Saturday, October 10, 2020

सागर: साहित्य एवं चिंतन | पुनर्पाठ 11 | हिंदी काव्य-समीक्षा के प्रतिमान | आलोचनाग्रंथ | डॉ. वर्षा सिंह

प्रिय मित्रों, 
               स्थानीय दैनिक समाचार पत्र "आचरण" में प्रकाशित मेरा कॉलम "सागर : साहित्य एवं चिंतन " जिसमें पुस्तकों के पुनर्पाठ की श्रृंखला के अंतर्गत ग्यारहवीं कड़ी के रूप में प्रस्तुत है - सागर नगर के साहित्यकार डॉ. महेश तिवारी द्वारा लिखित आलोचना ग्रंथ  "हिन्दी काव्य समीक्षा के प्रतिमान" का पुनर्पाठ।

 सागर : साहित्य एवं चिंतन

     पुनर्पाठ : ‘हिंदी काव्य-समीक्षा के प्रतिमान’ आलोचनाग्रंथ
                        -डॉ. वर्षा सिंह
                                                          
      इस बार पुनर्पाठ के लिए मैंने चुना है सागर के कवि एवं साहित्यकार डाॅ. महेश तिवारी की पुस्तक ‘हिंदी काव्य-समीक्षा के प्रतिमान’। यह पुस्तक एक आलोचनाग्रंथ है। किसी भी आलोचनाग्रंथ के समूचे दृष्टिकोण को एकबार के पठन-पाठन में समझा नहीं जा सकता है। क्योंकि प्रत्येक आलोचनाग्रंथ प्रथम पाठ के बाद चिंतन, पुनर्चिंतन और फिर पुनर्पाठ का आग्रह करता है। डाॅ. महेश तिवारी की इस पुस्तक में भारतेंदु युग से लेकर छायावादोत्तर युग की कविता की आलोचना के विकास, उसके मूल्य- परिवर्तन, मूल्य-चिंतन आदि को समझते हुए कविता के मूल्यांकन के बदलते प्रतिमानों का आकलन किया गया है। इस आकलन प्रक्रिया में भारतीययुगीन एवं द्विवेदीयुगीन काव्य समीक्षा का विश्व अवलोकन एवं आकलन करते हुए मुख्य रूप से आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा कविता के मूल्यांकन के उन मापदंडों को रेखांकित किया गया है, जहां साहित्य के भावतत्व युग के नए आदर्शों, साहित्य की सामाजिक पृष्ठभूमि, कवि के साथ समीक्षक के तादात्म्य में ही महत्व दिया गया है। यह पुस्तक अत्यंत महत्वपूर्ण हो उठती है जब इसमें चर्चा की जाती है पाश्चात्य काव्य प्रवृत्तियों से हिंदी काव्य प्रविधि का तुलनात्मक अध्ययन की। छायावादी काव्य चिंतन को समझने के लिए इंग्लैंड के स्वच्छतावादी कवियों की काव्य चिंतन की प्रवृत्तियों को समझने का प्रयास किया गया है। यदि बात की जाए पाश्चात्य काव्य प्रविधियों के हिन्दी काव्य पर प्रभाव की, तो प्रसाद की तुलना में निराला पश्चिमी साहित्य से अधिक स्पष्ट रूप से परिचित दिखाई देते हैं। निराला के काव्य में साहित्य की सार्वजनिकता स्पष्टरूप से देखी जा सकती है। मुक्तछंद को प्रभावी ढंग से हिन्दी काव्य में प्रस्तुत करने वाले ‘निराला’ की ‘‘कुकुरमुत्ता’’ कविता अद्वितीय है। इस पुस्तक को पढ़ते हुए याद आ जाती हैं ‘‘कुकुरमुत्ता’’ कविता की ये पंक्तियां-

अबे, सुन बे, गुलाब,
भूल मत जो पायी ख़ुशबू, रंग-ओ-आब,
खून चूसा खाद का तूने अशिष्ट,
डाल पर इतरा रहा है केपीटलिस्ट!
कितनों को तूने बनाया है गुलाम।

