Monday, November 19, 2018

बुंदेलखंड में देवोत्थानी एकादशी - डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh

      देवोत्थानी एकादशी यानी देव उठनी ग्यारस की हार्दिक शुभकामनाएं !
आज इस अवसर पर तुलसी माता और श्री शालिग्राम भगवान स्वरूप देव विष्णु का हमने पूजन किया।
Dr (Miss) Sharad Singh

Dr. Varsha Singh

देवउठनी एकादशी से देव भगवान विष्णु  इस दिव्य देव प्रबोधन मंत्र के उच्चारण से  जाग्रत होते हैं-

ब्रह्मेन्द्ररुदाग्नि कुबेर सूर्यसोमादिभिर्वन्दित वंदनीय,
बुध्यस्य देवेश जगन्निवास मंत्र प्रभावेण सुखेन देव।
उदितष्ठोतिष्ठ गोविन्द त्यज निद्रां जगत्पते,
त्वयि सुप्ते जगन्नाथ जगत्सुप्तं भवेदिदम्‌।
उत्थिते चेष्टते सर्वमुत्तिष्ठोत्तिष्ठ माधव॥

देवउठनी ग्यारस या देव प्रबोधिनी एकादशी का पर्व दीपावली के बाद कार्तिक मास की एकादशी तिथि को यह पर्व मनाया जाता है। घरों व मंदिरों में देवताओं का भव्य पूजन व धार्मिक आयोजन किए जाते हैं। 11 दीपक जलाकर गन्ने का मंडप बनाकर सिंह्नासन में विराजमान भगवान विष्णु की पूजा की जाती है। इसीलिये इसे बुंदेलखंड में गन्ना ग्यारस भी कहते हैं।
 मान्यता है कि आषाढ़ मास की देवशयनी एकादशी के दिन से देवता शयन में चले जाते हैं और इसके चार माह बाद कार्तिक अमावस्या के बाद देवउठनी यानी देवउत्थानी एकादशी के दिन देव जाग्रत होते हैं।
Dr. (Miss) Sharad Singh
इस पर्व को इसीलिए देव दीपावली भी कहा जाता है। गो-लोक में दीपावली का पर्व कार्तिक अमावस्या के दिन मनाया जाता है, जबकि देवलोक में देवउठनी एकादशी के दिन ही दीपावली का पर्व मनाए जाने की मान्यता हिंदू धर्मग्रंथों में है। इसी दिन भगवान सालिगराम और तुलसी का विवाह भी हुआ था, इसलिए इस दिन तुलसी विवाह पर्व भी मनाया जाता है और इसे देवप्रबोधिनी एकादशी कहते हैं।

बुंदेलखंड में उत्तरप्रदेश के महोबा, झाँसी, बांदा, ललितपुर, जालौन, हमीरपुर और चित्रकूट जिले शामिल हैं, जबकि मध्यप्रदेश के छतरपुर, सागर, पन्ना, टीकमगढ़, दमोह, दतिया, आदि जिले शामिल हैं।
 देवउत्थानी एकादशी के पूजन के दौरान पुरानी परंपरा के अनुसार कलम, पुस्तक, व्यवसाय से जुड़ी सामग्री का चित्र, शंख-झालर बजाकर और भजन कीर्तन करके भगवान को का पूजन किया जाता है। मंगलकलश के चारों ओर घी के दीपक जलाए जाते हैं, फिर भगवान को पंचामृत स्नान, वस्त्र, जनेऊ, धूप, दीप, नैवेद्य, बेर, चना भाजी, मीठा ऋतु फल आदि अर्पित किया जाता है। इसके बाद भगवान के मंडप की परिक्रमा में घरों व मुहल्लों के सभी सदस्य एक दूसरे के घर पूजन में शंख, झालर, घंटा के साथ शामिल होते हैं। इससे सुख, समृद्धि, शांति, सुबुद्धि की प्राप्ति होती है।
