Saturday, June 29, 2019

सागर : साहित्य एवं चिंतन 55 ... विविधतापूर्ण कवि डॉ. अनिल सिंघई ‘‘नीर’’ - डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh

       स्थानीय दैनिक समाचार पत्र "आचरण" में प्रकाशित मेरा कॉलम "सागर साहित्य एवं चिंतन " । जिसमें इस बार मैंने लिखा है मेरे शहर सागर के कवि डॉ. अनिल सिंघई "नीर" पर आलेख। पढ़िए और जानिए मेरे शहर के साहित्यिक परिवेश को ....

सागर : साहित्य एवं चिंतन

 विविधतापूर्ण कवि डॉ. अनिल सिंघई ‘‘नीर’’

                           - डॉ. वर्षा सिंह

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परिचय :- डॉ. अनिल सिंघई ‘‘नीर’’
जन्म :-  29 अगस्त 1956
जन्म स्थान :- सागर (म.प्र.)
पिता एवं माताः- स्व. कोमलचंद सिंघई एवं श्रीमती शांति बाई सिंघई
शिक्षा :- बी.ए.एम.एस. एम.डी. (आयुर्वेद), एफ.आई.एस.सी.ए., बी.टी.
लेखन विधा :- काव्य
प्रकाशन :- चार पुस्तकें प्रकाशित
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         सागर नगर में चिकित्सीय कार्य करते हुए साहित्य सेवा करने वाले साहित्यकारों में डॉ. अनिल सिंघई ‘‘नीर’’का नाम रेखांकित किया जा सकता है। नगर के सराफा एवं किराना (थोक) व्यवसायी श्री कोमलचंद सिंघई के पुत्र के रूप में 29 अगस्त 1956 को जन्में अनिल सिंघई को बाल्यावस्था से ही धार्मिक विचार एवं समाजसेवा की भावना अपने माता-पिता से मिली। उनके पिता प्रतिष्ठित व्यवसायी होने के साथ ही धार्मिक प्रवृत्ति के उत्कृष्ट समाजसेवी थे। वे चंद्रप्रभु समाज कल्याण समिति का संचालन करते थे। समिति के द्वारा गरीबों एवं निराश्रितों को शिक्षा, स्वास्थ्य, व्यापार एवं शादी विवाह के लिए आर्थिक सहायता प्रदान की जाती थी। अनिल सिंघई की माताश्री शांति बाई सिंघई भी धर्मप्राण समाजसेवी महिला रही हैं, जिनसे उन्हें समाजसेवा की प्रेरणा मिलती रही।
                    अनिल सिंघई ने रविशंकर विश्वविद्यालय, रायपुर से बी.ए.एम.एस. करने के उपरांत आयुर्वेद में एम.डी. की उपाधि प्राप्त की। उन्होंने एफ.आई.एस.सी.ए. करने के साथ ही बी.टी.भी किया। वे वरिष्ठ आयुर्वेद चिकित्सा विशेषज्ञ के रूप में कार्य करते हुए समाजसेवा एवं साहित्य सृजन से भी जुड़े रहे। उनके परिवार में शिक्षा के प्रति पर्याप्त जागरूकता रही। उनकी पत्नी श्रीमती सुमन सिंघई ने बी.एस.सी,एम.ए., बी.एड. एम.एड करने के साथ ही आयुर्वेद का अध्ययन करते हुए आयुर्वेद रत्न की उपाधि प्राप्त की। उन्होंने शिक्षण कार्य करने के साथ ही अपने पारिवारिक दायित्वों को भली- भांति निभाया।
                 ‘‘नीर’’ उपनाम से साहित्य सृजन करने वाले डॉ अनिल सिंघई ने जहां एक ओर परमपूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी के जीवन वृत्त पर आधारित काव्य ग्रंथ ‘‘महामुनि गाथा’’ का सुजन किया, वहीं उन्होंने असाध्य समझी जाने वाली व्याधियों की सफल चिकित्सा के क्षेत्र में ख्याति अजि्र्ात की। उनके पास चिकित्सा के लिए विदेशों से भी रोगी आते हैं। स्वास्थ्य शिविरों का निःशुल्क आयोजन करते रहते हैं। अनेक सामाजिक कार्यों से जुड़े रहे हैं जिनमें अब से लगभग 30 वर्ष पूर्व रायपुर में दहेज विरोधी आंदोलन का नेतृत्व किया। अनाथाश्रमों में जा कर आर्थिक सहायता की। पशुओं के लिए चारा एवं औषधियों की व्यवस्था के साथ ही पक्षियों के लिए दाना-पानी की व्यवस्था करते रहते हैं।
                 अनिल सिंघई ‘नीर’ की पुस्तक ‘महामुनि गाथा’ आचार्यश्री विद्यासागर महाराज के जीवनवृत्त पर आधारित काव्यग्रंथ है जिसमें चौपाइयों के माध्यम से 250 पृष्ठ में आचार्यश्री के जीवनचरित को काव्यबद्ध किया गया है। इसमें आचार्यश्री के जरवन से जुड़ी रोचक घटनाओं का भी वर्णन है। दूसरी पुस्तक है ‘अर्द्धसत्य’। यह जीवन और आत्यात्मिक दर्शन पर आधारित खण्डकाव्य है। तीसरी पुस्तक है ‘मैं और मेरा अर्थ’। यह भी जीवन दर्शन एवं आत्यात्मिक विचारों पर केन्द्रित है। चौथी पुस्तक ‘अथक-पथिक’ भी आचार्य विद्यासागर जी के जीवन एवं दर्शन पर आधारित है। अनिल सिंघई ‘नीर’ को उनके साहित्यसृजन एवं सेवाकार्यों के लिए अनेक संस्थाओं द्वारा सम्मानित किया जा चुका है। बहुरुचि के धनी डॉ. ‘नीर’ शतरंज, वॉलीबाल, अभिनय एवं वाद-विवाद के क्षेत्र में भी पुरस्कार एवं सम्मान प्राप्त कर चुके हैं। अनिल सिंघई ‘नीर’ की मूल विधा काव्य है। यद्यपि वे बताते हैं कि उनके कहानी संग्रह एवं उपन्यास भी हैं जो अभी अप्रकाशित हैं।

Sagar Sahitya Avam Chintan - Dr. Varsha Singh # Sahitya Varsha

               धर्म एवं जीवन दर्शन जब काव्य में उतरता है तो वह कवि से एक सम्यक दृष्टि की अभिलाषा रखता है, क्योंकि वही काव्य सार्थक एवं लोकोपयोगी होता है जो सम्पूर्ण समाज से संवाद कर सके। अनिल सिंघई ‘नीर’ के जीवनी आधारित काव्य में यह खूबी है कि आचार्य विद्यासागर जी पर केन्द्रित उनके दोहों को पढ़ कर आचार्यश्री के बारे में सरल शब्दों में सम्पूर्ण समाज जानकारी प्राप्त कर सकता है। बानगी देखिए -
विद्यागसार का हुआ, हर मन पर अधिकार।
देख-देख कर हो रहे, पुलकित नयन अपार।।
बड़े भाग मेरे भये, जनम मनुष का पाय।
‘विद्या’ जैसे संत के, दर्शन जो कर पाय।।
युग-युग की हमने सुनी, कथा अनेकों बार।
‘विद्या’ मुनिवर-सा नहीं, धर्म ज्ञान आधार।।
जन-जन का कल्याण हो, सोचें वो दिन-रात।
मानुष, पशु सब पर दया, देखो मुनि की बात।।
तप कर-कर के तप गए, कंचन से मुनिराज।
मोती-सी आभा लिए मुनियों के सरताज।।
धरम ज्ञान का कर रहे, गुरुवर बड़ा प्रचार।
मांस त्याग सब जन करो, मन में करो विचार।।

