Saturday, October 17, 2020

सागर: साहित्य एवं चिंतन | पुनर्पाठ 12 | सुरेश आचार्य, शनीचरी का पण्डित | पुस्तक | डॉ. वर्षा सिंह


प्रिय ब्लॉग पाठकों, 
               स्थानीय दैनिक समाचार पत्र "आचरण" में प्रकाशित मेरा कॉलम "सागर : साहित्य एवं चिंतन " जिसमें पुस्तकों के पुनर्पाठ की श्रृंखला के अंतर्गत बारहवीं कड़ी के रूप में प्रस्तुत है - सागर नगर के सुपरिचित व्यंग्यकार प्रो. सुरेश आचार्य पर केन्द्रित पुस्तक "सुरेश आचार्य, शनीचरी का पंडित" का पुनर्पाठ।
   
सागर: साहित्य एवं चिंतन

पुनर्पाठ: ‘सुरेश आचार्य: शनीचरी का पंडित’
                               -डॉ. वर्षा सिंह
                             
         इस बार पुनर्पाठ के लिए मैंने चुना है एक ऐसी पुस्तक को जो एक व्यक्ति विशेष पर केंद्रित है अर्थात उस विशेष व्यक्ति के बारे में समग्र जानकारी प्रदान करने में सक्षम है, जो जनप्रिय है, लोकप्रिय है और साहित्य में ही नहीं वरन समाज में भी विशेष स्थान रखता है। जी हां, वे विशेष व्यक्ति हैं प्रो. सुरेश आचार्य। वे व्यंग विधा के पुरोधा हैं, वे सामाजिक सरोकार रखते हैं तथा वे जनप्रिय हैं। इसलिए इस किताब की अर्थवत्ता अपने आप द्विगुणित हो जाती है कि जो भी व्यक्ति डॉ सुरेश आचार्य के बारे में जानना चाहता है, उनके बचपन के बारे में, उनकी जीवनचर्या के बारे में, उनके लेखन के संबंध में, उनके राजनीतिक विचारों के बारे में, तो उसे यह सभी जानकारी इस पुस्तक में मिल सकती है। डाॅ. लक्ष्मी पांडेय द्वारा संपादित यह पुस्तक कुल चारखंड में विभक्त है इसे अभिनंदन ग्रंथ भी कहा जा सकता है।

        सन् 1933 में आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी को काशी नागरी प्रचारिणी सभा की ओर से एक अभिनंदन ग्रन्थ भेंट किया गया था जिसमें उनके अवदान पर देश-विदेश के साहित्यकारों, मनीषियों के लेख संकलित थे। उसकी भूमिका श्याम सुन्दर दास और कृष्ण दास के नाम से प्रकाशित थी। पर कहा जाता है कि यह वास्तव में नंददुलारे वाजपेयी ने लिखी थी। आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी पर प्रकाशित अभिनंदनग्रंथ में समालोचक मैनेजर पाण्डेय ने ‘‘आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी और उनका अभिनंदन’’ शीर्षक से एक लेख लिखा था। अपने इस लेख में मैनेजर पांडेय ने अभिनंदनग्रंथ के बारे में लिखा कि ‘‘इस अभिनंदन ग्रन्थ में भूमिका और प्रस्तावना के बाद मुख्य भाग में निबंध, कविताएं, श्रद्धांजलियां, विदेशी विद्वानों और लेखकों के संदेश के साथ एक चित्रावली भी है। निबंधों के विषयों और श्रद्धांजलियों  की विविधता चकित करने वाली है। इसमें अंग्रेजी में रेव. एडविन ग्रीब्स, पी. शेषाद्रि, प्रो. ए. बेरिन्निकोव और संत निहाल सिंह के लेख हैं। श्रद्धांजलि के अंतर्गत एक ओर महात्मा गांधी के साथ भाई परमानन्द हैं, तो दूसरी ओर अनेक विदेशी विद्वानों और लेखकों के संदेश हैं। उस युग के अधिकांश कवियों की कविताएं इस अभिनंदन ग्रंथ में हैं। इस ग्रंथ में जो चित्रावली है उसका एक विशेष महत्व यह है कि अभिनंदन ग्रंथ के आज के पाठक आधुनिक हिंदी साहित्य के ऐसे लेखकों-कवियों का रूप-दर्शन कर सकेंगे, जिनका वे केवल नाम जानते हैं।’’
अपने लेख की अंतिम पंक्ति में मैनेजर पांडेय ने लिखा है कि ‘‘इस ग्रंथ का केवल ऐतिहासिक महत्व नहीं है. इसके निबंध ‘ज्ञानराशि के संचित कोश’ होने के कारण आज भी पठनीय और मननीय हैं।’’ ठीक यही बात लागू होती है ‘‘सुरेश आचार्य: शनीचरी का पंडित’’ पर।
         ‘‘सुरेश आचार्य: शनीचरी का पंडित’’ पुस्तक के चार खंडों में प्रथम खंड है- ‘‘जल बिच कुंभ: न था मैं खुदा था’’। इस खंड में प्रोफेसर सुरेश आचार्य का आत्मकथ्य है। जिसमें उन्होंने सागर के बारे में अपने अनुभव को व्यक्त किया है। इसी खंड में प्रोफेसर सुरेश आचार्य से तीन लोगों ने बातचीत की है - लक्ष्मी पांडे, प्रो. अरुण कुमार मिश्रा और प्रो. रूपा गुप्ता ने।

