Monday, September 2, 2019

सागर: साहित्य एवं चिंतन 61... साहित्यकार रघु ठाकुर: साहित्य सृजन जिनके लिए है संवेदनाओं से साक्षात्कार - डाॅ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh

       स्थानीय दैनिक समाचार पत्र "आचरण" में प्रकाशित मेरा कॉलम "सागर साहित्य एवं चिंतन " । जिसमें इस बार मैंने लिखा है मेरे शहर सागर के साहित्यकार रघु ठाकुर पर आलेख। पढ़िए और जानिए मेरे शहर के साहित्यिक परिवेश को ....

सागर: साहित्य एवं चिंतन

साहित्यकार रघु ठाकुर: साहित्य सृजन जिनके लिए है संवेदनाओं से साक्षात्कार
                         - डाॅ. वर्षा सिंह
                                     
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परिचय:- रघु ठाकुर
जन्म:-  10 जून 1946
जन्म स्थान:- सागर
माता-पिता:- स्व श्रीमती तुलसी बाई एवं स्व. भवानी सिंह
शिक्षा:- स्नातकोत्तर (राजनीति विज्ञान), विधि स्नातक
लेखन विधा:- गद्य एवं पद्य
प्रकाशन:- विभिन्न विधाओं में नौ पुस्तकें प्रकाशित
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             सागर नगर में ही नहीं वरन् देश में गांधीवादी-समाजवादी चिंतक के रूप में ख्याति प्राप्त समाजसेवी एवं राजनीतिज्ञ रघु ठाकुर एक अच्छे साहित्यकार भी हैं। जनहित के हर मोर्चे पर खड़े दिखाई देने वाले रघु ठाकुर ने साहित्य सृजन का मार्ग क्यों चुना इस संबंध में वे स्वयं कहते हैं कि -‘‘साहित्य सृजन मेरे लिये अपनी सम्वेदनाओं से साक्षात्कार है। इसके माध्यम से मैं खुद को मांजता हूं तथा पाठकों के माध्यम से आमजन से संवाद करने का प्रयास करता हूं। मुझे साहित्य शौक नहीं बल्कि परिवर्तन के लिए काम का ही एक हिस्सा है तथा बौद्धिक जगत से जुड़कर आत्मचिंतन व अपनी कमियों को दूर करने का माध्यम है। साहित्य स्वतः से सवाल करने का भी मेरा माध्यम है जो आमतौर पर दूसरे मित्र या नहीं करते या नहीं कर पाते। मानवीय संवेदनाओं व पीड़ा को व्यापकता देना भी एक उद्देश्य है।’’
            10 जून 1946 को माता श्रीमती तुलसी बाई एवं पिता भवानी सिंह के पुत्र के रूप में सागर में जन्में रघु ठाकुर बाल्यावस्था से ही चिंतनशील रहे। पीड़ित मानवता के प्रति संवेदनाएं उन्हें समाजसेवा के लिए प्रेरित करती रहीं। आरम्भिक शिक्षा पूर्ण करने के उपरांत शैक्षिक सीढ़ियां चढ़ते हुए उच्चशिक्षा की ओर कदम बढ़ाया। उन्होंने राजनीति विज्ञान में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त करने के बाद विधि में स्नातक शिक्षा प्राप्त की। उन्होंने महात्मा गांधी के राजनीतिक एवं दार्शनिक विचारों का गहन अध्ययन किया। उनके मन पर महात्मा गांधी की समाजवादी विचारधारा का गहरा प्रभाव पड़ा। उन्होंने राममनोहर लोहिया के विचारों को अपने मनोनुकूल पाया और उसे अपने जीवन में आत्मसात कर लिया। भारत में समाजवाद को ले कर हमेशा एक अस्पष्टता सी रही है। रघु ठाकुर इस अस्पष्टता को दूर कर के देश में एक समतामूलक समाज की संरचना करने के लिए सदैव तत्पर रहते हैं। अपने अध्ययन काल से आज तक वे दलित, दमित एवं वंचितों के पक्ष में आवाज़ उठाते रहे हैं।
रघु ठाकुर ने डाॅ. लोहिया द्वारा प्रकाशित ‘जन’ तथा ‘मैनकाइंड’’ में लेखनकार्य किया। उन्होंने जार्ज फर्नान्डीज़ द्वारा प्रकाशित ‘प्रतिपक्ष’ तथा ‘दी अदर साईड’ में संपादन कार्य भी किया। वे सुल्तानपुर , उत्तरप्रदेश से प्रकाशित ‘‘लोकतांत्रिक समाजवाद’’ मासिक के संस्थापक सदस्य रहे तथा भोपाल, मध्यप्रदेश से प्रकाशित होने वाले ‘‘दुखियावाणी’’ का संपादनकार्य सम्हाल रहे हैं। वैसे वर्तमान में वे दक्षेस महासंघ के अध्यक्ष एवं लोकतांत्रिक समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं।