                अनिल सिंघई ‘नीर’ ने दर्शन एवं जीवनी आधारित काव्य के अतिरिक्त ग़ज़लें भी लिखते हैं, जिनमें प्रेम, मनुहार, उलाहना, विडम्बना आदि सभी प्रकार की सांसारिक भावनाएं परिलक्षित होती हैं। वर्तमान वातावरण अपराध और कदाचरण से कलुषित होता जा रहा है। ऐसे वातावरण को बदलने की इच्छा स्वतः जाग्रत होने लगती है। एक संवेदनशील कवि के अनुरुप वे अव्यवस्थाओं के विरुद्ध कलम चलाते हैं और लिखते हैं-
बात कुछ तो  यूं निकलना चाहिए
अब फ़िज़ा कुछ तो बदलना चाहिए
है घुटन सांसों में सबकी आजकल
कुछ हवा ताज़ा-सी चलना चाहिए
ये गगन  भी  तो  अंधेरों में छुपा
कोई  सूरज  तो  चमकना चाहिए
सामने मंज़िल दिखे  या न दिखे
इक कदम आगे निकलना चाहिए
ठान लो जो ‘नीर’ तो बदले जहां
दिल में जज़्बा तो उबलना चाहिए

               जो लोग अपनों के प्रति द्वेष भरी चेष्टाएं करते हैं, भ्रष्टाचार के द्वारा व्यवस्थाओं को खोला करने में जुटे रहते हैं, अपने देश से गद्दारी करते हैं और सभी के सुख-शांति को खतरे में डाल देते हैं, ऐसे लोगों को कवि ‘नीर’ ललकारते हुए कहते हैं कि -
क्या नाम लूं  मैं  तेरा  सितमगारों में
लोग तो और भी हैं मेरे  गुनहगारों में
मैं नहीं बिकता कुछ दाम लगाओ यारो
पर लोग मिल जाएंगे तुम्हें बाज़ारों में
आग दिल की न बुझी है न बुझेगी लोगो
मैं तो रोज ही जलता हूं अंगारों में
तू कभी लेना नहीं सब्र का इम्तहां मेरे
दिल में तूफां है, खेला हूं मंझधारों में
है मेरे दिल में बस इतनी सी ख़लिश लोगो
खुद्दारी कुछ तो हो अपने वतन के यारों में

Dr Anil Singhai "Neer"

           दुनियादारी के साथ ही अनिल सिंघई ‘नीर’ ग़ज़ल की उर्दू परंपरा के अनुरूप प्रेम आधारित ग़ज़लें भी कहते हैं। उनकी इन ग़ज़लों में भावों की कोमलता पढ़ने और सुनने वालों का ध्यान बरबस ही अपने ओर खींच लेती है। एक खूबसूरत मासूमियत उनकी प्रेम-ग़ज़लों देखी जा सकती है। एक उदाहरण देखिए-
वो बातें तुम्हारी सताती बहुत हैं
जो अक्सर मुझे याद आती बहुत हैं
उतर जाएं जो दिल के शीशे के अंदर
वो तस्वीर दिल को लुभाती बहुत है
न जीने ही देतीं, न मरने ही देतीं
ये उत्फ़त की बातें रुलाती बहुत हैं
कभी छेड़ देती हैं तारों को दिल के
ये तनहाईयां भी जलाती बहुत हैं
खयालों में आती हैं रुसवाइयां जो
वो रातों में हमको जगाती बहुत हैं

          जीवन में एक अवसर ऐसा भी आता है जब व्यष्टि और समष्टि एकाकार हो जाते हैं। पराए दुख और अपने दुख में अंतर नहीं रह जाता है। तब पराए दुख के बहाने अपने दुख को प्रकट करने की प्रवृत्ति जाग उठती है। अभिव्यक्ति की यह शैलीगत विशिष्टता ग़ज़ल विधा में बहुधा देखने को मिलती है। इसी शैली को अपनाते हुए कवि ‘नीर’ ने भी कुछ ग़ज़लें कही हैं। जैसे यह ग़ज़ल-
दरकार थी कि बस, हथेली को रंग सकें
जो पीसी  गई  हिना वो तो  बेकसूर थी
महकी जो कली वो तो माली ने तोड़ ली
मसली गई वही जो  गुलशन का नूर थी
दो घूंट भी न मिल सकी  मैखाने में मुझे
साकी तो खुद अपने  नशे में ही चूर थी
मेरी ग़ज़ल जो  उसने  मुझसे नहीं सुनी
मरने के बाद  वो  मेरे  मगर मशहूर थी
यूं सैंकड़ों थे ग़म  जो सीने में दफ़्न थे
चेहरे  पे  मेरे  छाई  लाली  जरूर थी

             साहित्य सृजन अपने सर्जक से निरंतरता, विविधता और समर्पण की मांग करता है। अनिल सिंघई ‘नीर’ अपने सृजन की निरंतरता एवं विविधता से सागर के साहित्य संपदा में जो वृद्धि कर रहे हैं, उसे अनदेखा नहीं किया जा सकता है।
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( दैनिक, आचरण  दि. 29.06.2019)
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डॉ. अनिल सिंघई ‘नीर’ द्वारा मेरे लेख पर whatsapp पर दी गई प्रतिक्रिया.... मोबाइल स्क्रीन शॉट प्रस्तुत है....

# साहित्य वर्षा 

Tuesday, June 25, 2019

आषाढ़ मंगल और सागर नगर में हनुमानजी की आराधना - डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh

   आज दिनांक 25.06.2019 को आषाढ़ मास का दूसरा मंगलवार है। आषाढ़ माह हनुमानजी की आराधना के लिए श्रेष्ठ माना जाता है, विशेष रूप से मंगलवार का दिन। आषाढ़ मंगल को सागर नगर के सभी हनुमान मंदिरों में धार्मिक कार्यक्रम होते हैं। हनुमान जी की कृपा पाने के लिए सुबह से भक्त मंदिरों में पहुंचकर हनुमानजी की उपासना करते हैं। आषाढ़ माह में मंदिरों में विशेष तैयारियां भी की जाती हैं। मंदिरों में भीड़ रहती है और भक्तगण दान करते हैं।
करुनानिधान बलबुद्धि के विधान हौ, महिमा निधान गुनज्ञान के निधान हौ ।
बाम देव रुप भूप राम के सनेही, नाम, लेत देत अर्थ धर्म काम निरबान हौ ॥
आपने प्रभाव सीताराम के सुभाव सील, लोक बेद बिधि के बिदूष हनुमान हौ ।
मन की बचन की करम की तिहूँ प्रकार, तुलसी तिहारो तुम साहेब सुजान हौ ॥

