Friday, January 8, 2021

सागर: साहित्य एवं चिंतन | पुनर्पाठ 16 | बात कैत दो टूक कका जू | बुंदेली ग़ज़ल संग्रह | डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh

प्रिय मित्रों, स्थानीय दैनिक समाचार पत्र "आचरण" में प्रकाशित मेरे कॉलम "सागर : साहित्य एवं चिंतन " में पुस्तकों के पुनर्पाठ की श्रृंखला के अंतर्गत सोलहवीं कड़ी के रूप में प्रस्तुत है - सागर  ज़िले के कवि महेश कटारे 'सुगम' के बुंदेली ग़ज़ल संग्रह "बात कैत दो टूक कका जू" का पुनर्पाठ।
हार्दिक आभार आचरण 🙏
     
सागर : साहित्य एवं चिंतन

 पुनर्पाठ : बात कैत दो टूक कका जू
                           -डॉ. वर्षा सिंह
                            
            इस बार पुनर्पाठ के लिए मैंने चुना है सागर जिले के बीना तहसील मुख्यालय में निवासरत बुंदेलखंड के चर्चित कवि महेश कटारे ‘सुगम’ के बुंदेली गजल संग्रह - ‘‘बात कैत दो टूक कका जू’’ को। बुंदेली एक लोकभाषा है। यह लोकभाषा बोली से भाषा तक के सफर में संघर्षरत है लेकिन इसकी साहित्य संपदा पर्याप्त समृद्ध है। यूं भी जब किसी बोली में मौलिक साहित्य सृजन होने लगता है तो वह भाषा के समीप पहुंच जाती है। यदि हिन्दी भाषा की बोलियों और उपभाषा की चर्चा की जाए तो उत्तर भारत की बोलियों ने निरंतर विकास किया है। भाषाई परिभाषा के आधार पर उत्तर भारत की जो प्रमुख बोलियां मानी गई हैं, उनमें प्रमुख हैं- ब्रज, कन्नौजी, बुंदेली, बघेली, अवधी, भोजपुरी, मगधी, छत्तीसगढ़ी, हरियाणवी, राजस्थानी और रोहेलखण्ड में बोली जाने वाली खड़ी बोली। इन सभी बोलियों में उत्कृष्ट साहित्य सृजन किए जाने की उल्लेखनीय परम्परा चली आ रही है, जो इन बोलियों को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल किए जाने योग्य सिद्ध करती है। बुंदेली में एक से बढ़ कर एक काव्य सृजन किए गए हैं। चाहे वीर रस में जगनिक के ‘‘आल्ह खण्ड’’ की बात की जाए या फिर श्रृंगार रस में ईसुरी की फागों की। बुंदेली में गजब का लचीलापन है। इसने अपनी परम्परागत जातीय गरिमा को बनाए रखते हुए विभिन्न भाषाओं के शब्दों को इस तरह आत्मसात किया है कि मानों वे शब्द ठेठ बुंदेली के हों। बुंदेली में छंदबद्ध रचनाएं लिखी गईं तो छंदमुक्त रचनाएं भी लिखी गईं। दोहे, घनाक्षरी, अतुकांत कविताओं के साथ ही गजलें भी बुंदेली में लिखी गई हैं और लिखी जा रही हैं। बुंदेली गजल के क्षेत्र में एक चिरपरिचित नाम है कवि महेश कटारे ‘सुगम’ का। 24 जनवरी 1954 को ललितपुर में जन्में कवि ‘सुगम’ मध्यप्रदेश के स्वास्थ्य विभाग में प्रयोगशाला तकनीशियन के पद से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति के बाद बीना में निवासरत हैं। ‘‘बात कैत दो टूक कका जू’’ गजल संग्रह सन् 2018 में प्रकाशित हुआ, जिसकी गजलें कवि के बुंदेली के प्रति समर्पण और समसामयिक परिदृश्य पर पैनी निगाह की परिचायक हैं।
वर्तमान परिदृश्य व्यवस्थाओं की दृष्टि से स्वस्थ नहीं कहा जा सकता है। तरह-तरह के फर्जी बाड़े के समाचारों से अखबारों के पन्ने भरे रहते हैं। लोग एक-दूसरे के दुख-दर्द के प्रति असंवेदनशील हो चले हैं। यह सब एक संवेदनशील कवि के रूप में महेश कटारे ‘सुगम’ को रोष से भर देता है। उनका यह रोष उनकी इस गजल में देखा जा सकता है-
भैया तू भौतई फर्जी है
खूब चला रओ मनमर्जी है
दुनिया भर में घूमत फिर रओ
घरे रुके की एलरजी है
काट लेत सींवौ नई जानत
एसौ जो कैसो दर्जी है
को का कै रओ कभऊं नई सुनत
फेंक देत सबकी अर्जी है