बुंदेेलखंड में देवउठनी एकादशी का पूजन घरों व मंदिरों में विशेषकर गन्ने का मंडप बनाकर किए जाने की मान्यता है। साथ ही भगवान को ऋतु फल सिंघाड़ा, बेर, अमरुद, शरीफा, सेव, शकरकंद आदि फलों को अर्पित कर भोग लगाया जाता है।


तुलसी विवाहोत्सव भी इसी दिन मनाया जाता है।
श्रीमद् भगवद-पुराण के अनुसार श्री हरि विष्णु ही सृष्टि के आदि कर्ता हैं । इन्हीं की प्रेरणा से ब्रह्मा जी ने सृष्टि की रचना की और शिव जी संहार कर रहे हैं । स्वयं भगवान विष्ण जगतपिता हैं और  समष्टिसृष्टि  का पालन कर रहे हैं । विष्णु की प्रसन्नता के लिए ही एकादशी का व्रत किया जाता है । कार्तिक शुक्ल एकादशी  इनमें सर्व श्रेष्ठ है ।
डॉ. (सुश्री) शरद सिंह

देव उत्थान का तात्पर्य है देव का उठना या जागना. पराणिक मान्यताओं के अनुसार श्री विष्णु जो जगत के कल्याण हेतु विभिन्न रूप धारण करते हैं और दुराचारियों एवं धर्म के शत्रुओं का अंत करते हैं, शंखचूर नामक महा-असुर का अंत कर उसे यमपुरी भेज दिया. युद्ध करते हुए भगवान स्वयं काफी थक गये तो चार मास के लिए योगनिद्रा में चले गये. जिस दिन भगवान योग निद्रा में शयन के लिए गये उस दिन आषाढ़ शुक्ल एकादशी की तिथि थी उस दिन से लेकर कार्तिक शुक्ल एकादशी तक भगवान निद्रा में रहते हैं अत: मांगलिक कार्य इन चार मासों में नहीं होता है. कार्तिक शुक्ल एकादशी के दिन जब भगवान निद्रा से जागते हैं तो शुभ दिनों की शुरूआत होती है, अत: इसे देव उत्थान एकादशी कहते है I देव उठनी एकादशी को प्रबोधिनी एकादशी और देवोत्थानी एकादशी के नाम से भी जाना जाता है।
देवोत्थानी एकादशी के दिन फलहार और निर्जल व्रत दोनों व्रत  किया जाता है। इस दिन स्नान करके भगवान विष्णु की पूजा करनी चाहिए और भगवान विष्णु के विभिन्न अवतारों एवं उनकी महिमा का गुणगान करना चाहिए. इस दिन संध्या काल में शालिग्राम रूप में भगवान की पूजा करनी चाहिए. जब भगवान की पूजा हो जाए तब चरणामृत ग्रहण करने के बाद फलाहार करना चाहिए. व्रत करने वालों को द्वादशी के दिन सुबह ब्रह्मण को भोजन करवा कर जनेऊ, सुपारी एवं दक्षिण देकर विदा करना चाहिए फिर अन्न जल ग्रहण करना चाहिए. इस व्रत का पारण तुलसी के पत्ते से करने का विधान शास्त्रों में बताया गया है।
गन्ना

प्रबोधिनी एकादशी अथवा देव उठनी एकादशी व्रत की कथा
 ॐ नमो वासुदेवाय नमः
    ऊँ नमो नारायणः             
एक बार नारदमुनि ने ब्रह्माजी से प्रश्न किया कि प्रबोधिनी एकादशी अथवा देव उठनी एकादशी के बारे में विस्तार से बतलाये ।
ब्रह्माजी बोले- हे मुनिश्रेष्ठ! अब पापों को हरने वाली पुण्य और मुक्ति देने वाली एकादशी का माहात्म्य सुनिए। पृथ्वी पर गंगा की महत्ता और समुद्रों तथा तीर्थों का प्रभाव तभी तक है जब तक कि कार्तिक की देव प्रबोधिनी एकादशी तिथि नहीं आती। मनुष्य को जो फल एक हजार अश्वमेध और एक सौ राजसूय यज्ञों से मिलता है वही प्रबोधिनी एकादशी से मिलता है। नारदजी कहने लगे कि हे पिता! एक समय भोजन करने, रात्रि को भोजन करने तथा सारे दिन उपवास करने से क्या फल मिलता है ? बताने कीकृपा करें