श्री हनुमान ,कठवा पुल मंदिर, सिविल लाइन, सागर

         आषाढ़ माह हनुमानजी की भक्ति के लिए विशेष माह माना जाता है। इस बार एक विशेष संयोग भी बना है। माह की शुरुआत 18 जून  मंगलवार से हो रही है और गुरु पूर्णिमा 16 जुलाई  मंगलवार के दिन ही आषाढ़ माह समाप्त होगा। इस बार आषाढ़ में पांच मंगलवार हैं। 18 और 25 जून तथा 2, 9, और 16 जुलाई। नगर से लेकर आसपास के सभी हनुमान मंदिरों में आषाढ़ के मंगलवार को पूजन की तैयारियां पूरी हो चुकी हैं। शास्त्रों के अनुसार हनुमानजी को सिंदूर अर्पित करना चाहिए। कई भक्त व्रत रखकर भी उन्हें प्रसन्न कर सकते हैं। रामायण पाठ हनुमानजी को बहुत प्रिय है और राम नाम का जाप करने से भी वह प्रसन्न होते हैं। भक्तगण हनुमान चालीसा और सुंदरकाण्ड का पाठ करते हैं। मंदिरों में बजरंगबली का अभिषेक होता है।

पहलवान बब्बा मंदिर, सागर

नगर से करीब 12 किलो मीटर दूर झांसी रोड स्थित गढ़पहरा धाम में हनुमानजी के दर्शनों के लिए भक्तों का जनसैलाब उमड़ पड़ता है। भक्तों की भीड़ लग जाती है यहां मेला भी लगता है। इसके अलावा सागर नगर स्थित परेड हनुमान मंदिर, कठवा पुल सरकार मंदिर, जवाहरगंज वार्ड स्थित पंचमुखी हनुमान मंदिर, डूंठावली हनुमान मंदिर, सिद्धेश्वर मंदिर, पहलवान बब्बा मंदिर, दादा दरबार मंदिर सहित अन्य हनुमान मंदिरों में भक्तों की भीड़ रहेगी। आषाढ़ के तीसरे मंगलवार को कई भक्त जुलूस के साथ बजरंगबली को झंडा अर्पित करने पहुंचते हैं।
श्री हनुमान ,राममंदिर, सागर

आषाढ़ माह के पहले मंगलवार को शहर के सभी हनुमान मंदिरों में राम भक्त के जयकारे गूंजने लगते हैं। मंदिरों पूजन-अभिषेक के साथ बजरंगबली का मनमोहक श्रृंगार किया जाता है। अनेक भक्तगण व्रत रखकर हनुमानजी का पूजन करते हैं तो कई ने अभिषेक कर उन्हें प्रसादी अर्पित करते हैं। मंदिरों में सुबह से लेकर देर शाम तक सुंदरकाण्ड, हनुमान चालीसा के पाठ होते रहते हैं।
हनुमानजी, गढ़पहरा, सागर

 गढ़पहरा हनुमान मंदिर , सागर की विशेष मान्यता है। आषाढ़ मास के मंगलवार को गढ़पहरा के हनुमान बब्बा के दर्शन विशेष फलदायी होते हैं। गढ़पहरा को पुराना सागर भी कहते हैं जो डांगी राज्‍य की राजधानी था। यह झांसी मार्ग पर सागर से करीब 10 किमी की दूरी पर स्थित है। इसकी प्राचीनता गौंड शासक संग्रामसिंह के समय से मानी जाती है। उस समय गढ़पहरा एक गढ़ था, जिसमें 360 मौजे थे। बाद में डांगी राजपूतों ने इस भाग को जीतकर अपने राज्‍य में मिला लिया।
श्री हनुमान, गढ़पहरा मंदिर, सागर

गढ़पहरा के अब भी कुछ ऐतिहासिक अवशेष बाकी हैं। कम ऊंचाई के क्षेत्र पर निर्मित किले के खंडहरों तक आज भी आसानी से पहुंचा जा सकता है। यहां डांगी शासकों के शीश महल के नाम से ज्ञात ग्रीष्म आवास के अवशेष भी हैं। इसका संबंध राजा जयसिंह से जोड़ा जाता है। मान्यता है कि दो सौ साल पहले राजा जयसिंह इसमें रहते थे।
श्री हनुमान, परेड मंदिर, सागर

गढ़पहरा सहित अन्य हनुमान मंदिरों में सुबह से ही भक्तों की भीड़ उमड़ी। हनुमान गढ़पहरा स्थित प्राचीन हनुमान मंदिर में अलसुबह से अंजनीलाल का अभिषेक किया गया, जिसके बाद यहां बब्बा के दर्शनों के लिए श्रद्धालुओं की कतारें लगी रही। गढ़पहरा मंदिर में आरती के बाद बजरंगबली को भोग अर्पित किया गया। वहीं शहर के प्रसिद्घ परेड हनुमान मंदिर, पहलवान बब्बा, पंचमुखी हनुमान मंदिर एवं दादा दरबार मंदिरों में पूजा-अर्चना करने दिनभर भक्तों की कतारें लगी रही। सुबह 8 बजे से यहां सामूहिक सुंदरकांड का पाठ किया गया। हनुमानजी के मंदिरों में अंजनी पुत्र का फूलों, चांदी की पोशाक से विशेष श्रृंगार किया गया था, जो भक्तों के लिए आकर्षण का केंद्र बना रहा।
पंचमुखी हनुमान मंदिर, रजाखेड़ी, सागर


जवाहरगंज वार्ड स्थित पंचमुखी हनुमान मंदिर में सुबह से हनुमानजी का अभिषेक कर बब्बा की आरती की जाती है। इस दौरान मंदिर में आकर्षक सजावट के साथ-साथ बब्बा को पकवानों का भोग अर्पित किया जाता है। बब्बा का फूलों से मनमोहक श्रृंगार किया जाता है। मंदिर में दिनभर हनुमान चालीसा व सुंदरकांड का पाठ करने के लिए कई भक्त अपने परिवार के साथ पहुंचे। कई श्रद्घालु गाजे-बाजे के साथ हनुमानजी को झंडा एवं प्रसादी चढ़ाने के लिए पैदल ही मंदिरों में पहुंचते हैं। मंदिर और मूर्ति दोनों की विशेष सजावट की.जाती है। कहीं हनुमान बब्बा को चांदी की पोशाक, मुकुट पहनाया जाता है तो कुछ मंदिरों में फूलों से सजावट कर सुंदर पोशाक पहनाई जाती है। दादा दरबार मंदिर में हनुमानजी का अभिषेक, सुंदरकांड और हनुमान चालीसा के पाठ सहित विशेष पूजा-अर्चना की जाती है।  कई भक्तगण व्रत रखकर हनुमानजी को प्रसन्न करने के लिए हवन-पूजन भी करते हैं।

श्री दक्षिणमुखी हनुमान, दादा दरबार मंदिर, गोपालगंज, सागर

गढ़पहरा के किले में विराजमान हनुमानजी के दर्शन के लिए हजारों की संख्या में भक्तों की भीड़ उमड़ती है। मंदिर में दिनभर कई श्रद्घालु पहुंचते हैं जिससे यहां बजरंग बली के जयकारे गूंजते रहते हैं। भक्तगण यहां डेरा डाले रहने वाले बंदरों से बचते हुए हनुमानजी को प्रसाद चढ़ाते हैं और फिर बंदरों को भी केले, चना, मिठाई और नारियल सहित अन्य कई प्रकार के पकवान खिलाते हैं।

श्री हनुमान, पहलवान बब्बा मंदिर, सागर

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सागर रेलवेस्टेशन पर जलसेवा सत्र का समापन - डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh

विगत दिनांक 23.06.2019 रविवार की दोपहर मेरे लिए इस मायने में सार्थक रही कि पिछले 24 साल से मानव एवं समाजसेवा को समर्पित श्रीराम सेवा समिति (प्याऊ) द्वारा, सागर रेल्वे स्टेशन पर गर्मी के सीजन में यात्रियों को 24 घंटों, तीन माह निःशुल्क पानी पिलाने के सेवा कार्य के सत्र के समापन एवं सेवाकार्य में सहयोग करने वाले सेवादारों के सम्मान कार्यक्रम में मुझे और बहन डॉ. (सुश्री) शरद सिंह शामिल होने का अवसर मिला।
तस्वीरें उसी अवसर की....











