Wednesday, March 20, 2019

सागर : साहित्य एवं चिंतन - होली विशेष : होली के रंग और सागर के चुनिंदा कवियों की उमंग - डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh
होली की हार्दिक शुभकामनाएं!

       स्थानीय दैनिक समाचार पत्र "आचरण" में प्रकाशित मेरा कॉलम "सागर साहित्य एवं चिंतन " । जिसमें इस बार मैंने लिखा है होली पर विशेष : " होली के रंग और सागर के चुनिंदा कवियों की उमंग " पर आलेख। पढ़िए और जानिए मेरे शहर के साहित्यिक परिवेश को ....

सागर : साहित्य एवं चिंतन - होली विशेष :                 
होली के रंग और सागर के चुनिंदा कवियों की उमंग
               - डॉ. वर्षा सिंह
.             
         कवि पद्माकर के छंदों और लाखा बंजारा झील के मनोरम सौंदर्य के लिए प्रसिद्ध सागर की हवाओं में ही काव्यात्मकता की सुगंध बसी हुई है। गोया यहां के झील के पानी में कविताएं हिलोरें लेती हैं। उस पर जब अवसर होली का हो तो प्रत्येक काव्यात्मक मन से होली की रचनाएं फूट पड़ती हैं और समूचा वातावरण फागुनी हो उठता है। तभी तो कवयित्री डॉ. शरद सिंह अपनी ग़ज़ल के माध्यम से फागुनी अंदाज में आगाह करती हैं कि होली खेलने के लिये फागुन का अध्यादेश जारी हो चुका है जिसका पालन किया जाना जरूरी है-
डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
मुहब्बत से भरा रहता है  हर  संदेश होली का।
लो, आया है सभी के द्वार पर दरवेश होली का।
कोई घर में न बैठेगा, सड़क पर आज घूमेगा
किया जारी है फागुन ने ये अध्यादेश होली का।
’शरद’ हो रंग की बौछार या हो प्रेम की तकरार
कभी होता नहीं कोई हृदय पर क्लेश होली का।
                     कवि नलिन जैन इस अध्यादेश को पूरी गम्भीरता से लेते हुए यह दोहा कहते हैं -
तैयारी चालू करो, ढूंढो रंग गुलाल ।
होली की पिचकारी संग,गोरे- गोरे गाल।।
               लेकिन मैं यानी डॉ वर्षा सिंह आगामी जल संकट को देखते हुए इन दोहों के माध्यम से सभी हुरियारों से यह आग्रह कर रही हूं कि पानी का हर्जा न करें बल्कि सूखी होली खेलें, रंग तो आखिर रंग है, चाहे गीला हो या सूखा -
डॉ. वर्षा सिंह
सूखी होली खेलना, पानी है अनमोल ।
व्यर्थ गंवाना ना इसे, समझो जल का मोल।।
रंगों के त्यौहार में, रंगों की हो बात।
सद्भावों के रंग में, सराबोर दिन- रात ।।
                   जब जीवन रंगमय हो जाये तो भला कवि कपिल बैसाखिया पीछे कैसे रह सकते हैं-
श्वेत -श्याम थी जिन्दगी, आज हुयी रँगीन।
कल को पीछे छोड़ कर, मस्ती में अब लीन।।
मस्ती में अब लीन,हुये दुख सबके फीके।
मतभेद सभी भूल,गले मिल रहे सभी के।।
                   होली की उमंग से समूची प्रकृति प्रभावित दिखाई देने लगती है, इसीलिये डॉ श्याम मनोहर सीरोठिया कहते हैं-
महुआ ,टेसू, गुलमुहर, अमलतास कचनार।
गली -गली ऋतुराज ने, फागुन लिक्खा प्यार ।।
मन के द्वारे पाहुना, बन आया  मधुमास ।
लिखे प्रेम का जायसी, मदमाते  अनुप्रास।।
     
 
   जब जायसी के प्रेम भरे मदमाते अनुप्रास हों तो प्रिय की याद आना स्वाभाविक है। इस मामले में डॅा वंदना गुप्ता की ये पंक्तियां देखें-
रंग में उमंग भरी फाग की तरंग में
फाग में मौसम की दिखती तरुणाई रे।।
चिड़ियां चहकती हैं सरसों के खेत जब
पीले पीले फूल खिले पिया याद आई रे।।
                  जिनके प्रियजन या सहेलियां पास में हों उनकी होली की उमंग अलग ही छटा बिखेरती है जिसे कवि पूरन सिंह राजपूत इन शब्दों में बयान करते हैं-
फागुन सखी- सहेलियां, इठला उठी उमंग।
वासंतिक अठखेलियां, मचा रही हुड़दंग।।
पीपल, बरगद झूम कर करते शोर अपार ।
फगुनाई जब देखते, नखरीली कचनार ।।

Sagar: Sahitya avam Chintan - Dr. Varsha Singh

                कवि ज.ल.राठौर प्रभाकर प्रत्येक व्यक्ति के मन पर पड़ने वाले होली के प्रभाव को कुछ इस तरह वर्णित करते हैं-
संचारित की आपने कैसी रंग-तरंग होली में ।
कि गुनगुना उठा अपना भी मन-भृंग होली में।
               होली तो यूं भी सभी तरह के रंगों का त्यौहार है। इसलिये काव्य-रचनाओं में भी हर तरह के भावात्मक रंग देखे जा सकते हैं। भक्ति रस के कवि बिहारी सागर ऐसे समय ब्रज की होली को याद करते हैं और कहते हैं-
होली खेलें यशोदा को लाल सखी री
संग की सखियां सबरी रंग गई,
अब राधे की बारी
रंग गुलाल ब्रज में है नीको को,
कह रय आज “बिहारी”
                      वहीं कुछ कवि रंग के बजाय प्रति को प्रधानता देते हुए रंग न डालने का आग्रह करते दिखाई देते हैं जैसे कवि वीरेंद्र प्रधान ये पंक्तियां देखें-
डरो मत डाल दो मुझपे तुम रंग  होली में,
प्रीति की मिशाल बने तुम्हारा संग होली में।
फागुनी मस्ती और मदमाती हंसी ठिठौली,
चल जायेगी पर न करो  हुड़दंग होली मे ।
              होली एक ऐसा त्यौहार है जो जाति, धर्म और उम्र के बंधनों को स्वीकार नहीं करता है। फिर भी आयु और अनुभव की वरिष्ठता त्यौहारों के बदलते स्वरूप पर स्वाभाविक रूप से चिंतित हो उठती है। यह चिन्ता वरिष्ठ कवि निर्मल चंद ‘निर्मल’ के इस दोहे में स्पष्ट देखी जा सकती है-
कहां नायक व नायिका, पिछड़ा रंग गुलाल।
पश्चिम के रंग में हुआ, पूरा भारत लाल।।
                     होली जो रंगों, उमंगों का त्यौहार है, उसे आपसी सद्भावना से ही मनाया जाना चाहिये ताकि कवि पद्माकर के शब्दों में यह कहा जा सके-
फागु के भीर अभीरन तें गहि, गोविंदै लै गई भीतर गोरी ।
भाय करी मन की पदमाकर, ऊपर नाय अबीर की झोरी।।
छीन पितंबर कम्मर तें, सु बिदा दई मोड़ि कपोलन रोरी ।
नैन नचाई, कह्यौ मुसक्याइ, लला ! फिर खेलन आइयो होरी।।

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( दैनिक, आचरण  दि. 20.03.2019)
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