Friday, August 28, 2020

सागर : साहित्य एवं चिंतन 71| डॉ. राजेश दुबे : कविता और व्यंग्य के साहित्यकार | डॉ. वर्षा सिंह

प्रिय ब्लॉग पाठकों, 
                  स्थानीय दैनिक समाचार पत्र "आचरण" में प्रकाशित मेरा कॉलम "सागर साहित्य एवं चिंतन " । जिसमें इस बार मैंने लिखा है मेरे शहर सागर के साहित्यकार डॉ.राजेश दुबे पर आलेख। पढ़िए और जानिए मेरे शहर के वर्तमान साहित्यिक परिवेश को ....

सागर : साहित्य एवं चिंतन

            डॉ. राजेश दुबे : कविता और व्यंग्य के साहित्यकार
                        - डॉ. वर्षा सिंह
                                         
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परिचय :- डॉ. राजेश दुबे
जन्म :-  01 जुलाई 1953
जन्म स्थान :- सागर
माता-पिता :- श्रीमती राजेश्वरी दुबे एवं श्री चन्द्र कुमार दुबे
शिक्षा :- एम.ए., पीएच.डी.
लेखन विधा :- गद्य एवं पद्य
प्रकाशन :-  तीन पुस्तकें प्रकाशित
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     सागर शहर का हिन्दी साहित्य न केवल समृद्ध है, बल्कि निरंतर ऊर्जावान है। कवियों और लेखकों की लेखनी से सागर की साहित्यिक भूमि किसी उपवन की तरह शब्दों के नैनाभिराम दृश्य और भावनाओं की सुगंध से सुसज्जित रहती है। अनेक नवोदित साहित्यकारों ने अपनी पहचान स्थापित करने के लिए यहां श्रमसाघ्य लेखन किया है। इसी संदर्भ में कवि एवं लेखक डॉ. राजेश दुबे का नाम लिया जा सकता है जिन्होंने अपनी तीन पुस्तकों के प्रकाशित होते-होते सागर के साहित्य जगत में अपनी एक विशेष पहचान बना ली। श्री चन्द्र कुमार दुबे एवं श्रीमती राजेश्वरी दुबे के पुत्र के रूप में 01 जुलाई 1953 को सागर में जन्में राजेश दुबे का एक परम्परावादी एवं धार्मिक विचारों से परिपूर्ण परिवार में लालन-पालन हुआ। आगे चल कर उन्होंने हिन्दी साहित्य में एम.ए. किया। इसके बाद ‘प्रेमचंद परम्परा और वर्तमानकालीन हिन्दी उपन्यास-1960 के उपरांत’ विषय में सागर विश्वविद्यालय से पी. एचडी. की उपाधि प्राप्त की। आजीविका के क्षेत्र में उन्होंने राज्य प्रशासनिक सेवा करते हुए डिप्टी कलेक्टर पद से सेवानिवृत्त हुए।
       डॉ. राजेश दुबे को साहित्य, धर्म दर्शन एवं समाजविज्ञान में सदैव रुचि रही है। जिसकी झलक उनकी कविताओं और लेखों में देखी जा सकती है। व्यंग्य विधा में भी उन्होंने लेखन किया है। डॉ. दुबे की तीन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं, जिनमें हैं - अमृतराय के उपन्यासों पर समीक्षात्मक पुस्तक ‘हंसते-बोलते दस्तावेज’ व्यंग्य पुस्तक ‘नागफनी’ तथा कविता संग्रह ‘गांव से लौटते हुए’। ‘नागफनी’ में संग्रहीत व्यंग्यों के संबंध में डॉ. राजेश दुबे ने पुस्तक के आमुख में लिखा है कि ‘‘प्रशासनिक सेवा में रहते हुए मैंने आम आदमी के दुखों तकलीफों, उनकी चिन्ताओं को बहुत नज़दीक से देखा, जाना, परखा है। आज भी हमारा किसान और मजदूर वर्ग वैसा ही जीवन जी रहा है जैसे प्रेमचंद के पात्र भोग रहे थे। आज भी घीसू, माधव, होरी, धनिया, गोबर, झुनिया मिलते हैं, बोलते हें, बतियाते हैं। वे आज भी वैसे ही दुखी हैं। वे आज भी वैसे ही सुखी हैं। समयानुसार अंतर आया है तो सिर्फ़ इतना कि झोपड़ियों में कुछ थूनियां लगा दी गई हैं जो झोपड़ी को ज़मींदोज़ होने से बचा रही हैं। देहातों में इमारतों के जंगल उग आए हैं आज भी शोषण की परिस्थितियां और शोषण की कुटिल मनोवृत्तियां पूर्ववत क़ायम हैं।’’
  