  इस अवसर पर डॉ. (सुश्री) शरद सिंह एवं मैंने यानी इस ब्लॉग की लेखिका डॉ. वर्षा सिंह ने भी उद्बोधन दिया जिसमें कहा कि श्रीराम सेवा समिति, सागर 24 वर्षों से रेल्वे स्टेशन पर तीन महीने लगातार चौबीसों घंटे नि:शुल्क प्याऊ लगाकर सभी यात्रियों को मटकों का शुद्ध एवं शीतल जल पिलाती है। इतनी विशाल प्याऊ जिले में क्या प्रदेश में भी नहीं है। इस अवसर पर सभी धर्मों के व्यक्ति इस महायज्ञ में शामिल होकर साम्प्रदायिक सदभाव,एकता एवं भाईचारे का परिचय देते हैं।
        समिति जिस निःस्वार्थ भाव एवं पारदिर्शिता से वृहद् कार्य कर रही है वह प्रशंसनीय है।  भीषण गर्मी में मुसाफिरों को ठंडा पानी पिलाना पुण्य का काम है। गर्मी में जब यात्रियों को स्टेशन पर मटकों का शीतल जल प्राप्त हो जाये तो वह अमृत जैसा है।  श्रीराम सेवा समिति जलसेवा का जो काम कर रही है वह पुण्य का काम है।















Friday, June 21, 2019

अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस पर हार्दिक शुभकामनाएं - डॉ. वर्षा सिंह


Dr. Varsha Singh
अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस 21 जून को मनाया जाता है।  पहली बार यह दिवस 21 जून 2015 को मनाया गया,जिसकी पहल भारत के प्रधानमंत्रीनरेन्द्र मोदी ने 27 सितम्बर 2014 को संयुक्त राष्ट्र महासभा में अपने भाषण से की थी। तत्पश्चात 21 जून को " अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस" घोषित किया गया। 11 दिसम्बर 2014 को संयुक्त राष्ट्र में 177 सदस्यों द्वारा 21 जून को " अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस" को मनाने के प्रस्ताव को मंजूरी मिली। प्रधानमंत्री मोदी के इस प्रस्ताव को 90 दिन के अंदर पूर्ण बहुमत से पारित किया गया, जो संयुक्त राष्ट्र संघ में किसी दिवस प्रस्ताव के लिए सबसे कम समय है।
          यह एक सुखद साम्य है कि 21 जून का यह दिन वर्ष का सबसे लंबा दिन होता है और योग भी मनुष्य को दीर्घ जीवन प्रदान करता है।

    योग के महत्व पर प्रकाश डालता मेरा यह बुंदेली गीत प्रस्तुत है .....

काय परी अलसानी, ओ बिन्ना
हो गई भोर सुहानी, ओ बिन्ना

मूंड़ पे डारे चदरा- पटका
कसर-मसर तोड़त हो पलका
उठ बैठो महरानी, ओ बिन्ना
हो गई भोर सुहानी, ओ बिन्ना

उठ के कारज रोज के कर ल्यौ
भगवन की छवि ध्यान में धर ल्यौ
भूल के बात पुरानी, ओ बिन्ना
हो गई भोर सुहानी, ओ बिन्ना

भारत देस हमारो प्यारो
योगासन है सबसे न्यारो
दुनिया जाकी दिवानी, ओ बिन्ना
हो गई भोर सुहानी, ओ बिन्ना

काया के सब रोग मिटा ल्यौ
योग करन की लगन लगा ल्यौ
छोड़ो अब मनमानी, ओ बिन्ना
हो गई भोर सुहानी, ओ बिन्ना
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अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस - डॉ. वर्षा सिंह # साहित्य वर्षा


    

Wednesday, June 19, 2019

सागर : साहित्य एवं चिंतन 54 .... संवेदनशील एवं ऊर्जावान कवयित्री डॉ. चंचला दवे - डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh

       स्थानीय दैनिक समाचार पत्र "आचरण" में प्रकाशित मेरा कॉलम "सागर साहित्य एवं चिंतन " । जिसमें इस बार मैंने लिखा है मेरे शहर सागर की कवयित्री डॉ. चंचला दवे पर आलेख। पढ़िए और जानिए मेरे शहर के साहित्यिक परिवेश को ....

सागर : साहित्य एवं चिंतन

संवेदनशील एवं ऊर्जावान कवयित्री डॉ. चंचला दवे
                     - डॉ. वर्षा सिंह
                     
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परिचय :
नाम  :- डॉ. चंचला दवे
जन्म :-  13 मार्च 1952
जन्म स्थान :- चंद्रपुर (महाराष्ट्र)
माता-पिता :- स्व. सूरज बेन पंड्या एवं स्व. सोमनाथ पंड्या
शिक्षा  :- बी.एड., एम.ए., पी.एच. डी.
लेखन विधा :- काव्य।
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        सागर के साहित्यिक जगत को जितना समृद्ध हिन्दी भाषियों ने किया है उतना ही समृद्ध किया है अहिन्दी भाषियों ने जिनमें महाकवि पद्माकर तेलगूभाषी थे। वर्तमान में डॉ. चंचला दवे इसका एक अनुपम उदाहरण हैं। डॉ. चंचला दवे बहुभाषी हैं। उनकी मातृभाषा गुजराती है। उनका जन्म 13 मार्च 1952 को महाराष्ट्र के चंद्रपुर में हुआ। जहां उन्हें मराठी भाषा का ज्ञान प्राप्त हुआ। अपनी अभिरुचि के अनुरुप उन्होंने हिन्दी का गहन अध्ययन किया और डॉ हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर से हिन्दी साहित्य में एम.ए. किया। तदोपरांत बरकतुल्लाह विश्वविद्यालय भोपाल से ' नई कविता के संदर्भ में भवानी प्रसाद मिश्र की कविताओं का अनुशीलन’ विषय में पीएच. डी. की उपाधि प्राप्त की। गुजराती, मराठी, और हिन्दी के साथ ही अंग्रेजी ओर संस्कृत का भी उन्हें पर्याप्त ज्ञान है।
         मृदुभाषी एवं आत्मीयता से परिपूर्ण डॉ चंचला दवे सन् 1972 से सागर में निवासरत हैं। उनके पति श्री सुशील दवे बैंककर्मी रहे हैं जिसके कारण उन्हें स्थानान्तरण का अनुभव होता रहा। सन् 1983 में उनके पति का स्थानांतरण सागर की खुरई तहसील स्थित बैंक शाखा में हो गया। डॉ चंचला दवे ने वहीं सन् 1983 से 1994 तक होली फैमिली कान्वेंट हायर सेकंडरी स्कूल में व्याख्याता के पद पर शिक्षण कार्य किया। इसके बाद अक्टूबर 1994 से 2012 तक श्रीवल्लभ दास माहेश्वरी महाविद्यालय खुरई जिसे कला एवं वाणिज्य महाविद्यालय के नाम से भी जाना जाता है, में प्राध्यापक के पद पर रहते हुए शिक्षण कार्य किया। इस दौरान अनेक अवसर पर उन्हें प्रभारी प्राचार्य का दायित्व भी सम्हालना पड़ा। सेवा कार्य के साथ ही वे साहित्य सृजन से लगातार जुड़ी रहीं। इस दौरान विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में उनकी लगभग 35 कविताओं का प्रकाशन हुआ। साहित्यिक पत्रिका ‘आकंठ’ में भी उनकी कविता प्रकाशित हुई। उन्होंने अनेक पुस्तकों की समीक्षाएं एवं आलेख लिखे जो देश की पत्र- पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे। उन्हें अनेक राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठीयों में सहभागिता का भी अवसर मिला। डॉ. दवे ‘सृजन के स्वर’ नामक पुस्तक की सहायक संपादक रहीं। आकाशवाणी सागर, भोपाल से उनकी रचनाओं का प्रसारण होता रहता है।
         श्रीवल्लभ दास माहेश्वरी महाविद्यालय खुरई  से सन् 2012 मे सेवा निवृत्त हुईं डॉ. चंचला दवे सेवा निवृत्ति के उपरांत साहित्य सृजन में पुनः सक्रिय हो गईं। जिसका सुपरिणाम उनकी काव्यकृति ‘‘गुलमोहर’’ के रूप में सामने आया।
Sagar Sahitya Avam Chintan - Dr. Varsha Singh


