Monday, November 2, 2020

सागर: साहित्य एवं चिंतन | पुनर्पाठ 13 | समग्र दृष्टिकोण | पुस्तक | डॉ. वर्षा सिंह

प्रिय मित्रों, स्थानीय दैनिक समाचार पत्र "आचरण" में प्रकाशित मेरा कॉलम "सागर : साहित्य एवं चिंतन " जिसमें पुस्तकों के पुनर्पाठ की श्रृंखला के अंतर्गत तेरहवीं कड़ी के रूप में प्रस्तुत है - सागर नगर के प्रतिष्ठित विचारक, चिन्तक, लेखक एवं उद्योगपति स्व. मोतीलाल जैन की पुस्तक "समग्र दृष्टिकोण" का पुनर्पाठ।
हार्दिक आभार आचरण 🙏
सागर : साहित्य एवं चिंतन

     पुनर्पाठ : मोतीलाल जैन कृत ‘समग्र दृष्टिकोण’ 
                           -डॉ. वर्षा सिंह
                                  
           इस बार पुनर्पाठ के लिए मैंने चुना है एक ऐसी पुस्तक को जो जीवन के विभिन्न पक्षों को गहन दृष्टिकोण के साथ व्याख्यायित करती है। यह पुस्तक है चिंतक एवं विचारक मोतीलाल जैन की पुस्तक ‘समग्र दृष्टिकोण’।

दृष्टिकोण व्यक्ति की आंतरिक वैचारिक स्थिति का द्योतक होता है। दृष्टिकोण की अवधारणा को मनोविज्ञान के अंतर्गत परिभाषित किया गया है। मनोवैज्ञानिक गाॅर्डन आलपोर्ट के अनुसार दृष्टिकोण मनुष्य के मानसिक स्वभाव पर आधारित होता है जिस पर उसके परिवेश के दिन प्रति दिन के व्यवहार का सीधा असर पड़ता है। दृष्टिकोण हमेशा किसी विशेष को इंगित करता है। मनोवैज्ञानिक ईगली और चैकेन के अनुसार किसी भी चीज को विचार की वस्तु में परिवर्तित किया जा सकता है जो कि दृष्टिकोण की वस्तु बन सकती है। एक ही वातावरण, परिस्थिति और अनुशासन में रहते हुए भी हर व्यक्ति के विचार ओर चिंतन में अंतर होता है। यही अंतर प्रत्येक व्यक्ति का दृष्टिकोण प्रदर्शित करता है। वस्तुतः दृष्टिकोण का आधार व्यक्ति के संस्कार होते हैं। ये संस्कार भी दो प्रकार के होते हैं। पहला संस्कार व्यक्ति हैरीडिटी के रूप में जन्म से ही अपने साथ लाता है। दूसरा संस्कार उसे शिक्षा और वातावरण से मिलता है।  ये दोनों संस्कार जब सकारात्मक विचाारों को ग्रहण करते हैं तो व्यक्ति में स्वस्थ दृष्टिकोण का विकास होता है। यह स्वस्थ दृष्टिकोण व्यक्ति को राष्ट्र, राष्ट्र के निवासियों, प्रकृति, प्रकृति की उपादेयता के बारे में चिंतनशील बनाता है। जब दृष्टिकोण के साथ समग्रता का भाव हो तो जीवन के प्रत्येक पक्ष उसमें समाहित हो जाते हैं। ‘समग्र दृष्टिकोण’ वह पुस्तक है जो आमजन जीवन, धर्म, राजनीति और व्यक्ति की एक साथ चर्चा करती है। 

