Wednesday, November 28, 2018

मध्यप्रदेश में विधानसभा मतदान 2018 - चलिये हम मतदान करें

Dr. Varsha Singh

   आज 28 नवम्बर है यानी हमारे मध्यप्रदेश में  विधानसभा चुनाव मतदान दिवस है। मध्यप्रदेश में विधानसभा की 230 सीटों के लिए प्रदेश के 52 जिलों में वोटिंग हो रही है। लोकतंत्र के इस महापर्व में मैंने और बहन डॉ. (सुश्री) शरद सिंह ने भी अपना बहुमूल्य वोट डाल कर प्रदेश के सतत् विकास की कामना की।
प्रस्तुत है मतदाता जागरूकता हेतु लिखी गई मेरी एक रचना ...

चलिये हम मतदान करें
लोकतंत्र का मान करें

चुनने को प्रतिनिधि अपना
जनजागृति का गान करें

कितनी ताकत एक वोट में
हम इसकी  पहचान करें

बहकावे से दूरी रख कर
स्वविवेक का ध्यान करें

हम भारत के वासी "वर्षा"
भारत पर अभिमान करें

         - डॉ. वर्षा सिंह

#ग़ज़लवर्षा

Dr. Sharad Singh & Dr. Varsha Singh

Dr. Varsha Singh

Dr. (Miss) Sharad Singh

Saturday, November 24, 2018

गुरु नानक जयंती की शुभकामनाएं - डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh
"नानक चिंता मत करो ,चिंता तिसहि हे|”

ज्ञान, आलोक रूपी मार्गदर्शक गुरु नानक देव जयंती पर शत-शत नमन।

प्रकाश पर्व की सभी को हार्दिक बधाई।


          सिख पंथ के प्रथम गुरू नानक  देव जी की  जंयती पूरे देश के साथ ही सागर में भी बड़े स्तर पर मनाई गई। इस अवसर पर सागर शहर के भगवानगंज में स्थित गुरुद्वारा को आकर्षक ढंग से सजाया गया। मध्यप्रदेश के  सागर शहर के भगवान गंज गुरुद्वारे में सिख समाज द्वारा प्रकाश पर्व से शुरू किया गया धार्मिक कार्यक्रमों का सिलसिला शुक्रवार 23.11.2018 को गुरुनानक देव जयंती पर देर रात थमा। वाहे गुरू के जयकारों से गुरुद्वारा परिसर गूंज उठा। इससे पहले गुरुद्वारे मेें सुबह 9 बजे भजन कीर्तन से कार्यक्रम की शुरूआत हुई। गुरूद्वारा में श्रद्धालुओं का तांता देर शाम तक लगा रहा। सभी ने बारी बारी से मत्था टेका, गुरू का अटूट लंगर बरता, जिसे लोगों ने चखा। शाम होते ही गुरूद्वारा रंगीन बल्बों की झालरों से बिखरी रोशनी से और भी आकर्षक नजर आया।
Gurudwara, Bhagwanganj, Sagar, MP, India

         गुरूग्रंथ साहब के सामने सिख समाज सहित अन्य श्रद्धालुओं ने मत्था टेका और समाज के लोगों को हर्षपूर्वक गुरुनानक जयंती की बधाई दी। सागर में ही भैंसा नामक स्थान पर  स्थित सिखों की अमरदास कालोनी के गुरुद्वारा और महार रेजीमेंट सेंटर के गुरुद्वारा में प्रकाश पर्व पर कई कार्यक्रम हुए। वर्तमान में श्री गुरु सिंघसभा के अध्यक्ष सतिंदर सिंह होरा हैं। हुजूरी रागी जत्था प्रमुख भाई कुलविंदर सिंह, जसवीर कौर, सुखबीर सिंह ने गुरूनानक देव पर केंद्रित भजन-कीर्तन किया। संकीर्तन के पश्चात ज्ञानीजी के मार्गदर्शन में निशान साहिब की सेवा की गई। सिख समाज के लोगों द्वारा की गई पुष्प वर्षा के समय पूरा वातावरण वाहे गुरू, वाहे गुरू की ध्वनि से गुंजायमान हो गया।

            गुरु नानक देव सिख धर्म के प्रथम गुरु हैं। इन्होंने ही सिख धर्म की स्थापना की थी। समाज में व्याप्त कुरीतियों को दूर करने के लिए उन्होंने अपने पारिवारिक जीवन और सुख का ध्यान न करते हुए दूर-दूर तक यात्राएं की और लोगों के मन में बस चुकी कुरीतियों को दूर करने की दिशा में काम किया। इस साल 23 नवंबर, शुक्रवार को इनका जन्मदिन है। हर साल कार्तिक मास की पूर्णिमा तिथि को इनका जन्मदिन प्रकाश पर्व के रूप में मनाया जाता है। क्योंकि नानक देवजी ने कुरीतियों और बुराइयों को दूर कर लोगों के जीवन में नया प्रकाश भरने का कार्य किया।
गुरु नानक देव

           नानकजी का जन्म रावी नदी के किनारे स्थित तलवंडी नामक गांव में कार्तिक पूर्णिमा के दिन खत्रीकुल में हुआ था। कुछ विद्वान इनकी जन्मतिथि 15 अप्रैल, 1469 मानते हैं। किंतु प्रचलित तिथि कार्तिक पूर्णिमा ही है, जो अक्टूबर-नवंबर में दीवाली के 15 दिन बाद पड़ती है। इनके पिता का नाम कल्याणचंद या मेहता कालूजी था, माता का नाम तृप्ता देवी था। तलवंडी का नाम आगे चलकर नानक के नाम पर ननकाना पड़ गया। इनकी बहन का नाम नानकी था।

            नानक बचपन से ही प्रखर बुद्धि के लक्षण दिखाई देने लगे थे। बचपन से ही इनमें सांसारिक विषयों के प्रति कोई खास लगाव नहीं था। पढ़ने लिखने में इनका मन नहीं लगा और मात्र 8 साल की उम्र में स्कूल छूट गया क्योंकि भगवत्प्रापति के संबंध में इनके प्रश्नों के आगे अध्यापक ने हार मान ली। इनके प्रश्नों के आगे खुद को निरुत्तर जानकर इनके शिक्षक इन्हें लेकर इनके घर पहुंचे तथा वे इन्हें ससम्मान घर छोड़कर चले गए। इसके बाद नानक का सारा समय आध्यात्मिक चिंतन और सत्संग में व्यतीत होने लगा। छोटे बच्चे की ईश्वर में इतनी आस्था देखकर गांव के लोग इन्हें दिव्य मानने लगे क्योंकि नानक ने बचपन में ही कुछ ऐसे संकेत दिए थे।
       इनके जीवन से जुड़ी एक घटना इस प्रकार है कि एक बार बालक नानकजी खेत में पशु चराने गए, जहां थककर वह लेट गए और उन्हें नींद आ गई। जब वह सो रहे थे उस समय सूरज की छाया उनके मुख पर पड़ रही थी। सूरज की तपिश से उनकी नींद न टूटे इसलिए पास ही बने बिल में रहनेवाले एक सांप ने अपने फन से इनके सिर पर अपनी छाया कर ली। उस समय ग्राम प्रमुख बुलारजी जंगल में शिकार के लिए गए हुए थे और रास्ते में उन्होंने नानक के सिर पर सांप को छाया करते हुए देखा। तब से वह इन्हें बहुत मानने लगे। नानक का विवाह सोलह वर्ष की आयु में गुरदासपुर जिले के अंतर्गत लाखौकी नामक स्थान के रहनेवाले श्री मूला जी की कन्या सुलक्खनी (सुलक्षणा) से हुआ था। फिर 32 वर्ष की अवस्था में इनके प्रथम पुत्र श्रीचंद का जन्म हुआ। चार वर्ष पश्चात् दूसरे पुत्र लखमीदास का जन्म हुआ।
         दोनों बेटों के जन्म के उपरांत 1507 में नानक अपने परिवार का भार अपने श्वसुर पर छोड़कर मरदाना, लहना, बाला और रामदास इन चार साथियों को लेकर तीर्थयात्रा पर निकल गए। इन्होंने न केवल भारत वर्ष में बल्कि अरब, फारस और अफगानिस्तान के कुछ क्षेत्रों की यात्राएं भी कीं। गुरु नानक देव ने समाज में फैले अंधविश्वास और जातिवाद को मिटाने के लिए बहुत से कार्य किए। यही कारण है कि हर धर्म के लोग उन्हें सम्मान के साथ याद करते हैं और उनके जन्मदिन को पर्व के रूप में मनाते हैं। इसलिए कार्तिक पूर्णिमा को गुरु पर्व और प्रकाश पर्व के रूप में मनाया जाता है।
गुरु नानक देव के जीवन से जुड़े मुख्य गुरुद्वारे निम्नलिखित हैं-