        साहित्य सृजन के लिए उन्हें अब तक अनेक सम्मानों से विभूषित किया जा चुका है जिनमें प्रमुख हैं- गुजराती बाज खेडावाल समाज के रजत जयंती समारोह में 22 जून 2018 को राज्यपाल श्रीमती आनंदी बेन पटेल म प्र द्वारा साहित्य सम्मान, सन् 2018 में ही संभागीय साहित्यकार सम्मेलन सागर द्वारा सुधारानी डालचंद जैन सम्मान, 14 सितम्बर 2017 को श्यामलम् संस्था, सागर द्वारा स्व. डॉ सरोज तिवारी स्मृति में, ‘नारी प्रतिभा सम्मान’। इससे पूर्व हिंदी साहित्य संमेलन प्रयाग द्वारा प्रज्ञा भारती की मानद उपाधि, हिंदी साहित्य संमेलन प्रयाग द्वारा महादेवी वर्मा की जन्म शती पर सारस्वत सम्मान, महिला सम्मान सागर,  जे एम डी पब्लिकेशन नईदिल्ली द्वारा, हिंदी सेवी सम्मान, विचार संस्था सागर सागर गौरवसम्मान, डालचंद जैन की स्मृति में साहित्यकार सम्मान भी उन्हें प्राप्त हो चुका है। वे अनेक सामाजिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक समारोहों का सफल मंच संचालन कर चुकी हैं। वे सामाजिक, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं की सदस्य भी हैं जैसे एलांयंस क्लब इंटरनेशनल, समर्पण सागर क्लब, सरस्वती शिशु मंदिर विद्वत परिषद, म प्र लेखिका संघ, लायंस क्लब सागर झील। वे स्थानीय संगीत श्रोता समाज की उपाध्यक्ष भी हैं।
         अपने जीवनानुभव एवं रचनाकर्म के बारे में डॉ चंचला दवे का कहना है कि -‘‘ कविताएं लिखने का शौक स्कूल के दिनो से ही था, बचपन में पिता को खो देने के बाद,उन पर भाईयो पर कविता लिखते रहे, महाविद्यालय में भी यह शौक जारी रहा। मेरा विवाह 19 वर्ष में हो गया था। बी.ए. के बाद सारा अध्ययन विवाहोपरांत हुआ। राष्ट्र, समाज, नगर में घटित होने वाली  घटनाएं मेरी आत्मा को प्रभावित करती रहती है। इसी अन्तर्मथन से जो भाव शब्द बनकर निकलते है, कविता का रूप ले लेते है.अधिकांश कवितांएं मेरे जीवन में घटित होने वाली ,घटनाओं की परिणती है। मेरे जीवन का स्वर्ण काल खुरई में व्यतीत हुआ। वही मेरी कर्म भूमि रही। मातृभाषा गुजराती होने के बाद सृजन हिंदी में ही होता रहा। अभी गुजराती पुस्तक का हिंदी अनुवाद कर रही हूं। कुछ गुजराती कविताओं का हिंदी अनुवाद जारी है। मेरी कुछ कविताओं का मराठी अनुवाद, डॉ संध्या टिकेकर कर रही है।’’
          डॉ. चंचला दवे की कविताओं में समाज में व्याप्त विद्रूपताओं का मार्मिक दृश्य देखने को मिलता है जो एक अतिसंवेदनशील कवयित्री के रूप में उनकी पहचान स्थापित करता है। लड़कियों पर लगाई जाने वाली बंदिशें और उनके प्रति होने वाले अपराध कवयित्री के मन को कचोटते हैं और उनकी ‘‘सुरक्षा कवच’’ शीर्षक से यह कविता सामने आती है-
ऐसा न हो
कल, फिर से बेटियों को
रखने लगे/ पर्दो में
लौटने लगे/मुगलों की प्रवृति
शेर चीते,भालू,लोमड़ी,सियार
घूमने लगे आस पास
सांसे लेना हो जाएं दूभर
केवल दिखे फौज/नरभक्षियों की
बेटियों का रोना चीखना
उसकी करूण पुकार
क्यों बहरे हो गये हैं हम?
आइए हम बनते है/सुरक्षा कवच
अपनी बेटियों का/बचाते हैं,उन्हे
नर भक्षी भेडियों से।
बायें से : डॉ.वर्षा सिंह, डॉ. चंचला दवे, डॉ. (सुश्री) शरद सिंह, श्रीमती चौधरी एवं श्रीमती सीमा दुबे

         डॉ. चंचला दवे की रचनाशीलता की यह विशेषता है कि वे जीवन के कठोर पक्ष का आकलन तो करती ही हैं साथ ही, जीवन के कोमन पक्ष को भी बड़ी सुंदरता से अपनी अभिव्यक्ति में शामिल करती हैं। जैसे उनकी एक कविता है ‘‘मेरे मन के चांद हुए’’। इस कविता में प्रेमाभिव्यक्ति का मधुर रूप परिलक्षित होता है-
तुम मेरी
अनदेखी अनजानी प्रीत हो
दिल में तुम/आन बसे हो
जब से मिले हो/तुम
रंग मेरे मकरंद हुए
जब से सुना है/तुम को
साजो के सुर/मंद हुये
सपनों का तुम रूप/मनोहर
मेरे मन के चांद हुये
अधरों के स्वर/सूख गये
लेखन का रंग/लाल हुआ
नदिया की तुम/निर्मल धारा
जीवन का तुम गान हुए
शब्द सभी/निःशब्द हुए
मेरा तुम/ विश्वास हुए

           मनुष्य ने अपने जीवन को समयबद्ध करने के लिए घंटे, मिनट और वर्ष बनाए। नए वर्ष का आगमन और पुराने वर्ष का गमन एक समयमापी प्रक्रिया ही तो है किन्तु मनुष्य अपने बनाए सांचों  अथवा मानवों के प्रति किस प्रकार अनुरक्त हो जाता है कि वह समय के गुजरने की आहट को भी ठीक से सुन नहीं पाता है। डॉ चंचला दवे ने अपनी कविता ‘‘नया साल’’ में इसी तथ्य को व्यावहारिक ढंग से उठाया है-
आज 19 दिसंबर है
2018 को जाने में
बाकी है पूरे 12 दिन
फिर आयेगा, नया साल
आज का/साल बीता हो जायेगा
अतीत में/केलेंडर की तरह
फड़फडाती जिन्दगी
हवा में/उड़ती रहेगी
न पंख होंगे/ उड़ने को
और न बतियाने जीभ
काटने के लिये, नहीं होंगे/दांत
होगी तो केवल
जेहन में याद करने/स्मृतियां।

          डॉ. चंचला दवे एक ऊर्जावान कवयित्री हैं। भले ही अपने पारिवारिक दायित्वों के कारण उनकी सृजनशीलता की गति धीमी रही किन्तु अब वे एक बार फिर काव्य के प्रति अपनी प्रतिबद्धता की ओर लौट आई हैं। यही आशा है कि उनका काव्य सृजन सागर नगर के साहित्यिक संपदा में निरंतर श्रीवृद्धि करेगा।
 
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( दैनिक, आचरण  दि. 19.06.2019)
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कवयित्री चंचला दवे की whatsapp पर टिप्पणी का स्क्रीन शॉट....