‘समग्र दृष्टिकोण’ में लेखक मोतीलाल जैन ने अपने लेखों को संग्रहीत किया है। यूं तो प्रत्येक पुस्तक में ‘समर्पण’ के शब्द लेखक के निहायत व्यक्तिगत भावनात्मक विचार होते हैं, जिनके द्वारा लेखक के समग्र विचारों को अथवा उसके लेखकीय संस्कार को पूरी तरह से नहीं समझा जा सकता है। किन्तु कई बार ‘समर्पण’ के शब्दों से ही लेखक के लेखकीय व्यक्तित्व एवं लेखकीय संस्कार का सांगोपांग परिचय मिल जाता है। ‘समग्र दृष्टिकोण’ को पुनः पढ़ते समय भी ‘भावांजलि’ के रूप लिखी गई ‘समर्पण’ की पंक्तियां लेखक मोतीलाल जैन के लेखकीय संस्कार की बुनियाद से साक्षात्कार करा देती हैं- ‘‘ मेरे शब्द, मेरे विचार, मेरी क्रियाशीलता और रचनात्मक बोध, मेरे पितृ पुरुष की व्यक्ति चेतना का प्रतिबिम्बन और ध्वनि है। उनकी चेतना हमारा आत्मविश्वास बन कर जीवन के प्रत्येक सोपान पर हमें जागृत करता है और वह शक्ति देता है कि वे प्रतिपल हमारे साथ हैं। यही हमारा आत्मविश्वास है जो हमारी ऊर्जा बन कर हमें गति देता है। उनकी स्मृति को प्रणाम करता हुआ मैं अपना यह संकलन उन्हें समर्पित करता हूं।’’ समर्पण की इन पंक्तियों के साथ लेखक ने अपने पिता जो ‘कक्का जी’ कहलाते थे को समर्पित किया किन्तु इन पंक्तियों की मूल भावना अपने उन सभी पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन करने की रही जिनसे उन्हें जीवन की सूक्ष्मताओं को समझने, बूझने और जानने की क्षमता मिली। 

पुस्तक में पहला लेख है ‘पलायनवाद और वीतरागता’। 29 जून 1932 को सागर में जन्में मोतीलाल जैन को औद्योगिक सम्पदा विरासत में मिली। उन्होंने जहां इस सम्पदा का संरक्षण एवं विकास किया तथा देश के प्रतिष्ठित उद्योगपतियों में स्थान पाया वहीं अपनी अंतःचेतना के बल पर धर्म, दर्शन, राजनीति और संस्कृति का समय-समय पर आकलन किया और निष्कर्षों को भी सामने रखा। पुस्तक का प्रथम लेख ‘पलायनवाद और वीतरागता’ उनकी अंतःचेतना का प्रतिफलन है। वे अपने इस लेख में पलायनवाद के कारणों की व्याख्या करते हैं वे लिखते हैं कि ‘‘मन विकारों से भरा होना और शरीर से श्रम करने से जी चुराना तथा भयभीत रहना ही निष्क्रीयता और पलायनवाद को प्रोत्साहन देता है इससे मनुष्य कर्तव्य से च्युत हो जाता है।’’ अपने इसी लेख में वे आगे वीतरागता पर प्रकाश डालते हैं। वे लिखते हैं कि - ‘‘सब सुखी हों, सब का कल्याण हो, ऐसा करुणा का स्रोत अंदर से मन को भिगोए रहता है और मन द्रवित रहता है, तो उदासीनता का सच्चा अभ्युदय होता है। यही उदासीन भाव दृढ़ता को पा कर जब अंतरेग को सराबोर रखने में सफल होता है तो मनुष्य का आत्मा से आत्म-परिणाम और आत्म-स्वभाव से सीधा नाता जुड़ जाता है और संसार के सभी अन्य द्रव्यों से, यहां तक कि अपने स्वयं के शरीर से भी मोह, राग व आसक्ति हट जाती है। ऐसा होने पर ही राग बीत गया ऐसा कहा जाता है। यह सच्चे वीतरागी की विलक्षण योग्यता है।’’
संसार में रहते हुए सांसारिकता से विमुक्त रहना दुश्कर कार्य है। जब व्यक्ति कर्म की बात करता है तो उस कर्म के सफत या असफल होने को वह भाग्य से जोड़ने लगता है। भाग्य और पुरुषार्थ के बारे में चिंतन करते हुए लेखक मोतीलाल जैन ने ‘भाग्य (कर्मफल) और पुरुषार्थ’ शीर्षक के अंतर्गत लिखा है कि भाग्य पुरुषार्थ से ही निर्धारित होता है। अपने एक अन्य लेख ‘बदलता सोच’ में आधुनिक जीवनचर्या और पारम्परिक जीवन शैली के अंतर को बहुत सुंदर ढंग से सामने रखा है। इसमें वे कटाक्ष के साथ यथाथ्र को सामने रखते हैं और पाठकों को आत्मचिंतन के लिए प्रेरित करते हैं। उदााहरण देते हुए वे लिखते हैं -‘‘आज दूरदर्शन ने ‘योगी’ के माध्यम से खाना खाने से पहले हाथ धोने का महत्व समझाया। आज का पढ़ा-लिखा वर्ग किसको समझााइश देना चाहता है। खुद को या अंग्रेजी सभ्यता में रंगे छुरी-कांटे से खाने वालों को, या गरीब वर्ग को। शायद सभी को यह शिक्षा उपयोगी है। विडम्बना यह है कि कुछ सालों से हम भारत के शहरी लोगों ने अपने बुजुर्ग लोगों को गंवार, अनपढ़ और जाहिल समझना शुरू कर दिया है। हमें परम्परा से जो जीवन शैली मिला करती थी उसमें इस नई सभ्यता ने बहुत गड़बड़ कर दिया है और उसमें विकृति पैदा कर दी है।’’ लेखक ने सिर्फ नई सभ्यता से उत्पन्न विकृति की ही बात नहीं की है अपितु पारम्परिक जीवन शैली का भी स्मरण किया है। लेखक के अनुसार - ‘‘हमारी परम्परा रसोई की शुद्धता पर ही आधारित थी।रसोई में जूते-चप्पल तो दूर, अशुद्ध वस्त्र तक ले जाना वर्जित था। नहा-धो कर ही भोजन किया जाता था। बर्तनों एवं गंदे हाथों की शुद्धि जल एवं राख अथवा साफ मिट्टी से ही की जाती थी। यहां तक कि भोजन पालथी लगा कर, बैठ कर शांतिपूर्वक किया जाता था। आजकल की पाश्चात्य सभ्यता और पढ़े-लिखे होने के अहंकार ने हमारी तमाम विधियों को उलट दिया है। अब तो टाॅयलेट कम बेडरूम सभ्यता है। जूते पहन कर भोजन करना ओर चप्पलें पहन कर रसोई बनाने का फैशन है। कई दिनों का बासी और खराब भोजन खाने को रख कर फ्रिज रसोई में क्रांतिकारी कार्य कर रहे हैं।’’ यह सच है कि जीवन शैली बदलती है तो हमारी सोच बदलती है और सोच के साथ दृष्टिकोण बदल जाता है। वर्तमान में पाश्चात्य प्रभावित जीवन शैली ने लगभग हरेक व्यक्ति को उपभोक्ता बना दिया है। जब व्यक्ति का दृष्टिकोण बाजार केन्द्रित हो जाए तो वह आत्मिक शांति को भुला कर नफा-नुक्सान में डूबता चला जाता है। भले ही इस फेर में वह अपने स्वास्थ्य ओर प्रतिष्ठा को भी दांव में लगा बैठता है। 