‘‘कुकुरमुत्ता’’ कविता सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ कोई अलग ही जमीन पर खड़ा करती है जहां वे पूंजीवाद को ललकारते हुए दिखाई देते हैं। ‘निराला’ ने पूंजीवादी सभ्यता पर कुकुरमुत्ता के बहाने करारा कटाक्ष किया है। कुकुरमुत्ता गुलाब को सीधा भदेश अंदाज में संबोधित करता हुआ उसके सभ्यता की कलई खोलता चला जाता है और सीधे, सपाट शब्दों में हुंकार भरता है कि  ‘‘अबे सुन बे गुलाब, डाल पर इतराता है कैपिटलिस्ट!’’
जहां सुमित्रानंदन पंत की काव्य चिंतन में स्वच्छतावादी चेतना से अनुप्राणित नए संकेत तथा प्रतिमान दिखाई देते हैं, वहीं महादेवी वर्मा की काव्यगत मान्यताएं छायावादी अथवा स्वच्छंदतावाद काव्य की पृष्ठभूमि के समीप मिलती हैं। इस पुस्तक में लेखक डॉ महेश तिवारी ने स्वच्छंदतावादी समीक्षा पद्धति द्वारा काव्य के मूल्यांकन के आधार पर उन बिंदुओं को देखा-परखा है, जिनसे प्रेरणा लेकर आचार्य नंददुलारे वाजपेई ने अपनी आलोचना दृष्टि का विकास किया। आचार्य नंददुलारे वाजपेई, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी और डॉ नगेंद्र ने नई काव्य रचना की प्रवृत्ति और नए युग संदर्भों को दृष्टि में रखकर ही काव्य मूल्यांकन के नए प्रतिमान निश्चित किए किंतु पारंपरिक काव्य प्रतिमान भी उनके दृष्टि से बाहर नहीं हुए हैं। डॉ महेश तिवारी ने लिखा है कि आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अपने उदार मानवतावादी चिंतन के परिपेक्ष में काव्य और अस्तित्व की व्याख्या की है और काव्य सत्ता को उसी के भीतर से पहचानने और परखने का प्रयास हिंदी काव्य चिंतन के क्षेत्र में पहली बार स्वच्छंदतावादी समीक्षा के अंतर्गत हुआ है।
 ‘‘हिंदी काव्य-समीक्षा के प्रतिमान’’ को पढ़ते हुए जब ‘‘छायावादी काव्य चिंतन’’ के अंतर्गत जयशंकर प्रसाद की काव्य प्रवृत्तियों पर चिंतन का संदर्भ आता है तो स्वतः याद आ जाती है उनकी यह कविता-
ले चल वहां भुलावा देकर
मेरे नाविक! धीरे-धीरे ...
जिस निर्जन में सागर लहरी
अम्बर के कानों में गहरी
निश्छल प्रेम-कथा कहती हो-
तज कोलाहल की अवनी रे ।