गुरुद्वारा कंध साहिब- बटाला (गुरुदासपुर) गुरु नानक का यहां बीबी सुलक्षणा से 18 वर्ष की आयु में संवत्‌ 1544 की 24वीं जेठ को विवाह हुआ था। यहां गुरु नानक की विवाह वर्षगांठ पर प्रतिवर्ष उत्सव का आयोजन होता है।

गुरुद्वारा हाट साहिब- गुरु द्वारा हाट साहिब, सुल्तानपुर लोधी (कपूरथला) में है। गुरु नानक ने बहनोई जैराम के माध्यम से सुल्तानपुर के नवाब के यहां शाही भंडार के देख-रेख की नौकरी प्रारंभ की। वह यहां पर मोदी बना दिए गए। नवाब युवा नानक से काफी प्रभावित थे। यहीं से नानक को ‘तेरा’ शब्द के माध्यम से अपनी मंजिल का आभास हुआ था।


गुरुद्वारा गुरु का बाग- सुल्तानपुर लोधी (कपूरथला) में स्थित गुरुद्वारा गुरु का बाग में गुरु नानक देव जी का घर था, जहां उनके दो बेटों बाबा श्रीचंद और बाबा लक्ष्मीदास का जन्म हुआ था।

गुरुद्वारा कोठी साहिब- गुरुद्वारा कोठी साहिब, सुल्तानपुर लोधी (कपूरथला) में है जहां नवाब दौलतखान लोधी ने हिसाब-किताब में गड़बड़ी की आशंका में नानक देव जी को जेल भिजवा दिया। लेकिन जब नवाब को अपनी गलती का पता चला तो उन्होंने नानक देव जी को छोड़ कर माफी ही नहीं मांगी, बल्कि प्रधानमंत्री बनाने का प्रस्ताव भी रखा, लेकिन गुरु नानक ने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया।

गुरुद्वारा बेर साहिब- सुल्तानपुर लोधी (कपूरथला) में गुरुद्वारा बेर साहिब वो जगह है जहां नानक देव का ईश्वर से साक्षात्कार हुआ था। जब एक बार गुरु नानक अपने सखा मर्दाना के साथ वैन नदी के किनारे बैठे थे, तो अचानक उन्होंने नदी में डुबकी लगा दी और तीन दिनों तक लापता हो गए, जहां पर कि उन्होंने ईश्वर से साक्षात्कार किया। सभी लोग उन्हें डूबा हुआ समझ रहे थे लेकिन वह वापस लौटे तो उन्होंने कहा- एक ओंकार सतनाम। गुरु नानक ने वहां एक बेर का बीज बोया, जो आज बहुत बड़ा वृक्ष बन चुका है।

गुरुद्वारा अचल साहिब- गुरुदासपुर में स्थित गुरुद्वारा अचल साहिब वह जगह है जहां अपनी यात्राओं के दौरान नानक देव रुके थे। यहीं पर नाथपंथी योगियों के प्रमुख योगी भांगर नाथ के साथ उनका धार्मिक वाद-विवाद भी हुआ था। योगी सभी प्रकार से परास्त होने पर जादुई प्रदर्शन करने लगे। यहीं नानक देव जी ने उन्हें बताया था कि ईश्वर तक प्रेम के माध्यम से ही पहुंचा जा सकता है।

गुरुद्वारा डेरा बाबा नानक- गुरुद्वारा डेरा बाबा नानक, गुरुदासपुर में स्थित है। जीवनभर धार्मिक यात्राओं के बाद नानक देव जी ने रावी नदी के तट पर स्थित अपने फार्म पर अपना डेरा जमाया। सन् 1539 ई. में वह परम ज्योति में विलीन हुए।
Dr. Miss Sharad Singh


  यदि सिख धर्म की ज्ञानवर्द्धक रोचक कथाएं पढ़ना चाहते हैं तो डॉ. (सुश्री) शरद सिंह की पुस्तक 'श्रेष्ठ सिख कथाएं' amazon, flipcart और pustak.org की निम्नलिखित लिंक्स से मंगा कर पढ़ सकते हैं -
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https://www.pustak.org/index.php/books/bookdetails/10860/Shrestha%20Sikh%20Kathayein

श्रेष्ठ सिख कथाएं- लेखिका डॉ. शरद सिंंह


नानक देव जी के दोहे

मेरो मेरो सभी कहत हैं, हित सों बाध्यौ चीत।
अंतकाल संगी नहिं कोऊ, यह अचरज की रीत॥

मन मूरख अजहूं नहिं समुझत, सिख दै हारयो नीत।
नानक भव-जल-पार परै जो गावै प्रभु के गीत।।

एक ओंकार सतिनाम, करता पुरखु निरभऊ।
निरबैर, अकाल मूरति, अजूनी, सैभं गुर प्रसादि ।।

हुकमी उत्तम नीचु हुकमि लिखित दुखसुख पाई अहि।
इकना हुकमी बक्शीस इकि हुकमी सदा भवाई अहि ॥

सालाही सालाही एती सुरति न पाइया।
नदिआ अते वाह पवहि समुंदि न जाणी अहि ॥

पवणु गुरु पानी पिता माता धरति महतु।
दिवस रात दुई दाई दाइआ खेले सगलु जगतु ॥

धनु धरनी अरु संपति सगरी जो मानिओ अपनाई।
तन छूटै कुछ संग न चालै, कहा ताहि लपटाई॥

दीन दयाल सदा दु:ख-भंजन, ता सिउ रुचि न बढाई।
नानक कहत जगत सभ मिथिआ, ज्यों सुपना रैनाई॥


Thursday, November 22, 2018

डॉ. हरी सिंह गौर और सागर

Dr. Varsha Singh

26 नवंबर का दिन सागर नगर के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण दिन है।
26 नवंबर को प्रति वर्ष मध्यप्रदेश के हृदय स्थल सागर में गौर जयंती समारोहपूर्वक मनायी जाती है। डॉ. हरी सिंह गौर का जन्मदिन मनाने के लिए सुबह 7.45 बजे से कार्यक्रमों का आयोजन शुरू हो जाता है। इस दौरान सबसे पहले सागर विश्वविद्यालय के कुलपति तीनबत्ती पहुंचकर यहां स्थित हनुमान मंदिर में पूजन करते हैं।
इसके बाद शहर के गणमान्य नागरिकों से भेंट और फिर डॉ. गौर की मूर्ति पर माल्यार्पण किया जाता है। इसके बाद म.प्र. औद्योगिक सुरक्षा बल के जवान कुलपति को गार्ड ऑफ आनर देते हैं। तत्पश्चात कुलपति का उद्बोधन और फिर आभार प्रदर्शन कार्यक्रम संयोजक द्वारा किया जाता है। इसके बाद एक भव्य शोभायात्रा शहर के विभिन्न मार्गों से होती हुई विश्वविद्यालय के गौर स्मारक पर समाप्त होती है। डॉ. हरीसिंह गौर के जन्मदिवस के उपलक्ष्य में पूरे  परिसर को आकर्षक लाइटों से सजाया जाता है। विश्वविद्यालय परिसर में स्थित  जवाहर लाल नेहरू लाइब्रेरी भवन पर विद्युत सज्जा की जाती है।
वहीं दूसरी ओर सागर मुख्यालय के मध्य में स्थित तीनबत्ती नाम से प्रसिद्ध तिराहे पर स्थापित डॉ. हरी सिंह गौर की  धातु से निर्मित कदआदम प्रतिमा यानी स्टेच्यू पर माल्यार्पण कर नगरवासी अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं। नगर में स्थानीय अवकाश रखा जाता है।

