Dr. Varsha Singh |
स्थानीय दैनिक समाचार पत्र "आचरण" में प्रकाशित मेरा कॉलम "सागर साहित्य एवं चिंतन " । जिसमें इस बार मैंने लिखा है मेरे शहर सागर के कवि डॉ. अनिल सिंघई "नीर" पर आलेख। पढ़िए और जानिए मेरे शहर के साहित्यिक परिवेश को ....
सागर : साहित्य एवं चिंतन
विविधतापूर्ण कवि डॉ. अनिल सिंघई ‘‘नीर’’
- डॉ. वर्षा सिंह
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परिचय :- डॉ. अनिल सिंघई ‘‘नीर’’
जन्म :- 29 अगस्त 1956
जन्म स्थान :- सागर (म.प्र.)
पिता एवं माताः- स्व. कोमलचंद सिंघई एवं श्रीमती शांति बाई सिंघई
शिक्षा :- बी.ए.एम.एस. एम.डी. (आयुर्वेद), एफ.आई.एस.सी.ए., बी.टी.
लेखन विधा :- काव्य
प्रकाशन :- चार पुस्तकें प्रकाशित
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सागर नगर में चिकित्सीय कार्य करते हुए साहित्य सेवा करने वाले साहित्यकारों में डॉ. अनिल सिंघई ‘‘नीर’’का नाम रेखांकित किया जा सकता है। नगर के सराफा एवं किराना (थोक) व्यवसायी श्री कोमलचंद सिंघई के पुत्र के रूप में 29 अगस्त 1956 को जन्में अनिल सिंघई को बाल्यावस्था से ही धार्मिक विचार एवं समाजसेवा की भावना अपने माता-पिता से मिली। उनके पिता प्रतिष्ठित व्यवसायी होने के साथ ही धार्मिक प्रवृत्ति के उत्कृष्ट समाजसेवी थे। वे चंद्रप्रभु समाज कल्याण समिति का संचालन करते थे। समिति के द्वारा गरीबों एवं निराश्रितों को शिक्षा, स्वास्थ्य, व्यापार एवं शादी विवाह के लिए आर्थिक सहायता प्रदान की जाती थी। अनिल सिंघई की माताश्री शांति बाई सिंघई भी धर्मप्राण समाजसेवी महिला रही हैं, जिनसे उन्हें समाजसेवा की प्रेरणा मिलती रही।
अनिल सिंघई ने रविशंकर विश्वविद्यालय, रायपुर से बी.ए.एम.एस. करने के उपरांत आयुर्वेद में एम.डी. की उपाधि प्राप्त की। उन्होंने एफ.आई.एस.सी.ए. करने के साथ ही बी.टी.भी किया। वे वरिष्ठ आयुर्वेद चिकित्सा विशेषज्ञ के रूप में कार्य करते हुए समाजसेवा एवं साहित्य सृजन से भी जुड़े रहे। उनके परिवार में शिक्षा के प्रति पर्याप्त जागरूकता रही। उनकी पत्नी श्रीमती सुमन सिंघई ने बी.एस.सी,एम.ए., बी.एड. एम.एड करने के साथ ही आयुर्वेद का अध्ययन करते हुए आयुर्वेद रत्न की उपाधि प्राप्त की। उन्होंने शिक्षण कार्य करने के साथ ही अपने पारिवारिक दायित्वों को भली- भांति निभाया।
‘‘नीर’’ उपनाम से साहित्य सृजन करने वाले डॉ अनिल सिंघई ने जहां एक ओर परमपूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी के जीवन वृत्त पर आधारित काव्य ग्रंथ ‘‘महामुनि गाथा’’ का सुजन किया, वहीं उन्होंने असाध्य समझी जाने वाली व्याधियों की सफल चिकित्सा के क्षेत्र में ख्याति अजि्र्ात की। उनके पास चिकित्सा के लिए विदेशों से भी रोगी आते हैं। स्वास्थ्य शिविरों का निःशुल्क आयोजन करते रहते हैं। अनेक सामाजिक कार्यों से जुड़े रहे हैं जिनमें अब से लगभग 30 वर्ष पूर्व रायपुर में दहेज विरोधी आंदोलन का नेतृत्व किया। अनाथाश्रमों में जा कर आर्थिक सहायता की। पशुओं के लिए चारा एवं औषधियों की व्यवस्था के साथ ही पक्षियों के लिए दाना-पानी की व्यवस्था करते रहते हैं।
