Wednesday, June 12, 2019

सागर : साहित्य एवं चिंतन 53 ... कोमल संवेदनाओं के धनी कवि आशीष सिंघई ‘निंशंक’ - डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh

       स्थानीय दैनिक समाचार पत्र "आचरण" में प्रकाशित मेरा कॉलम "सागर साहित्य एवं चिंतन " । जिसमें इस बार मैंने लिखा है मेरे शहर सागर के कवि आशीष सिंघई "निशंक" पर आलेख। पढ़िए और जानिए मेरे शहर के साहित्यिक परिवेश को ....

सागर : साहित्य एवं चिंतन

कोमल संवेदनाओं के धनी कवि आशीष सिंघई ‘निंशंक’
             - डॉ. वर्षा सिंह
           
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परिचय :- आशीष सिंघई ‘निशंक’
जन्म :-  16 अप्रैल 1977
जन्म स्थान :- हटा, जिला दमोह (म.प्र.)
माता-पिता :- श्रीमती कमला सिंघई एवं स्व. अशोक सिंघई
शिक्षा      :- बी.ए.
लेखन विधा :- काव्य
काव्यपाठ : - मंचों पर काव्यपाठ।
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साहित्य जीवन में सरसता का संचार करता है। इसीलिए आज के कठिन समय में संवेदनाओं को जगाए रखने के लिए साहित्य की सतत सर्जना अति आवश्यक है। यह सौभाग्य का विषय है कि सागर नगर साहित्य के विविधतापूर्ण आयामों को साहित्य में निरंतर संजोता जा रहा है। यहां कवियों ने अपनी कविताओं से जनमानस को सदा रसान्वित किया है। जब बात संवेदनाओं की आती है तो हास्य, व्यंग, श्रृंगार और वात्सल्य सभी रसों को निबद्ध करते हुए अपनी कविताओं का सृजन कर रहे हैं और उन्हें नगर के ही नहीं देश के प्रतिष्ठित मंचों पर भी प्रस्तुत कर रहे हैं। इस क्रम में एक उल्लेखनीय नाम है आशीष सिंघई ‘निशंक’ का।
      दमोह जिले की हटा तहसील में 16 अप्रैल 1077 को हटा में स्व. अशोक सिंघई एवं श्रीमती कमला सिंघई के घर जन्में आशीष सिंघई को कोमल भावनाओं की समझ अपनी धर्मप्रवण माता से मिली। अपने मामाश्री के पास जबलपुर जिले के कटंगी तहसील में रह कर उन्होंने शिक्षा प्राप्त की। स्नातक उपाधि प्राप्त करने के उपरांत आशीष सिंघई सागर नगर में दवा व्यवसाय के जीवकोपार्जन में संलग्न हो गए। आज वे मेडिकल स्टोर के संचालक हैं। पारिवारिक एवं व्यावसायिक जिम्मेदारियों के बीच साहित्य के प्रति उनका झुकाव कम नहीं हुआ। वे निरंतर काव्य सृजन करते रहे। धीरे-धीरे मंचों के प्रति उनका रुझान बढ़ा और वे नगर के मंचों पर काव्य पाठ करने के साथ ही देश के प्रतिष्ठित मंचों पर भी जाने लगे।
अपनी बाल्यावस्था में ही अपने पिता को खो देने का दुख और अपनी माता के संघर्ष ने उन्हें पीड़ित मानवता के ओर अधिक समीप पहुंचा दिया। वह कहावत है न कि ‘जाके पांव न फटी बिवाई, वो क्या जाने पीर पराई’, तो आशीष सिंघई परिस्थितियों की बिवाई के फटने पर उठने वाली टीस से भली-भांति परिचित थे, अतः उन्हें दूसरों की पीड़ा बखूबी समझ आती है। ‘निशंक’ के उपनाम से कविताएं लिखने वाले आशीष सिंघई सामाजिक विडम्बनाओं को अपनी कविता में बड़ी ही बारीकी और अनुशासनबद्धता के साथ पिरोते हैं। उनकी एक कविता है ‘वर्तमान’, जिसमें उन्होंने समाज की वर्तमान परिस्थितियों का सूक्ष्मता से आकलन करते हुए निरुपित किया है कि आज जो भी विसंगति है उसके लिए स्वयं आज का मनुष्य जिम्मेदार है। कविता का अंश देखें -
ज़िन्दगी लंबी डगर है और कांटों की चुभन है
वेदना के  क्रंदनों में,  क्यों हमारा मौन मन है।

हो रहा  विद्रोह, बागी पीढ़ियां,  क्यों हो रहीं
नए घरों की आज जर्जर सीढ़ियां क्यों हो रहीं
क्यों नहीं अहसास हमको आज अपने ही पतन का
हो रहा क्या हाल, देखो, आज अपने ही चमन का

जो दिखाई दे रहा, वो अपना खुद का संकलन है
वेदना  के  क्रंदनों में,  क्यों  हमारा  मौन मन है।
Sagar Sahitya Avam Chintan - Dr. Varsha Singh

