Thursday, July 30, 2020

सागर: साहित्य एवं चिंतन | पुनर्पाठ 5 | प्रेम रूपी रंग कितने | काव्य संग्रह | डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh
प्रिय ब्लॉग पाठकों,
               स्थानीय दैनिक समाचार पत्र "आचरण" में प्रकाशित मेरा कॉलम "सागर : साहित्य एवं चिंतन " जिसमें पुस्तकों के पुनर्पाठ की श्रृंखला के अंतर्गत पांचवीं कड़ी के रूप में प्रस्तुत है - सागर नगर के वयोवृद्ध कवि निर्मलचंद 'निर्मल' के काव्य संग्रह  "प्रेम रूपी रंग कितने" का पुनर्पाठ।

सागर: साहित्य एवं चिंतन

    पुनर्पाठ: ‘प्रेम रूपी रंग कितने’ काव्य संग्रह
                               -डॉ. वर्षा सिंह
                             
           काव्य संग्रह ‘‘प्रेम रूपी रंग कितने’’ का प्रथम संस्करण सन् 2010 में प्रकाशित हुआ था। यह संग्रह सागर नगर के वरिष्ठ कवि निर्मल चंद ‘निर्मल’ का है। अपने इस संग्रह में कवि निर्मल ने उन कविताओं को एक संग्रह के रूप में समेटा है जो प्रेम के विविध रूपों को व्याख्यायित करते हुए उन्होंने लिखीं थीं।  काव्य और प्रेम का निकट संबंध है। दोनों संवेदनाओं और कोमल भावनाओं से उपजती हैं। इस संग्रह की कविताओं से गुज़रते हुए एक प्रश्न कौंधता है कि प्रेम क्या है? वस्तुतः प्रेम की परिभाषा उतनी ही दुष्कर है, जितनी जगत-नियंता की। तभी तो नारद भक्ति-सूत्र, से लेकर आजतक सभी मीमांसा-विशारद प्रेम को अनिर्वचनीय मानते हैं। किन्हीं दो व्यक्तियों के बीच पाये जाने वाले प्रेम के उत्तरोत्तर विकास भावना प्रेमास्पद के रूप गुण, स्वभाव, सान्निध्य के कारण उत्पन्न सुखद अनुभूति होती है जिसमें सदैव हित की भावना निहित रहती है। संत कबीर ने कहा है-
‘‘काम काम सब कोई कहै, काम न चीन्है कोय ।
जेती मन की कामना, काम कहीजै सोय ।।‘‘
        हजारी प्रसाद द्विवेद्वी लिखते हैं कि ‘प्रेम से जीवन को अलौकिक सौंदर्य प्राप्त होता है। प्रेम से जीवन पवित्र और सार्थक हो जाता है। प्रेम जीवन की संपूर्णता है।’
प्रेम की इसी विचित्रता को रसखान ने इन शब्दों में लिखा है -
प्रेम रूप दर्पण अहे, रचै अजूबो खेल।
या में अपनो रूप कछु, लखि परिहै अनमेल।। 
हरि के सब आधीन पै, हरी प्रेम आधीन।
याही ते हरि आपु ही, याहि बड़प्पन दीन ।।
              जब कवि निर्मल मूर्त प्रेम पर कविता लिखते हैं तो उसमें प्राकृतिक, नैसर्गिक अमूर्त का प्रतिबिम्ब दिखाई देता है। कवि निर्मल मानते हैं कि प्रेम को अभिव्यक्त करने के लिए शब्दों की अनिवार्यता नहीं होती है। प्रेम की भाषा ही अलग होती है जो निःशब्द होती है। उनका यह कवितांश देखें-
प्रेम नहीं शब्दों का कायल आंखें कह जाती
ये भाषा ऐसी है जिसमें शब्द नहीं चलते
पाषाणी पर्वत कठोर भी मोम सदृश गलते
मन वीराना हरियााली से पूरित होता है
नेह निमन्त्रण जाने कितने सपने बोता है
मरुथल से नीरस प्राणों में सरिता बह जाती
प्रेम नहीं शब्दों का कायल आंखें कह जाती

समीक्ष्य कृति "प्रेम रूपी रंग कितने"

       प्रेम स्मृतियों के तार जोड़ता है। प्रेम में वह शक्ति है जो अनुपस्थित की उपस्थिति का बोध करा देता है। अर्थात जो प्रत्यक्षतः सशरीर उपस्थित नहीं है उसके भी साक्षात दर्शन प्रेम की भावना में हो जाते हैं। जैसा कि कवि निर्मल ने लिखा है -
तुम नहीं हो किन्तु तुमसे रोज मिलता हूं
सोचते हो तुम, बिछुड़ कर छूट जाऊंगा
नेह के बंधन यथा कैसे निभाऊंगा
किन्तु यह मन है तुम्हें तो ढूंढ लेता है
एक क्षण लम्बा, वृहत् दूरी प्रणेता है

        निःसंदेह प्रेम अपने विविध रूपों में प्रस्तुत हो कर हमारे जीवन में अनेक रंग भरता है। लेकिन परिस्थितिवश प्रेम की भावना विविध सोपानों पर विदीर्ण होने लगती है। ‘‘प्रेम रूपी रंग कितने’’ में कवि निर्मलचंद निर्मल ने इस विदीर्णता को भी रेखांकित किया है जहां प्रेम पर विपरीत परिस्थिति अधिक प्रभावी हो उठती है। दाम्पत्य जीवन का प्रेम भी शिथिल पड़ने लगता है। माता-पिता का बच्चों के प्रति प्रेम क्रोघ से उपजी कटुता में बदल जाता है और तब प्रेम अपना मूल आकार खोने लगता है। उसकी भावनाओं के कोण खुल कर, बिखर कर समांनांतर रेखाओं में बदलने लगते हैं, जैसे नदी के दो किनारे अथवा रेल की दो पटरियां जिनमें क्रोध का उफान और आर्थिक असमर्थता का कम्पन व्याप्त रहता है। प्रेम अपना स्वरूप खोता है तो पारिवारिक संबंध भी अपना स्वरूप खोने लगते हैं। इस तथ्य को देखिए कवि निर्मल की इन पंक्तियों में -
घर के समीकरण बिगड़े हैं, मंहगाई की मार में
पति-पत्नी पीड़ित अभाव से, मौन साध कर बैठे
बिना बात ही क्रोधित हा,े बच्चों के कान उमेंठे
बुद्धि ऐसी कुंद हो गई, जैसे खेत तुषार में

          ‘‘प्रेम रूपी रंग कितने’’ काव्य संग्रह में यूं तो प्रकृति, देश, काल एवं परिस्थितियों पर केन्द्रित कविताएं भी हैं किन्तु इस संग्रह का पुनर्पाठ करते समय मेरा ध्यान संग्रह के मूल विषय प्रेम पर ही केन्द्रित रहा और संग्रह के इसी पक्ष को मैंने सामने रखा है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल मानते थे कि ‘प्रेम एक संजीवनी शक्ति है। संसार के हर दुर्लभ कार्य को करने के लिए यह प्यार संबल प्रदान करता है। आत्मविश्वास बढ़ाता है। यह असीम होता है। इसका केंद्र तो होता है लेकिन परिधि नहीं होती।’ अतः प्रेम को समझने में कवि निर्मल के इस संग्रह का पुनर्पाठ दृष्टिकोण को विस्तार दे सकता है।
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साहित्य वर्षा ... पुनर्पाठ


( दैनिक, आचरण  दि.30.07.2020)
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