Sagar Sahitya Avam Chintan - Dr. Varsha Singh # Sahitya Varsha

                  साहित्य के क्षेत्र में समाजवादी चिंतक रघु ठाकुर का महत्वपूर्ण योगदान है। उनकी अब तक लगभग एक दर्जन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। ये पुस्तकें हैं- ‘‘रोजगार का अधिकार एवं गांधीवादी अर्थ व्यवस्थ‘‘, ‘‘आर्थिक उदारीकरण और भारत‘‘, ‘‘दक्षेस महासंघ एक परिकल्पना, विज्ञान और समाजवाद‘‘, ‘‘आरक्षण‘‘, ‘‘विकल्प की खोज‘‘, ’’विचारार्थ’’, ‘‘विमर्श’’, ’’मैं अभिमन्यु हूं’’, ’’मर रहा है किसान फिर भी भारत महान’’ तथा ’’स्याह उजाले’’।
              इन पुस्तकों में ‘‘मैं अभिमन्यु हूं’’, ‘‘मर रहा है किसान फिर भी भारत महान’’ तथा ‘‘स्याह उजाले’’ काव्य संग्रह हैं।
              स्पष्टवादी अभिव्यक्ति के लिए ख्यातिनाम रघु ठाकुर अपने साहित्य सृजन के साथ ही साहित्य जगत की अंतर्कथा पर कटाक्ष करने से भी नहीं चुके हैं। अपने काव्य संग्रह ‘‘मैं अभिमन्यु हूं’’ के आत्मकथन में ‘‘अपनमुखी-जो कहना भी जरूरी है’’ शीर्षक से लिखते हुए कहते हैं कि- ‘‘मेरी कविताएं लय या तुक में बंधी हुई नहीं हैं, बस ये तो कुछ अचानक मन में उपजे विचार हैं। कभी -कभी इनमें कुछ स्पष्टबयानी भी है या एक प्रकार की बेबाक गवाही भी। मैं जानता हूं कि ये कविताएं न तो कविसम्मेलनों के मंचों के लिए उपयुक्त हैं, क्योंकि इनमें न लय है न तरन्नुम, न झूठ है न नकलीपन, न हास्य है न विनोद। और ये कविताएं साहित्यकारों की बौद्धिक संगोष्ठियों की वाह-वाही की पात्र भी नहीं होंगीं क्योंकि मेरा कोई वास्ता देश की लेखक-साहित्यिक गिरोहबंदी से नहीं है, बल्कि मुझे ऐसा लगता है कि अपवाद छोड़ दें तो आमतौर पर देश व दुनिया में साहित्य के पुरस्कार वर्गीय, खेमाबंदी की गिरोहनिष्ठा के पुरस्कार हैं। ’’ इसी संग्रह की प्रथम कविता ‘‘21वीं सदी के लोहियावादियो’’ में कवि रघु ठाकुर की स्पष्टबयानी को देखा जा सकता है-
21वीं सदी के लोहियावादियों !
तुम्हारा लोहियावाद अब कुछ आधुनिक सा
हो गया है।
अपने अंतर्मन से पूछो
शायद लोहिया तुम्हें पुरातन सा हो गया है।
कहते थे लोहिया-
समता और सम्पन्नता है समाजवाद
पर अब नया जमाना है
अब तो सम्पन्नता ही है समाजवाद।

साहित्यकार रघु ठाकुर

            दूसरे काव्य संग्रह ‘‘मर रहा है किसान, फिर भी भारत महान’’ का प्रथम संस्करण सन् 2012 में प्रकाशित हुआ था। यह संग्रह इतना लोकप्रिय हुआ कि सारी प्रतियां साल भर में ही बिक गईं और अगले साल यानी सन् 2013 में ही प्रकाशक को इसका दूसरा संस्करण प्रकाशित करना पड़ा। स्पेनिश कवि लोर्का को समर्पित इस काव्य संग्रह की भूमिका लिखते हुए प्रसिद्ध साहित्यकार रमेश दवे ने लिखा कि -‘‘ये कविताएं पढ़ कर ऐसा लगता है, भाई रघु ठाकुर जैसे निर्भीक एवं प्रखर वक्ता के पास कविता स्वयं आई हो और उसने मनुष्य की तरह, समाज की तरह, पीड़ितों की तरह खड़े हो कर कहा हो कि मुझे लिखो, मैं भी आज पाखंड, क्षोभ, जड़ता, अहंकार, साम्प्रदायिकता जैसे तरह-तरह के वैचारिक अभावों से ग्रस्त हूं। कविता का समाज मिट रहा है। इसीलिए रघु भाई ने कविता की आवाज़ सुन कर ये कविताएं रच दीं- अपने संवेदनशील मन की घबराहट को बाहर लाने के लिए।’’ रमेश दवे आगे लिखते हैं कि ‘‘इन कविताओं में कोई यथार्थवाद, कलावाद, प्रकृतिवाद न खोजा जाए और न शिल्प की कसौटियों पर इन्हें कसा जाए। ये वक्तव्य की कविताएं हैं, इसलिए इनकी वाग्मिता में सत्य और ईमान को देखा जाए।’’
‘‘मर रहा है किसान फिर भी भारत महान’’  काव्य संग्रह में एक कविता है ‘‘चाहिए है बस एक संडास’’। इस कविता का एक अंश देखिए-
सारा दिन घूम-घूम कर बेचते हैं खिलौने
नन्हा-सा बच्चा गोद में, कभी आदमी के कभी औरत के
एक अदद चादर, फटी-सी दरी और रजाई
कुल जमा यही हैं उनके बिछौने
दिन तो काट लिया,
पर रात कहां बिताएं, कहां सोने जाएं ?

