Wednesday, March 11, 2020

सागर: साहित्य एवं चिंतन - होली विशेष: होली और सागर के हुरियारे कवि-कवयित्रियां - डॉ. वर्षा सिंह

Dr . Varsha Singh

                  स्थानीय दैनिक समाचार पत्र "आचरण" में प्रकाशित मेरा कॉलम "सागर साहित्य एवं चिंतन " । जिसमें इस बार मैंने लिखा है मेरे शहर सागर के प्रमुख कवियों और होली संदर्भित उनकी कविताओं पर आलेख। पढ़िए और जानिए मेरे शहर के वर्तमान साहित्यिक परिवेश को ....

सागर: साहित्य एवं चिंतन - होली विशेष:                   
होली और सागर के हुरियारे कवि-कवयित्रियां

- डॉ. वर्षा सिंह

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          कवि पद्माकर की भूमि सागर शहर में कवि-कवयित्रियां होली की उमंग से न भर उठें, ऐसा हो नहीं सकता है। फागुन आते ही फागुनी कविताएं नई-नई कोंपलों की भांति अपने-आप फूट पड़ती हैं। फागुन आते ही जब प्रकृति का रूप मनोरम हो उठता है तो बकौल कवि पद्माकर प्रत्येक व्यक्ति परस्पर एक-दूसरे से कह उठता है कि ‘‘लला, फिर खेलन आइयो होरी’’। इतने मधुर वातावरण का प्रभाव प्रत्येक साहित्यमना को कवि बना देता है। अब देखिए न, सागर नगर के साहित्य जगत को अपने आयोजनों के आह्वान से जगाने वाले श्यामलम संस्था के अध्यक्ष उमाकांत मिश्र क्या कहते हैं, वह भी तब जब कविराज ऋषभ समैया जलज उनसे फागुनी भेंट करने आते हैं और सिर्फ़ अपनी कविता सुना कर चले जाते हैं। देखिए कवि उमाकांत मिश्र की हुरियारी पंक्तियां -   
रंगपंचमी पर वो आए
सबेरे-सबेरे।
खिलाकर भांग
सुनाकर कविता।
चले गए नई ठौर
अकेले-अकेले।

       कई कवि अधिक उदारमना होते हैं और अपने कवि मित्रों द्वारा सताए जाने पर भी होली के रंगों में रंग जाने की सलाह देते हैं। अपनी इस उदारमना प्रकृति को अपनी कविता में भी बखूबी ढाल देते हैं। जैसे कवि कपिल बैसाखिया की यह कविता देखें-
श्वेत श्याम थी जिन्दगी,   आज हुयी रँगीन।
कल को पीछे छोड़कर, मस्ती में अब लीन।।
मस्ती में अब लीन, जो दुख थे जिन्दगी के।
उनको हम भूल कर,   मिलते गले सभी के।।
कहें कपिल कवि राय,    ये होली दे ईनाम।
विविध हों रंग यहाँ,  हो न कोई श्वेत श्याम।।
                             
    होली की पहली शर्त है कि सारी दुश्मनी, वैमनस्यता भुला कर मित्रता का हाथ बढ़या जाए और दोस्ती के बढ़े हुए हाथ को सच्चे दिल से थाम लिया जाए। होली और मित्रता के इस गठबंधन को अटूट बंधन पर कवयित्री डाॅ. शरद सिंह कहती हैं-
मित्रों के स्नेह का,  कभी न उतरे रंग।
होली की शुभकामना, रहे सभी के संग।।
रहे सभी के संग, कि सूखी होली खेलें
करें बचत पानी की, गुझिया के हों मेलें।।
कहे ‘शरद’ ये आज कि खेलो जी भर होली।
भर लो खुशियों से, आज सब अपनी झोली।।

      फागुन की आहट वसंत के आगमन के साथ ही सुनाई देने लगती है। इस आहट को सुनते हुए कवि नलिन जैन का कवि हृदय बोल उठता है -
मधुर बसंत  के  संग  आज होली आई है
रंग  बिखरे है   घटा-मौसमी  तरुणाई है
कोई रंगे अदा से, हम किसी को रंग डाले
घुली हो प्रीत की निर्गुणता यह  दुहाई है।