      खंड 2- ‘‘सर्वे सुखम् गृह माययौ: दिल के बहलाने को गालिब ये ख़्याल अच्छा है’’ के अंतर्गत प्रोफेसर आचार्य का जीवन परिचय, वंशावली तथा परिजनों की दृष्टि में आचार्य जी के व्यक्तित्व का विवरण है जिसमें शांभवी आचार्य, शुभ्रांशु आचार्य, कृति आचार्य, श्वेतांशु आचार्य, शारदवद आचार्य, प्रतिभा आचार्य, शांतनु आचार्य, डॉ संजय आचार्य, पदमा आचार्य, शाश्वत आचार्य, डॉ शैलेश आचार्य तथा आरती तिवारी के विचार शामिल किए गए हैं।

         खंड 3- ‘‘ते तुलसी तब राम बिन जे अब राम सहाय: कमी जो पाई तो अपने खुलूस में पाई’’ - इस खंड में प्रोफेसर आचार्य को लिखे गए पत्र, अभिनंदन पत्र एवं सम्मान पत्र शामिल हैं। इसी खंड में प्रोफेसर आचार्य के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर लिखी गई श्याम मनोहर सिरोठिया, मायूस सागरी, कालिका प्रसाद शुक्ल ‘विजयी’ एवं हरिहर प्रसाद खड्डर द्वारा लिखी गई कविताएं संकलित है। साथ ही संकलित है प्रोफेसर सुरेश आचार्य की विश्वविद्यालय से सेवानिवृत्ति के अवसर पर की गई टिप्पणियां।

         खंड 4- ‘‘हम चाकर रघुवीर के: हम भी क्या याद करेंगे कि खुदा रखते थे’’। इस खंड में प्रोफेसर सुरेश आचार्य के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर केंद्रित कुल 50 लेख हैं। इस महत्वपूर्ण खंड में हरिशंकर परसाई, कांति कुमार जैन, उदय जैन,  रामेश्वर नीखरा, सत्य मोहन वर्मा, सुरेंद्र सिंह नेगी, कृष्णचंद्र लाल, सुरेंद्र दुबे, सुधाकर सिंह, कालीचरण स्नेही, हरिशंकर मिश्र, निर्मल चंद निर्मल, लक्ष्मी नारायण चैरसिया, चंदा बैन, राजेंद्र यादव, जीवनलाल जैन, बैजनाथ प्रसाद, रूपा गुप्ता, मनोहर देवलिया, टीकाराम त्रिपाठी, आशुतोष राणा, सरोज गुप्ता, अशोक मिजाज, अरुण कुमार मिश्र, नरेंद्र सिंह, स्मृति शुक्ला, मणिकांत चैबे, वेद प्रकाश दुबे, भोलाराम भारतीय, राजेश दुबे, शरद सिंह, नरेंद्र दुबे, राजेंद्र नागर, महेश तिवारी, निरंजना जैन, गजाधर सागर, सुखदेव प्रसाद तिवारी, छाया चौकसे, उमाकांत मिश्र, स्वर्णा वाजपेई, चंचला दवे, निधि जैन, सुखदेव मिश्र, हेमचंद्र चैधरी, किशन पंत, आशीष ज्योतिषी, ममता यादव, नेमीचंद जैन विनम्र तथा लक्ष्मी पांडे के लेख शामिल हैं।

