Wednesday, September 25, 2019

समीक्षा ... जीवन की सच्चाइयों को रेखांकित करता काव्य संग्रह - डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh

      पिछले दिनों सागर नगर के कवि वीरेंद्र प्रधान की लोकार्पित पुस्तक ‘‘कुछ क़दम का फ़ासला’’ पर मेरा समीक्षात्मक आलेख मेरठ से प्रकाशित " दैनिक विजय दर्पण टाइम्स" में दिनांक 24.09.2019 को साहित्य, संस्कृति, कला-दर्पण के अंतर्गत प्रकाशित हुआ है। कृपया आप भी पढ़ें।
हार्दिक आभार दैनिक विजय दर्पण टाइम्स के प्रति 🙏
.... और शुभकामनाएं वीरेंद्र प्रधान जी को 💐

जीवन की सच्चाइयों को रेखांकित करता काव्य संग्रह
                       - डॉ. वर्षा सिंह
                         
        वीरेन्द्र प्रधान का काव्य संग्रह ‘‘कुछ क़दम का फ़ासला’’ भले ही उनका प्रथम काव्य संग्रह है किन्तु उनकी काव्यात्मक-यात्रा दीर्घकालीन है। अपने पारिवारिक दायित्वों तथा आजीविका संबंधी व्यस्तताओं ने उन्हें साहित्य साधना के लिए अपेक्षाकृत कम समय दिया फिर भी वे व्यस्तताओं से समय चुरा कर साहित्य से जुड़े रहे। मुझे स्मरण है कि सन् 2000 में मेरे तीसरे ग़ज़ल संग्रह ‘‘हम जहां पर हैं’’ के विमोचन के अवसर पर वीरेन्द्र प्रधान जी ने उपस्थित हो कर मेरे संग्रह पर अपने अमूल्य विचार व्यक्त किए थे। आज जब भाई वीरेन्द्र प्रधान के प्रथम काव्य संग्रह पर मुझे आलेख वाचन करते हुए ऐसा प्रतीत हो रहा है जैसे दोनों आयोजनों के बीच का कुछ क़दम का फ़ासला मिट गया हो। वस्तुतः यही साहित्य की कालजीविता है। साहित्य देश, समाज, परिवार और दिलों के फ़ासलों को मिटाता है और नई ऊर्जा का संचार करता है।
           ‘‘कुछ क़दम का फ़ासला’’ पुस्तक का यह नाम अपने आप में समग्रता लिए हुए है। दूख और सुख, रात और दिन, विश्वास और अविश्वास, अव्यवस्था और व्यवस्था इन सभी के बीच कुछ क़दम का फ़ासला ही तो होता है। यह फ़ासला तय होते ही सारे दृश्य बदल जाते हैं, जीवन बदल जाता है अर्थात् अतीत, वर्तमान ओर भविष्य बदल जाता है।
संग्रह की पहली कविता है ‘‘मां’’। यह उचित भी है क्योंकि मां आरंभ है उन अनुभूतियों की जो   संतान में संवेदनशीलता का बीजारोपण करती है। मां को बच्चे की प्रथम शिक्षिका होती है। अपनी लोरियों के द्वारा भी मां जहां कल्पनाओं का सुन्दर संसार रचती है, वहीं यथार्थ की कठोरता से भी परिचित कराती रहती है। मां सिर्फ जननी नहीं, परिवार और संस्कारों की रीढ़ होती है। मां का ममत्व हर संतान पर एक ऐसा ऋण होता है जिससे वह कभी भी उऋण नहीं हो सकता। इस भावना को वीरेन्द्र प्रधान ने ‘मां’ शीर्षक अपनी कविता में बड़े ही सुन्दर ढंग से व्यक्त किया है-
मां, तेरा मुझ पर है कर्ज बहुत
अनगिनत जन्म ले कर भी
उसे न चुका पाउंगा मैं
गर्भ से ले कर जन्म तक
और जन्म के बाद अपार कष्ट सह
तूने जो परवरिश की
उसे न भूल पाउंगा मैं
बुझ रही पीढ़ी के प्रति ध्पूर्ण सम्मान के साथ
हो सकता है दे सकूं
अगली  पीढ़ी को
उसका अंश मात्र भी
जो तूने मुझे दिया समय-समय पर
लोरियों की शक्ल में घूंटियों के रूप में
या रहीम, रसखान ओर कबीर की
शिक्षाओं के माध्यम से
भावना यही है कि
गांठ में बांध लूं तेरी हर सीख (पृ.20)
   
