Monday, August 3, 2020

रक्षाबंधन | आल्हा | डॉ. वर्षा सिंह

🚩 रक्षाबंधन पर्व के अवसर पर आप सभी को हार्दिक शुभकामनाएं 🙏🚩

आज श्रावण मास की पूर्णिमा है यानी रक्षाबंधन का पर्व है। साथ ही सुयोग यह कि आज श्रावण का अंतिम सोमवार भी है। रक्षाबंधन पर्व की कथा हमारे पुरातन ग्रंथों में मिलती है। महाभारत के अनुसार एक बार युधिष्ठिर ने भगवान कृष्ण से पूछा- 'हे अच्युत! मुझे रक्षा बंधन की वह कथा सुनाइए जिस से मनुष्यों की प्रेतबाधा तथा दुख दूर होता है।' 
        भगवान कृष्ण ने कहा- हे पांडव श्रेष्ठ! एक बार दैत्यों तथा सुरों में युद्ध छिड़ गया और यह युद्ध लगातार बारह वर्षों तक चलता रहा। असुरों ने देवताओं को पराजित करके उनके प्रतिनिधि इंद्र को भी पराजित कर दिया।
           ऐसी दशा में देवताओं सहित इंद्र अमरावती चले गए। उधर विजेता दैत्यराज ने तीनों लोकों को अपने वश में कर लिया। उसने राजपद से घोषित कर दिया कि इंद्रदेव सभा में न आएं तथा देवता व मनुष्य यज्ञ-कर्म न करें। सभी लोग मेरी पूजा करें।
         दैत्यराज की इस आज्ञा से यज्ञ-वेद, पठन-पाठन तथा उत्सव आदि समाप्त हो गए। धर्म के नाश से देवताओं का बल घटने लगा। यह देख इंद्र अपने गुरु वृहस्पति के पास गए तथा उनके चरणों में गिरकर निवेदन करने लगे- गुरुवर! ऐसी दशा में परिस्थितियां कहती हैं कि मुझे यहीं प्राण देने होंगे। न तो मैं भाग ही सकता हूं और न ही युद्धभूमि में टिक सकता हूं। कोई उपाय बताइए।
वृहस्पति ने इंद्र की वेदना सुनकर उसे रक्षा विधान रने को कहा। श्रावण पूर्णिमा को प्रातःकाल निम्न मंत्र से रक्षा विधान संपन्न किया गया।
'येन बद्धो बलिर्राजा दानवेन्द्रो महाबलः।
तेन त्वामभिवध्नामि रक्षे मा चल मा चलः।'
         इंद्राणी ने श्रावणी पूर्णिमा के पावन अवसर पर द्विजों से स्वस्तिवाचन करवा कर रक्षा का तंतु लिया और इंद्र की दाहिनी कलाई में बांधकर युद्धभूमि में लड़ने के लिए भेज दिया। 'रक्षा बंधन' के प्रभाव से दैत्य भाग खड़े हुए और इंद्र की विजय हुई। राखी बांधने की प्रथा का सूत्रपात यहीं से होता है।
           बुंदेलखंड में सैकड़ों साल पुरानी परंपरा का गांवों में निर्वहन होने से पता चलता है कि आल्हा-ऊदल की वीरता आज भी लोगों के दिलों में समाई है। जोश भरने वाली वीरता की गाथा सुनकर युवा, वृद्ध समेत सभी की भुजाएं फड़क उठती हैं। रक्षाबंधन के अगले दिन इन्हीं दोनों की वीरता से संबंध रखने वाला कजली मेला मनाए जाने की परंपरा कोरोना महामारी के कारण टूट सी गई है। अब सामाजिक दूरी के बीच ग्रामीण इलाकों में यह कार्यक्रम सिर्फ रस्म अदायगी तक सीमित होगा।
        सैकड़ों साल पहले रक्षाबंधन के दिन राजा पृथ्वीराज चौहान ने महोबा में हमला कर दिया था। उनकी सेना ने रानी मल्हना के डोले लूट लिए थे। तब वीर भूमि के लोगों ने इस त्यौहार को रद्द कर दिया था। इस ऐतिहासिक घटना के बाद आल्हा-ऊदल ने पृथ्वीराज चौहान की सेना से मोर्चा लेकर लूटे गए डोले वापस लिए थे। इसलिए उस दिन रक्षाबंधन का पर्व नहीं मनाया गया था। लूटे गए कजली से भरे डोले वापस मिलने के बाद महोबा के कीरत सागर में रानी मल्हना ने रक्षाबंधन के अगले दिन कजलियों का विसर्जन कर रक्षाबंधन का त्योहार मनाया था। 