       इस पुस्तक में प्रोफेसर सुरेश आचार्य ने अपने जीवन के कुछ ऐसे प्रसंग रखे हैं जिनसे तत्कालीन सामाजिक जीवन का भी पता चलता है जैसे अपने आत्मकथ्य में ‘‘क्या सुनाएं दास्तां’’ के अंतर्गत वे लिखते हैं- ‘‘मैं खुद छोटे पंडित की भूमिका में पूजा पाठ कथा वार्ता घर-घर कराने घूमने लगा। साल में दो हाफ कमीज़ो की संख्या घटकर एक रह गई। खाकी हाफ पेंट थिगड़े लगाकर पहने जाने लगे। मेरी उद्दंडता और सीनाजोरी में इज़ाफ़ा हुआ। सागर तालाब उन दिनों शहर का एकमात्र जल स्रोत था। गर्मियों में भी पानी से लबालब भरा रहता। कमल खिलते, सिंघाड़े लगते, चक्रतीर्थ यानी चकरा घाट से बस स्टैंड का ज्यादातर यातायात नावों के जरिए होता था। चार आने सवारी। सामान फ्री। तालाब के किनारों पर बने पत्थर की सीढ़ियों पर लोग कपड़े धोते, पानी में छलांग मार कर निकलते और सीढ़ियों पर बैठकर साबुन लगाते। आमतौर पर कपड़े धोने और नहाने का एक ही साबुन होता था। लोकल मेड। बड़े लोग लाइफबाय से नहाते और सनलाइट साबुन से कपड़े धोते।’’

 

  

      यह विवरण सहज सरल सामाजिक व्यवस्था एवं वातावरण का दृश्य आंखों के सामने चलचित्र के समान चला देता है। इस ग्रंथ में अनेक रोचक प्रसंग पढ़ने को मिलते हैं जैसी अपने वक्तव्य के अंतर्गत प्रोफेसर सुरेश आचार्य ने हरिशंकर परसाई के साथ जुड़े अपने अनुभवों को साझा करते हुए यह घटना लिखी है जो बड़ी ही दिलचस्प है - ‘‘मैं उनके घर ठहरा और लघु शोध प्रबंध को प्रमाणिक बनाने रोज शाम 7 बजते-बजते परसाई जी के घर पहुंच जाता। उनसे चर्चा में एक-दो घंटे गुजार कर लौटता। फिर नोट्स लेता। मैजारिटी की भाषा में परसाई जी बड़े भक्त आदमी थे। शाम होते ही भक्ति-भजन में लग जाते थे। एक शाम उन्होंने मुझसे सीधे पूछ लिया- ‘यार आचार्य, तुम पीते हो या नहीं?’ अल्लाह! क्या कहूं!! मैंने उत्तर दिया- ‘जी, मैं परहेजगार तो नहीं हूं पर रोज पीने की मेरी हैसियत नहीं है।’ उन दिनों व्हाइट हार्स नामक अंग्रेजी शराब उनका प्रिय ब्रांड थी। उन्होंने कहा- ‘प्रियवर, तब तुम सुबह 9 बजे आया करो। शाम को अपनी बात ठीक से नहीं हो पाती। उस वक्त मैं सफेद घोड़े पर सवार होता हूं और तुम पैदल चलते हो।’ मैंने समय बदल लिया। यह लघु शोध प्रबंध परसाई जी पर पहला शोध कार्य था। एम. ए. उत्तरार्द्ध की परीक्षा का यह आठवां वैकल्पिक प्रश्न पत्र था। निर्धारित 100 अंकों में से मुझे 60 अंक मिले। विभाग में कार्यरत एक अध्यापक महोदय के भतीजे को छियान्वे। पूर्वाद्ध में वे बहुत पीछे थे। उत्तरार्ध में संबंधित गुरुजनों के इस जादू के बावजूद मेरी पोजीशन बची रही।’’