             इसी संग्रह में एक और कविता है जिसका शीर्षक है-‘‘घर की तलाश’’। इस कविता में समाज में सिकुड़ती असंवेदनशीलता और परस्पर दूरियांे का बड़ी बारीकी से चित्रण किया गया हैं। कविता का एक अंश देखें-
मुझे है एक घर की तलाश
जो तालाब का पड़ोसी हो
बस अड्डा हो या रेलवे स्टेशन
स्कूल व कालेज हो और मैदान भी हो पास
पर अब कैसे मिलेगा ऐसा घर ?
शहर तो फैल गया है
हो गया है मीलों का सफ़र।
मुझे चाहिए ऐसा घर
जहां पीने को साफ पानी हो
जहां हत्यारा धुंआ न हो और हवा साफ हो
वायुमंडल रहे धुंए से बेअसर।

             सन् 2019 में प्रकाशित काव्य संग्रह ‘‘स्याह उजाले’’ में समाज में व्याप्त विसंगतियों पर तीखा प्रहार करते हुए ‘‘सभ्य समाज के नवाचार’’ शीर्षक कविता में रघु ठाकुर लिखते हैं-
डाॅगी को दैनिक क्रिया के लिए
साहब ले जाते हैं
पर बाबा को पोटी कराने को/ नौकर लगाते हैं
डाॅगी की गर्मी की बात अलग है
डाॅगी को वातानुकूलित कमरे में रहने की आदत है
जब मजदूर तपती दोपहर में
पत्थर तोड़ते हैं
मिट्टी खोदते और गिट्टी फोड़ते हैं
तब डाॅगी ड्राइंगरूम में अलसाते हैं

              वर्तमान सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक एवं धार्मिक परिदृश्य का आंकलन एवं चिंतन करते हुए अपने जिन विचारों को रघु ठाकुर ने लेखबद्ध किया है वे लेख ‘‘विमर्श’’ नामक पुस्तक में संग्रहीत हैं। इन लेखों में ‘‘ऊर्जा तो बहाना है, अमेरिका के साथ जाना है’’, ‘‘प्रजातांत्रिक पूंजीवाद बनाम साम्यवादी पूंजीवाद’’, ‘‘जरूरत है पांचाली जैसी तेजस्विता की’’, ‘‘भस्मासुर बनाओगे तो खुद कहां बच पाओगे’’, ‘‘वैचारिक अतिवाद के महल’’, ‘‘औद्योगिक आतंकवाद’’, ‘‘ गांधी राष्ट्रपिता क्यों है, गांधी तो विश्वपिता हैं’’, ‘‘कविता-लोक से बाजार तक’’, नक्सलवाद- प्रचार और तथ्य’’ जैसे लेख वर्तमान समाज में व्याप्त वैचारिक संकीर्णता को बेनकाब करते हुए वह आक्रोश व्यक्त करते हैं जिसके केन्द्र में सकारात्मक परिवर्तन का आह्वान है। इस पुस्तक में स्त्री विमर्श की एक कविता भी मौजूद है जो कवि रघु ठाकुर ने विंध्याचल एक्सप्रेस की सामान्य बोगी में यात्रा करने वाली तेंदू पत्ते वालियों की पीड़ा के रूप में व्यक्त किया है कविता का शीर्षक है ‘‘ तेंदू पत्ते वालियों का दर्द’’। इसका ये अंश देखिए -
तेंदू के पत्ते घने जंगलों से तोड़ कर
सैकड़ों किलोमीटर दूर वनों में घूम कर
ये गरीब तेंदू पत्ते वालियां देर रात्रि घर पहुंचेंगी
तब जा कर इनके घरों की अंगीठियां सुलगेंगी
इनकी यात्रा दुर्दांत कथानक है
इंसान की यह जिन्दगी नरक से भी भयानक है
भोर में तीन बजे जाग कर
दुधपीते बच्चों को सोता छोड़ कर
हाथ में एक थैला, साथ में चादर मैंला
निकलती हैं ये अपनी संघर्ष-यात्रा पर

          बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी रघु ठाकुर जो कि देश में समतामूलक समाज संरचना हेतु समर्पित हैं, प्रकृति से एक कवि एवं साहित्यकार हैं, इसीलिए उनके साहित्य में समाज और संवेदनाओं का घनीभूत सामंजस्य दृष्टिगोचर होता है। वस्तुतः साहित्य सृजन रघु ठाकुर के लिए संवेदनाओं से साक्षात्कार है और वे यही साक्षात्कार अपनी रचनाओं के माध्यम से पाठकों तक पहुंचाने के लिए सतत् सृजनरत रहते हैं ।
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( दैनिक, आचरण  दि. 23.08.2019)
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