महेश कटारे की गजलों में एक खास बात यह है कि वे बुंदेली के रोजमर्रा के शब्दों को अपने शेरों में पिरोते हैं। ’ढिंगा’, ‘फुइया’, ‘ओली’, ‘कुठरिया’ जैसे खांटी बुंदेली शब्दों के साथ खड़ी बोली के ‘शुद्ध’ जैसे शब्द को बड़ी सुंदरता के साथ प्रयोग में लाते हैं, जिससे बुंदेली की विशेषता भी बनी रहती है और कथ्य की वजनदारी भी। उदाहरण देखिए-
तनक छांयरे में सुस्ता लो
भूख लगी तौ रोटी खा लो
काम लगो रेनें जीवन भर
बैठो आओ ढिंगा बतया लो
फुइया से मौड़ा मौड़ी हैं
ओली ले के इने खिला लो
सड़ रहे काय कुठरिया भीतर
बाहर आ कें शुद्ध हवा लो

गांव के विकास की बातें हर जगह की जाती हैं। अकसर आंकड़ों में गांवों कें विकास के दम भरे जाते हैं लेकिन ज़मीनी सच्चाई कुछ अलग ही तस्वीर दिखाती है। इसी बात पर कवि कटारे प्रश्न उठाते हैं कि -
गांव अबै तक जां के तां हैं
सड़कें बिजली पानी कां हैं
काय जांय हम तीरथ करवे
घर में जब दद्दा अम्मा हैं
अपनौ ईशुर बस मेनत है
तुमखों सब विष्णु बिरमा हैं
जात धरम उर बोली बानी
झगड़े झांसे खामोखां हैं

ऐसा नहीं है कि सिर्फ़ व्यवस्था और राजनीति में ही दोहरापन आया हो, मानवीय आचरण में भी दोहरापन समा गया है। आज अकसर व्यक्ति अपने अधिकार की लड़ाई में अकेला ही खड़ा दिखाई पड़ता है। इस तथ्य पर महेश कटारे ने बड़ी बेबाकी से शेर कहे हैं-
अब आपस में प्यार कितै है
मनचीनौ व्यवहार कितै है
दुख में सैकर परौ आदमी
लड़वे खौं तैयार कितै है
सबरे गुड़ीमुड़ी हो जाते
जनता में हुंकार कितै है

बुंदेलखंड 2004 से ही सूखे की चपेट में रहा। जब बहुत शोर मचा तो पहली बार इलाके को 2007 में सूखाग्रस्त घोषित किया गया। 2014 में ओलावृष्टि की मार ने किसानों को तोड़ दिया। सूखा और ओलावृष्टि से यहां के किसान अब तक नहीं उबर पाए हैं। खेती घाटे का सौदा बन गई है और किसान तंगहाली में पहुंच चुके हैं। जब किसान तंगहाल होता है तो शेष व्यवसाय भी लड़खड़ाने लगते हैं। बुंदेलखंड की भुखमरी भी सुर्खियों में रही है। इस समाचार ने पूरे देश को स्तब्ध कर दिया था कि ‘‘बुंदेलखंड में लोग घास की रोटियां बनाकर खा रहे हैं’’। बुंदेलखंड में खेती खत्म होने, उद्योग न होने और बेरोजगारी-भुखमरी के कारण पलायन की विवशता जागी। किसान दूसरे प्रांतों में मजदूरी करने को विवश हो गए। इस कटु यथार्थ को बड़े ही मार्मिक ढंग से अपनी ग़ज़ल में व्यक्त किया है महेश कटारे ने-
हो हो कें हैरान मरौ है
फांसी लगा किसान मरौ है
मरतौ नईं तौ फिर का करतौ
फसलन कौ मीजान मरौ है
अन्न उगा कें पेट भरततौ
भूखन कौ वरदान मरौ है
गांव गांव में जाकें देखौ
खेत और खरियान मरौ है


बात कैत दो टूक कका जू (बुंदेली ग़ज़ल संग्रह) - महेश कटारे 'सुगम' 


       जीवन में दिखावे की प्रवृत्ति इस कदर प्रभावी हो जा रही है कि लोग ममत्व, अपनत्व और मानवीयता को दरकिनार करने लगे हैं। ऐसे लोगों को विलासिता पर व्यय करते समय उन भूखे-प्यासे इंसानों की याद नहीं आती है। देश में न जाने कितने बच्चे, बूढ़े, महिलाएं, पुरुष भिखारियों का जीवन बिता रहे हैं। उन्हें कभी एक समय की रोटी मिल जाती है तो कभी दो-दो, तीन-तीन दिन फांके करने पड़ते हैं। आत्मकेंद्रित जीवन के चलन में वृद्ध माता-पिता के दुख-पीड़ा भी भुला दी जाती है। यह परिदृश्य किसी भी कवि की आंखों में आंसू ला सकता है। कवि महेश कटारे भी इस परिदृश्य से द्रवित हो उठते हैं। लेकिन वे आंसू बहा कर चुप नहीं रह जाते हैं वरन् ऐसे आत्मकेन्द्रित लोगों को ललकारते हैं तथा उनकी चेतना जगाने का प्रयास करते हैं-  
भूखन खौं दुत्कार भगा रये शरम करौ
पथरन खौं तुम खीर चढ़ा रये शरम करौ
अम्मा दद्दा भूखे बैठे हैं घर में
पुण्य कमाने तीरथ जा रये शरम करौ
धरम करम ईमान टांग दऔ खूंटा पै
पैसा खौं कैसे भैरा रये शरम करौ
बच्चा भूखे रो रये हैं फुटपातन पै
कुत्ता घर में बिस्कुट खा रये शरम करौ