डॉ. हरीसिंह गौर का जन्म 26 नवम्बर  1870 को हुआ था।  वे सागर विश्वविद्यालय के संस्थापक होने के साथ ही महान शिक्षाशास्त्री, ख्याति प्राप्त विधिवेत्ता और न्यायविद् थे। उन्होंने समाज सुधार के कार्य किये। डॉ. गौर एक उत्कृष्ट साहित्यकार, कवि एवं उपन्यासकार भी थे। उन्हें महान दानी एवं देशभक्त के रूप में जाना जाता है।
उन्होने सागर के ही गवर्नमेंट हाईस्कूल से मिडिल शिक्षा प्रथम श्रेणी में हासिल की। उन्हे छात्रवृत्ति भी मिली, जिसके सहारे उन्होंने पढ़ाई का क्रम जारी रखा, मिडिल से आगे की पढ़ाई के लिए जबलपुर गए फिर महाविद्यालयीन शिक्षा के लिए नागपुर के हिसलप कॉलेज (Hislop College) में दाखिला ले लिया, जहां से उन्होंने इंटरमीडिएट की परीक्षा भी प्रथम श्रेणी में की थी। वे प्रांत में प्रथम रहे तथा पुरस्कारों से सम्मानित किए गए।
सन् 1889 में उच्च शिक्षा लेने इंग्लैंड गए। सन् 1892 में दर्शनशास्त्र व अर्थशास्त्र में ऑनर्स की उपाधि प्राप्त की। फिर 1896 में एम.ए., सन 1902 में एल.एल.एम. और अन्ततः सन 1908 में एल.एल.डी. की उपाधि हासिल किया। कैम्ब्रिज में पढाई से जो समय बचता था उसमें वे ट्रिनिटी कालेज में डी लिट्, तथा एल एल डी की पढ़ाई करते थे।
तीन बत्ती, सागर में स्थापित गौर प्रतिमा
 उन्होंने अंतर-विश्वविद्यालयीन शिक्षा समिति में कैंब्रिज विश्वविद्यालय का प्रतिनिधित्व किया, जो उस समय किसी भारतीय के लिये गौरव की बात थी। डॉ. हरीसिंह गौर ने छात्र जीवन में ही दो काव्य संग्रह "दी स्टेपिंग वेस्टवर्ड एण्ड अदर पोएम्स" एवं "रेमंड टाइम" की रचना की, जिससे सुप्रसिद्ध रायल सोसायटी ऑफ लिटरेचर द्वारा उन्हें स्वर्ण पदक प्रदान किया गया।
सन् 1912 में वे बैरिस्टर होकर स्वदेश आ गये। उनकी नियुक्ति सेंट्रल प्रॉविंस कमीशन में एक्स्ट्रा `सहायक आयुक्त´ के रूप में भंडारा में हो गई। उन्होंने तीन माह में ही पद छोड़कर अखिल भारतीय स्तर पर वकालत प्रारंभ कर दी।
   मध्यप्रदेश, रायपुर, लाहौर, कलकत्ता, रंगून
तथा चार वर्ष तक इंग्लैंड की प्रिवी काउंसिल मे वकालत की ।उन्हें एलएलडी एवं डी. लिट् की सर्वोच्च उपाधि से भी विभूषित किया गया।
1902 में उनकी "द लॉ ऑफ ट्रांसफर इन ब्रिटिश इंडिया" पुस्तक प्रकाशित हुई। वर्ष 1909 में "दी पेनल ला ऑफ ब्रिटिश इंडिया" (वाल्यूम 2) भी प्रकाशित हुई जो देश व विदेश में मान्यता प्राप्त पुस्तक है। प्रसिद्ध विधिवेत्ता सर फेडरिक पैलाक ने भी उनके ग्रंथ की प्रशंसा की थी। इसके अतिरिक्त डॉ. गौर ने बौद्ध धर्म पर "दी स्पिरिट ऑफ बुद्धिज्म" नामक पुस्तक भी लिखी। उन्होंने कई उपन्यासों की भी रचना की।
वे बीसवीं शताब्दी के सर्वश्रेष्ठ शिक्षा मनीषियों में से एक थे। डॉ. गौर दिल्ली विश्वविद्यालय तथा नागपुर विश्वविद्यालय के उपकुलपति रहे। उन्होंने भारतीय संविधान सभा के उपसभापति, साइमन कमीशन के सदस्य तथा रायल सोसायटी फार लिटरेचर फेलो के पदों को भी सुशोभित किया।  साथ ही डॉ. गौर ने कानून शिक्षा, साहित्य, समाज सुधार, संस्कृति, राष्ट्रीय आंदोलन, संविधान निर्माण आदि में भी अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया।
डॉ. हरीसिंह गौर की समाधि
डॉ. गौर ने अपनी गाढ़ी कमाई से 20 लाख रुपये की धनराशि का व्यय कर 18 जुलाई 1946 को अपनी जन्मभूमि सागर में सागर विश्वविद्यालय की स्थापना की तथा वसीयत द्वारा अपनी पैतृक सपत्ति से 2 करोड़ रुपये दान भी दिया था। सागर विश्वविद्यालय के संस्थापक, उपकुलपति तो वे थे ही, उन्होंने अपने जीवन के आखिरी समय 25 दिसम्बर 1949 तक विश्वविद्यालय का विकास करने और इसे सहेजने के प्रति संकल्पित रहे। उनका स्वप्न था कि सागर विश्वविद्यालय, कैम्ब्रिज तथा ऑक्सफोर्ड जैसी मान्यता हासिल करे।

वे स्वयं शिक्षाविद् भी थे।  सन् 1921 में केंद्रीय सरकार ने जब दिल्ली विश्वविद्यालय की स्थापना की तब डॉ. सर हरीसिंह गौर को विश्वविद्यालय का संस्थापक कुलपति नियुक्त किया गया। 9 जनवरी 1925 को शिक्षा के क्षेत्र में `सर´ की उपाधि से विभूषित किया गया, तत्पश्चात डॉ. सर हरीसिंह गौर को दो बार नागपुर विश्वविद्यालय का कुलपति नियुक्त किया गया।
डॉ. सर हरीसिंह गौर ने 20 वर्षों तक वकालत की तथा प्रिवी काउंसिल के अधिवक्ता के रूप में शोहरत अर्जित की। वे कांग्रेस पार्टी के सदस्य रहे, लेकिन 1920 में महात्मा गांधी से मतभेद के कारण कांग्रेस छोड़ दी। वे 1935 तक विधान परिषद् के सदस्य रहे। वे भारतीय संसदीय समिति के भी सदस्य रहे, भारतीय संविधान परिषद् के सदस्य रूप में संविधान निर्माण में अपने दायित्वों का निर्वहन किया।ए.वी.आर.सी सरीखे रिसर्च सेंटर प्रमुख हैं। यह इतना बड़ा कैम्पस है कि एक बार जब विद्यार्थी इस विश्वविद्यालय में पहुंच जाता है तो उसे शहर नहीं जाना पड़ता है। उसके सारे कार्य विश्वविद्यालय कैम्पस में ही सम्पन्न हो जाते हैं चाहे बैंक का कार्य हो, कैंटीन का कार्य हो या लायब्रेरी का कार्य हो।
विश्वविद्यालय में स्थापित डॉ. हरीसिंह गौर की प्रतिमा
विश्वविद्यालय के संस्थापक डॉ. हरीसिंह गौर ने विश्वविद्यालय की स्थापना के बाद नागरिकों से अपील कर कहा था कि सागर के नागरिकों को सागर विश्वविद्यालय के रूप में एक शिक्षा का महान अवसर मिला है, वे अपने नगर को आदर्श विद्यापीठ के रूप में स्मरणीय बना सकते हैं।
गौर मूर्ति, तीनबत्ती, सागर, मध्यप्रदेश
विश्व प्रसिद्ध डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय एक ऐसा विश्वस्तरीय अनूठा विश्वविद्यालय है, जिसकी स्थापना एक शिक्षाविद् के द्वारा दान द्वारा की गई थी।इस विश्वविद्यालय में सबसे बड़ी विशेषता यह भी है कि सारा का सारा शैक्षणिक कार्य इस विश्वविद्यालय के कैम्पस में ही कराया जाता है, जबकि दूसरे विश्वविद्यालयों में यह कार्य उनके महाविद्यालयों में कराया जाता है। इस विश्वविद्यालयों में अनेक विषयों का अध्ययन कराया जाता है जिसमें मानव विज्ञान, अपराध शास्त्र, भूगर्भ विज्ञान और
यह भी एक संयोग ही है कि स्वतंत्र भारत व इस विश्वविद्यालय का जन्म एक ही समय हुआ। डॉ. हरीसिंह गौर को अपनी जन्मभूमि सागर में उच्च शिक्षा की व्यवस्था न होने का दर्द हमेशा रहा। इसी कारण द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात ही इंग्लैंड से लौट कर उन्होंने अपने जीवन भर की गाढ़ी कमाई से इसकी स्थापना करायी। वे कहते थे कि राष्ट्र का धन न उसके कल-कारखाने में सुरक्षित रहता है न सोने-चांदी की खदानों में, वह राष्ट्र के स्त्री-पुरुषों के मन और देह में समाया रहता है। डॉ. हरीसिंह गौर की सेवाओं के प्रति सम्मान प्रकट करने के लिए भारतीय डाक व तार विभाग ने 1976 में एक डाकटिकट जारी किया जिस पर उनके चित्र को प्रदर्शित किया गया है।
तीनबत्ती, सागर में डॉ. गौर की स्टेच्यू
डॉ॰ हरि सिंह गौर ने 'सेवेन लाईव्ज' (Seven Lives) शीर्षक से अपनी आत्मकथा लिखी है। मूलत: अंग्रेजी भाषा मे लिखी गई। एक युवा पत्रकार ने इस आत्मकथा का हिन्दी भाषा मेंं अनुवाद किया है। डॉ॰ गौर ने अपनी आत्मकथा मेंं अपने जीवन के सभी पहलुओं पर बड़ी बेबाकी से लिखा है।
Gour Murti, Teen Batti, Sagar, M.P.