        इस तरह के प्रसंग इसलिए महत्वपूर्ण हैं कि आमतौर पर अभिनंदन ग्रंथों में संबंधित व्यक्ति को महिमामंडित ही किया जाता है। उसकी महिमाओं के बखान के अतिरिक्त अन्य जानकारियां नहीं होती हैं। किंतु इस ग्रंथ में अभिनंदन के साथ-साथ समय अनुसार परिस्थितियां, वातावरण, प्रशासनिक स्थितियां, शैक्षिक स्थितियां इन सभी के बारे में पता चलता है कि शिक्षा क्षेत्र में किस तरह से नंबरों के उतार-चढ़ाव का भ्रष्टाचार व्याप्त था। योग्यता को संबंधों के आधार पर तौला जाता था। इस प्रकार के तथ्य इस ग्रंथ को अन्य अभिनंदन ग्रंथों से इसको अलग ठहराते हैं। इस प्रकार की घटनाओं के उल्लेख से यह भी पता चलता है कि हरिशंकर परसाई जी जैसे ख्यातिनाम व्यंगकार झूठ और दिखावे में लिप्त नहीं थे बल्कि वे जैसे थे वैसे ही जीना पसंद करते थे। उन्होंने अपने शिष्य के सामने झूठा दिखावा न करते हुए इस बात को उजागर कर दिया कि वे मदिरापान करते हैं। यह तथ्य सुरेश आचार्य के बहाने परसाई जी के एक सरल, सहज व्यक्तित्व की झलक सामने रखता है।

           वहीं सुरेश आचार्य के बारे में हरिशंकर परसाई के विचार और भी महत्वपूर्ण हैं। वे लिखते हैं कि- ‘‘सुरेश आचार्य बुंदेलखंडी है। बुंदेली भाषा बहुत मीठी और लयात्मक होती है। जब बुंदेलखंडी लोग आपस में बात करते हैं तो ध्वनि की लचक बहुत मीठी होती है। मगर बुंदेली वीर भी इतिहास प्रसिद्ध हैं, तो इस मीठी भाषा में क्रोध कैसे व्यक्त किया जाता होगा? कठोर गाली कैसे दी जाती होगी? गुस्से में बुंदेलखंडी सामने वाले से बड़ी मीठी भाषा में कहेगा- ए तुम भौतई बढ़ रये हो इते। अब मौं चलाओ तो हम उठा के मैंक दैहें। कितनी मिठास है शब्दों में। लय है। मगर वह क्या कह रहा है? वह कह रहा है- तुम बहुत बढ़ रहे हो। अब मुंह चलाया तो उठा कर फेंक दूंगा। सुरेश आचार्य की बुंदेली में एकाध ही रचना है। बाकी खड़ी बोली हिंदी में है। मगर उनके व्यक्तित्व में और व्यंग में यह मूल बुंदेलीपन है। उनका वक्तव्य सहज, रोचक और निर्वैर लगता है। मगर उसमें भीतर वही मैंक देने का अर्थ होता है। उनकी भाषा में कठोरता नहीं है। व्यंग में ऊपर से घन मारने जैसा प्रहार नहीं दिखता। मगर वे सहज ही चलते-चलते ऐसे रिमार्क कर जाते हैं जिनसे हमारी समकालीन व्यवस्था की कलई खुल जाती है। झूठ, फरेब, पाखंड, भ्रष्टाचार, विसंगति आदि पर एकाध रिमार्क कर के वे आगे बढ़ जाते हैं।’’

