ध, अध्याय 2 में संसार की व्याख्या वृक्ष से तुलना करते हुए की गई है। इसमें कहा गया है कि संसार एक सनातन वृक्ष है। जिसके दो फल हैं - सुख और दुख। तीन जड़ें हैं - सत्व, रज और तम। चार रस हैं - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। इसके छः स्वभाव हैं - पैदा होना, रहना, बढ़ना, बदलना, घटना और नष्ट होना। इस प्रकार भागवत पुराण में संसार की विस्तृत व्याख्या की गई है। किन्तु मनुष्य इस सत्य को अर्थात् संसार की नश्वरता को भूल कर स्वार्थ में डूबा रहता है। यह स्वार्थ कभी परिवारों में दरार डालता है तो कभी समाज को आहत करता है ओर जब यही स्वार्थ विकराल रूप धारण कर लेता है तो देशों के बीच शत्रुता के भाव जगा देता है। जबकि इस प्रकार की सारी शत्रुताओं का अस्तित्व उसके लिए उसी समय तक रहता है जब तक वह जीवित है। इस तथ्य को कवि निर्मल ने अपनी इन पंक्तियों में बड़े ही सुन्दर ढंग से व्यक्त किया है -

संास की दीवार जिस दिन हट गई

दूरियां मुल्क-ए-अदम की पट गई

दिल समझने को नहीं राजी हुआ

जो इबारत मिट गई सो मिट गई


इसी रचना में कवि आगे लिखते हैं-

प्रश्न ‘‘निर्मल‘‘ आज तक सुलझा पहीं

मृत्यु अनगिन दर्शनों में बंट गई


वस्तुतः इस संसार और जीवन को समझना बहुत कठिन है। अनेक दार्शनिक और अनेक महापुरुष इसे समझने का प्रयास कर चुके हैं किन्तु आज भी अनेक प्रश्न अनुत्तरित हैं। इसीलिए कवि निर्मल अपनी कविता ‘‘ऐसा गीत लिखा है तूने’’ में इस सृष्टि के रचेता को संबांधित करके लिखते हैं -

ऐसा गीत लिखा है तूने

बांचन बारे थके समझ भी हारी

भाषाएं हैं भिन्न, धरातल भिन्न

नए-नए आयाम, नई पहचान

आते-जाते छंद सभी मेहमान

वर्तमान के और विगत के

अर्थ अलग हैं

खुलती जितनी पर्तें

उनकी शर्त अलग है

कबिरा ने बांचा इसको

तुलसी ने बांचा

नव लय पर ले तम्बूरा

मीरा ने नाचा

महाप्रभु चैतन्य खो गए इसकी धुन में

बाल्मीकि ने बांचा इसको गुन-अवगुन में

कुछ ने अर्थ लगाए गहरे

कुछ ने समझी मायाचारी

ऐसा गीत लिखा है तूने

बांचन बारे थके समझ भी हारी


जब सांसारिकता उलझन भरी और भ्रमित करने वाली हो तो यह तय करना कठिन हो जाता है कि कौन सा मार्ग चलने लायक है। इस संग्रह की कविता ‘‘सीधा मार्ग’’ में कवि निर्मल लिखते हैं -

कौन से पथ पर चलूं कि मार्ग सीधा पा सकूं

भ्रमित हैं सारी दिशाएं वाकपटुता दिशाहीन

लालची शाखाओं को कैसे कहेंगे हम प्रवीण

शांति की दूकान में भी लोभ की पट्टी चढ़ी

क्या है पावन, क्या अपावन, समझ में दुविधा बढ़ी

शुद्धता के सूत्र कैसे किस तरह समझा सकूं

कौन से पथ पर चलें कि मार्ग सीधा पा सकूं



जब जीवन के उचित मार्ग का प्रश्न कवि ने उठाया तो उसका उत्तर भी उसने स्वयं ही दे दिया। ‘‘विश्व एक गांव’’ शीर्षक कविता में कवि निर्मल कहते हैं कि  -

कल्याण करने विश्व का आया मनुष्य है

शक्ति है कोई जिसने पठाया मनुष्य है

इस विश्व को तो एकता के सूत्र में बांधो

यह मानवीय दृष्टि भी लाया मनुष्य है

सम्हलो, सम्हल के अपने कदम आप बढ़ायें

निःस्वार्थ बने, नाति का उद्यान लगायें

कितने दिनों को आयें हैं रखना है इसका ध्यान

मानव समाज को यही संदेश पठायें


जब बात समाज और जीवन मार्ग की आती है तो साधना का मार्ग दो भागों में बंट जाता है - व्यष्टि साधना और समष्टि साधना। व्यष्टि साधना का तात्पर्य है व्यक्तिगत आध्यात्मिक उन्नति के लिए किए जाने वाले कर्म, जैसे- देवता का नाम जपना, आध्यात्मिक ग्रंथ पढ़ना आदि। व्यष्टि साधना निज उत्थान के लिए होती है जबकि समष्टि साधना सम्पूर्ण समाज के आध्यात्मिक उत्थान के लिए की जाती है। जिसका एक बहु प्रचलित उदाहरण है सत्संग का आयोजन। एक साधक को व्यष्टि साधना और समष्टि साधना के मध्य सामंजस्य बनाए रखना चाहिए। ये दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। जैसे यदि दीपक में रखा तेल व्यष्टि साधना है तो उसकी लौ समष्टि साधना है। यदि दीपक में तेल कम होगा तो प्रकाश भी कम समय के लिए मिलेगा। कहने का आशय यह है कि निज उत्थान से ही समाज उत्थान का मार्ग प्रशस्त होता है। निजता की बात करते हुए कवि निर्मल ने अपनी निजत्व शीर्षक कविता में लिखा है -

