Tuesday, October 9, 2018

पाठक मंच : भावनाओं के नये मुहावरे गढ़ती हैं मदनमोहन उपाध्याय की कविताएं - डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh
साहित्य अकादमी म.प्र. संस्कृति परिषद की स्थानीय इकाई सागर पाठकमंच की 65 वीं गोष्ठी में मैं यानी डॉ. वर्षा सिंह  मुख्य अतिथि के रूप में शामिल हुई। दिनांक 07.10.2018 को आयोजित इस गोष्ठी में कवि मदनमोहन उपाध्याय के कविता संग्रह 'खुशियों के रंग' पर समीक्षा पाठ एवं चर्चा की गई। गोष्ठी में पाठक मंच इकाई के केंद्र संयोजक उमाकांत मिश्र, लेखिका एवं समाजसेवी डॉ. (सुश्री) शरद सिंह सहित बड़ी संख्या में साहित्यकार उपस्थित थे।
 इस अवसर पर मुख्य अतिथि के रूप में मेरे द्वारा दिए गए उद्बोधन के कुछ अंश यहां प्रस्तुत हैं-   काव्य साहित्य की वह विधा है जिससे मनुष्य सबसे पहले जुड़ता है। मां की लोरी के रूप में काव्य की है जो सबसे पहले मनुष्य को साहित्यिक स्पर्श देता है।  काव्य छंदबद्ध हो सकता है और छंदमुक्त भी। यह भ्रम प्रचलित है कि छंदमुक्त विधा पश्चिमी साहित्य से हिन्दी में आईं किन्तु यदि हमारे पौराणिक ग्रंथों को देखा जाए तो अनेक ग्रंथ ऐसे मिल जाएंगे जिनमें छंदमुक्त कविताएं लिखी गई हैं।  छंदमुक्त कविताओं के भी अपने नियम-क़ायदे होते हैं। गद्य वाक्यों को तोड़-तोड़ कर एक के नीचे एक लिख देने से कविता नहीं बन जाती है। कविता चाहे छंदबद्ध हो या फिर छंदमुक्त एक प्रवाह की मांग करती है। छंदमुक्त कविताओं में भी एक रसात्मकता होनी चाहिए। ऐसा प्रवाह, ऐसी रसात्मकता कि जब कोई उसे कविता को पढ़े या सुने तो उसके भावों के साथ बह निकले। 
 14वीं शताब्दी के संस्कृत काव्य शास्त्र के प्रकांड विद्वान हुए आचार्य  विश्वनाथ। जिनका पूरा नाम था आचार्य विश्वनाथ महापात्र। इन्हें अलाउद्दीन खिलजी का समकालीन माना जाता है। आचार्य विश्वनाथ ने आचार्य मम्मट के ग्रंथ ‘काव्य प्रकाश’ की “काव्यप्रकाश दर्पण“ के नाम से टीका भी की है जिसका नाम है। आचार्य विश्वनाथ ने काव्य के संबंध में कहा है कि - “रसात्मकं वाक्यं काव्यम्“ अर्थात् रसात्मक वाक्य ही काव्य है।  जिसमें रसबोध न हो वह काव्य हो ही नहीं सकता है। फ्रीवर्स यानी छंदमुक्त कविताओं की संरचना के बारे में वर्डवर्थ्स ने बहुत अच्छा उदाहरण दिया है कि ‘‘छंदमुक्त या अतुकांत कविता स्थिर पानी में टपकने वाली उस बूंद के समान होनी चाहिए जो भावनाओं की वर्तुल लहरें पैदा कर सकें।’’  छंदमुक्त कविता नारेबाजी नहीं होनी चाहिए और न गद्य को तोड़-मरोड़ कर लिखे गए आधे-अधूरे वाक्य। जिसमें छंद न हो ऐसी कविताएं और अधिक श्रम की मांग करती हैं रसमय होने के लिए।         

     
कवि मदनमोहन उपाध्याय  'साहिल' तख़ल्लुस से गीत, ग़ज़ल व कविताएँ लिखते हैं I ‘खुशियों के रंग' पुस्तक का नाम ही इस बात का संकेत दे रहा है कि इसमें संग्रहीत कविताएं मन में खुशियों का संचार करने में सक्षम हैं। 
 इस पुस्तक में जो कविताएं हैं उनमें कवि के लगभग 30 वर्ष के अनुभवों का निचोड़ है। ये अनुभव प्रकृति के हैं, साहित्य की विडम्बनाओं के है और प्रेम के अटूट विश्वास के हैं।' जी की कविताएं ज़िन्दगी से संवाद करने में पूर्ण सक्षम हैं।
चूंकि कवि के इससे पहले दो ग़ज़ल संग्रह आ चुके हैं अतः यह माना जा सकता है कि छंद का अनुशासन वे जानते हैं। उनकी कविताओं में उर्दू , अरबी, फारसी के शब्दों की बहुलता भी स्वाभाविक रूप से मौजूद है। 

‘‘रण दुदुंभी बज उठी, गगन में
आज हवा तूफानी है,
जाग उठा हर हिन्दुस्तानी
अब कीमत पहचानी हैं।’’
ये पक्तियां वरिष्ठ आईएएस अधिकारी मदनमोहन उपाध्याय की।
मदनमोहन उपाध्याय सेंट स्टीफन्स कॉलेज दिल्ली से बी.एस-सी. आनर्स की डिग्री लेने के बाद भारतीय वन सेवा में 1978 से 1980 तक रहे। फिर 1980 में इंडियन रेलवे ट्रेफिक सर्विस में आ गये। इसके बाद 1981 में आईएएस में चयन हो गया। तब से वे मध्यप्रदेश प्रशासनिक सेवा के उच्चतम पदों पर कार्यरत रहे।
मदनमोहन उपाध्याय
"खुशियों के रंग" छंद मुक्त कविताओं का एक ऐसा संग्रह है जिसमें कवि मदनमोहन उपाध्याय ने अपने जीवन के लगभग 30 वर्ष के अनुभवों को कविता के रूप ढाला है। इन अनुभवों में प्राकृतिक सौंदर्य से जुड़ाव, साहित्य की विडंबनाओं, परम्पराओं का टूटना-बिखरना और इन सबके साथ शाश्वत प्रेम के प्रति अटूट विश्वास मदनमोहन की कविताओं को विशिष्ट बनाता है।


"खुशियों के रंग" में संग्रहीत कविताओं में ज़िन्दगी से सम्वाद करने की पूर्ण क्षमता है और ये कविताएं इन्हें पढ़ने वालों को एक अलग ही धरातल पर ले जाती हैं।
   


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