     
       समाज में व्याप्त आर्थिक, सामाजिक, वर्गीय विद्रूपताओं को देख कर मन का द्रवित होना स्वाभाविक है। जब मन द्रवित होता है तो लेखनी से शब्द फूट पड़ते हैं और ये शब्द स्वतः अपनी शैली चुनते हुए कभी कविता, कभी कहानी, कभी निबंध तो कभी व्यंग्य लेखों में ढल जाते हैं। डॉ. राजेश दुबे ने भी जो विद्रूपताएं अपनी आंखों से देखी और महसूस कीं उन्हें वे व्यंग्य लेखों में ढलने से नहीं रोक सके। इसीलिए उनके‘‘नागफनी’’ व्यंग्य संग्रह के व्यंग्य चुटीले और धारदार हैं। इसी संग्रह में एक व्यंग्य लेख है ‘‘चश्मा’’ शीर्षक से। चश्मे को एक क्षेपक की तरह प्रयोग करते हुए डॉ दुबे ने व्यंग्य किया है कि -‘‘आदमी के शरीर पर जो महत्व कपड़ों का है, वही महत्व आंखों पर चश्मे का है। बग़ैर चश्में के आदमी की आंखें सूनी लगती हैं। चश्मा पहने आदमी आदमी-सा दिखता है, बग़ैर ख्श्मा पहना आदमी चौपाए-सा दिखता है। जब आदमी कोरी आंखों से देखता है तब वह ज़्यादा बारीक़ी में नहीं जा पाता है और ज़्यादा नुक़्ताचीनी नहीं कर पाता है, और जो है उसी में प्रसन्न रहता है। यह प्रसन्नता उसके स्वस्थ और दीर्घ जीवन का राज़ है। ऐसे समय वह संतोषी और सुखी रहता है। यही नहीं, वह झगड़े-टंटे से अपनी टांग बचाए रखने का हिमायती होता है। पर जब से उसने चश्मा पहनना शुरू कर दिया है, उसका क़द बढ़ गया है। उसमें सोचने-समझने की क्षमता का विकास हुआ है। अब वह बुद्धू से बुद्धिमान हो गया है। उसकी दृष्टि विकसित हो गई है। परिणामतः उसकी चिन्ताएं बढ़ गई हैं।’’
जहां तक व्यंग्य विधा में पैनेपन और कटाक्ष की क्षमता का प्रश्न है तो यह दोनों अनुभवों की ग्राह्यता से आती है। इस संबंध में हिन्दी साहित्य के प्रतिष्ठित व्यंग्यकार डॉ सुरेश आचार्य ने अपने एक अन्य ग्रंथ ‘‘व्यंग्य का समाज दर्शन’’ में लिखा है कि ‘‘ईमानदार व्यंग्य रचना सदैव सामाजिक यथार्थ से संबंधित होती है। यह कहीं भी अमूर्त नहीं होती बल्कि सदैव सत्य से साक्षात करती चलती है।  दैनंदिन जीवन के कष्ट आडंबर मिथ्याचार और अनीतियों का तिरस्कार, उद्घाटन और उपहास ही उसका लक्ष्य होता है।’’

