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Dr. Varsha Singh |
फागु की भीर ,अहीरिन ने गहि, गोविन्द लै गई भीतर गोरी।
हाय करी मन की पद्माकर, उपर नाई अबीर की झोरी ।
छीने पीतांबर कम्मर तैं, सु बिदा कर दई मीडि कपोलन रोरी।
नैन नचाय,कही मुसकाय,लला फिर आइयो खेलन होरी ।
- कवि पद्माकर
सागर शहर अपनी अनेक मौलिकताओं से जाना जाता है । उनमे से एक है यहाँ के साहित्यकारों की होली । रीति काल के महाकवि पद्माकर का जन्म स्थान सागर है। उनकी जन्मस्थली के निकट सागर झील के तट पर स्थथित चकराघाट पर उनकी आदमकद मूर्ति स्थापित है।
होली के दिन सागर नगर के साहित्यकार सबसे पहले चकराघाट पर एकत्रित होकर महाकवि पद्माकर की मूर्ति तालाब के जल से स्नान कराते है जिसमें कभी वे स्वयं नहाते थे, फिर पद्माकर की मूर्ति को तिलक लगाकर उस पर माल्यार्पण करते हैं और इसके बाद ही आपस में तिलक लगाकर होली खेलते हैं।
....ऐसे अनूठे अंदाज में बुंदेलखंड में सतरंगी छटा के त्यौहार होली पर सांस्कृतिक परंपराओं की छटा देखते बनती है.
होली पर मेरे यानी इस ब्लॉग लेखिका डॉ. वर्षा सिंह के कुछ बुंदेली छंद यहां प्रस्तुत हैं....
बुंदेली छंद
पीर मोसे मन की कही न जाए मोरी बिन्ना, बिरहा की अगन में जिया जरो जाए है ।।
जाने कैसे निठुर से नैना भये चार मोरे,
देख दशा मोरी मंद मंद मुस्काए है ।।
फागुनी बयार चली खेत गांव गली गली,
रंग की उमंग में तरंग चढ़ी जाए है ।।
टेरू तो सुनत नइयां बतियां मोरी कछु
दूर दूर भाग रये मों सो बिचकाय है।।
मोहे ना सजाओ मोरे माथे ना लगाओ बेंदी पिया मोसे रूठे मोहे कछु नहीं भाये है ।।
ऐसी कौन भूल गई मोसे मैं विचारूं भौत
बेर बेर सोचूं कछु समझ न आए है ।।
द्वार सारे बंद भये सखी सुख की गैल के
दुख ने किवरिया पे तारे चटकाए हैं ।।
जिया को उबारे कौन तारन की कुची धरे
पिया इत उत फिरें अब लौं रिसाए हैं।।
मैंने तो मनाओ बहुत चार बेर दस बेर
कहां लौं मनाऊं मोरे होंठाई पिराने हैं।।
सुने ना सुनाएं कछु मनई मगन रहें,
जाने की की बातन में सुध बिसराने हैं।।
मोरे तो जिया में जेई उपजत बेर बेर ,
नैनवा पिया के कहीं और उरझाने हैं ।।
मोहे जा बतारी बिन्ना तोहे है कसम मोरी,
मोसे नोनी को है,जा पे पिया जी रिझाने हैं।।
- डॉ. वर्षा सिंह
होली पर्व पर मंगलकामनाएं.
बुंदेलखंड में होली की हर जगह पर धूम रहती है। बुंदेलखंड में फागुन के महीने में गांव की चौपालों में 'फाग' की अनोखी महफिलें जमती हैं, जिनमें रंगों की बौछार के बीच गुलाल-अबीर से सने चेहरों वाले फगुआरों के होली गीत (फाग) जब फिजा में गूंजते हैं तो ऐसा लगता है कि श्रृंगार रस की बारिश हो रही है।
फाग के बोल सुनकर बच्चे, जवान व बूढ़ों के साथ महिलाएं भी झूम उठती हैं।
फाग-सी मस्ती का नजारा कहीं और देखने को नहीं मिलता है। सुबह हो या शाम गांव की चौपालों में सजने वाली फाग की महफिलों में ढोलक की थाप और मंजीरे की झंकार के साथ उड़ते हुए अबीर-गुलाल के साथ मदमस्त किसानों बुंदेलखंडी होली गीत (फाग) गाने का अंदाज-ए-बयां इतना अनोखा और जोशीला होता है कि श्रोता मस्ती में चूर होकर थिरकने, नाचने पर मजबूर हो जाते हैं।
फाग सुनकर उनकी दिनभर की थकावट एक झटके में दूर हो जाती है और व मस्ती से भर उठते हैं। कवि ईसुरी की फाग के बोल किसानों के दिल की आवाज है। फाग किसानों के दिल दिमाग में छा जाती है।
बुंदेलखंड में मध्यप्रदेश सहित उत्तरप्रदेश के भी कई जिले व गांव आते हैं। जिनमें फागुन के महीनों में ऋतुराज बसंत के आते ही जब टेसू के पेड़ लाल सुर्ख फूलों से लद जाते हैं, तब वातावरण में मादकता छा जाती है और पूरा महौल रोमांच से भर जाता है तब शुरू होती है फाग की महफिलें। गांव-गांव की चौपालों में बुंदेलखंड के मशहूर लोक कवि ईसुरी के बोल फाग की शक्ल में फिजा में गूंजकर किसानों को मदमस्त कर देते हैं।