        समाज के दुख और सुख का निर्धारण करती है उसकी आर्थिक स्थिति। जब देश की स्वतंत्रता प्राप्ति के दशकों बाद भी समाज में आर्थिक विपन्नता व्याप्त रहे तो यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति ही कही जाएगी। एक संवेदनशील कवि गरीबी के मर्मांतक दृश्यों को किस प्रकार अपनी कविता में पिरोता है, इसका उदाहरण कवि ‘निशंक’ की ‘गरीबी’ शीर्षक कविता में अनुभव किया जा सकता है-
पास पैसा एक नहीं घासलेट को
बच्चा रो रहा मगर चॉकलेट को।
पास  है  दिवाली  अफ़सोस  हो  गया
फुलझड़ी की  आस मे भूखा ही सो गया
ईद की रौनक मगर धड़कन बंद हो गई
सालों  पुरानी  फ्राक खुद  पैबंद हो गई
आंसुओं से कहकहे भी खुद हो गए हैं तरबतर
इस जमाने में गरीबी हो भला कैसे गुजर
आग चूल्हें में नहीं पर पेट में तो जल रही
रोटियों की आस उनको सबसे ज़्यादा खल रही
उम्र है स्कूल की लेकिन कबाड़ा बीनते हैं
वो शहर की गंदगी में अपना मुकद्दर ढूंढते हैं

     अपनी इस कविता में कवि ‘निशंक’ इस तथ्य को रेखांकित करते हैं कि गरीबी जाति अथवा धर्म को नहीं देखती है। गरीबी हो तो दीवाली और ईद दोनों फांकों में गुजरते हैं। गरीबी वह विवशता है जो मासूम बच्चों को स्कूल जाने की आयु में कूड़े के ऐर पर पहुंचा देती है। इस कविता की विशेषता यह है कि कवि ने इसमें मात्र समस्याओं के दृश्य नहीं खींचे हैं वरन् समस्या को हल करने के लिए सुझाव भी दिए हैं और संकल्प का आह्वान भी किया है। इसी कविता की आगे की पंक्तियां देखिए-
आओ लें संकल्प, हमसे जो बनेगा, वो करेंगे
तेल भी उम्मींद का, उनके चरागों में  भरेंगे
एक की भी जिन्दगानी गर संवारी जाए तो
‘निशंक’ कइयों के मुकद्दर फूल जैसे खिल उठेंगे।
कवि निशंक

      कवि आशीष ‘निशंक’ की सर्जना की खूबी यही है कि वे विपरीत परिस्थितियों का आकलन करते समय भी आशा और विश्वास का दामन नहीं छोड़ते हैं। वे मानते हैं कि यदि प्रयास किया जाए तो प्रतिकूल स्थितियां भी अनुकूल बनाई जा सकती हैं। यदि मनुष्य में भले-बुरे की चेतना शेष रहे तो वह बुराई के संजाल से निकल कर भलाई के पथ पर चल सकता है। इसी भावना पर आधारित उनकी ‘अहसास’ शीर्षक कविता देखिए-
टूटती है आस पर  विश्वास ज़िंदा है
तू नहीं है पास पर अहसास जिंदा है।

स्वप्न टूटे हैं मगर है चेतना बाकी
भर गए हैं घाव लेकिन वेदना बाकी
ऊंची डाल पर जाकर बुना संसार सपनों का
ले उड़ी आंधी घरोंदा चंद तिनकों का
परिंदों को अभी आंगन में वो आभास जिंदा है।

खुशबुएं मचली हैं मेरे घर पे आने को
मगर क्या ऐतराज़ी है भला इसमें जमाने को
हमारा हक रहा न अब पीपल, आम, नीमों पर
बनाओं खूब दीवारें, हदें खींचों ज़मीनों पर
मेरे हिस्से का मुट्ठी भर अभी आकाश जिंदा है।


     आशीष सिंघई ‘निशंक’ की एक बहुत ही खूबसूरत कविता है ‘पीपल’। यूं तो यह कविता बचपन की यादों से भरी हुई है किन्तु यह उन सरोकारों का स्मरण कराती है जो हमारे सामाजिक एवं सांस्कृतिक मूल्यों से जुड़े हुए थे, जिनमें असीम अपनत्व था और जीवन का गहन साझापन था। एक खिलंदड़ापन था जो ऊर्जावान बनाए रखता था। उनमें मां की आशीषें भी थीं जो रक्षाकवच की भांति अस्तित्व से लिपटी रहती थीं। ढेर सारी आशाएं और स्नेह का आगार, जो मानो बहुत पीछे छूट गया है। वस्तुतः कवि आशीष ‘निशंक’ के संवेदनाबोध को यदि जानना है तो वृक्ष का बिम्ब लिए हुए उनकी इस कविता से हो कर गुजरना जरूरी है-
यार  तुम्हारे  इर्द-गिर्द ही  मेरा बचपन बीता है
तुमसे हो कर दूर मुझे ये लगता है, कुछ रीता है
तेरी चंचल छांव तले जब भरी दुपहरी आता था
मां के शरबत जैसी ही मैं शीतलता पा जाता था
मेरी खूब पतेंगे तूने डालों में उलझाई हैं
इतने वर्षों बाद अभी तक वापस न लौटाई हैं
तेरे सर पर शोर मचाते, पंछी लगते प्यारे थे
और तुम्हारी गोद में चढ़ कर फूले नहीं समाते थे
पतझर के मौसम में तेरे पत्ते तुझसे जाते रूठ
इस वियोग में शोर मचाते रह जाते तुम बनकर ठूंठ
पर ज्यों वसंत आता तुम भी बच्चों से हषार्ते थे
झूम-झूम कर जश्न मनाते, फूले नहीं समाते थे

        आज काव्य में जिस संवेदना और अभिव्यक्ति की आवश्यकता है, वह कवि आशीष सिंघई ‘निशंक’ की काव्य में दृष्टिगत होती है। काव्य के प्रति उनकी प्रतिबद्धता उनके यशस्वी भविष्य के प्रति आश्वसत करती है।

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( दैनिक, आचरण  दि. 12.06.2019)
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