ब्रह्माजी बोले- हे पुत्र। एक बार भोजन करने से एक जन्म और रात्रि को भोजन करने से दो जन्म तथा पूरा दिन उपवास करने से सात जन्मों के पाप नाश होते हैं। जो वस्तु त्रिलोकी में न मिल सके और दिखे भी नहीं वह हरि प्रबोधिनी एकादशी से प्राप्त हो सकती है। मेरु और मंदराचल के समान भारी पाप भी नष्ट हो जाते हैं तथा अनेक जन्म में किए हुए पाप समूह क्षणभर में वैसे भस्म हो जाते हैं।
जैसे रुई के बड़े ढेर को अग्नि की छोटी-सी चिंगारी पलभर में भस्म कर देती है। विधिपूर्वक थोड़ा-सा पुण्य कर्म बहुत फल देता है परंतु विधि ‍रहित अधिक किया जाए तो भी उसका फल कुछ नहीं मिलता। संध्या न करने वाले, नास्तिक, वेद निंदक, धर्मशास्त्र को दूषित करने वाले, पापकर्मों में सदैव रत रहने वाले, धोखा देने वाले ब्राह्मण और शूद्र, परस्त्री गमन करने वाले तथा ब्राह्मणी से भोग करने वाले ये सब चांडाल के समान हैं। जो विधवा अथवा सधवा ब्राह्मणी से भोग करते हैं, वे अपने कुल को नष्ट कर देते हैं।
डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
पर स्त्री गामी के संतान नहीं होती और उसके पूर्व जन्म के संचित सब अच्छे कर्म नष्ट हो जाते हैं। जो गुरु और ब्राह्मणों से अहंकारयुक्त बात करता है वह भी धन और संतान से हीन होता है। भ्रष्टाचार करने वाला, चांडाली से भोग करने वाला, दुष्ट की सेवा करने वाला और जो नीच मनुष्य की सेवा करते हैं या संगति करते हैं, ये सब पाप हरि प्रबोधिनी एकादशी के व्रत से नष्ट हो जाते हैं।
जो मनुष्य इस एकादशी के व्रत को करने का संकल्प मात्र करते हैं उनके सौ जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं। जो इस दिन रात्रि जागरण करते हैं उनकी आने वाली दस हजार पीढि़याँ स्वर्ग को जाती हैं। नरक के दु:खों से छूटकर प्रसन्नता के साथ सुसज्जित होकर वे विष्णुलोक को जाते हैं। ब्रह्महत्यादि महान पाप भी इस व्रत के प्रभाव से नष्ट हो जाते हैं। जो फल समस्त तीर्थों में स्नान करने, गौ, स्वर्ण और भूमि का दान करने से होता है, वही फल इस एकादशी की रात्रि को जागरण से मिलता है।
हे मुनिशार्दूल। इस संसार में उसी मनुष्य का जीवन सफल है जिसने हरि प्रबोधिनी एकादशी का व्रत किया है। वही ज्ञानी तपस्वी और जितेंद्रीय है तथा उसी को भोग एवं मोक्ष मिलता है जिसने इस एकादशी का व्रत किया है। वह विष्णु को अत्यंत प्रिय, मोक्ष के द्वार को बताने वाली और उसके तत्व का ज्ञान देने वाली है। मन, कर्म, वचन तीनों प्रकार के पाप इस रात्रि को जागरण से नष्ट हो जाते हैं।