         वीरेन्द्र प्रधान की कविताएं कृत्रिम कारीगरी से दूर अपने मौलिक रूप में दिखाई देती हैं। अपनी कविताओं के माध्यम से वे सीधे संवाद करते हैं। उनकी कविताओं में जीवन की कोमलता और विडंबनाएं साझा रूप में अभिव्यक्त होती हैं। कुल इक्यासी कविताओं के गुलदस्ता रूपी काव्य संग्रह ‘‘कुछ क़दम का फ़ासला’’ पर चर्चा का आरम्भ इसी संग्रह की ‘सिद्धांत’ शीर्षक कविता की कुछ पंक्तियों से -
लोगों के अपने-अपने
सिद्धांत हुआ करते हैं।
कुछ मिशन बना देते हैं जीवन को
जख़्मों को मरहम बन जाते हैं
तो कुछ अपनों को ही चोटें दे कर
हमदर्दी में दुखती रगें छुआ करते हैं। (पृ.70) 

        जब जीवन का आकलन घनीभूत रूप ले लेता है तो विचारों का स्वरूप जीवन दर्शन में ढलने लगता है। लोग अपने जीवन को सुखद बनाने के लिए विभिन्न प्रकार का जोड़-घटाना करते रहते हैं, जिसके फलस्वरूप जीवन शुष्क गणितीय समीकरण बन कर रह जाता है। किन्तु कवि वीरेन्द्र प्रधान ने जीवन के गणित में साहित्य को स्थान दे कर जीवन को देखने का एक दार्शनिक दृष्टिकोण अपनाया है। संग्रह की कविताओं में जीवन का पक्ष जैसे स्वयं मुखरित है। हर्ष है इसमें, उल्लास है, वेदना है, पीड़ा है, कहीं स्नेह से भरी-पूरी अनुभूति है, तो कहीं पीड़ा की तीव्रता है। समय और समाज की धड़कनें इन कविताओं में स्पंदित होती हैं। वीरेन्द्र प्रधान अपनी तुकांत एवं अतुकांत कविताओं के माध्यम से अपनी भावनाएं व्यक्त करते रहते हैं। उनकी कविताओं में दार्शनिक बोध स्पष्ट रूप से दिखई देता है। उनकी ‘‘जन्म-जन्मान्तर’’ कविता का एक अंश देखें -
पुण्य और पाप के मध्य
एक विभाजन रेखा
खींचते हुए
पता नहीं कब तक जीना है?
और फिर अंत में सिर्फ़ दो मुट्ठी ख़ाक बन कर
विसर्जित होना है। (पृ.35)
जीवन के सत्य को गंभीरता से स्वीकार करते हुए भी वीरेन्द्र प्रधान के भीतर का कवि पलायनवादी नहीं है। वे अपनी कविताओं में धैर्य और संयम को एक आश्वस्ति के रूप में सामने रखते हैं। जैसा कि उनकी कविता ‘‘छिन्द्रान्वेषी’’ में देखा जा सकता है -
क़द में/ पद में/ प्रतिष्ठा में
अपने से बड़ा
कोई भी व्यक्त्वि देख कर
हीनता का बोध नहीं होता
मगर अपने सापेक्ष
किंचित भी छोटा व्यक्तित्व
देख कर विराट लगता है
अपना व्यक्तित्व
और बौना लगता है
वह व्यक्ति।