# साहित्य वर्षा

Wednesday, June 12, 2019

सागर : साहित्य एवं चिंतन 53 ... कोमल संवेदनाओं के धनी कवि आशीष सिंघई ‘निंशंक’ - डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh

       स्थानीय दैनिक समाचार पत्र "आचरण" में प्रकाशित मेरा कॉलम "सागर साहित्य एवं चिंतन " । जिसमें इस बार मैंने लिखा है मेरे शहर सागर के कवि आशीष सिंघई "निशंक" पर आलेख। पढ़िए और जानिए मेरे शहर के साहित्यिक परिवेश को ....

सागर : साहित्य एवं चिंतन

कोमल संवेदनाओं के धनी कवि आशीष सिंघई ‘निंशंक’
             - डॉ. वर्षा सिंह
           
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परिचय :- आशीष सिंघई ‘निशंक’
जन्म :-  16 अप्रैल 1977
जन्म स्थान :- हटा, जिला दमोह (म.प्र.)
माता-पिता :- श्रीमती कमला सिंघई एवं स्व. अशोक सिंघई
शिक्षा      :- बी.ए.
लेखन विधा :- काव्य
काव्यपाठ : - मंचों पर काव्यपाठ।
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साहित्य जीवन में सरसता का संचार करता है। इसीलिए आज के कठिन समय में संवेदनाओं को जगाए रखने के लिए साहित्य की सतत सर्जना अति आवश्यक है। यह सौभाग्य का विषय है कि सागर नगर साहित्य के विविधतापूर्ण आयामों को साहित्य में निरंतर संजोता जा रहा है। यहां कवियों ने अपनी कविताओं से जनमानस को सदा रसान्वित किया है। जब बात संवेदनाओं की आती है तो हास्य, व्यंग, श्रृंगार और वात्सल्य सभी रसों को निबद्ध करते हुए अपनी कविताओं का सृजन कर रहे हैं और उन्हें नगर के ही नहीं देश के प्रतिष्ठित मंचों पर भी प्रस्तुत कर रहे हैं। इस क्रम में एक उल्लेखनीय नाम है आशीष सिंघई ‘निशंक’ का।
      दमोह जिले की हटा तहसील में 16 अप्रैल 1077 को हटा में स्व. अशोक सिंघई एवं श्रीमती कमला सिंघई के घर जन्में आशीष सिंघई को कोमल भावनाओं की समझ अपनी धर्मप्रवण माता से मिली। अपने मामाश्री के पास जबलपुर जिले के कटंगी तहसील में रह कर उन्होंने शिक्षा प्राप्त की। स्नातक उपाधि प्राप्त करने के उपरांत आशीष सिंघई सागर नगर में दवा व्यवसाय के जीवकोपार्जन में संलग्न हो गए। आज वे मेडिकल स्टोर के संचालक हैं। पारिवारिक एवं व्यावसायिक जिम्मेदारियों के बीच साहित्य के प्रति उनका झुकाव कम नहीं हुआ। वे निरंतर काव्य सृजन करते रहे। धीरे-धीरे मंचों के प्रति उनका रुझान बढ़ा और वे नगर के मंचों पर काव्य पाठ करने के साथ ही देश के प्रतिष्ठित मंचों पर भी जाने लगे।
अपनी बाल्यावस्था में ही अपने पिता को खो देने का दुख और अपनी माता के संघर्ष ने उन्हें पीड़ित मानवता के ओर अधिक समीप पहुंचा दिया। वह कहावत है न कि ‘जाके पांव न फटी बिवाई, वो क्या जाने पीर पराई’, तो आशीष सिंघई परिस्थितियों की बिवाई के फटने पर उठने वाली टीस से भली-भांति परिचित थे, अतः उन्हें दूसरों की पीड़ा बखूबी समझ आती है। ‘निशंक’ के उपनाम से कविताएं लिखने वाले आशीष सिंघई सामाजिक विडम्बनाओं को अपनी कविता में बड़ी ही बारीकी और अनुशासनबद्धता के साथ पिरोते हैं। उनकी एक कविता है ‘वर्तमान’, जिसमें उन्होंने समाज की वर्तमान परिस्थितियों का सूक्ष्मता से आकलन करते हुए निरुपित किया है कि आज जो भी विसंगति है उसके लिए स्वयं आज का मनुष्य जिम्मेदार है। कविता का अंश देखें -
ज़िन्दगी लंबी डगर है और कांटों की चुभन है
वेदना के  क्रंदनों में,  क्यों हमारा मौन मन है।

हो रहा  विद्रोह, बागी पीढ़ियां,  क्यों हो रहीं
नए घरों की आज जर्जर सीढ़ियां क्यों हो रहीं
क्यों नहीं अहसास हमको आज अपने ही पतन का
हो रहा क्या हाल, देखो, आज अपने ही चमन का

जो दिखाई दे रहा, वो अपना खुद का संकलन है
वेदना  के  क्रंदनों में,  क्यों  हमारा  मौन मन है।
Sagar Sahitya Avam Chintan - Dr. Varsha Singh

        समाज के दुख और सुख का निर्धारण करती है उसकी आर्थिक स्थिति। जब देश की स्वतंत्रता प्राप्ति के दशकों बाद भी समाज में आर्थिक विपन्नता व्याप्त रहे तो यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति ही कही जाएगी। एक संवेदनशील कवि गरीबी के मर्मांतक दृश्यों को किस प्रकार अपनी कविता में पिरोता है, इसका उदाहरण कवि ‘निशंक’ की ‘गरीबी’ शीर्षक कविता में अनुभव किया जा सकता है-
पास पैसा एक नहीं घासलेट को
बच्चा रो रहा मगर चॉकलेट को।
पास  है  दिवाली  अफ़सोस  हो  गया
फुलझड़ी की  आस मे भूखा ही सो गया
ईद की रौनक मगर धड़कन बंद हो गई
सालों  पुरानी  फ्राक खुद  पैबंद हो गई
आंसुओं से कहकहे भी खुद हो गए हैं तरबतर
इस जमाने में गरीबी हो भला कैसे गुजर
आग चूल्हें में नहीं पर पेट में तो जल रही
रोटियों की आस उनको सबसे ज़्यादा खल रही
उम्र है स्कूल की लेकिन कबाड़ा बीनते हैं
वो शहर की गंदगी में अपना मुकद्दर ढूंढते हैं