इस दिन जो मनुष्य भगवान की प्रसन्नता के लिए स्नान, दान, तप और यज्ञादि करते हैं, वे अक्षय पुण्य को प्राप्त होते हैं। प्रबोधिनी एकादशी के दिन व्रत करने से मनुष्य के बाल, यौवन और वृद्धावस्था में किए समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं। इस दिन रात्रि जागरण का फल चंद्र, सूर्य ग्रहण के समय स्नान करने से हजार गुना अधिक होता है। अन्य कोई पुण्य इसके आगे व्यर्थ हैं। जो मनुष्य इस व्रत को नहीं करते उनके अन्य पुण्य भी व्यर्थ ही हैं।
अत: हे नारद! तुम्हें भी विधिपूर्वक इस व्रत को करना चाहिए। जो कार्तिक मास में धर्मपारायण होकर अन्न नहीं खाते उन्हें चांद्रायण व्रत का फल प्राप्त होता है। इस मास में भगवान दानादि से जितने प्रसन्न नहीं होते जितने शास्त्रों में लिखी कथाओं के सुनने से होते हैं। कार्तिक मास में जो भगवान विष्णु की कथा का एक या आधा श्लोक भी पढ़ते, सुनने या सुनाते हैं उनको भी एक सौ गायों के दान के बराबर फल मिलता है। अत: अन्य सब कर्मों को छोड़कर कार्तिक मास में मेरे सन्मुख बैठकर कथा पढ़नी या सुननी चाहिए।
जो कल्याण के लिए इस मास में हरि कथा कहते हैं वे सारे कुटुम्ब का क्षण मात्र में उद्धार कर देते हैं। शास्त्रों की कथा कहने-सुनने से दस हजार यज्ञों का फल मिलता है। जो नियमपूर्वक हरिकथा सुनते हैं वे एक हजार गोदान का फल पाते हैं। विष्णु के जागने के समय जो भगवान की कथा सुनते हैं वे सातों द्वीपों समेत पृथ्वी के दान करने का फल पाते हैं। कथा सुनकर वाचक को जो मनुष्य सामर्थ्य के अनुसार ‍दक्षिणा देते हैं उनको सनातन लोक मिलता है।
पौराणिक ग्रंथों के अनुसार देव प्रबोधिनी एकादशी की व्रत कथा में कहा गया है कि
ब्रह्माजी की यह बात सुनकर नारदजी ने कहा कि भगवन! इस एकाद‍शी के व्रत की ‍विधि हमसे कहिए और बताइए कि कैसा व्रत करना चाहिए। इस ब्रह्माजी ने कहा कि ब्रह्ममुहूर्त में जब दो घड़ी रात्रि रह जाए तब उठकर शौचादि से निवृत्त होकर दंत-धावन आदि कर नदी, तालाब, कुआँ, बावड़ी या घर में ही जैसा संभव हो स्नानादि करें, फिर भगवान की पूजा करके कथा सुनें। फिर व्रत का नियम ग्रहण करना चाहिए।
उस समय भगवान से प्रार्थना करें कि हे भगवन! आज मैं निराहार रहकर व्रत करूँगा। आप मेरी रक्षा कीजिए। दूसरे दिन द्वादशी को भोजन करूँगा। तत्पश्चात भक्तिभाव से व्रत करें तथा रात्रि को भगवान के आगे नृत्य, गीत(भजन) आदि करना चाहिए। कृपणता त्याग कर बहुत से फूलों, फल, अगरबत्ती, धूप आदि से भगवान का पूजन करना चाहिए। शंखजल से भगवान को अर्घ्य दें।
इसका समस्त तीर्थों के भ्रमण से करोड़ गुना फल होता है। जो मनुष्य अगस्त्य के पुष्प से भगवान का पूजन करते हैं उनके आगे इंद्र भी हाथ जोड़ता है। तपस्या करके संतुष्ट होने पर हरि भगवान जो नहीं करते, वह अगस्त्य के पुष्पों से भगवान को अलंकृत करने से करते हैं। जो कार्तिक मास में बिल्वपत्र से भगवान की पूजा करते हैं वे ‍मुक्ति को प्राप्त होते हैं।