पुस्तक समीक्षा - डॉ. वर्षा सिंह @ साहित्य वर्षा

      पुस्तक की सभी कविताएं हृदय से निकली संवेदनाएं प्रतीत होती हैं। वीरेन्द्र प्रधान की कुछ कविताओं में सूफियाना रंग भी दिखता है। उन कविताओं में वे आत्मा को एक समर्पित तत्व के रूप में देखते हैं। ‘मैं तो प्रेम में मस्त’ शीर्षक कविता में कवि के सूफियाना लहजे को देखा जा सकता है-
कान्हा के रंग में रंगी,
है शेष रंग बेकार
अपने अंतर में मैं बसी
मोहे व्यर्थ सभी घर-बार
प्रीत आत्मा में जगी
मुझे भावे न संसार
बनती मैं मीरा कभी
और कभी रसखान
मैं प्रेम के रंग में मस्त हूं
मोहे लागे एक समान -
रस या विष का पान। (पृ.45)
        ‘‘ यत्र नास्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः ’’ अर्थात् जहां नारी का सम्मान होता है वहां देवता का वास होता है। क्योंकि नारी परिवार और समाज को सुंदर आकार प्रदान करती है। अपने अधिकारों के लिए उलाहना दिए बिना परिवार की सेवा में लगी रहती है। नारी को समर्पित अपनी कविता ‘‘नारी’’ में वीरेन्द्र प्रधान ने नारी के गरिमामय महत्व को प्रस्तुत किया है-
नारी के बिना नहीं कल्पना संसार की
राम, कृष्ण, गौतम, यीशू के अवतार की
यही नारी सहती है पुरुषों के चुपचाप सितम
कैसी है रीत, विधि तेरे संसार की।
पुत्री, भगिनी, पत्नी तो जननी किसी की तू
हे नारी, तू तो है संचालक परिवार की।(पृ.89)

       और अंत में इस संग्रह की सबसे महत्वपूर्ण कविता जिसमें जितनी गंभीरता से वर्तमान जीवन की विडम्बनाएं मुखर हुई हैं उतनी ही प्रभावी ढंग से दृश्यात्मकता उभर कर सामने आई है, मानो सब कुछ आंखों के सामने घटित हो रहा हो। कविता का श्ीर्षक है ‘‘गोण्डवाना एक्सप्रेस’’। पंक्तियों की दृश्यात्मकता पर ध्यान दें-
बिला नागा समय पर आने और जानेवाली
सीमित समय रुकने वाली
कभी-कभी छोड़ जाती है मुझे गोण्डवाना एक्सप्रेस
और काम की थकान लिए रुक जाता हूं
प्लेटफार्म पर ही
इंतज़ार करते-करते सो जाते हैं बच्चे
दिन भर काम कर थकी-मांदी
बूढ़ी और बीमार पत्नी राह देखती रह जाती है
उसे तो कल से फिर जूझना है
जीवन के संघर्षों से
और मुझे भी। (पृ.66)

          वीरेन्द्र प्रधान एक ऐसे कवि हैं जो साहित्यिक परिदृश्य में नेपथ्य में रह कर भी अपनी रचनात्मक उपस्थिति का बोध कराते रहे हैं और अब अपने प्रथम काव्य संग्रह के साथ नेपत्थ्य से बाहर आए है। उनका स्वागत है उनकी उस रचनाधर्मिता के साथ जो उनसे जीवन की सच्चाइयों को रेखांकित करने वाली कविताएं सृजित कराती है। पूरा काव्य संग्रह में सरसता, स्वाभाविकता, सजीवता के गुण एक साथ मिलते हैं। कठिन शब्दों से बचा गया है। भाषा में प्रवाह है। वीरेन्द्र प्रधान जी का यह प्रथम काव्य संग्रह रोचक एवं पठनीय है। प्रखर गूंज प्रकाशन, दिल्ली से प्रकाशित यह संग्रह कुल 106 पृष्ठों का है। इसका मूल्य है 275 रुपए। पुस्तक का मुद्रण एवं साज-सज्जा आकर्षक है। उल्लेखनीय है कि उन्होंने अपना यह संग्रह अपने गुरु स्व. त्रिलोचन शास्त्री को समर्पित किया है। 
वीरेन्द्र प्रधान जी को उनकी इस रचनायात्रा के लिए मेरी हार्दिक शुभकामनाएं।
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