       डॉ. राजेश दुबे ने व्यंग्य के साथ ही कविताएं भी लिखी हैं। उनका काव्य संग्रह ‘‘गांव से लौटते हुए’’ अतुकांत शैली की कविताओं का संग्रह है। इस संग्रह की भूमिका में समीक्षक एवं साहित्यकार प्रो. आनन्द प्रकाश त्रिपाठी ने लिखा है -‘‘इस संग्रह की कविताओं में अभिव्यक्ति का टटकापन, भाषा का बांकपन, देशज़ अंदाज़, जीवन की सच्ची अनुभूति, संप्रेषणीयता, कहन की सहजता, बिम्बों और प्रतीकों की नवता, जीवन और प्रकृति की बहुत गहरी जुगलबंदी, मानवता के कल्याण की भावना, विचारशीलता, जीवन का सौंदर्य आदि अनेक बातें डॉ. राजेश दुबे को समर्थ कवि कहे जाने का हक़ देती हैं। निःसंदेह ‘गांव से लौटते हुए’ संग्रह की कविताएं अपनी संरचना, कथन वैविध्य, वैचारिकता, भाषाशिल्प की दृष्टि से महत्वपूर्ण है।’’
      जीवन के अनुभव और वैचारिक सामंजस्य से भरपूर कविताओं में डॉ. राजेश दुबे ने अनुभवजनित अनेक दृश्यों को अपने शब्दों में पिरोया है। संग्रह की पहली कविता ‘‘विश्वास की सोन चिरैया’’ की ये पंक्तियां देखें-
जब से मेरे हाथ
होम करते जले हैं
विश्वास की सोच चिरैया
घायल है
तब से मन में
एक चोर बसने लगा है
लगता है सब लोग
मुझे ठग लेना चाहते हैं।

     बेशक़ वर्तमान परिदृश्य में धोखा, छल, कपट इतना अधिक व्याप्त है कि अविश्वास का प्रतिशत बढ़ चला है। डॉ. राजेश दुबे की एक और कविता है ‘‘हर सुबह अख़बार’’। इस कविता में उन्होंने मानवीय मूल्यों के ह्रास का मार्मिक चित्रण किया है-
हर सुबह
अख़बार के पृष्ठ दर पृष्ठ पर
अंकित
दुष्कर्म, हत्या, ठगी, हिंसा
जाति-सम्प्रदायगत
षडयंत्रों की
कुत्सित उपलब्धियां
बटोर लेती हैं
सारी की सारी सुर्खियां।

       अपने सागर शहर की दशा को बिम्ब के रूप में लेते हुए उन तमाम शहरों पर कटाक्ष करती है उनकी कविता ‘‘आवारा मवेशियों की भीड़’’, जो ऐसी दुरावस्थाओं से गुज़र रहे हैं। कविता की पंक्तियां इस प्रकार हैं-
मेरे नगर में सड़कों पर
आवारा मवेशियों की भीड़ है
आड़े-तिरछे बैठे
मौज मनाते
जुगाली करते
यातायात व्यवस्था को
रौंदते हुए खड़े हैं
इस अव्यवस्था पर
जब कोई
झुंझलाता हुआ
सूचना देता है
तब मवेशियों के समर्थन में
कुछ संगठन आ कर
हमारे ज्ञान में
इज़ाफ़ा करते हैं
मवेशियों की
आज़ादी के प्रश्न पर हमें
नीचा दिखाते हैं।

        डॉ. राजेश दुबे शिद्दत के साथ अपने रचनाकर्म से जुड़े हैं। वे अपने अनुभवों को अपनी गद्य एवं पद्य रचनाओं में उतार देते हैं। यही उनकी लेखनी की विशेषता है। उनका शिल्प एवं भाषा आडम्बरविहीन सरल और सहज होती है। जो उनके लेखन को पठनीय बनाती है। 
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( दैनिक, आचरण  दि.28.08.2020)
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आगडं पर प्र

2 comments:

  1. https://ajourneytoheart.blogspot.com/2020/08/blog-post_31.html

    Madam I Hope you will like my poetry

    If you find some standar in my poetry plz bless me by following me.
    Thanks.

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