कार्तिक मास में जो तुलसी से भगवान का पूजन करते हैं, उनके दस हजार जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं। तुलसी दर्शन करने, स्पर्श करने, कथा कहने, नमस्कार करने, स्तुति करने, तुलसी रोपण, जल से सींचने और प्रतिदिन पूजन सेवा आदि करने से हजार करोड़ युगपर्यंत विष्णु लोक में निवास करते हैं। जो तुलसी का पौधा लगाते हैं, उनके कुटुम्ब से उत्पन्न होने वाले प्रलयकाल तक विष्णुलोक में निवास करते हैं।
यह मान्यता है कि रोपी तुलसी जितनी जड़ों का विस्तार करती है उतने ही हजार युग पर्यंत तुलसी रोपण करने वाले सुकृत का विस्तार होता है। जिस मनुष्य की रोपणी की हुई तुलसी जितनी शाखा, प्रशाखा, बीज और फल पृथ्वी में बढ़ते हैं, उसके उतने ही कुल जो बीत गए हैं और होंगे दो हजार कल्प तक विष्णुलोक में निवास करते हैं। जो कदम्ब के पुष्पों से श्रीहरि का पूजन करते हैं वे भी कभी यमराज को नहीं देखते। जो गुलाब के पुष्पों से भगवान का पूजन करते हैं उन्हें मुक्ति मिलती है।
जो वकुल और अशोक के फूलों से भगवान का पूजन करते हैं वे सूर्य-चंद्रमा रहने तक किसी प्रकार का शोक नहीं पाते। जो मनुष्य सफेद या लाल कनेर के फूलों से भगवान का पूजन करते हैं उन पर भगवान अत्यंत प्रसन्न होते हैं और जो भगवान पर आम की मंजरी चढ़ाते हैं, वे करोड़ों गायों के दान का फल पाते हैं। जो दूब के अंकुरों से भगवान की पूजा करते हैं वे सौ गुनापूजा का फलग्रहण करते हैं।
जो शमी के पत्र से भगवान की पूजा करते हैं, उनको महाघोर यमराज के मार्ग का भय नहीं रहता। जो भगवान को चंपा के फूलों से पूजते हैं वे फिर संसार में नहीं आते। केतकी के पुष्प चढ़ाने से करोड़ों जन्म के पाप नष्ट हो जाते हैं। पीले रक्तवर्ण के कमल के पुष्पों से भगवान का पूजन करने वाले को श्वेत द्वीप में स्थान मिलता है।
इस प्रकार रात्रि को भगवान का पूजन कर प्रात:काल होने पर नदी पर जाएँ और वहाँ स्नान, जप तथा प्रात:काल के कर्म करके घर पर आकर विधिपूर्वक केशव का पूजन करें। व्रत की समाप्ति पर विद्वान ब्राह्मणों को भोजन कराएँ और दक्षिणा देकर क्षमायाचना करें। इसके पश्चात भोजन, गौ और दक्षिणा देक गुरु का पूजन कें, ब्राह्मणों को दक्षिणा दें और जो चीज व्रत के आरंभ में छोड़ने का नियम किया था, वह ब्राह्मणों को दें। रात्रि में भोजन करने वाला मनुष्य ब्राह्मणों को भोजन कराए तथा स्वर्ण सहित बैलों का दान करे।
जो मनुष्य मांसाहारी नहीं है वह गौदान करे। आँवले से स्नान करने वाले मनुष्य को दही और शहद का दान करना चाहिए। जो फलों को त्यागे वह फलदान करे। तेल छोड़ने से घृत और घृत छोड़ने से दूध, अन्न छोड़ने से चावल का दान किया जाता है।