18 जुलाई 1946 को दानवीर सर डॉ. हरीसिंह गौर ने अपना सर्वस्व अर्पण कर इस विश्वविद्यालय की स्थापना की थी। यह देश का 16 एवं मध्यप्रदेश का पहला विश्वविद्यालय बना। डॉ. गौर ने विश्वविद्यालय की स्थापना कर इसका नाम सागर विश्वविद्यालय रखा था। मकरोनिया चौराहा , सागर  में बटालियन गेट पर डॉ हरीसिंह गौर स्मृति द्वार इसलिये निर्मित किया गया है क्योंकि शुरुआत में सागर विश्वविद्यालय मकरोनिया स्थित आर्मी की बैरक में लगता था। मकरोनिया में निर्मित इस गौर द्वार का लोकार्पण गणतंत्र दिवस 2018 को किया गया। 
बटालियन गेट, मकरोनिया, सागर में गौर द्वार का लोकार्पण

इसके बाद गौर साहब ने वर्तमान विश्वविद्यालय परिसर की जगह खरीदी। 15 अगस्त 1948 को सागर विवि के नए परिसर की आधारशिला गौर साहब की मौजूदगी में पथरिया हिल्स पर रखी गई। वर्ष 1956-57 में विश्वविद्यालय वर्तमान परिसर में पूरी तरह से शिफ्ट हो गया।
बटालियन गेट, मकरोनिया, सागर में गौर द्वार का लोकार्पण

बटालियन गेट, मकरोनिया, सागर में गौर द्वार का लोकार्पण


डॉ. हरीसिंह गौर को समर्पित है मेरी यह कविता....

गौर नाम है जिनका

हरीसिंह गौर नाम है जिनका
सबके दिल में रहते हैं
बच्चे बूढ़े गांव शहर सब
उनकी गाथा कहते हैं… बच्चे बूढ़े


रोक न पाई निर्धनता भी
बैरिस्टर बन ही ठहरे
उनका चिंतन उनका दर्शन
उनके भाव बहुत गहरे
ऐसे मानव सारे दुख को
हंसते हंसते सहते हैं ...बच्चे बूढ़े


शिक्षा ज्योति जलाने को ही
अपना सब कुछ दान दिया
इस धरती पर सरस्वती को
तन,मन,धन से मान दिया
उनकी गरिमा की लहरों में
ज्ञानदीप अब बहते हैं.. बच्चे बूढ़े


ऋणी सदा बुंदेली धरती
ऋणी रहेगा युवा जगत
युगों युगों तक गौर भूमि पर
शिक्षा का होगा स्वागत
ये है गौर प्रकाश कि जिसमें
अंधियारे सब ढहते हैं.. बच्चे बूढ़े
  - डॉ. वर्षा सिंह


Wednesday, November 21, 2018

सागर : साहित्य एवं चिंतन 34 - वरिष्ठ साहित्यकार लक्ष्मी नारायण चौरसिया - डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh
स्थानीय दैनिक समाचार पत्र "आचरण" में प्रकाशित मेरा कॉलम "सागर साहित्य एवं चिंतन " । जिसमें इस बार मैंने लिखा है मेरे शहर सागर के वरिष्ठ साहित्यकार लक्ष्मी नारायण चौरसिया पर आलेख। पढ़िए और जानिए मेरे शहर के साहित्यिक परिवेश को ....

       सागर : साहित्य एवं चिंतन

 वरिष्ठ साहित्यकार लक्ष्मी नारायण चौरसिया

                - डॉ. वर्षा सिंह
                     
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परिचय :- लक्ष्मी नारायण चौरसिया
जन्म :- तुलसी जयन्ती, 1936
जन्म स्थान :- सागर
शिक्षा :- एम.ए. हिंदी, अंग्रेजी एवं राजनीति विज्ञान, एम.एड.
लेखन विधा :- गद्य एवं पद्य
प्रकाशन :- पत्र-पत्रिकाओं में ।
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          सागर नगर के वरिष्ठ साहित्यकार लक्ष्मी नारायण चौरसिया 82 वर्ष की आयु में भी हिन्दी साहित्य के पठन-पाठन और लेखन के प्रति समर्पित हैं। पिता श्री काशी प्रसाद चौरसिया से मिले संस्कारों ने उनके भीतर शिक्षा के प्रति ऐसी लौ जलाई कि उन्होंने सागर विश्वविद्यालय से हिन्दी में स्नात्कोत्तर उपाधि प्राप्त करने के साथ ही अंग्रेजी और राजनीति विज्ञान में स्नात्कोत्तर उपाधि प्राप्त की। शिक्षा के प्रति रुझान के कारण उन्होंने शिक्षक बनना तय किया और वर्ष 1959 से 1996 तक जनता स्कूल, सागर एवं पद्माकर उच्चतर माध्यमिक शाला, सागर में अध्यापक रहे। डॉ. सुरेश आचार्य जैसे ख्यातिलब्ध साहित्यकार उनके शिष्य रहे, जो सागर विश्वविद्यालय में हिन्दी विभागाध्यक्ष रहे और आज जो अनेक संस्थाओं के अघ्यक्ष एवं संरक्षक होने के साथ ही व्यंग्य विधा के क्षेत्र में सागर का नाम रोशन कर रहे हैं।
       लक्ष्मी नारायण चौरसिया गद्य एवं पद्य दोनों विधाओं में लेखन कार्य करते हैं। सन् 1953 में दैनिक जागरण के भोपाल से प्रकाशित होने वाले साहित्यिक परिशिष्ट में एक कविता के रूप में उनकी प्रथम रचना का प्रकाशन हुआ। इसके बाद रचनाओं के लेखन और प्रकाशन का क्रम आरम्भ हो गया। उनकी रचनाएं साप्ताहिक हिंदुस्तान, दिल्ली, नवभारत टाइम्स मुंबई, भारती मुंबई, माधुरी मुंबई, नई धारा पटना, आरसी हैदराबाद, दक्षिण भारतीय हैदराबाद, माध्यम इलाहाबाद, युवक आगरा, वातायन बीकानेर, जागृति चंडीगढ, उषा इंदौर, नर्मदा ग्वालियर, हरित क्रांति पटना, रसरंग भास्कर भोपाल, राजस्थान पत्रिका जयपुर, अहा जिंदगी जयपुर, नवीन दुनिया जबलपुर आदि में प्रकाशित होती रही हैं। आकाशवाणी के भोपाल, इंदौर, सागर एवं छतरपुर केन्द्रों से रचनाओं का प्रसारण होता रहा है। लक्ष्मी नारायण चौरसिया ने सागर के कवियों की रचनाओं पर केन्द्रित विभिन्न संग्रहों का सम्पादन किया जिसमें तूफानों के बोल, सागर के कवियों की राष्ट्रीय रचनाएं, सागर के मोती, सागर के कवियों के मुक्तक, नव जातक। इसके अतिरिक्त सागर विश्वविद्यालय नगर छात्रसंघ की पत्रिका संकेत, सागर से प्रकाशित कविता पत्रिका प्रवेशक का भी सम्पादन किया।
Sagar Sahitya awm Chintan - Dr. Varsha Singh
     