‘समग्र दृष्टिकोण’ में धर्म और धार्मिक दृष्टिकोण की भी चर्चा की गई है। ‘धर्म का स्वरूप और धर्मान्धता’ शीर्षक लेख में लेखक मोतीलाल जैन ने लिखा है - 
‘‘ जिन की ध्वनि है ओंकार रूप ।
  निर-अक्षर मय, महिमा अनूप ।।
 लोक में ऐसा कहा जाता है कि भगवान आदिनाथ ने ऐसा कहा, ऐसा समझा और कि भगवान महावीर ने ऐसा उपदेश दिया है। पूर्वाचार्यों ने आगम में जो लिखा है उससे यह भासित होता है कि केवलज्ञान हो जाने के उपरांत तीर्थकर तो इच्छारहित मौन हो जाते हैं।’’ लेखक आगे लिखते हैं कि -‘‘ऐसी दशा में तो शब्दों का उच्चारण तो हो ही नहीं सकता है।’’ लेखक धर्मांधता के बारे में चर्चा करते हुए लिखते हैं कि - ‘‘ हम लोगों को तो अपने रीत-रिवाजों और क्रियाकाण्डों ने ऐसा जकड़ रखा है कि हम अन्य दूसरों की बात शांति से सुनना भी नहीं चाहते हैं। समानता, सहकारिता और सहयोग की तो मात्र बातें होतीं हैं, मन तो सदैव पक्षपात से ही पीड़ित रहता है। पक्षपात से पीड़ित मनुष्य यदि निरपेक्षता की बात करे और अपनी बात के प्रभाव से अन्य को अपने पक्ष में लाने को लालायित रहता हो और व्याकुल रहता हो तो उसे कैसे उमझाया जा सकता है।’’