     अपनी इस कविता में कवि ‘निशंक’ इस तथ्य को रेखांकित करते हैं कि गरीबी जाति अथवा धर्म को नहीं देखती है। गरीबी हो तो दीवाली और ईद दोनों फांकों में गुजरते हैं। गरीबी वह विवशता है जो मासूम बच्चों को स्कूल जाने की आयु में कूड़े के ऐर पर पहुंचा देती है। इस कविता की विशेषता यह है कि कवि ने इसमें मात्र समस्याओं के दृश्य नहीं खींचे हैं वरन् समस्या को हल करने के लिए सुझाव भी दिए हैं और संकल्प का आह्वान भी किया है। इसी कविता की आगे की पंक्तियां देखिए-
आओ लें संकल्प, हमसे जो बनेगा, वो करेंगे
तेल भी उम्मींद का, उनके चरागों में  भरेंगे
एक की भी जिन्दगानी गर संवारी जाए तो
‘निशंक’ कइयों के मुकद्दर फूल जैसे खिल उठेंगे।
कवि निशंक

      कवि आशीष ‘निशंक’ की सर्जना की खूबी यही है कि वे विपरीत परिस्थितियों का आकलन करते समय भी आशा और विश्वास का दामन नहीं छोड़ते हैं। वे मानते हैं कि यदि प्रयास किया जाए तो प्रतिकूल स्थितियां भी अनुकूल बनाई जा सकती हैं। यदि मनुष्य में भले-बुरे की चेतना शेष रहे तो वह बुराई के संजाल से निकल कर भलाई के पथ पर चल सकता है। इसी भावना पर आधारित उनकी ‘अहसास’ शीर्षक कविता देखिए-
टूटती है आस पर  विश्वास ज़िंदा है
तू नहीं है पास पर अहसास जिंदा है।

स्वप्न टूटे हैं मगर है चेतना बाकी
भर गए हैं घाव लेकिन वेदना बाकी
ऊंची डाल पर जाकर बुना संसार सपनों का
ले उड़ी आंधी घरोंदा चंद तिनकों का
परिंदों को अभी आंगन में वो आभास जिंदा है।

खुशबुएं मचली हैं मेरे घर पे आने को
मगर क्या ऐतराज़ी है भला इसमें जमाने को
हमारा हक रहा न अब पीपल, आम, नीमों पर
बनाओं खूब दीवारें, हदें खींचों ज़मीनों पर
मेरे हिस्से का मुट्ठी भर अभी आकाश जिंदा है।


     आशीष सिंघई ‘निशंक’ की एक बहुत ही खूबसूरत कविता है ‘पीपल’। यूं तो यह कविता बचपन की यादों से भरी हुई है किन्तु यह उन सरोकारों का स्मरण कराती है जो हमारे सामाजिक एवं सांस्कृतिक मूल्यों से जुड़े हुए थे, जिनमें असीम अपनत्व था और जीवन का गहन साझापन था। एक खिलंदड़ापन था जो ऊर्जावान बनाए रखता था। उनमें मां की आशीषें भी थीं जो रक्षाकवच की भांति अस्तित्व से लिपटी रहती थीं। ढेर सारी आशाएं और स्नेह का आगार, जो मानो बहुत पीछे छूट गया है। वस्तुतः कवि आशीष ‘निशंक’ के संवेदनाबोध को यदि जानना है तो वृक्ष का बिम्ब लिए हुए उनकी इस कविता से हो कर गुजरना जरूरी है-
यार  तुम्हारे  इर्द-गिर्द ही  मेरा बचपन बीता है
तुमसे हो कर दूर मुझे ये लगता है, कुछ रीता है
तेरी चंचल छांव तले जब भरी दुपहरी आता था
मां के शरबत जैसी ही मैं शीतलता पा जाता था
मेरी खूब पतेंगे तूने डालों में उलझाई हैं
इतने वर्षों बाद अभी तक वापस न लौटाई हैं
तेरे सर पर शोर मचाते, पंछी लगते प्यारे थे
और तुम्हारी गोद में चढ़ कर फूले नहीं समाते थे
पतझर के मौसम में तेरे पत्ते तुझसे जाते रूठ
इस वियोग में शोर मचाते रह जाते तुम बनकर ठूंठ
पर ज्यों वसंत आता तुम भी बच्चों से हषार्ते थे
झूम-झूम कर जश्न मनाते, फूले नहीं समाते थे

        आज काव्य में जिस संवेदना और अभिव्यक्ति की आवश्यकता है, वह कवि आशीष सिंघई ‘निशंक’ की काव्य में दृष्टिगत होती है। काव्य के प्रति उनकी प्रतिबद्धता उनके यशस्वी भविष्य के प्रति आश्वसत करती है।

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( दैनिक, आचरण  दि. 12.06.2019)
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Friday, June 7, 2019

सागर : साहित्य एवं चिंतन 52 ... विपुल संभावनाओं के कवि प्रभात कटारे - डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh

       स्थानीय दैनिक समाचार पत्र "आचरण" में प्रकाशित मेरा कॉलम "सागर साहित्य एवं चिंतन " । जिसमें इस बार मैंने लिखा है मेरे शहर सागर के कवि प्रभात कटारे पर आलेख। पढ़िए और जानिए मेरे शहर के साहित्यिक परिवेश को ....

सागर : साहित्य एवं चिंतन

      विपुल संभावनाओं के कवि प्रभात कटारे
               - डॉ. वर्षा सिंह
                   
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परिचय :- प्रभात कटारे
जन्म :-  13 अगस्त 1982
जन्म स्थान :- ग्राम रजौआ, सागर (म.प्र.)
माता-पिता :- श्रीमती बसंतीदेवी कटारे एवं श्री रघुवर प्रसाद कटारे
लेखन विधा :- गीत, ग़ज़ल
काव्यपाठ : - गोष्ठियों में काव्यपाठ।
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                 सागर में काव्यधारा अनेक ऐसे कवियों से हो कर बह रही है जो प्रकाशन के क्षेत्र से दूर काव्यसाधना में रत हैं। वे अपनी रचनाओं को कवियों के मध्य प्रस्तुत कर के साहित्यसेवा में संलग्न रहते हैं। वस्तुतः साहित्यसेवा कोई सशर्त कर्म नहीं है। यह तो आरम्भ ही स्वांतःसुखाय से होता है। जो कवि काव्यगोष्ठियों में से जुड़ कर अपनी प्रतिभा का परिचय देते हैं, सागर निवासी कवि प्रभात कटारे भी उनमें से एक हैं। ग्राम रजौआ, जिला सागर में 13 अगस्त 1982 को श्री रघुवर प्रसाद कटारे एवं श्रीमती बसंतीदेवी कटारे के पुत्ररत्न के रूप में जन्में प्रभात कटारे को काव्य संस्कार अपने शिक्षक बाबूलाल राजौरिया से मिले।
           कवि प्रभात ने उच्चशिक्षा प्राप्त करते हुए हिन्दी, अंग्रेजी एवं समाजशास्त्र में एम.ए. की उपाधि अर्जित की। तकनीकी दृष्टि से वे समय के साथ चलने में विश्वास रखते हैं, इसीलिए तीन विषयों में स्नातकोत्तर एवं बीएड होने के बावजूद उन्होंने कम्प्यूटर विज्ञान में पीजी डी सीए तथा पत्रकारिता में डिप्लोमा किया। प्रभात कटारे का यूं तो आज कृषि एवं बिल्डिंग मटेरियल सप्लायर के रूप में एक जाना-माना नाम है, वहीं सागर के साहित्य जगत में भी उनकी एक विशेष पहचान स्थापित होती जा रही है।
            प्रभात कटारे काव्यगोष्ठियों से अपने जुड़ने का श्रेय देवकीनंदन रावत को देते हैं और उन्हें काव्यसृजन करते हुए लगभग दस वर्ष हो चले हैं। सन् 2010 में पत्रकारिता प्रशिक्षण के दौरान उनकी एक कविता दैनिक जागरण (भोपाल) में प्रकाशित हुई थी किन्तु उसके बाद उन्होंने प्रकाशन की दिशा में कोई विशेष रुचि नहीं रखी।
           कवि प्रभात हिन्दी और बुंदेली दोनों में कविताएं लिखते हैं। उनकी कविताओं में समसामयिक परिस्थितियां मुखररूप में दिखाई देती हैं। बेरोजगारी से परेशान युवाओं के पक्ष में वे कविता लिखते हुए कहते हैं-
सुन ले, सुन ले, री सरकार, दे दे हमको रोजगार
बिना  नौकरी  देखो  हमको, हैं  कितने  लाचार
सुन ले, सुन ले, री सरकार...
लगी नौकरी जिनकी, वे सब हो गए बच्चों वारे
बिना नौकरी  देखो, अब  लौं  घूम  रये कुंवारे
कर दे सपने सब साकार,
सुन ले, सुन ले, री सरकार...
घरवारो ने  पालो-पोसो,  हमखां  खूब पढ़ाओ
अपने सबरे  नखरे झेले,  सबरो  खर्च उठाओ
अब हम हो गए उनपे भार,
सुन ले, सुन ले, री सरकार...