इसी प्रकार जो मनुष्य भूमि शयन का व्रत लेते हैं उन्हें शैयादान करना चाहिए, साथ ही तुलसी सब सामग्री सहित देना चाहिए। पत्ते पर भोजन करने वाले को सोने का पत्ता घृत सहित देना चाहिए। मौन व्रत धारण करने वाले को ब्राह्मण और ब्राह्मणी को घृत तथा मिठाई का भोजन कराना चाहिए। बाल रखने वाले को दर्पण, जूता छोड़ने वाले को एक जोड़ जूता, लवण त्यागने वाले को शर्करा, मंदिर में दीपक जलाने वाले को तथा नियम लेने वाले को व्रत की समाप्ति पर ताम्र अथवा स्वर्ण के पत्र पर घृत और बत्ती रखकर विष्णुभक्त ब्राह्मण को दान देना चाहिए।
एकांत व्रत में आठ कलश वस्त्र और स्वर्ण से अलंकृत करके दान करना चाहिए। यदि यह भी न हो सके तो इनके अभाव में ब्राह्मणों का सत्कार सब व्रतों को सिद्ध करने वाला कहा गया है। इस प्रकार ब्राह्मण को प्रणाम करके विदा करें। इसके पश्चात स्वयं भी भोजन करें। जिन वस्तुओं को चातुर्मास में छोड़ा हो, उन वस्तुअओं की समाप्ति करें अर्थात ग्रहण करने लग जाएँ।
पुराण में उल्लेख है कि हे राजन! जो बुद्धिमान इस प्रकार चातुर्मास व्रत निर्विघ्न समाप्त करते हैं, वे कृतकृत्य हो जाते हैं और फिर उनका जन्म नहीं होता। यदि व्रत भ्रष्ट हो जाए तो व्रत करने वाला कोढ़ी या अंधा हो जाता है। भगवान कृष्ण कहते हैं कि राजन जो तुमने पूछा था वह सब मैंने बतलाया। इस कथा को पढ़ने और सुनने से गौदान का फल प्राप्त होता है।
एकादशी के व्रत को समाप्त करने को पारण कहते हैं। एकादशी व्रत के अगले दिन सूर्योदय के बाद पारण किया जाता है। एकादशी व्रत का पारण द्वादशी तिथि समाप्त होने से पहले करना अति आवश्यक है। द्वादशी तिथि के भीतर पारण न करना पाप करने के समान होता है। यदि द्वादशी तिथि सूर्योदय से पहले समाप्त हो गयी हो तो इस दशा में एकादशी व्रत का पारण सूर्योदय के बाद ही होता है।
एकादशी व्रत का पारण हरि वासर के दौरान भी नहीं करना चाहिए। जो श्रद्धालु व्रत कर रहे हैं उन्हें व्रत तोड़ने से पहले हरि वासर समाप्त होने की प्रतिक्षा करनी चाहिए। हरि वासर द्वादशी तिथि की पहली एक चौथाई अवधि है। व्रत तोड़ने के लिए सबसे उपयुक्त समय प्रातःकाल होता है। व्रत करने वाले श्रद्धालुओं को मध्यान के दौरान व्रत तोड़ने से बचना चाहिए। कुछ कारणों की वजह से अगर कोई प्रातःकाल पारण करने में सक्षम नहीं है तो उसे मध्यान के बाद पारण करना चाहिए।
कभी कभी एकादशी व्रत लगातार दो दिनों के लिए हो जाता है। जब एकादशी व्रत दो दिन होता है तब स्मार्त-परिवारजनों को पहले दिन एकादशी व्रत करना चाहिए। दूसरे दिन वाली एकादशी को दूजी एकादशी कहते हैं। सन्यासियों, विधवाओं और मोक्ष प्राप्ति के इच्छुक श्रद्धालुओं को दूजी एकादशी के दिन व्रत करना चाहिए। जब-जब एकादशी व्रत दो दिन होता है तब-तब दूजी एकादशी और वैष्णव एकादशी एक ही दिन होती हैं।.