    यह कथा इस तरह भी प्रचलित है कि सन् 1182 में राजा परमाल की पुत्री चंद्रावलि 1400 सखियाें के साथ भुजरियों के विसर्जन के लिए कीरत सागर जा रही थीं। रास्ते में पृथ्वीराज चौहान के सेनापति चामुंडा राय ने आक्रमण कर दिया था। पृथ्वीराज चौहान की योजना चंद्रावलि का अपहरण कर उसका विवाह अपने बेटे सूरज सिंह से कराने की थी। यह वह दौर था जब आल्हा ऊदल को राज्य से निष्कासित कर दिया गया था और वह अपने मित्र मलखान के पास कन्नौज में रह रहे थे। रक्षाबंधन के दिन जब राजकुमारी चंद्रावल अपनी सहेलियों के साथ भुजरियां विसर्जित करने जा रही थी तभी पृथ्वीराज की सेना ने उन्हें घेर लिया। आल्हा ऊदल के न रहने से महारानी मल्हना तलवार ले स्वयं युद्ध में कूद पड़ी थी। दोनों सेनाओं के बीच हुए भीषण युद्ध में राजकुमार अभई मारा गया और पृथ्वीराज सेना राजकुमारी चंद्रावल को अपने साथ ले जाने लगी। अपने राज्य के अस्तित्व व अस्मिता के संकट की खबर सुन साधु वेश में आये वीर आल्हा ऊदल ने अपने मित्र मलखान के साथ उनका डटकर मुकाबला किया। चंदेल और चौहान सेनाओं की बीच हुये युद्ध में कीरतसागर की धरती खून से लाल हो गई। युद्ध में दोनों सेनाओं के हजारों योद्धा मारे गये। राजकुमारी चंद्रावल व उनकी सहेलियां अपने भाईयों को राखी बांधने की जगह राज्य की सुरक्षा के लिये युद्ध भूमि में अपना जौहर दिखा रही थी। इसी वजह से भुजरिया विसर्जन भी नहीं हो सका। तभी से यहां एक दिन बाद भुजरिया विसर्जित करने व रक्षाबंधन मनाने की परंपरा है। महोबा की अस्मिता से जुड़े इस युद्ध में विजय पाने के कारण ही कजली महोत्सव विजयोत्सव के रूप में मनाया जाता है। सावन माह में कजली मेला के समय गांव देहातों में लगने वाली चौपालों में आल्हा गायन सुन यहां के वीर बुंदेलों में आज भी 1100 साल पहले हुई लड़ाई का जोश व जुनून ताजा हो जाता है।
       सागर में भी रक्षाबंधन का पर्व परम्परागत तरीक़े से मनाया जाता है। इस दिन घर-घर जलेबी खाने की परंपरा भी है। बहनें भाइयों के हाथों में रक्षा सूत्र । हैं। कजली लेकर महिलाएं सावन गीत गाती हैं और तालाबों में विसर्जन करती हैं।जगह-जगह आल्हा-ऊदल की वीरगाथा आल्हा के माध्यम से गाए जाते हैं।  बुंदेलखंड में रक्षाबंधन व कजली महोत्सव के दौरान यदि आल्हा न सुनाई पड़े तो सावन मनभावन नहीं लगता है।

बारह बरिस ल कुक्कुर जीऐं, औ तेरह लौ जिये सियार।
बरिस अठारह छत्री जीयें,  आगे जीवन को धिक्कार।।
               -----------
#आल्हा  #रक्षाबंधन 

2 comments:

  1. बहुत अच्छी लगी आप की पोस्ट ।आदरणीया शुभकामनाएँ ।

    ReplyDelete
  2. बहुत-बहुत धन्यवाद मधूलिका जी 🙏

    ReplyDelete