आप स्वयं स्वामी हैं खुद के

इतना ध्यान रहे

खोजो विश्व स्वयं में ही तुम

प्रज्ञा सबला होगी

निर्मोही स्वभाव के भीतर

मन बन जाता जोगी

विचलित न होना पथ में

इसका भान रहे

जो जाग्रत है नाम उसी का

रहता है जग में

भटकन वाले भटक रहे हैं

अनगिनती मग में

ज्ञानपुंज तलवार दुधारी

समता म्यान रहे


कवि निर्मल चंद निर्मल के इस काव्य संग्रह ‘‘जगत मेला चलाचल का’’ में जीवन दर्शन से रची बसी काव्य रचनाएं हैं जिनमें संसार के अस्तित्व, मनुष्य के कर्म, निजता और कर्तव्य जैसे बिन्दुओं की व्याख्या की गई है। इन रचनाओं की विशेषता यह है कि ये उपदेशात्मक नहीं हैं वरन् परस्पर विचार विमर्श की भांति हैं। इसीलिए ये बोझिल नहीं हैं अपितु इन्हें बारम्बार पढ़ने और चिंतन करने की इच्छा जागृत होती है। इस दृष्टि से पुनर्पाठ योग्य यह काव्य संग्रह अपने महत्व को स्वयं स्थापित करता है। और, अंत में प्रस्तुत हैं कवि निर्मल की ये चार पंक्तियां जो चिंतन का आह्वान करती हैं -

तेरा नहीं होता कभी मेरा नहीं होता

संसार में स्थाई बसेरा नहीं होता

तेरी हवस की दौड़ तुझे क्या निभाएगी

उड़ने के बाद डाल पै डेरा नहीं होता


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( दैनिक, आचरण  दि.02.01.2021)
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12 comments:

  1. आपके इस महोपयोगी आलेख में की गई विवेचना तथा उद्धृत काव्य-अंशों से ही पुस्तक की गुणवत्ता भावी पाठकों एवं काव्य-रसिकों के समक्ष उजागर हो जाती है । यह कथन पूर्णतः सत्य है कि निज उत्थान से ही समष्टि के उत्थान का पथ प्रशस्त होता है । स्वयं को पार्श्व में रखकर अन्य की चिन्ता करना केवल मृगतृष्णा ही है । इस लेख को पढ़कर मुझे जो आनंद आया है, उसे मैं शब्दों में अभिव्यक्त नहीं कर पा रहा । पुस्तक को पढ़ना तो इससे भी अधिक आनंददायी होगा । हार्दिक आभार आपका वर्षा जी ।

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    1. आरदरणीय माथुर जी, आपने मेरे इस लेख को बहुत ध्यान से पढ़ा, उस पर अपनी विस्तृत टिप्पणी दी, इसके लिए मैं आपके प्रति हृदय से आभारी हूं। मेरे सभी ब्लॉग्स पर आपका सदैव हार्दिक स्वागत है।
      नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाओं सहित,
      सादर
      डॉ वर्षा सिंह

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (03-01-2021) को   "हो सबका कल्याण"   (चर्चा अंक-3935)   पर भी होगी। 
    -- 
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है। 
    --नववर्ष-2021 की मंगल कामनाओं के साथ-   
    हार्दिक शुभकामनाएँ।  
    --
    सादर...! 
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' 
    --

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    1. हार्दिक आभार आदरणीय शास्त्री जी 🙏🏻

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  3. नमस्कार वर्ष जी, नववर्ष की हार्द‍िक शुभकामनायें, सागर नगर के कवि निर्मलचंद ‘‘निर्मल’’ के काव्य संग्रह ‘जगत मेला चलाचल का’’ के मर्म को बखूबी बयां कर जाती हैं ये पंक्त‍ियां...

    सांस की दीवार जिस दिन हट गई
    दूरियां मुल्क-ए-अदम की पट गई
    दिल समझने को नहीं राजी हुआ
    जो इबारत मिट गई सो मिट गई...अद्भुत

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    1. जी, बहुत शुक्रिया
      नववर्ष आपको भी सपरिवार मंगलमय हो.🙏🌹🙏

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  4. कवि निर्मल चंद निर्मल के काव्य संग्रह ‘‘जगत मेला चलाचल का’’का सुंदर विश्लेषण,व्याख्यात्मक समालोचना
    पुस्तक के प्रति आकर्षण बढ़ाती हुई सभी उद्धत अंश बहुत सुंदर।
    बधाई साधुवाद आपको एंव रचैता को।
    सस्नेह।

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    1. हार्दिक धन्यवाद आदरणीया कुसुम कोठरी जी 🙏🌹🙏

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  5. प्रभावशाली लेखन व गहन समीक्षा, किताब पढ़ने हेतु पाठकों में उत्सुकता पैदा करती है - - साधुवाद।

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    1. हार्दिक धन्यवाद आदरणीय सान्याल जी🙏🌹🙏

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  6. Replies
    1. हार्दिक धन्यवाद विमल जी 🙏

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