Friday, November 13, 2020

बुंदेलखंड का दिवारी नृत्य | दीपावली पर्व विशेष | डॉ. वर्षा सिंह

       बुन्देलखण्ड में लोकनृत्यों की लम्बी परम्परा है। राई, सैरा, मोनिया, नौरता, बरेदी, दिवारी यहां के प्रमुख लोकनृत्य हैं।  दिवारी, दीवारी या देवारी नृत्य दीपावली के अवसर पर  किया जाता है। यह नृत्य बुन्देलों के शौर्य एवं वीरता का प्रतीक है। 
         मान्यताओं के अनुसार यह नृत्य द्वापर युग में भगवान् कृष्ण के समय से इस क्षेत्र में प्रचलित है। माना जाता है कि भगवान कृष्ण ने जब कंस का वध किया था तब उसका समाचार सुन कर बुंदेलखंड में दिवारी नृत्य किया गया था जो आज भी परम्परागत तरीक़े से ज़ारी है। यह भी कहा जाता है कि कृष्ण ने जब गोवर्धन पर्वत को अपनी उंगली पर उठा कर ब्रजवासियों को इन्द्र के प्रकोप से बचाया था तब ब्रजवासियों ने खुश हो कर यह दिवारी नृत्य कर श्री कृष्ण की इन्द्र पर विजय का जश्न मनाया था तथा ब्रज के ग्वालावाले ने इसे दुश्मन को परास्त करने की सबसे अच्छी कला माना था। इसी कारण इन्द्र को श्री कृष्ण की लीला को देख कर परास्त होना पड़ा। 
        बुंदेलखंड के उत्तरप्रदेश वाले क्षेत्र बांदा, चित्रकूट, जालौन, झाँसी, ललितपुर, हमीरपुर और महोबा जनपद में वीर आल्हा, उदल की वीरता की झलक दिवारी नृत्य में दिखाई देती है।  बुंदेलखंड के इलाकों में ये दीवारी नृत्य टोलियों में होता है। अपने-अपने गांवों की टोलिया बनाकर सभी वर्गों के लोग आत्मरक्षा वाली इस कला का प्रदर्शन करते हैं। नर्तक इस नृत्य के दौरान आपस में लाठियां एक दूसरे को मारते और बचाव करते हैं। बुन्देलखण्ड के मध्यप्रदेश वाले हिस्से में बुंदेला राजा छत्रसाल की वीरता से इसे जोड़ा जाता है।
सागर, दमोह, पन्ना, छतरपुर, टीकमगढ़ और दतिया ज़िलों में यह परंपरागत लोक नृत्य जिमनास्टिक की तरह प्रस्तुत किया जाता है।  ढोलक की थाप पर रंगबिरंगी वेषभूषा में हाथों में मज़बूत लाठी ले कर दिवारी लोक नृत्य खेलने वाले अलग ही दिखाई देते हैं। उनकी पोशाकें -जांघिए और कुर्तियां, चटक पीले,हरे,नीले या लाल रंग के कपड़ों और रेशमी गोटों से बनी होती हैं। उनमें कौड़ियां और बड़े घुंघरू टंके होते हैं। साथ ही किनारों पर रंग-बिरंगे फुंदने लटकते रहते हैं। मौनिया नर्तक पांवों में छोटे घुंघरू बांधते हैं और हाथों में मोरपंखों का गुच्छा या बांस की लाठियां लिए रहते हैं। यह माना जाता है कि चंदेलों के शासन काल में पारम्परिक रूप से युद्ध कौशल को बढ़ावा देने के उद्देश्य से इस लोक नृत्य की शुरुआत हुई।        
  
         बुंदेलखंड के ग्रामवासी, बल्कि ख़ास तौर पर यादववंशी यानी अहीर जाति के ग्वाले पुरुष इस नृत्य में भाग लेते हैं। यह पुरुषों का समूह लोकनृत्य है और नाचने वाले ‘दिवरिया’ या ‘मौनिया’ कहलाते हैं। वस्तुतः इस नृत्य के साथ दिवारी लोक गीत गाया जाता है और इसीलिए इस नृत्य को 'दिवारी नृत्य' कहते हैं। 
एक दिवारी गीत की बानगी देखिए -