अनिल सिंघई ‘नीर’ की पुस्तक ‘महामुनि गाथा’ आचार्यश्री विद्यासागर महाराज के जीवनवृत्त पर आधारित काव्यग्रंथ है जिसमें चौपाइयों के माध्यम से 250 पृष्ठ में आचार्यश्री के जीवनचरित को काव्यबद्ध किया गया है। इसमें आचार्यश्री के जरवन से जुड़ी रोचक घटनाओं का भी वर्णन है। दूसरी पुस्तक है ‘अर्द्धसत्य’। यह जीवन और आत्यात्मिक दर्शन पर आधारित खण्डकाव्य है। तीसरी पुस्तक है ‘मैं और मेरा अर्थ’। यह भी जीवन दर्शन एवं आत्यात्मिक विचारों पर केन्द्रित है। चौथी पुस्तक ‘अथक-पथिक’ भी आचार्य विद्यासागर जी के जीवन एवं दर्शन पर आधारित है। अनिल सिंघई ‘नीर’ को उनके साहित्यसृजन एवं सेवाकार्यों के लिए अनेक संस्थाओं द्वारा सम्मानित किया जा चुका है। बहुरुचि के धनी डॉ. ‘नीर’ शतरंज, वॉलीबाल, अभिनय एवं वाद-विवाद के क्षेत्र में भी पुरस्कार एवं सम्मान प्राप्त कर चुके हैं। अनिल सिंघई ‘नीर’ की मूल विधा काव्य है। यद्यपि वे बताते हैं कि उनके कहानी संग्रह एवं उपन्यास भी हैं जो अभी अप्रकाशित हैं।
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धर्म एवं जीवन दर्शन जब काव्य में उतरता है तो वह कवि से एक सम्यक दृष्टि की अभिलाषा रखता है, क्योंकि वही काव्य सार्थक एवं लोकोपयोगी होता है जो सम्पूर्ण समाज से संवाद कर सके। अनिल सिंघई ‘नीर’ के जीवनी आधारित काव्य में यह खूबी है कि आचार्य विद्यासागर जी पर केन्द्रित उनके दोहों को पढ़ कर आचार्यश्री के बारे में सरल शब्दों में सम्पूर्ण समाज जानकारी प्राप्त कर सकता है। बानगी देखिए -
विद्यागसार का हुआ, हर मन पर अधिकार।
देख-देख कर हो रहे, पुलकित नयन अपार।।
बड़े भाग मेरे भये, जनम मनुष का पाय।
‘विद्या’ जैसे संत के, दर्शन जो कर पाय।।
युग-युग की हमने सुनी, कथा अनेकों बार।
‘विद्या’ मुनिवर-सा नहीं, धर्म ज्ञान आधार।।
जन-जन का कल्याण हो, सोचें वो दिन-रात।
मानुष, पशु सब पर दया, देखो मुनि की बात।।
तप कर-कर के तप गए, कंचन से मुनिराज।
मोती-सी आभा लिए मुनियों के सरताज।।
धरम ज्ञान का कर रहे, गुरुवर बड़ा प्रचार।
मांस त्याग सब जन करो, मन में करो विचार।।
अनिल सिंघई ‘नीर’ ने दर्शन एवं जीवनी आधारित काव्य के अतिरिक्त ग़ज़लें भी लिखते हैं, जिनमें प्रेम, मनुहार, उलाहना, विडम्बना आदि सभी प्रकार की सांसारिक भावनाएं परिलक्षित होती हैं। वर्तमान वातावरण अपराध और कदाचरण से कलुषित होता जा रहा है। ऐसे वातावरण को बदलने की इच्छा स्वतः जाग्रत होने लगती है। एक संवेदनशील कवि के अनुरुप वे अव्यवस्थाओं के विरुद्ध कलम चलाते हैं और लिखते हैं-
बात कुछ तो यूं निकलना चाहिए
अब फ़िज़ा कुछ तो बदलना चाहिए
है घुटन सांसों में सबकी आजकल
कुछ हवा ताज़ा-सी चलना चाहिए