प्रश्न उठता है कि क्या जयशंकर प्रसाद पलायनवादी थे तो इसका उत्तर उनके अन्य काव्य में मौजूद है कि वे पलायनवादी नहीं थे बल्कि दृढ़तावादी थे। प्रसाद के काव्य को समझने में यह पुस्तक बहुत सहायक सिद्ध होती है जब महेश तिवारी लिखते हैं कि प्रसाद ने पश्चिमी विचारकों की भांति काव्य और कला को एक नहीं माना है। भारतीय मान्यता के अनुसार उन्होंने कला को उपविद्या माना है जो बुद्धिवाद की प्रधानता सूचित करती है और जिसका संबंध विज्ञान से अधिक घनिष्ठ होता है। डॉ. तिवारी उदाहरण देते हुए लिखते हैं कि ‘‘स्कंदगुप्त’’ नाटक में मातृगुप्त कहता है- ‘‘कवित्व-वर्णमय चित्र है, जो स्वर्गीय भावपूर्ण संगीत गाया करता है। अंधकार का आलोक से, असत का सत से, जड़ का चेतन से और बाह्य जगत का अंतर्जगत से संबंध कौन कराती है, कविता ही न?’’ स्पष्ट है कि यहां प्रसाद जी ने कविता को सृष्टि के परस्पर विरोधी तत्वों में संबंध स्थापित कराने वाली सत्ता के रूप में मान्यता दी है। प्रसाद की यह परिभाषा साहित्यिक कम, आध्यात्मिक और दार्शनिक अधिक है। फिर भी इस परिभाषा में काव्य रचना के अंतर्गत अनुभूति की केंद्रीयता को तो स्वीकार किया ही गया है। काव्य की जो परिभाषा प्रसाद ने ‘‘काव्य कला तथा अन्य निबंध’’ नामक कृति में प्रस्तुत की है वह बहुचर्चित भी है और अधिक मान्य भी। इसके अंतर्गत प्रसाद जी ने कहा है कि ‘‘काव्य आत्मा की संकल्पात्मक अनुभूति है, जिसका संबंध विश्लेषण विकल्प या विज्ञान से नहीं है। वह एक श्रेयमयी प्रेय रचनात्मक ज्ञानधारा है। आत्मा की मनन शक्ति की असाधारण अवस्था, जो श्रेय सत्य को उसके मूल चारुत्व में सहसा ग्रहण कर लेती है, काव्य में संकल्पात्मक अनुभूति कही जा सकती है।’’ जयशंकर प्रसाद की इस परिभाषा पर टिप्पणी करते हुए आचार्य भगीरथ मिश्र ने कहा है कि प्रसाद जी की वह परिभाषा केवल व्यक्तिगत दृष्टिकोण ही स्पष्ट करती है। उन्होंने प्रश्न उठाया कि ‘‘काव्य केवल अनुभूति मात्र ही नहीं होता, दूसरी बात अनुभूति केवल संकल्पात्मक ही होती है। अतः इस परिभाषा में संकल्पात्मक शब्द एक अतिरिक्त शब्द है।’’ 


 डॉ. महेश तिवारी कहते हैं कि काव्य की आत्मा का प्रश्न प्रसाद ने बहुत सीधे ढंग से विचार नहीं किया है किंतु काव्य रचना में उन्होंने आत्मानुभूति की केंद्रित ही स्वीकार की है। हिंदी में नई छायावादी काव्य रचना के उद्भव के समय पूर्ववर्ती आचार्यों द्वारा उसका जो विरोध हुआ उसके संदर्भ में महादेवी वर्मा ने भी छायावाद के पक्ष को स्पष्ट करते हुए अपनी मान्यताएं प्रस्तुत कीं। महादेवी वर्मा के अनुसार स्वच्छंदतावाद की भांति हिन्दी का छायावाद भी पूर्ववर्ती शास्त्रीयता विजड़ित विषय-प्रधान कविता के विरुद्ध वैयक्तिक अभिव्यक्ति को प्रमुखता देते हुए सामने आने वाला एक आंदोलन था। ‘‘हिंदी काव्य-समीक्षा के प्रतिमान’’ पुस्तक पढ़ते समय महादेवी वर्मा द्वारा हिंदी काव्य की परिभाषा के संदर्भ में याद आ जाती है उनकी ‘‘निश्चय’’ शीर्षक कविता की ये पंक्तियां -
कितनी रातों की मैंने
नहलाई है अंधियारी,
धो ड़ाली है संध्या के
पीले सेंदुर से लाली,
नभ के धुंधले कर ड़ाले
अपलक चमकीले तारे,
इन आहों पर तैरा कर
रजनीकर पार उतारे।