        प्रो. सुरेश आचार्य के व्यंग्य ही नहीं अपितु व्यंग्य और समाज के परस्पर संबंधों पर किया गया शोधग्रंथ भी बहुत प्रसिद्ध है। प्रो. आचार्य पर एकाग्र इस ग्रंथ में उनकी पुस्तक ‘‘व्यंग्य का समाज दर्शन’’ पर लेख लिखते हुए देश की प्रतिष्ठित लेखिका डाॅ शरद सिंह ने टिप्पणी की है कि -‘‘व्यंग्य समाज से ही क्यों उत्पन्न होता है? इस प्रश्न का उत्तर डाॅ. सुरेश आचार्य ने अपने शोधपूर्ण ग्रंथ ‘‘व्यंग्य का समाज दर्शन’’ में विस्तारपूर्वक दिया है। डाॅ. सुरेश आचार्य हिन्दी साहित्य जगत के एक प्रतिष्ठित व्यंग्यकार हैं। ‘‘व्यंग्य का समाज दर्शन’’ पर ही डाॅ. आचार्य को डी. लिट. की उपाधि दी गई।’’

       प्रो. आचार्य की लेखकीय एवं व्यक्तित्व की विशेषताओं को रेखांकित करते हुए पत्रकार एवं ‘आचरण’ समाचार पत्र की प्रबंध संपादक निधि जैन ने लिखा है कि- ‘‘शब्दों का, मुहावरों का, लोकोक्तियों का इतना भण्डार आचार्य जी के पास है जितना अन्यत्र ही किसी के पास होगा। आचार्य जी अच्छे शिक्षक होने के साथ-साथ प्रसिद्ध साहित्यकार, आलोचक, व्यंग्यकार, ज्योतिषी और कथावाचक भी हैं।’’ 

         साहित्यसेवी उमाकांत मिश्र ने प्रो. सुरेश आचार्य के व्यक्तित्व पर बहुत ही सटीक लेख लिखा है जिसकी कुछ पंक्तियां देखिए- ‘‘आखिर उन्हें हम किस रूप में देखना ज्यादा पसंद करेंगे? एक विद्वान वक्ता, एक प्रोफेसर, एक अति गंभीरता के साथ साथ सादगी लिए हुए व्यक्तित्व, एक समीक्षक, साहित्यकार जिसकी कोई मिसाल ही नहीं, एक व्यंगकार जो आपको अवसाद से मुक्त कराता हो, गमगीन माहौल को अपनी वाकपटुता और ज्ञानपूर्ण उद्बोधनों के माध्यम से आपके हृदय में हलचल मचा देता हो, आपको ठहाके लगाने पर मजबूर कर देता हो या फिर एक ऐसे यारबाज के रूप में जो बगैर आपकी उम्र की परवाह किए बुजुर्गों को बल्कि छोटे-छोटे बच्चों के बीच भी अपनी उपस्थिति एक यार, एक मित्र, एक दोस्त और महत्वपूर्ण व्यक्ति के रूप में दर्ज़ करता हो।’’

         अनेक रोचक प्रसंग और आत्मीयता की अनेक लहरों से भीगे हुए, प्रो. आचार्य की खूबियों की सीपियां समेटे हुए महासागर की समग्रता लिए हुए डाॅ. लक्ष्मी पांडेय द्वारा संपादित इस ग्रंथ की सबसे बड़ी उपादेयता यह है कि यह अपने प्रिय व्यक्ति, अपने प्रिय साहित्यकार, अपने प्रिय समाजसेवी, अपने प्रिय राजनीतिज्ञ (राजनेता नहीं), अपने प्रिय मार्गदर्शक के बारे में जानने का भरपूर अवसर प्रदान करता है और बार-बार पढ़े जाने की ललक पैदा करता है।
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( दैनिक, आचरण  दि.17.10.2020)
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9 comments:

  1. अत्यंत सुन्दर और रोचकता से परिपूर्ण समीक्षात्मक लेख वर्षा जी.
    आपकी लेखनी को नमन🙏💐🙏

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    1. बहुत धन्यवाद मीना जी 🙏

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  2. पुस्तक बहुत अच्छी प्रतीत होती है । अवश्य पढ़ना चाहूंगा । इस अत्यंत उपयोगी तथा सूचनाप्रद लेख के लिए आपका बहुत-बहुत आभार वर्षा जी ।

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    1. हार्दिक धन्यवाद माथुर जी 🙏

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  3. बहुत ही सुन्दर समीक्षात्मक पुनर्पाठ...
    पुस्तक के सभी खण्डों की रौचक वर्णन।

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद सुधा जी 🙏

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  4. आपकी इस सदाशयता के प्रति हार्दिक आभार अनीता सैनी जी 🙏

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