भगवान विष्णु का प्यार और स्नेह पाने के इच्छुक परम भक्तों को दोनों दिन एकादशी व्रत करने चाहिए।
इस एकादशी के दिन तुलसी विवाहोत्सव भी मनाया जाता है ।
 बुंदेलखंड में भी इसके संदर्भ में यह कथा प्रचलित है कि जलंधर नामक असुर की पत्नी वृंदा पतिव्रता स्त्री थी. इसे आशीर्वाद प्राप्त था कि जब तक उसका पतिव्रत भंग नहीं होगा उसका पति जीवित रहेगा. जलंधर पत्नी के पतिव्रत के प्रभाव से विष्णु से कई वर्षों तक युद्ध करता रहा लेकिन पराजित नहीं हुआ तब भगवान विष्णु जलंधर का वेश धारण कर वृंदा के पास गये जिसे वृंदा पहचान न सकी और उसका पतिव्रत भंग हो गया. वृंदा के पतिव्रत भंग होने पर जलंधर मारा गया. वृंदा को जब सत्य का पता चल गया कि विष्णु ने उनके साथ धोखा किया है तो उन्होंने विष्णु को श्राप दिया कि आप पत्थर का बन जाओ।
वृंदा के श्राप से विष्णु शालिग्राम के रूप में परिवर्तित हो गये। उसी समय भगवान श्री हरि वहां प्रकट हुए और कहा आपका शरीर गंडक नदी के रूप में होगा व केश तुलसी के रूप में पूजा जाएगा. आप सदा मेरे सिर पर शोभायमान रहेंगी व लक्ष्मी की भांति मेरे लिए प्रिय रहेंगी आपको विष्णुप्रिया के नाम से भी जाना जाएगा. उस दिन से मान्यता है कि कार्तिक शुक्ल एकादशी के दिन भगवान शालिग्राम और तुलसी का विवाह करवाने से कन्यादान का फल मिलता है और व्यक्ति को विष्णु भगवान की प्रसन्नता / कृपा प्राप्त होती है. पद्म पुराण में तुलसी विवाह के विषय में काफी विस्तार से बताया गया है.
 कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी को कार्तिक स्नान कर तुलसी तथा शालिग्राम का विवाह करवाया जाता है। यह विवाह करवाना कई जन्मों के पापों को नष्ट करता है। इस दिन व्रत रखने से अनंत पुण्य की प्राप्ति होती है। यह अनुष्ठान कार्तिक शुक्ल पक्ष नवमी से ही प्रारम्भ हो जाता है तथा तुलसी विवाह तक अखण्ड दीप जलता रहता है। शालिग्राम  विष्णु  के प्रतिरूप हैं। तुलसी विष्णु प्रिया हैं। दोनों का विवाह का आध्यात्मिक अर्थ है कि तुलसी जी की पूजा के झबिना शालिग्राम जी की पूजा नहीं की जा सकती है
बुंदेलखंड में यह भी मान्यता है कि
तुलसी विवाह करवाने वाले को कन्यादान के बराबर फल की प्राप्ति होती है।
जिनका दाम्पत्य जीवन बहुत अच्छा नहीं है वह लोग सुखी दाम्पत्य जीवन के लिए तुलसी विवाह करवाएं।
युवा जो प्रेम में हैं लेकिन विवाह नहीं हो पा रहा है उन युवाओं को तुलसी विवाह करवाना चाहिए।
तुलसी विवाह करवाने से कई जन्मों के पाप नष्ट होते हैं।
तुलसी पूजा करवाने से घर में संपन्नता आती है तथा संतान योग्य होती है।
तुलसी जी को लाल चुनरी पहनाकर पूरे गमले को लाल मंडप से सजाया जाता है। शालिग्राम जी की काली मूर्ति ही होनी चाहिए। यदि ऐसा नहीं है तो विष्णु जी की मूर्ति ले सकते हैं। गणेश पूजन के बाद गाजे बाजे के साथ शालिग्राम जी की बारात उठती है। अब लोग नाचते गाते हुए तुलसी जी के सन्निकट जाते हैं। अब भगवान विष्णु जी का आवाहन करते हैं। भगवान विष्णु जी या शालिग्राम जी की प्रतिमा में प्राण प्रतिष्ठा कराते हैं। विष्णु जी को पीला वस्त्र धारण करवाकर दही, घी, शक्कर इनको अर्पित करते हैं। दूध व हल्दी का लेप लगाकर शालिग्राम व तुलसी जी को चढ़ाते हैं। मंडप पूजन होता है।
विवाह के सभी रस्म निभाने के बाद शालिग्राम और तुलसी जी के सात फेरे भी कराए जाते हैं। कन्यादान करने वाले संकल्प लेकर इस महान पुण्य को प्राप्त करते हैं। इस प्रकार यह विवाह करवाने वाले को अक्षय पुण्य की प्राप्ति होती है।

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