अपने एक और लेख ‘असाता ही अधर्म’ में मोतीलाल जैन ने अधर्म को स्पष्ट करने के लिए सरल शब्दों में असाता की व्याख्या की है -‘‘असाता यानी साता नहीं। साता यानी सुकून-शांति-चैन आदि। यह साता इच्छाओं की आंशिक पूर्ति हो जाने से नहीं होती है। वस्तुओं, पदार्थाे एवं इष्टजनों के मिल जाने पर तो उनके बिछुड़ जाने का भय फौरन सताने लगता है और हम उनकी सुरक्षा के लिए बेचैन होने लग जाते हैं। बेचैनी बढ़ना ही चिन्ता का कारण बनता है और इससे असाता में वृद्धि होने लगती है।’’

पुस्तक ‘समग्र दृष्टिकोण’के सम्पूर्ण कलेवर को दो भागों में बांटा गया है। पहले भाग में धर्म, जीवन, जीवनशैली आदि पर चिंतनयुक्त लेख हैं तो दूसरे भाग में राजनीति, अपसंस्कृति और भ्रष्टाचार को लक्ष्यित किया गया है। दूसरे भाग के प्रथम लेख ‘‘देश का सौभाग्य और दुर्भाग्य’’ में देश की न्यायपालिका, कार्यपालिका और व्यवस्थापिका के बीच बिगड़त अंतर्संबंधों को रेखांकित किया है। लेखक मोतीलाल जैन लिखते हैं कि -‘‘अभी दो दिन पूर्व अख़बार में एक लेख पढ़ा। उसमें मंत्री महोदय ने किसी व्यक्ति की उच्च न्यायालय से जमानत हो जाने को दुर्भाग्यपूर्ण कहा। जब न्यायाधीशों के फैसले व उनकी राय दुर्भाग्यपूर्ण हो सकती है तो इस देश को सौभाग्य कौन प्रदान करेगा? जब न्यायपालिका को ही शासन देश का दुर्भाग्य कहने लगे तो फिर उस देश का सौभाग्य कहां छिपा है, यह शासन, मंत्री या प्रशासन ही बता सकते हैं।’’ 

इस पुस्तक में एक और महत्वपूर्ण लेख है जो वर्तमान व्यवस्थाओं पर तीखा कटाक्ष करते हुए सभी से चिंतन-मनन करने का आग्रह करता है। यह लेख है-‘‘सरकार और भगवान’’। इसमें लेखक मेातीलाल जैन निर्भीकता से लिखते हैं कि -‘‘आज की बीसवीं सदी के अंत में दो ही चीज़ें सर्वव्यापक हो रही हैं- एक भगवान तो दूसरी सरकार। दोनों ही अदृश्य हैं। यानी इन चर्मचक्षुओं से दिखाई नहीं देती हैं। दोनों को देखने, समझने व जानने के लिए ज्ञान व बुद्धि के नेत्र चाहिए। सो या तो पढ़े-लिखे सम्पन्नवर्ग के पास बुद्धि और चालाकी रहती है या फिर परम्परा से सत्तासीन घरानों में ही इस ज्ञान का दीप सदैव प्रकाशवान रहता है। भगवान का दर्शन कराने के लिए तो वेद, पुराण और शास्त्र हैं या फिर तीर्थों और मंदिरों में कुंण्डली जमाए, फन फैलाए हुए मठाधीश, पुजारी, पंडे, प्रभारी, मंत्री, प्रचारक आदि हैं। इनके द्वारा जनता को अपनी औकात, उद्गम स्थान, कुल गोत्र आदि सहित भगवान के विभिन्न रूपों व शक्तियों का दर्शन कराया जाता है और ज्ञान कराया जाता है।’’