Sagar Sahitya Avam Chintan - Dr. Varsha Singh

                युवावर्ग की भावनाओं को आत्मसात करते हुए कवि प्रभाव भावुक हो उठते हैं और उनकी रचना में श्रृंगाररस का एक अलग ही रूप निखर कर सामने आता है-
हर आंख में आंसू है, हर आंख में पानी है।
ये कैसी जवानी है,  ये कैसी  जवानी है ।
जो  यहां  नज़रों के  तीर  से  घायल हैं
मेले में भी  ये दुनिया,  लगती वीरानी है।
ये हवा  मोहब्बत  की, जाने  चली  कैसी
हर लड़का दीवाना है, हर लड़की दीवानी है।
दिल मेरा हुआ चोरी, नज़रों से हुआ घायल
जिसको भी यहां देखों, बस, एक कहानी है।

            प्रेम, श्रृंगार आदि वह भावनाएं हैं जो कवियों को अपनी ओर सहज ही आकर्षित करती हैं तथा उन्हें अपने काव्य का विषय बनाने के लिए प्रेरित करती हैं किन्तु कवि प्रभात कटारे जहां प्रेम और श्रृंगार को तो अपने सृजन में स्थान देते हैं, वहीं एक सजग कवि की भांति युवाओं को उनके कर्त्तव्य का भी स्मरण कराते हैं-
तुम कहते हो प्रेम करो, अरे प्रेम की क्या परिभाषा है।
सभी ओर  मायूसी  है  बस,  चारो ओर  निराशा है।।
क्या लैला, मजनूं बन कर ही, कहो प्रेम हो सकता है
और भी रूपों में ईश्वर ने,  इंसा को  यहां तराशा है।।
क्या नहीं कोई कर्त्तव्य तुम्हारा, जिनने तुमको पाला है
उनसे पूछो, उनके मन में,  तुमसे कितनी आशा है।।

             प्रभात कटारे मां के प्रति अपने भाव व्यक्त करते हुए मां के महत्व को निरुपित करते हुए कहते हैं कि मनुष्य के जीवन में मां से बढ़ कर और कोई हो ही नहीं सकता है। मां जिस प्रकार अपनी संतान के प्रति समर्पित रहती है, उतना समर्पणभाव और किसी में नहीं हो सकता है। अतः प्रत्येक संतान को अपने मातृऋण को ध्यान में रखना चाहिए। ये पंक्तियां देखिए-
तेरे ऋण  से  सदी  ऋणी है, तेरी  ये संतान
कोई नहीं ले सकता जग में,  मां  तेरा स्थान।
खुद सोई  गीले  में  तू, सूखे में  मुझे सुलाया
रात-रात भर सेवा की और अपना दूध पिलाया
फिर भी  तेरे होंठों पर,  वो बनी रही मुस्कान।
बिन बोले ही समझ ली तूने,  मेरे मन की बात
लेकिन मैं ही  समझ न पाया,  वो तेरे जज़्बात
मैंने समझा मूरख तुझको, और खुद को विद्वान।
घूंघट में  मुस्काती मां  तू , याद मुझे है आती
झम-झम करती पायल तेरी, कैसा संगीत सुनाती
गूंज रहा है  अंतरमन में, वो  लोरी का गान।

            कवि प्रभात की अभिव्यक्ति में विषय की विविधता है। वे सागर के महान दानवीर डॉ. हरीसिंह गौर के प्रति अपने श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं। इस बात को भला कौन विस्मृत कर सकता है कि वे डॉ गौर ही थे जिन्होंने अपनी संपत्ति दान कर के सागर को एक अनुपम विश्वविद्यालय प्रदान किया और इस शैक्षिकरूप से पिछड़े क्षेत्र में शिक्षा का मंदिर स्थापित किया। कवि प्रभात सागर के पितृपुरुष डॉ. हरीसिंह गौर का अभिनंदन करते हुए लिखते हैं कि-
हे गौर तुम्हारे चरणों में, नित वंदन है, अभिनंदन है
हे दानवीर,  हे शूरवीर,  महक  गया  तू चंदन है
सागर में हो तुम पुष्प कमल, हे कर्मवीर, हे बुद्धि विमल
मैं आभरी हूं प्रतिपल, सागर आभारी है प्रतिपल
तुम ज्ञानी हो, तुम ध्यानी हो, सागर का अभिमान हो तुम
हर घर शिक्षा दीप जलाया, ऐसा पावन अभियान हो तुम
सागर का श्रृंगार कर गए, इसकी छटा न्यारी है
तेरी इस कृपा करुणा के सागरवासी आभारी हैं

          कवि यदि कविताकर्म करता है तो उसके कुछ सामाजिक सरोकार भी रहते हैं। इन्हीं सरोकारों को ध्यान में रख कर वह जीवन से जुड़े उन प्रसंगों को भी अपनी कविता में समाहित करता है जो देश की प्रगति एवं स्वतंत्रता के लिए जरूरी हैं। इसीलिए प्रभात कटारे ने मतदान के महत्व को भी अपनी रचना में पर्याप्त स्थान दिया है। वे लिखते हैं-
चुनाव  एक  कुंभ है, स्नान  कीजिए
गुप्तदान  दीजिए,  मतदान  कीजिए।
मां भारती का यश बढ़े, समृद्ध देश हो
मिल कर सभी ऐसा कोई विधान कीजिए।
फैली है बहुत गंदगी, विकराल रूप है
निर्मल हो राजनीति, कुछ निदान कीजिए।

       प्रत्येक साहित्यिक विधा मनुष्य को संस्कारित करती है और उसमें भी काव्य की यह खूबी है कि वह कोमलता के साथ अनुशासित करती है। यदि कवि प्रभात कटारे काव्य के अनुशासन का इसी प्रकार निर्वहन करते रहे तो उनकी रचनाएं और अधिक प्रभावी होती जाएंगी। काव्य भी अभ्यास की मांग करता है। अभ्यास के प्रति लगन बनाए रखने की क्षमता प्रभात कटारे की रचनाओं में स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है जो उनके काव्यात्मक भविष्य के प्रति विपुल संभावनाएं प्रकट करती है।

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( दैनिक, आचरण  दि. 07.06.2019)
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