ये गगन भी तो अंधेरों में छुपा
कोई सूरज तो चमकना चाहिए
सामने मंज़िल दिखे या न दिखे
इक कदम आगे निकलना चाहिए
ठान लो जो ‘नीर’ तो बदले जहां
दिल में जज़्बा तो उबलना चाहिए
जो लोग अपनों के प्रति द्वेष भरी चेष्टाएं करते हैं, भ्रष्टाचार के द्वारा व्यवस्थाओं को खोला करने में जुटे रहते हैं, अपने देश से गद्दारी करते हैं और सभी के सुख-शांति को खतरे में डाल देते हैं, ऐसे लोगों को कवि ‘नीर’ ललकारते हुए कहते हैं कि -
क्या नाम लूं मैं तेरा सितमगारों में
लोग तो और भी हैं मेरे गुनहगारों में
मैं नहीं बिकता कुछ दाम लगाओ यारो
पर लोग मिल जाएंगे तुम्हें बाज़ारों में
आग दिल की न बुझी है न बुझेगी लोगो
मैं तो रोज ही जलता हूं अंगारों में
तू कभी लेना नहीं सब्र का इम्तहां मेरे
दिल में तूफां है, खेला हूं मंझधारों में
है मेरे दिल में बस इतनी सी ख़लिश लोगो
खुद्दारी कुछ तो हो अपने वतन के यारों में
Dr Anil Singhai "Neer" |
दुनियादारी के साथ ही अनिल सिंघई ‘नीर’ ग़ज़ल की उर्दू परंपरा के अनुरूप प्रेम आधारित ग़ज़लें भी कहते हैं। उनकी इन ग़ज़लों में भावों की कोमलता पढ़ने और सुनने वालों का ध्यान बरबस ही अपने ओर खींच लेती है। एक खूबसूरत मासूमियत उनकी प्रेम-ग़ज़लों देखी जा सकती है। एक उदाहरण देखिए-
वो बातें तुम्हारी सताती बहुत हैं
जो अक्सर मुझे याद आती बहुत हैं
उतर जाएं जो दिल के शीशे के अंदर
वो तस्वीर दिल को लुभाती बहुत है
न जीने ही देतीं, न मरने ही देतीं
ये उत्फ़त की बातें रुलाती बहुत हैं
कभी छेड़ देती हैं तारों को दिल के
ये तनहाईयां भी जलाती बहुत हैं
खयालों में आती हैं रुसवाइयां जो
वो रातों में हमको जगाती बहुत हैं
जीवन में एक अवसर ऐसा भी आता है जब व्यष्टि और समष्टि एकाकार हो जाते हैं। पराए दुख और अपने दुख में अंतर नहीं रह जाता है। तब पराए दुख के बहाने अपने दुख को प्रकट करने की प्रवृत्ति जाग उठती है। अभिव्यक्ति की यह शैलीगत विशिष्टता ग़ज़ल विधा में बहुधा देखने को मिलती है। इसी शैली को अपनाते हुए कवि ‘नीर’ ने भी कुछ ग़ज़लें कही हैं। जैसे यह ग़ज़ल-
दरकार थी कि बस, हथेली को रंग सकें
जो पीसी गई हिना वो तो बेकसूर थी
महकी जो कली वो तो माली ने तोड़ ली
मसली गई वही जो गुलशन का नूर थी
दो घूंट भी न मिल सकी मैखाने में मुझे
साकी तो खुद अपने नशे में ही चूर थी
मेरी ग़ज़ल जो उसने मुझसे नहीं सुनी
मरने के बाद वो मेरे मगर मशहूर थी
यूं सैंकड़ों थे ग़म जो सीने में दफ़्न थे
चेहरे पे मेरे छाई लाली जरूर थी
साहित्य सृजन अपने सर्जक से निरंतरता, विविधता और समर्पण की मांग करता है। अनिल सिंघई ‘नीर’ अपने सृजन की निरंतरता एवं विविधता से सागर के साहित्य संपदा में जो वृद्धि कर रहे हैं, उसे अनदेखा नहीं किया जा सकता है।
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( दैनिक, आचरण दि. 29.06.2019)
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