यूं तो जीवन में अनेक समस्याएं हैं लेकिन इनमें से कई समस्याएं जिस कारण से पैदा होती हैं वह है - मंहगाई। वर्तमान समय में मंहगाई की समस्या अत्यंत विकराल रूप धारण कर चुकी है। कालाधन, जमाखोरी, भ्रष्टाचार, मुद्रा का अवमूल्यन आदि कारण गिनाए जा सकते हैं इस बढ़ती हुई मंहगाई के लिए। किन्तु मात्र कारण गिनाने से समस्या का समाधान नहीं हो सकता है। समाज का निम्न वर्ग और मध्यम वर्ग मंहगाई की सबसे अधिक मार झेलता है। वह अपनी आवश्यक जरूरतें पूरी करने के लिए कर्ज लेता है और कर्ज न चुका पाने की स्थिति में या तो तिल-तिल कर मरता रहता है या फिर आत्महत्या का रास्ता ढूंढने लगता है। यह जीवन की कटुता भरी सच्चाई है। मंहगाई जीवन की सरसता को किस तरह सोख लेती है वह महेश कटारे के इन शेरों में महसूस किया जा सकता है -
सुख कौ पन्ना मोरौ भैया
रऔ कोरो को कोरौ भैया
हत्यारी ई मेंगाई नें
सब कौ गरौ मरोरौ भैया

‘‘बात कैत दो टूक कका जू’’ गजल संग्रह की गजलों में वह लोकभाषाई आत्मीयता है जो इन्हें बार-बार पढ़ने के लिए उकसाती है। इस संग्रह की गजलों में महेश कटारे ने ग्रामीण और कस्बाई जिन्दगी की समस्याओं को बिना किसी लागलपेट के सामने रखा है। वे भूख, गरीबी, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, सामाजिक तथा आर्थिक विषमता जैसी समस्याओं पर खुल कर कलम चलाते दिखाई देते हैं। ये सभी मुद्दे समसामयिक गजलकारों की गजलों में बखूबी देखी जा सकती है। लेकिन महेश कटारे की गजलें यदि उनमें अपनी अलग पहचान बना पाई हैं तो उसका मूल कारण है उन गजलों का बुंदेली में लिखा जाना और यही इसके पुनर्पाठ का सबसे बड़ा प्रेरक तत्व भी है। अपनी बोली का सोंधापन भला किसे नहीं भाता।

                     -----------------------

( दैनिक, आचरण  दि.08.01.2021)
#आचरण #सागर_साहित्य_एवं_चिंतन #वर्षासिंह #मेरा_कॉलम #पुस्तक #पुनर्पाठ #Recitation
#MyColumn #Dr_Varsha_Singh  #महेश_कटारे_सुगम #बात_कैत_दो_टूक_कका_जू #Sagar_Sahitya_Evam_Chintan #Sagar #Aacharan #Daily
#drvarshasingh1

4 comments:

  1. बहुत ही अच्छी जानकारी दी है आपने वर्षा जी । निश्चय ही यह बुंदेली भाषियों के लिए एक अनमोल उपहार है । आंचलिक भाषाओं में ऐसे न जाने कितने ही रत्न छुपे हैं जिन्हें परख कर प्रकाश में लाए जाने की आवश्यकता है । सभी आंचलिक बोलियों को औपचारिक स्वीकृति मिलनी चाहिए तथा उनमें सृजित साहित्य को उचित सम्मान एवं प्रोत्साहन मिलना चाहिए । मैं स्वयं राजस्थानी भाषा के साहित्य की उपेक्षा से व्यथित रहता हूँ । अतः विमर्शित कृति के साथ-साथ आपके इस आलेख की महत्ता को भी अनुभव कर सकता हूँ । बहुत-बहुत आभार आपका इस विलक्षण ग़ज़ल संग्रह से परिचित करवाने के लिए ।

    ReplyDelete
  2. आदरणीय जितेन्द्र माथुर जी,
    बहुत बहुत धन्यवाद कि आपने मेरे लेख को पढ़ कर उस पर अपनी विस्तृत प्रतिक्रिया दी।
    आपके इस कथन से मैं सहमत हूं कि आंचलिक बोलियों के प्रति भी सम्मान और प्रोत्साहन आवश्यक है। यही तो हमारी थाती हैं। हमारी संस्कृति इन्हीं के माध्यम से फूली-फली है।
    पुनः हार्दिक आभार,
    सादर,
    डॉ. वर्षा सिंह

    ReplyDelete
  3. आंचलिक बोलियों को सम्मान दिलाती बहुत ही सुंदर रचना।

    ReplyDelete
    Replies
    1. हार्दिक धन्यवाद ज्योति जी 🙏

      Delete