        साहित्यकर्म एवं विशेष कर्तव्य निर्वहन के लिए लक्ष्मी नारायण चौरसिया को विभिन्न सम्मानों से सम्मानित किया गया। जिनमें प्रमुख हैं- सागर विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग द्वारा आयोजित गद्य शैलियों का विकास की राष्ट्रीय संगोष्ठी में सम्मानित, जनगणना कार्य 1981 में श्रेष्ठ सुपरवाइजर के रूप में सम्मान हेतु राष्ट्रपति पदक द्वारा सम्मानित, माध्यमिक शिक्षा मंडल मध्यप्रदेश भोपाल में कुछ समय तक शासन द्वारा नामजद सदस्य कलमकार परिषद सागर  द्वारा सम्मानित, सरस्वती वाचनालय एवं विद्यापुरम साहित्य परिषद द्वारा 2008 में पद्माकर सम्मान द्वारा सम्मानित, संस्कृत विश्वविद्यालय धर्म श्री एवं सरस्वती वाचनालय के संयुक्त आयोजन में गुरु पूर्णिमा महोत्सव 2018 में महर्षि वेद व्यास सम्मान से सम्मानित, हिंदी साहित्य सम्मेलन सागर इकाई द्वारा दाजी सम्मान से सम्मानित, सद्भावना राखी द्वारा शिक्षक सम्मान से सम्मानित, पंडित शंकर दत्त चतुर्वेदी शिक्षक सम्मान से सम्मानित, पंडित ज्वाला प्रसाद जोशी फाउंडेशन द्वारा साहित्य अलंकरण से सम्मानित, रंग प्रयोग द्वारा साहित्यकार सम्मान से सम्मानित।
     साहित्यकार लक्ष्मी नारायण चौरसिया हिंदी उर्दू साहित्यकार मंच के जनवरी 2006 से मार्च 2014 तक अध्यक्ष पद पर रहे। उन्होंने कविता, मुक्तक, हायकू, गीत, दोहा, कहानी, लघुकथा तथा ललित निबन्ध भी लिखे हैं। उनका एक लघु शोध प्रबन्ध ‘‘सूर काव्य में श्रृंगार‘‘ प्रकाशनार्थ है। साहित्यकार चौरसिया की कविताओं में गहन सामाजिक सरोकार दिखाई देता है। जिसका उदाहरण उनके हायकू में देखा जा सकता है।

1-जागरण है
साफ सुथरा यदि
आचरण है
2- शहंशाह है
जिन के खजाने में
आंसू आह है

लक्ष्मी नारायण चौरसिया ने अपने दोहों में ग्रामीण अंचल की कठिनाइयों, किसानों की परेशानियों का वर्णन करते हुए जिस ढंग से कथाकार प्रेमचंद के गांव का बिम्ब सामने रखा है वह साबित करता है कि किसानों की जो दशा प्रेमचंद के समय में थी वह आज भी है-
धूप ही धूप हर जगह, मुश्किल मिलना छांव।
जस के तस अभी दिखें, प्रेमचंद के गांव।।

फिरती खाला दरबदर, कौन सुने फरियाद।
न्याय मिलना कठिन हुआ, निर्धन है नाशाद ।।

धनिया खड़ी बिसूरती, होरी है बीमार ।
पूरा जीवन बन गया दुखों का त्योहार।।

त्योहार आ चले गए, लगे नहीं त्योहार।
खेतों में फसलें नहीं, महंगाई की मार ।।

बैल बिके, जेवर बिके, बिके खेत-खलिहान।
खातों में बनते गए, अंगूठे के निशान ।।

दरकी छाती खेत की, सूखे की है साल।
फाईल में बंधते रहे, पापी पेट सवाल।।

एक सच्चा कवि  समाज का पथप्रदर्शक होता है। लक्ष्मी नारायण चौरसिया ने समाज को राह दिखाते हुए युवाओं से विशेष आग्रह किया है। उनका ये मुक्तक इसका उदाहरण है-
अपनी तक़दीर पर भरोसा मत करना।
झूठी तक़रीर पर भरोसा मत करना ।
बेशक़ भरोसा करना अपने हाथों पर,
हाथ की लकीरों पर भरोसा मत करना।

इंसान ने तंग घेराबंदी तोड़ी है ।
संबंधों की डोरी अंतरिक्ष से जोड़ी है ।
इंसान के हाथों का इक इशारा है ये,
पर्वतों के सिर झुके नदियों ने धारा मोड़ी है।

बायें से :- डॉ. सुरेश आचार्य, लक्ष्मी नारायण चौरसिया एवं एम.डी. त्रिपाठी
वर्तमान राजनीति की दुरावस्था और बढ़ती हुई मंहगाई से कवि का मन खिन्न हो उठता है और वह आज की स्थिति का आंकलन किए बिना नहीं रह पाता है। कुछ ऐसी ही मनोदशा से गुजरते हुए कवि लक्ष्मी नारायण चौरसिया ने एक बहुत ही सुन्दर कविता लिखी है , जिसका शीर्षक है- एक प्रश्न : दो प्रश्न। यह कविता देखें-

अ अनार का। आ आम का ।
सीखने वाली मेरी छोटी बिटिया
गाहेबगाहे मुझसे पूछती है - पापा, अनार और आम कब लाएंगे?
मेरा उत्तर सदा अपरिवर्तित -
बिटिया, जब ये सस्ते हो जाएंगे, तब लाएंगे
वह निरंतर पूछे जा रही है - आप कब लाएंगे ? यह सस्ते कब हो जाएंगे ?
और मैं निरंतर उत्तर की खोज में हूं ।
रोज अखबार के पन्नों में खोज रहा हूं -पेंशन में वृद्धि हुई कि नहीं
अनार और आम के उत्पादन में वृद्धि हुई कि नहीं
यह भी देख रहा हूं विदेशों से इनका आयात हुआ कि नहीं
विधानसभाओं और संसद में महंगाई के मसले पर बहसें तो हुईं
लेकिन बहस के बाद कुछ हुआ कि नहीं  कल ही बिटिया ने नया प्रश्न पूछा है -
प्रश्न बड़ा भोला और बड़ा अनूठा है
अ अनार की जगह किसी सस्ती वस्तु का क्यों नहीं होता ?
आ आम की जगह किसी सस्ती वस्तु का क्यों नहीं होता
और मैं निरंतर इस नए प्रश्न के उत्तर की खोज में हूं
अन्य सस्ती वस्तु कौन सी हो सकती है जो मेरी बिटिया की हो सकती है।

   
डॉ. वर्षा सिंह, डॉ. (सुश्री) शरद सिंह एवं अन्य साहित्यकारों के साथ नाटकीय मुद्रा में लक्ष्मी नारायण चौरसिया
     साहित्यकार लक्ष्मी नारायण चौरसिया अपने लम्बे जीवनानुभव के आधार पर युवाओं से यह आग्रह करते दिखाई देते हैं कि कर्म से ही जीवन का निर्माण हो सकता है, जो व्यक्ति कर्महीन है, वह जीवन के मर्म को समझ ही नहीं सकता है। इसीलिए वे एक जिम्मेदार वरिष्ठजन का दायित्व निभाते हुए एक वरिष्ठ साहित्यकार की हैसियत से युवाओं से कहते है कि -

बैठे-बैठे मत जीवन की शाम करो
कर्म का नाम है जीवन काम करो
फिर नहीं आने वाला है बीता क्षण
जीवन के हर क्षण को प्रणाम करो

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( दैनिक, आचरण  दि. 21.11.2018)
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Monday, November 19, 2018

बुंदेलखंड में देवोत्थानी एकादशी - डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh

      देवोत्थानी एकादशी यानी देव उठनी ग्यारस की हार्दिक शुभकामनाएं !
आज इस अवसर पर तुलसी माता और श्री शालिग्राम भगवान स्वरूप देव विष्णु का हमने पूजन किया।
Dr (Miss) Sharad Singh

Dr. Varsha Singh

देवउठनी एकादशी से देव भगवान विष्णु  इस दिव्य देव प्रबोधन मंत्र के उच्चारण से  जाग्रत होते हैं-

ब्रह्मेन्द्ररुदाग्नि कुबेर सूर्यसोमादिभिर्वन्दित वंदनीय,
बुध्यस्य देवेश जगन्निवास मंत्र प्रभावेण सुखेन देव।
उदितष्ठोतिष्ठ गोविन्द त्यज निद्रां जगत्पते,
त्वयि सुप्ते जगन्नाथ जगत्सुप्तं भवेदिदम्‌।
उत्थिते चेष्टते सर्वमुत्तिष्ठोत्तिष्ठ माधव॥

देवउठनी ग्यारस या देव प्रबोधिनी एकादशी का पर्व दीपावली के बाद कार्तिक मास की एकादशी तिथि को यह पर्व मनाया जाता है। घरों व मंदिरों में देवताओं का भव्य पूजन व धार्मिक आयोजन किए जाते हैं। 11 दीपक जलाकर गन्ने का मंडप बनाकर सिंह्नासन में विराजमान भगवान विष्णु की पूजा की जाती है। इसीलिये इसे बुंदेलखंड में गन्ना ग्यारस भी कहते हैं।
 मान्यता है कि आषाढ़ मास की देवशयनी एकादशी के दिन से देवता शयन में चले जाते हैं और इसके चार माह बाद कार्तिक अमावस्या के बाद देवउठनी यानी देवउत्थानी एकादशी के दिन देव जाग्रत होते हैं।
Dr. (Miss) Sharad Singh
इस पर्व को इसीलिए देव दीपावली भी कहा जाता है। गो-लोक में दीपावली का पर्व कार्तिक अमावस्या के दिन मनाया जाता है, जबकि देवलोक में देवउठनी एकादशी के दिन ही दीपावली का पर्व मनाए जाने की मान्यता हिंदू धर्मग्रंथों में है। इसी दिन भगवान सालिगराम और तुलसी का विवाह भी हुआ था, इसलिए इस दिन तुलसी विवाह पर्व भी मनाया जाता है और इसे देवप्रबोधिनी एकादशी कहते हैं।