ऐसा निबंधात्मक गद्य जिसमें काव्य प्रवृत्तियों की समालोचना हो यदि उसे पढ़ते समय संदर्भित कवियों की काव्य पंक्तियां याद आने लगे तो वह लेखन अपनी उपादेयता स्वयं सिद्ध करने लगता है। शोधप्रबंध के रूप में तैयार की गई इस पुस्तक की सामग्री मूल रूप से सात अध्यायों में संजोई गई है - पहला अध्याय है भारतेंदुयुगीन एवं द्विवेदीयुगीन काव्य समीक्षा का विहंगावलोकन, दूसरा अध्याय आचार्य रामचंद्र शुक्ल के समीक्षादर्श, तीसरा छायावादी काव्य-चिंतन, चौथा अध्याय प्रगतिवादी काव्य चिंतन: सामाजिक यथार्थ तथा साहित्य की सामाजिक संदर्भता, पांचवा अध्याय प्रयोगवादी काव्य-चिंतन: प्रयोगवादी समीक्षा, छठा अध्याय नया काव्य-चिंतन: प्रयोगवादोत्तर काव्य प्रतिमान और सातवां अध्याय छायावादोत्तर समीक्षा में कविता के नए प्रतिमान।

‘‘प्रयोगवादी काव्य-चिंतन: प्रयोगवादी समीक्षा’’ - इस अध्याय में  डॉ. तिवारी  ने काव्य की आत्मा  की विवेचना की है। वे लिखते हैं कि जहां तक काव्य की समीक्षा का प्रश्न है काव्य की आत्मा जैसे मुद्दे को उसके अंतर्गत नए रूप में उठाया गया है। प्रयोगवादी समीक्षा के प्रतिनिधि चिंतक अज्ञेय ने चमत्कार को ही काव्य के आंतरिक गुण अथवा आत्मा के रूप में मान्यता दी है। यहीं इस पुस्तक के लेखक डॉ. तिवारी काव्य के तत्व की भी चर्चा करते हैं। उनके अनुसार प्रयोगवादी काव्य समीक्षा में अनुभूति को काव्य के प्राथमिक तथा अनिवार्य तत्व के रूप में मान्यता दी गई है। प्रयोगवादी काव्य समीक्षा में काव्यगत अनुभूति को व्यक्तिगत अनुभूति से भिन्न माना गया है। प्रयोगवादी काव्य समीक्षा के अंतर्गत कविता को अनुभूति की अभिव्यक्ति नहीं अनुभूति से मुक्ति माना गया है। प्रयोगवादी समीक्षा में अनुभूति के खरेपन तथा अनुभूति की दिव्यता को महत्व दिया गया है। अब प्रश्न उठता है कि काव्य के विषय क्या होने चाहिए? तो इस संबंध में लेखक ने अज्ञेय के विचार को  उद्धृत किया है कि विषय के संदर्भ में साहित्य की समीक्षा को सीमित नहीं किया जाना चाहिए। यह भी कि किसी साहित्यकार में किसी वस्तु, घटना अथवा स्थिति के प्रति स्वभाव होता है। यदि प्रेरणा उत्पन्न नहीं होती तो उसे बलात् पैदा करने की कोशिश नहीं की जानी चाहिए किंतु काव्य के विषय में परिसीमन की छूट है।

‘‘हिंदी काव्य-समीक्षा के प्रतिमान’’ डाॅ महेश तिवारी का एक ऐसा आलोचनाग्रंथ है जिसके द्वारा काव्य-समीक्षा की बारीकियों को भली-भांति समझा जा सकता है। चूंकि यह ग्रंथ सैद्धांतिक मीमांसा पर आधारित है इसलिए इसे समझने और इसके द्वारा काव्य के समग्र को समझने के लिए इस ग्रंथ का साहित्यप्रेमियों, साहित्य मर्मज्ञों एवं शोधार्थियों द्वारा पुनर्पाठ जरूरी है।
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( दैनिक, आचरण  दि.10.10.2020)
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2 comments:

  1. आपको हार्दिक बधाई डॉ0 वर्षा जी

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    1. बहुत धन्यवाद तुषार जी 🙏

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