       मेरे यानी कवयित्री डाॅ वर्षा सिंह के इन दोहों को देखिए जिनमें होली के आगमन पर प्रकृति के परिवर्तन को अनुभव किया जा सकता है -
जब से मौसम ने यहां, बदली अपनी चाल।
बदले-बदले लग रहे, आम, नीम के हाल।।
समझ  गए  नादान भी, होली  का संकेत।
पीले  फूलों से भरे,  सरसों  वाले  खेत।।
सागर साहित्य एवं चिंतन - डॉ. वर्षा सिंह


       होली के रंगों का प्रभाव ही कुछ ऐसा होता है कि हर प्रेमी मन को अपने प्रिय की याद आने लगती है और मनुूहार एवं उलाहनों का दौर चल पड़ता है। इसीलिये तो कवि डॉ श्याम मनोहर सीरोठिया कहते हैं-
भला क्या भूल पाओगी मुझे ऐसे क्षणों में तुम,
बसन्ती महिना में कोयल कहेगी प्यार की बोली।।
अकेले में किसी अमुआ की छैयां में तुम्हें पाकर,
कोई रंगीन सपना बन कभी जब गुदगुदाऊंगा ।।
ये सच कहता हूँ कि उस वक्त तुमको याद आऊंगा।।

    ....और जब हाथों में रंग-गुलाल भर कर प्रिय सामने आ ही जाए तो दृश्य रूमानियत से भर उठता है और तब कवि हृदय भी श्रृंगार रस की कविताएं कह उठता है। कवि सतीश साहू की ये पंक्तियां देखिए-
रंग हरे नीले पीले और लाल सभी
मुझसे न शर्माओ आओ, होली है
रंगों में मिलकर हो जाओ रंग ‘सतीश’
और हवा में तुम घुल जाओ, होली है

     होली में रंग लगाने का हठ अपने-आप जाग उठता है। ऐसे में युवाकवि आदर्श दुबे भी अगर अपनी इंन पंक्तियों में हठ करते दिखाई देते हैं तो यह सुंदर फागुनी प्रभाव ही तो है-
इस होली को उस होली से
बेहतर मुझे बनाना है।
अब तेरी महफ़िल में आ कर
मुझको रौब जमाना है।
     
      होली एक ऐसा त्यौहार है जो जाति, धर्म और उम्र के बंधनों को स्वीकार नहीं करता है। फिर भी आज के बदलते माहौल और परम्पराओं के प्रति युवा पीढ़ी की बेरुखी को देखते हुए वरिष्ठकवि निर्मल चंद ‘निर्मल’ का चिंतित हो उठना स्वाभाविक है-
कहां नायक व नायिका, पिछड़ा रंग गुलाल।
पश्चिम के रंग में हुआ, पूरा  भारत  लाल।।
      संस्कारों की जननी भारतीय भूमि को देव भूमि कहा गया है। जहां सदियों से देव तत्व अच्छाई को स्थापित करने लिए प्रत्येक बुराई और दुख को सुख में बदलने के लिए भारतीय संस्कृति में प्रयास किए जाते रहें हैं। इन प्रयासों में जब कभी वह सफल हुआ तो इसे एक उत्सव या त्योहार के रूप में मनाया। उसमें भी सबसे बड़ा संस्कार है आपसी-भाईचारा जो पीढ़ियों से भारतीय भूमि पर प्रवाहमान है। इसी आपसी भाई-चारे का संदेश को चरितार्थ करता है होली का त्यौहार। होली जो वास्तव में रंगों, उमंगों का त्यौहार है, उसे आपसी सद्भावना से ही मनाया जाना चाहिये ताकि कवि ‘ईसुरी’ के शब्दों में यह कहा जा सके- ‘‘हिल मिल खेलौं प्रीत की होरी,जा मनसा है मोरी।’’
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( दैनिक, आचरण  दि. 09.03.2020)
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