बुंदेलखंड में उत्तरप्रदेश के महोबा, झाँसी, बांदा, ललितपुर, जालौन, हमीरपुर और चित्रकूट जिले शामिल हैं, जबकि मध्यप्रदेश के छतरपुर, सागर, पन्ना, टीकमगढ़, दमोह, दतिया, आदि जिले शामिल हैं।
 देवउत्थानी एकादशी के पूजन के दौरान पुरानी परंपरा के अनुसार कलम, पुस्तक, व्यवसाय से जुड़ी सामग्री का चित्र, शंख-झालर बजाकर और भजन कीर्तन करके भगवान को का पूजन किया जाता है। मंगलकलश के चारों ओर घी के दीपक जलाए जाते हैं, फिर भगवान को पंचामृत स्नान, वस्त्र, जनेऊ, धूप, दीप, नैवेद्य, बेर, चना भाजी, मीठा ऋतु फल आदि अर्पित किया जाता है। इसके बाद भगवान के मंडप की परिक्रमा में घरों व मुहल्लों के सभी सदस्य एक दूसरे के घर पूजन में शंख, झालर, घंटा के साथ शामिल होते हैं। इससे सुख, समृद्धि, शांति, सुबुद्धि की प्राप्ति होती है।
बुंदेेलखंड में देवउठनी एकादशी का पूजन घरों व मंदिरों में विशेषकर गन्ने का मंडप बनाकर किए जाने की मान्यता है। साथ ही भगवान को ऋतु फल सिंघाड़ा, बेर, अमरुद, शरीफा, सेव, शकरकंद आदि फलों को अर्पित कर भोग लगाया जाता है।


तुलसी विवाहोत्सव भी इसी दिन मनाया जाता है।
श्रीमद् भगवद-पुराण के अनुसार श्री हरि विष्णु ही सृष्टि के आदि कर्ता हैं । इन्हीं की प्रेरणा से ब्रह्मा जी ने सृष्टि की रचना की और शिव जी संहार कर रहे हैं । स्वयं भगवान विष्ण जगतपिता हैं और  समष्टिसृष्टि  का पालन कर रहे हैं । विष्णु की प्रसन्नता के लिए ही एकादशी का व्रत किया जाता है । कार्तिक शुक्ल एकादशी  इनमें सर्व श्रेष्ठ है ।
डॉ. (सुश्री) शरद सिंह

देव उत्थान का तात्पर्य है देव का उठना या जागना. पराणिक मान्यताओं के अनुसार श्री विष्णु जो जगत के कल्याण हेतु विभिन्न रूप धारण करते हैं और दुराचारियों एवं धर्म के शत्रुओं का अंत करते हैं, शंखचूर नामक महा-असुर का अंत कर उसे यमपुरी भेज दिया. युद्ध करते हुए भगवान स्वयं काफी थक गये तो चार मास के लिए योगनिद्रा में चले गये. जिस दिन भगवान योग निद्रा में शयन के लिए गये उस दिन आषाढ़ शुक्ल एकादशी की तिथि थी उस दिन से लेकर कार्तिक शुक्ल एकादशी तक भगवान निद्रा में रहते हैं अत: मांगलिक कार्य इन चार मासों में नहीं होता है. कार्तिक शुक्ल एकादशी के दिन जब भगवान निद्रा से जागते हैं तो शुभ दिनों की शुरूआत होती है, अत: इसे देव उत्थान एकादशी कहते है I देव उठनी एकादशी को प्रबोधिनी एकादशी और देवोत्थानी एकादशी के नाम से भी जाना जाता है।
देवोत्थानी एकादशी के दिन फलहार और निर्जल व्रत दोनों व्रत  किया जाता है। इस दिन स्नान करके भगवान विष्णु की पूजा करनी चाहिए और भगवान विष्णु के विभिन्न अवतारों एवं उनकी महिमा का गुणगान करना चाहिए. इस दिन संध्या काल में शालिग्राम रूप में भगवान की पूजा करनी चाहिए. जब भगवान की पूजा हो जाए तब चरणामृत ग्रहण करने के बाद फलाहार करना चाहिए. व्रत करने वालों को द्वादशी के दिन सुबह ब्रह्मण को भोजन करवा कर जनेऊ, सुपारी एवं दक्षिण देकर विदा करना चाहिए फिर अन्न जल ग्रहण करना चाहिए. इस व्रत का पारण तुलसी के पत्ते से करने का विधान शास्त्रों में बताया गया है।
गन्ना

