Sunday, March 14, 2021

ऐक्यं बलं समाजस्य | महिला क्षत्रिय समाज | अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस 2021| डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh

प्रिय ब्लॉग पाठकों, 
      मेरे शहर सागर, म.प्र. में अनेक सामाजिक गतिविधियां होती रहती हैं। पिछले सप्ताह  08 मार्च, अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर क्षत्रिय नवचेतना मंच के अंतर्गत महिला क्षत्रिय समाज द्वारा संध्याकाल में, मुक्ताकाश में महिला दिवस मनाया जिसमें मैं और मेरी अनुजा डॉ (सुश्री) शरद सिंह विशिष्ट अतिथि के रूप में सहभागी रहीं।


     
    सागर नगर में महिला क्षत्रिय समाज महिला सशक्तिकरण की दिशा में लगातार कार्य कर रहा है। स्त्री की पुरुषों से समानता और  स्त्री शिक्षा के प्रति सजग है। समाज वही है जहां रह कर व्यक्ति परहित के बारे में सोचता और फिर उस सोच को कार्य रूप देता है।
   प्रसंगवश देखा जाए तो समाज की परिभाषा बहुत सरल और सीधी है -
'समाज (society) एक से अधिक लोगों के समुदायों से मिलकर बने एक वृहद समूह को कहते हैं जिसमें सभी व्यक्ति मानवीय क्रियाकलाप करते हैं। मानवीय क्रियाकलाप में आचरण, सामाजिक सुरक्षा और निर्वाह आदि की क्रियाएं सम्मिलित होती हैं।"
    समाज शब्द संस्कृत के दो शब्दों सम् एवं अज से बना है। सम् का अर्थ है इक्ट्ठा व एक साथ अज का अर्थ है साथ रहना। इस प्रकार समाज शब्द का अर्थ है ~ एक साथ रहने वाला समूह। एक साथ रहने का तात्पर्य है एकता।

ऐक्यं बलं  समाजस्य  तद्भावे  स  दुर्बलः ।।
तस्मात् ऐक्यं प्रशंसन्ति दृढं राष्ट्र हितैषिणः ।।

अर्थात्  एकता समाज का बल है, एकताहीन समाज दुर्बल है, इसलिए राष्ट्रहित सोचने वाले एकता को बढ़ावा देते हैं ।

मनुष्य एक चिन्तनशील प्राणी है। अपने उद्भव के क्रमिक विकास के दौरान मनुष्य पहले एकाकी रहता था फिर धीरे-धीरे वह समूह में रहने लगा। उसने एक संगठन का निर्माण किया है। वह ज्यों-ज्यों मस्तिष्क जैसी अमूल्य शक्ति का प्रयोग करता गया, उसकी जीवन पद्धति बदलती गयी और जीवन पद्धतियों के बदलने से आवश्यकताओं में परिवर्तन हुआ। इन आवश्यकताओं ने मनुष्य को एक सूत्र में बांधना प्रारभ्म किया और इस बंधन से संगठन बने और यही संगठन समाज कहलाये और मनुष्य इन्हीं संगठनों का अंग बनता चला गया। बढ़ती हुई आवश्यकताओं ने मानव को विभिन्न समूहों एवं व्यवसायों को अपनाते हुये विभक्त करने का काम किया जिससे मनुष्य की परस्पर निर्भरता बढ़ी और इसने मजबूत सामाजिक बंधनों को जन्म दिया।
व्यक्ति व समाज एक-दूसरे के पूरक हैं। व्यक्ति आपस में मिलकर समाज का निर्माण करते हैं और समाज व्यक्ति के अस्तित्व एवं आवश्यकता को पूरा करता है। इस प्रकार ये दोनों परस्पर में एक दूसरे पर आश्रित हैं। व्यक्तियों के योग से समाज उत्पन्न होता है। 
   हमारे भारतीय परिवेश में वर्ण व्‍यवस्‍था सामाजिक विभाजन का एक आधार है। हिन्दू धर्म-ग्रंथों के अनुसार समाज को चार वर्णों में विभाजित किया गया है-  ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र । ब्राह्मण वर्ण का कार्य शिक्षा देना और पूजन- यज्ञादि कार्यों से ईश्वरीय चेतना का संचार करना माना गया है। जबकि क्षत्रिय वर्ण का कार्य देश का शासन करना एवं देश तथा देशवासियों की शत्रुओं से रक्षा करना माना गया है। वैश्य वर्ण का संबंध व्यापार से और शूद्र वर्ण का संबंध सेवा कार्य से माना गया है।
प्राचीन वैदिक ग्रंथों में "क्षतात त्रायते इति क्षत्य" का लेख मिलता है, जिसका अर्थ है क्षत आघात से त्राण देने वाला।
  समाज का मूल मंत्र है - 
।। सं गच्छध्वम् सं वदध्वम्।। 
(ऋग्वेद 10.181.2)
अर्थात् साथ चलें मिलकर बोलें। उसी सनातन मार्ग का अनुसरण करें जिस पर पूर्वज चले हैं। 

   वर्तमान समय में आवश्यकता है कि सभी समाज एकजुटता से देश के प्रति आस्था रख कर मानव जीवन के उन्नयन का कार्य करें।

एकतायाः बलम् एव सर्वोत्तमं बलम् अस्ति लोके ।
      अर्थात् इस संसार में एकता ही सबसे बड़ी शक्ति है । इस सूत्र का तात्पर्य है कि कोई कार्य कितना ही बड़ा, कठिन अथवा असम्भव - सा लगता हो , उसको एकता के बल से अतिलघु , सरल अथवा सम्भव बनाया जा सकता है 
 

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6 comments:

  1. सुन्दर चित्रावली।
    बहुत-बहुत बधाई हो।

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    1. हार्दिक धन्यवाद आदरणीय शास्त्री जी 🙏

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  2. चित्र और रिपोर्ट दोनों बढ़िया .

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    1. हार्दिक धन्यवाद आदरणीया 🙏

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  3. बहुत सुंदर चित्र एवं रिपोर्ट, आदरणीया शुभकामनाएँ

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    1. हार्दिक धन्यवाद मधूलिका पटेल जी 🙏

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