बाबा नंद के छौना, तुमने भली डराई रीत, कातिक के महीना मां घर-घर दीन सूचना,

व देश दीवारी दो दिना, मथुरा बारह मास, नित राही गोवर्धन धरे, कान्हा खिलावें गाय,

इस नृत्य में ढोल-नगाड़े की टंकार के साथ पैरों में घुंघरू और कमर में पट्टा बांध कर हाथों में लाठियां ले कर जोशीले अंदाज में एक-दूसरे पर लाठी से प्रहार करते हैं। किन्तु कोई आहत नहीं होता। बुन्देलखंड का यह विशिष्ट लोक नृत्य 'मार्शल आर्ट' जैसा ही कहा जा सकता है। हाथों में मोरपंख लेकर थिरकन और विशेष लय में पद संचालन के साथ गोल घेरे में घूम कर नचइयों का समूह-नृत्य और नृत्य के बीच या अंत में लाठियों की टकराहट के साथ अनूठे खेल और करतब यानी हैरतअंगेज वीरता को प्रदर्शित करता मार्शल आर्ट। दिवारी गाने वाले सैकड़ों ग्वाले लोग गांव नगर के संभ्रांत लोगों के दरवाजे पर पहुंचकर कड़ु़वा तेल पियाई चमचमाती मजबूत लाठियों से दिवारी खेलते हैं। उस समय युद्ध का सा दृश्य न आता है। एक आदमी पर एक साथ १८-२० लोग एक साथ लाठी से प्रहार करते हैं, और वह अकेला पटेबाज खिलाड़ी इन सभी के वारों को अपनी एक लाठी से रोक लेता है। इसके बाद फिर लोगों को उसके प्रहारों को झेलना होता है। चट-चटाचट चटकती लाठियों के बीच दिवारी गायक जोर-जोर से दीवारी --गीत-- गाते हैं और ढ़ोल बजाकर वीर रस से युक्त ओजपूर्ण नृत्य का प्रदर्शन करते हैं। पाई डण्डा नृत्य ८-१० व्यक्तियों के समूह में विभिन्न प्रकार के करतब्य मजीरा-नगड़ियां के साथ दिखाते हैं।
दीपावली के कुछ दिन पूर्व से ही गांव-गांव में लोग टोलियां बना दीवारी नृत्य का अभ्यास करने लगते हैं। बुंदेलखंड में धनतेरस से लेकर दीपावली की दूज तक गाँव-गाँव में दिवारी नृत्य खेलते नौजवानों की टोलियाँ घूमती रहती हैं। दिवारी देखने के लिए हजारों की भीड़ जुटती है। 
     लगभग धनतेरस से शुरू हो कर यह नृत्य भाईदूज पर्व तक चलता रहता है। ग्रामीण क्षेत्रों में कार्तिक माह में हर तरफ इस नृत्य की हलचल व्याप्त रहती है।
      इस दिवारी नृत्य को बड़े, बूढ़े और बच्चे सभी पसंद करते हैं और इसमें बढ़ चढ कर भाग लेते हैं। इस नृत्य की विशेष बात यह है कि इस दिवारी नृत्य में सिर्फ हिन्दू धर्मावलंबी ही नहीं बल्कि मुस्लिम समुदाय के लोग भी उत्साहपूर्वक भाग लेते हैं।


    एक और दिवारी गीत देखें - 

टेरत-टेरत दूर निकल गईं,
लेत तुम्हारो नाम।
       तुम्हें तो टेरत हैं घनश्याम ...

गोरी-गोरी उमर की छोटी,
राधा उनका नाम।   तुम्हें तो...
टेरत हैं घनश्याम

कहां का रहना, कहां का मिलना,
कहां भई पहचान।   तुम्हें तो...
टेरत हैं घनश्याम

गोकुल रहना, मथुरा मिलना,
बरसाने पहचान।   तुम्हें तो...
टेरत हैं घनश्याम...

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2 comments:

  1. बहुत ही उपयोगी एवं नवीन जानकारी दी वर्षा जी आपने । हार्दिक आभार । ऐसी लोक-कलाओं एवं सांस्कृतिक प्रतीकों का जीवित रहना ही समाज के हित में है । अतः इनका संरक्षण अवश्य किया जाना चाहिए । ये अनमोल परंपराएं ही भूत, वर्तमान एवं भविष्य को संयुक्त करती हैं ।

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  2. बहुत बहुत धन्यवाद आपका माथुर जी 🙏🌹🙏

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