प्रबोधिनी एकादशी अथवा देव उठनी एकादशी व्रत की कथा
 ॐ नमो वासुदेवाय नमः
    ऊँ नमो नारायणः             
एक बार नारदमुनि ने ब्रह्माजी से प्रश्न किया कि प्रबोधिनी एकादशी अथवा देव उठनी एकादशी के बारे में विस्तार से बतलाये ।
ब्रह्माजी बोले- हे मुनिश्रेष्ठ! अब पापों को हरने वाली पुण्य और मुक्ति देने वाली एकादशी का माहात्म्य सुनिए। पृथ्वी पर गंगा की महत्ता और समुद्रों तथा तीर्थों का प्रभाव तभी तक है जब तक कि कार्तिक की देव प्रबोधिनी एकादशी तिथि नहीं आती। मनुष्य को जो फल एक हजार अश्वमेध और एक सौ राजसूय यज्ञों से मिलता है वही प्रबोधिनी एकादशी से मिलता है। नारदजी कहने लगे कि हे पिता! एक समय भोजन करने, रात्रि को भोजन करने तथा सारे दिन उपवास करने से क्या फल मिलता है ? बताने कीकृपा करें
ब्रह्माजी बोले- हे पुत्र। एक बार भोजन करने से एक जन्म और रात्रि को भोजन करने से दो जन्म तथा पूरा दिन उपवास करने से सात जन्मों के पाप नाश होते हैं। जो वस्तु त्रिलोकी में न मिल सके और दिखे भी नहीं वह हरि प्रबोधिनी एकादशी से प्राप्त हो सकती है। मेरु और मंदराचल के समान भारी पाप भी नष्ट हो जाते हैं तथा अनेक जन्म में किए हुए पाप समूह क्षणभर में वैसे भस्म हो जाते हैं।
जैसे रुई के बड़े ढेर को अग्नि की छोटी-सी चिंगारी पलभर में भस्म कर देती है। विधिपूर्वक थोड़ा-सा पुण्य कर्म बहुत फल देता है परंतु विधि ‍रहित अधिक किया जाए तो भी उसका फल कुछ नहीं मिलता। संध्या न करने वाले, नास्तिक, वेद निंदक, धर्मशास्त्र को दूषित करने वाले, पापकर्मों में सदैव रत रहने वाले, धोखा देने वाले ब्राह्मण और शूद्र, परस्त्री गमन करने वाले तथा ब्राह्मणी से भोग करने वाले ये सब चांडाल के समान हैं। जो विधवा अथवा सधवा ब्राह्मणी से भोग करते हैं, वे अपने कुल को नष्ट कर देते हैं।
डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
पर स्त्री गामी के संतान नहीं होती और उसके पूर्व जन्म के संचित सब अच्छे कर्म नष्ट हो जाते हैं। जो गुरु और ब्राह्मणों से अहंकारयुक्त बात करता है वह भी धन और संतान से हीन होता है। भ्रष्टाचार करने वाला, चांडाली से भोग करने वाला, दुष्ट की सेवा करने वाला और जो नीच मनुष्य की सेवा करते हैं या संगति करते हैं, ये सब पाप हरि प्रबोधिनी एकादशी के व्रत से नष्ट हो जाते हैं।
जो मनुष्य इस एकादशी के व्रत को करने का संकल्प मात्र करते हैं उनके सौ जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं। जो इस दिन रात्रि जागरण करते हैं उनकी आने वाली दस हजार पीढि़याँ स्वर्ग को जाती हैं। नरक के दु:खों से छूटकर प्रसन्नता के साथ सुसज्जित होकर वे विष्णुलोक को जाते हैं। ब्रह्महत्यादि महान पाप भी इस व्रत के प्रभाव से नष्ट हो जाते हैं। जो फल समस्त तीर्थों में स्नान करने, गौ, स्वर्ण और भूमि का दान करने से होता है, वही फल इस एकादशी की रात्रि को जागरण से मिलता है।
हे मुनिशार्दूल। इस संसार में उसी मनुष्य का जीवन सफल है जिसने हरि प्रबोधिनी एकादशी का व्रत किया है। वही ज्ञानी तपस्वी और जितेंद्रीय है तथा उसी को भोग एवं मोक्ष मिलता है जिसने इस एकादशी का व्रत किया है। वह विष्णु को अत्यंत प्रिय, मोक्ष के द्वार को बताने वाली और उसके तत्व का ज्ञान देने वाली है। मन, कर्म, वचन तीनों प्रकार के पाप इस रात्रि को जागरण से नष्ट हो जाते हैं।
इस दिन जो मनुष्य भगवान की प्रसन्नता के लिए स्नान, दान, तप और यज्ञादि करते हैं, वे अक्षय पुण्य को प्राप्त होते हैं। प्रबोधिनी एकादशी के दिन व्रत करने से मनुष्य के बाल, यौवन और वृद्धावस्था में किए समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं। इस दिन रात्रि जागरण का फल चंद्र, सूर्य ग्रहण के समय स्नान करने से हजार गुना अधिक होता है। अन्य कोई पुण्य इसके आगे व्यर्थ हैं। जो मनुष्य इस व्रत को नहीं करते उनके अन्य पुण्य भी व्यर्थ ही हैं।
अत: हे नारद! तुम्हें भी विधिपूर्वक इस व्रत को करना चाहिए। जो कार्तिक मास में धर्मपारायण होकर अन्न नहीं खाते उन्हें चांद्रायण व्रत का फल प्राप्त होता है। इस मास में भगवान दानादि से जितने प्रसन्न नहीं होते जितने शास्त्रों में लिखी कथाओं के सुनने से होते हैं। कार्तिक मास में जो भगवान विष्णु की कथा का एक या आधा श्लोक भी पढ़ते, सुनने या सुनाते हैं उनको भी एक सौ गायों के दान के बराबर फल मिलता है। अत: अन्य सब कर्मों को छोड़कर कार्तिक मास में मेरे सन्मुख बैठकर कथा पढ़नी या सुननी चाहिए।
जो कल्याण के लिए इस मास में हरि कथा कहते हैं वे सारे कुटुम्ब का क्षण मात्र में उद्धार कर देते हैं। शास्त्रों की कथा कहने-सुनने से दस हजार यज्ञों का फल मिलता है। जो नियमपूर्वक हरिकथा सुनते हैं वे एक हजार गोदान का फल पाते हैं। विष्णु के जागने के समय जो भगवान की कथा सुनते हैं वे सातों द्वीपों समेत पृथ्वी के दान करने का फल पाते हैं। कथा सुनकर वाचक को जो मनुष्य सामर्थ्य के अनुसार ‍दक्षिणा देते हैं उनको सनातन लोक मिलता है।
पौराणिक ग्रंथों के अनुसार देव प्रबोधिनी एकादशी की व्रत कथा में कहा गया है कि
ब्रह्माजी की यह बात सुनकर नारदजी ने कहा कि भगवन! इस एकाद‍शी के व्रत की ‍विधि हमसे कहिए और बताइए कि कैसा व्रत करना चाहिए। इस ब्रह्माजी ने कहा कि ब्रह्ममुहूर्त में जब दो घड़ी रात्रि रह जाए तब उठकर शौचादि से निवृत्त होकर दंत-धावन आदि कर नदी, तालाब, कुआँ, बावड़ी या घर में ही जैसा संभव हो स्नानादि करें, फिर भगवान की पूजा करके कथा सुनें। फिर व्रत का नियम ग्रहण करना चाहिए।
उस समय भगवान से प्रार्थना करें कि हे भगवन! आज मैं निराहार रहकर व्रत करूँगा। आप मेरी रक्षा कीजिए। दूसरे दिन द्वादशी को भोजन करूँगा। तत्पश्चात भक्तिभाव से व्रत करें तथा रात्रि को भगवान के आगे नृत्य, गीत(भजन) आदि करना चाहिए। कृपणता त्याग कर बहुत से फूलों, फल, अगरबत्ती, धूप आदि से भगवान का पूजन करना चाहिए। शंखजल से भगवान को अर्घ्य दें।
इसका समस्त तीर्थों के भ्रमण से करोड़ गुना फल होता है। जो मनुष्य अगस्त्य के पुष्प से भगवान का पूजन करते हैं उनके आगे इंद्र भी हाथ जोड़ता है। तपस्या करके संतुष्ट होने पर हरि भगवान जो नहीं करते, वह अगस्त्य के पुष्पों से भगवान को अलंकृत करने से करते हैं। जो कार्तिक मास में बिल्वपत्र से भगवान की पूजा करते हैं वे ‍मुक्ति को प्राप्त होते हैं।
कार्तिक मास में जो तुलसी से भगवान का पूजन करते हैं, उनके दस हजार जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं। तुलसी दर्शन करने, स्पर्श करने, कथा कहने, नमस्कार करने, स्तुति करने, तुलसी रोपण, जल से सींचने और प्रतिदिन पूजन सेवा आदि करने से हजार करोड़ युगपर्यंत विष्णु लोक में निवास करते हैं। जो तुलसी का पौधा लगाते हैं, उनके कुटुम्ब से उत्पन्न होने वाले प्रलयकाल तक विष्णुलोक में निवास करते हैं।
यह मान्यता है कि रोपी तुलसी जितनी जड़ों का विस्तार करती है उतने ही हजार युग पर्यंत तुलसी रोपण करने वाले सुकृत का विस्तार होता है। जिस मनुष्य की रोपणी की हुई तुलसी जितनी शाखा, प्रशाखा, बीज और फल पृथ्वी में बढ़ते हैं, उसके उतने ही कुल जो बीत गए हैं और होंगे दो हजार कल्प तक विष्णुलोक में निवास करते हैं। जो कदम्ब के पुष्पों से श्रीहरि का पूजन करते हैं वे भी कभी यमराज को नहीं देखते। जो गुलाब के पुष्पों से भगवान का पूजन करते हैं उन्हें मुक्ति मिलती है।
जो वकुल और अशोक के फूलों से भगवान का पूजन करते हैं वे सूर्य-चंद्रमा रहने तक किसी प्रकार का शोक नहीं पाते। जो मनुष्य सफेद या लाल कनेर के फूलों से भगवान का पूजन करते हैं उन पर भगवान अत्यंत प्रसन्न होते हैं और जो भगवान पर आम की मंजरी चढ़ाते हैं, वे करोड़ों गायों के दान का फल पाते हैं। जो दूब के अंकुरों से भगवान की पूजा करते हैं वे सौ गुनापूजा का फलग्रहण करते हैं।