कवि ईसुरी के फागों में जादू है। दिनभर की मेहनत-मजदूरी करके शाम को जब थका-हारा किसान वापस आता है, तब फाग की महफिलों की मस्ती उसकी पूरी थकान दूर कर उसे तरो-ताजा कर देती है।
बुंदेलखंड में फागुन को महोत्सव के तौर पर मनाने की पुरानी रवायत है। बसंत से लेकर होली तक इस इलाके के हर गांव की चौपालों में फागों की धूम मची रहती है जिससे हर जगह मस्ती छाई रहती है।
मौज का यह आलम होता है कि कहीं 80 साल का बूढ़ा बाबा बांसुरी से फाग की धुन निकालता नजर आता है तो कहीं 12 साल का छोटा बच्चा नगाड़ा बजाकर फाग शुरू होने का ऐलान करता दिखाई देता है तो महिलाएं भी इस मस्ती में पीछे नहीं रहती हैं। वे भी एक-दूसरे को रंग-अबीर लगाती हुईं फाग के विरह गीत गाकर माहौल को और भी रोमांचक बना देती हैं।
फाग में विरह, श्रृंगार, ठिठोली और वीर रस भरे गीत गाए जाते हैं इसलिए फाग का जादू बुंदेली किसानों के सिर चढ़कर बोलता है।
बसंत से लेकर होली तक फाग की फुहारों से पूरा बुंदेलखंड सराबोर हो जाता है। ऐसा लगता है कि जैसे यहां श्रृंगार का देवता उतर आया हो। इस इलाके में सभी उम्र के लोग फाग में इतना मदमस्त हो जाते हैं कि यहां पर 'फागुना में बाबा देवर लागे' की कहावत सच लगने लगती है।
ईसुरी ने रजऊ के माध्यम से बुंदेलखंड की गरिमामयी नारी जीवन के विविध चरणों का चित्रण किया है। बुन्देली माटी के यशस्वी कवि ईसुरी की फागें कालजयी हैं।नारी चित्रण की सहजता, स्वाभाविकता, जीवन्तता, मुखरता तथा सात्विकता के पञ्चतत्वों से ईसुरी ने अपनी फागों का श्रृंगार किया है। ईसुरी ने अपनी प्रेरणास्रोत ‘रजऊ’ को केंद्र में रखकर नारी-छवियों के मनोहर शब्द-चित्र अंकित किये हैं। किशोरी रजऊ चंचलतावश आते-जाते समय घूँघट उठा-उठाकर कनखियों से ईसुरी को देखते हुए भी अनदेखा करना प्रदर्शित करते हुए उन्हें अपनी रूप राशि के दर्शन सुअवसर देती है:-
चलती कर खोल खें मुइयाँ रजऊ वयस लरकइयाँ
हेरत जात उँगरियन में हो तकती हैं परछइयाँ
लचकें तीन परें करया में फरकें डेरी बइयाँ
बातन मुख झर परत फूल से जो बागन में नइयाँ
धन्य भाग वे सैयाँ ईसुर जिनकी आयँ मुनइयाँ
बुंदेली लोक कवियों ने फाग गीतों पर कुछ ज्यादा ही कलम चलाई है। लोक कवि ईसुरी की फागों के रंग हर चौपाल व मंदिरों में बिखरते हैं। ब्रज एवं अवध क्षेत्र के मंदिरों में भी इन फागों की धूम रहती है।
भींजी फिरे राधिका रंग में, मन मोहन के संग में,
रंग की धूमल धाम मचा दई ब्रज की सब गलियन में,
कोऊ माजूम धतूरा फांके, कोई छक दई भंग में,
तन कपड़ा गए ऊंघर ईसुरी करी ढाक सब रंग में।’
- ईसुरी
ईसुरी द्वारा रचित यह फाग जहां राधिका एवं श्रीकृष्ण के प्रेम को दर्शाती है, वहीं होली के हुल्लड़ को भी अभिव्यक्त करती है। इसी प्रकार संत कवि चंद्रसखी का फाग गीत ‘होरी खेलन आयो श्याम आज जाए रंग में बोरो री’ को भी ब्रज एवं बुंदेलखंड के मंदिरों में संगीतज्ञों एवं फाग कलाकारों द्वारा गया जाता है।
'नईयाँ रजऊ तुमारी सानी सब दुनियाँ हम छानी।
सिंघल दीप छान लओ घर-घर, ना पदमिनी दिखानी।
पूरब पच्छिम उत्तर दक्खिन, खोज लई रजधानी।
रूपवंत जो तिरियाँ जग में, ते भर सकतीं पानी।
बड़ भागी हैं ओई ‘ईसुरी’ तिनकी तुम ठकुरानी।।
- ईसुरी
कवि प्रकाश का फाग गीत ‘मौं पर जो रंग जिते निहारों, उते बोई रंग डारो’ भी खूब पसंद किया जाता है। कई बुंदेली कवियों के फाग गीत हिंदी फिल्मों में भी गाए गए हैं। बुंदेलखंड के भक्ति कालीन युग के बुंदेली कवि पद्माकर व्यास, हरीराम व्यास, मदनेश एवं वर्तमान में महाकवि अवधेश ने कई बेमिसाल फाग गीत लिखे हैं, जो आज बुंदेलखंड की फाग गायकी की शान हैं।
हम पे नाहक रंग न डारो, घरे न प्रीतम प्यारो ।
फीकी फाग लगत बलम बिन, मन मे तुमई बिचारो ।
अतर गुलाल अबीर न छिरको, पिचकारी न मारो ।
ईसुर सूझत प्रान पति बिन, मोय जग मे अधियारो ।।
- कवि ईसुरी
डॉ. (सुश्री) शरद सिंह का बुंदेली बोली में लिखा आलेख बहुत रोचक है -