इसी लेख में लेखक ने सरकार के संबंध में लिखा है कि-‘‘इसी प्रकार सरकार का दर्शन कराने को हमारा संविधान है। जिसे मुख्यतया दिल्ली में सात पर्दो के भीतर तालों में सुरक्षित रखा गया है और शायद उसकी एक ताम्रपत्रलिपि को ज़मीन के अंदर सीमेंट, कांक्रीट के मजबूत बाॅक्स में गाड़ दिया गया है ताकि हज़ार वर्ष बाद की पीढ़ी उसे ज्यों की त्यों सुरक्षित देख सके। सरकार का दर्शन कराने के लिए दिल्ली एवं सभी प्रादेशिक तीर्थ रूपी राजधानियों में राष्ट्रपति एवं राज्यपाल हैं। इसके साथ-साथ सरकार की शक्तियों को बताने के लिए मंत्री, उपमंत्री, सांसद, विधायक हैं जो समय-समय पर हमें सरकार के विराट रूप का दर्शन कराते रहते हैं।’’

सन् 2007 में श्री खेमचंद जैन चेरीटेबल ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित यह पुस्तक समसामयिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है। इसकी प्रासंगिकता प्रत्येक काल और दशाओं के साथ जुड़ी हुई है। इस पुस्तक में संग्रहीत लेखों पर शंकरदत्त चतुर्वेदी, डाॅ. जयकुमार जलज, डाॅ. सुरेश आचार्य, प्रो. कांतिकुमार जैन, डाॅ. आर डी मिश्र, डाॅ. शेखरचंद जैन की विशेष टिप्पणियां भी समाहित हैं जो पुस्तक के कलेवर तथा पुस्तक के लेखक मोतीलाल जैन के विचारों को समझने में सहायता प्रदान करती हैं। यह पुस्तक बार-बार पढ़े जाने योग्य है क्यों कि यह वर्तमान परिदृश्य के साथ ही हमें अपनी जड़ों से भी जोड़ती है तथा मनन-चिंतन कर निष्कर्षों तक पहुंचने को प्रेरित करती है।
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( दैनिक, आचरण  दि.02.11.2020)
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10 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (04-11-2020) को   "चाँद ! तुम सो रहे हो ? "  (चर्चा अंक- 3875)   पर भी होगी। 
    -- 
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है। 
    -- 
    सुहागिनों के पर्व करवाचौथ की
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।  
    सादर...! 
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' 
    --

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    1. मेरी पोस्ट को चर्चा मंच हेतु चयनित करने के लिए आपके प्रति हार्दिक आभार आदरणीय डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' जी 🙏
      सादर,
      डॉ. वर्षा सिंह

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  2. दृष्टिकोण को व्यापक रुप में परिभाषित कर श्री मोतीलाल जैन की पुस्तक "समग्र दृष्टिकोण" का विवेचन आपके द्वारा सशक्त रूप में अभिव्यक्त हुआ है । इस चिंतनपरक पुनर्पाठ के लिए बहुत बहुत बधाई वर्षा जी 💐💐



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    1. प्रिय मीना जी,
      आपकी उत्साहवर्धक टिप्पणी पढ़ कर हृदय प्रफुल्लित हो उठा।
      हार्दिक धन्यवाद आपको 🍁🙏🍁
      सस्नेह,
      डॉ. वर्षा सिंह

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  3. बहुत सुन्दर प्रस्तुति

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    1. हार्दिक धन्यवाद ओंकार जी 🙏🍁🙏

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  4. यह एक अनमोल पुस्तक प्रतीत होती है । आपका बुद्धिमत्तापूर्ण अवलोकन एवं विश्लेषण भी अत्यंत उपयोगी है वर्षा जी ।

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    1. हार्दिक धन्यवाद जीतेन्द्र माथुर जी 🍁🙏🍁

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  5. आ डॉ वर्षा सिंह जी, आपने "समग्र दृष्टिकोण" पुस्तक की विस्तृत समीक्षा की है। यह पुस्तज सचमुच जीवन की कला के बारे में समुचित ज्ञान प्रदान करने वाला है। हार्दिक साधुवाद!--ब्रजेन्द्रनाथ

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    1. आदरणीय ब्रजेन्द्रनाथ जी,
      सुस्वागतम् 🙏
      आपने मेरी लिखी इस समीक्षा को पढ़ा और अपनी बहुमूल्य प्रतिक्रिया दी.... इस हेतु मैं आपकी अत्यंत आभारी हूं। 🙏
      सादर,
      डॉ. वर्षा सिंह

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