जो शमी के पत्र से भगवान की पूजा करते हैं, उनको महाघोर यमराज के मार्ग का भय नहीं रहता। जो भगवान को चंपा के फूलों से पूजते हैं वे फिर संसार में नहीं आते। केतकी के पुष्प चढ़ाने से करोड़ों जन्म के पाप नष्ट हो जाते हैं। पीले रक्तवर्ण के कमल के पुष्पों से भगवान का पूजन करने वाले को श्वेत द्वीप में स्थान मिलता है।
इस प्रकार रात्रि को भगवान का पूजन कर प्रात:काल होने पर नदी पर जाएँ और वहाँ स्नान, जप तथा प्रात:काल के कर्म करके घर पर आकर विधिपूर्वक केशव का पूजन करें। व्रत की समाप्ति पर विद्वान ब्राह्मणों को भोजन कराएँ और दक्षिणा देकर क्षमायाचना करें। इसके पश्चात भोजन, गौ और दक्षिणा देक गुरु का पूजन कें, ब्राह्मणों को दक्षिणा दें और जो चीज व्रत के आरंभ में छोड़ने का नियम किया था, वह ब्राह्मणों को दें। रात्रि में भोजन करने वाला मनुष्य ब्राह्मणों को भोजन कराए तथा स्वर्ण सहित बैलों का दान करे।
जो मनुष्य मांसाहारी नहीं है वह गौदान करे। आँवले से स्नान करने वाले मनुष्य को दही और शहद का दान करना चाहिए। जो फलों को त्यागे वह फलदान करे। तेल छोड़ने से घृत और घृत छोड़ने से दूध, अन्न छोड़ने से चावल का दान किया जाता है।
इसी प्रकार जो मनुष्य भूमि शयन का व्रत लेते हैं उन्हें शैयादान करना चाहिए, साथ ही तुलसी सब सामग्री सहित देना चाहिए। पत्ते पर भोजन करने वाले को सोने का पत्ता घृत सहित देना चाहिए। मौन व्रत धारण करने वाले को ब्राह्मण और ब्राह्मणी को घृत तथा मिठाई का भोजन कराना चाहिए। बाल रखने वाले को दर्पण, जूता छोड़ने वाले को एक जोड़ जूता, लवण त्यागने वाले को शर्करा, मंदिर में दीपक जलाने वाले को तथा नियम लेने वाले को व्रत की समाप्ति पर ताम्र अथवा स्वर्ण के पत्र पर घृत और बत्ती रखकर विष्णुभक्त ब्राह्मण को दान देना चाहिए।
एकांत व्रत में आठ कलश वस्त्र और स्वर्ण से अलंकृत करके दान करना चाहिए। यदि यह भी न हो सके तो इनके अभाव में ब्राह्मणों का सत्कार सब व्रतों को सिद्ध करने वाला कहा गया है। इस प्रकार ब्राह्मण को प्रणाम करके विदा करें। इसके पश्चात स्वयं भी भोजन करें। जिन वस्तुओं को चातुर्मास में छोड़ा हो, उन वस्तुअओं की समाप्ति करें अर्थात ग्रहण करने लग जाएँ।
पुराण में उल्लेख है कि हे राजन! जो बुद्धिमान इस प्रकार चातुर्मास व्रत निर्विघ्न समाप्त करते हैं, वे कृतकृत्य हो जाते हैं और फिर उनका जन्म नहीं होता। यदि व्रत भ्रष्ट हो जाए तो व्रत करने वाला कोढ़ी या अंधा हो जाता है। भगवान कृष्ण कहते हैं कि राजन जो तुमने पूछा था वह सब मैंने बतलाया। इस कथा को पढ़ने और सुनने से गौदान का फल प्राप्त होता है।
एकादशी के व्रत को समाप्त करने को पारण कहते हैं। एकादशी व्रत के अगले दिन सूर्योदय के बाद पारण किया जाता है। एकादशी व्रत का पारण द्वादशी तिथि समाप्त होने से पहले करना अति आवश्यक है। द्वादशी तिथि के भीतर पारण न करना पाप करने के समान होता है। यदि द्वादशी तिथि सूर्योदय से पहले समाप्त हो गयी हो तो इस दशा में एकादशी व्रत का पारण सूर्योदय के बाद ही होता है।
एकादशी व्रत का पारण हरि वासर के दौरान भी नहीं करना चाहिए। जो श्रद्धालु व्रत कर रहे हैं उन्हें व्रत तोड़ने से पहले हरि वासर समाप्त होने की प्रतिक्षा करनी चाहिए। हरि वासर द्वादशी तिथि की पहली एक चौथाई अवधि है। व्रत तोड़ने के लिए सबसे उपयुक्त समय प्रातःकाल होता है। व्रत करने वाले श्रद्धालुओं को मध्यान के दौरान व्रत तोड़ने से बचना चाहिए। कुछ कारणों की वजह से अगर कोई प्रातःकाल पारण करने में सक्षम नहीं है तो उसे मध्यान के बाद पारण करना चाहिए।
कभी कभी एकादशी व्रत लगातार दो दिनों के लिए हो जाता है। जब एकादशी व्रत दो दिन होता है तब स्मार्त-परिवारजनों को पहले दिन एकादशी व्रत करना चाहिए। दूसरे दिन वाली एकादशी को दूजी एकादशी कहते हैं। सन्यासियों, विधवाओं और मोक्ष प्राप्ति के इच्छुक श्रद्धालुओं को दूजी एकादशी के दिन व्रत करना चाहिए। जब-जब एकादशी व्रत दो दिन होता है तब-तब दूजी एकादशी और वैष्णव एकादशी एक ही दिन होती हैं।.
भगवान विष्णु का प्यार और स्नेह पाने के इच्छुक परम भक्तों को दोनों दिन एकादशी व्रत करने चाहिए।
इस एकादशी के दिन तुलसी विवाहोत्सव भी मनाया जाता है ।
 बुंदेलखंड में भी इसके संदर्भ में यह कथा प्रचलित है कि जलंधर नामक असुर की पत्नी वृंदा पतिव्रता स्त्री थी. इसे आशीर्वाद प्राप्त था कि जब तक उसका पतिव्रत भंग नहीं होगा उसका पति जीवित रहेगा. जलंधर पत्नी के पतिव्रत के प्रभाव से विष्णु से कई वर्षों तक युद्ध करता रहा लेकिन पराजित नहीं हुआ तब भगवान विष्णु जलंधर का वेश धारण कर वृंदा के पास गये जिसे वृंदा पहचान न सकी और उसका पतिव्रत भंग हो गया. वृंदा के पतिव्रत भंग होने पर जलंधर मारा गया. वृंदा को जब सत्य का पता चल गया कि विष्णु ने उनके साथ धोखा किया है तो उन्होंने विष्णु को श्राप दिया कि आप पत्थर का बन जाओ।
वृंदा के श्राप से विष्णु शालिग्राम के रूप में परिवर्तित हो गये। उसी समय भगवान श्री हरि वहां प्रकट हुए और कहा आपका शरीर गंडक नदी के रूप में होगा व केश तुलसी के रूप में पूजा जाएगा. आप सदा मेरे सिर पर शोभायमान रहेंगी व लक्ष्मी की भांति मेरे लिए प्रिय रहेंगी आपको विष्णुप्रिया के नाम से भी जाना जाएगा. उस दिन से मान्यता है कि कार्तिक शुक्ल एकादशी के दिन भगवान शालिग्राम और तुलसी का विवाह करवाने से कन्यादान का फल मिलता है और व्यक्ति को विष्णु भगवान की प्रसन्नता / कृपा प्राप्त होती है. पद्म पुराण में तुलसी विवाह के विषय में काफी विस्तार से बताया गया है.
 कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी को कार्तिक स्नान कर तुलसी तथा शालिग्राम का विवाह करवाया जाता है। यह विवाह करवाना कई जन्मों के पापों को नष्ट करता है। इस दिन व्रत रखने से अनंत पुण्य की प्राप्ति होती है। यह अनुष्ठान कार्तिक शुक्ल पक्ष नवमी से ही प्रारम्भ हो जाता है तथा तुलसी विवाह तक अखण्ड दीप जलता रहता है। शालिग्राम  विष्णु  के प्रतिरूप हैं। तुलसी विष्णु प्रिया हैं। दोनों का विवाह का आध्यात्मिक अर्थ है कि तुलसी जी की पूजा के झबिना शालिग्राम जी की पूजा नहीं की जा सकती है
बुंदेलखंड में यह भी मान्यता है कि
तुलसी विवाह करवाने वाले को कन्यादान के बराबर फल की प्राप्ति होती है।
जिनका दाम्पत्य जीवन बहुत अच्छा नहीं है वह लोग सुखी दाम्पत्य जीवन के लिए तुलसी विवाह करवाएं।
युवा जो प्रेम में हैं लेकिन विवाह नहीं हो पा रहा है उन युवाओं को तुलसी विवाह करवाना चाहिए।
तुलसी विवाह करवाने से कई जन्मों के पाप नष्ट होते हैं।
तुलसी पूजा करवाने से घर में संपन्नता आती है तथा संतान योग्य होती है।
तुलसी जी को लाल चुनरी पहनाकर पूरे गमले को लाल मंडप से सजाया जाता है। शालिग्राम जी की काली मूर्ति ही होनी चाहिए। यदि ऐसा नहीं है तो विष्णु जी की मूर्ति ले सकते हैं। गणेश पूजन के बाद गाजे बाजे के साथ शालिग्राम जी की बारात उठती है। अब लोग नाचते गाते हुए तुलसी जी के सन्निकट जाते हैं। अब भगवान विष्णु जी का आवाहन करते हैं। भगवान विष्णु जी या शालिग्राम जी की प्रतिमा में प्राण प्रतिष्ठा कराते हैं। विष्णु जी को पीला वस्त्र धारण करवाकर दही, घी, शक्कर इनको अर्पित करते हैं। दूध व हल्दी का लेप लगाकर शालिग्राम व तुलसी जी को चढ़ाते हैं। मंडप पूजन होता है।
विवाह के सभी रस्म निभाने के बाद शालिग्राम और तुलसी जी के सात फेरे भी कराए जाते हैं। कन्यादान करने वाले संकल्प लेकर इस महान पुण्य को प्राप्त करते हैं। इस प्रकार यह विवाह करवाने वाले को अक्षय पुण्य की प्राप्ति होती है।

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