Monday, September 30, 2019

सागर : साहित्य एवं चिंतन 65 ... एक संजीदा शायर सिराज़ सागरी - डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh

                  स्थानीय दैनिक समाचार पत्र "आचरण" में प्रकाशित मेरा कॉलम "सागर साहित्य एवं चिंतन " । जिसमें इस बार मैंने लिखा है मेरे शहर सागर के शायर सिराज सागरी पर आलेख। पढ़िए और जानिए मेरे शहर के साहित्यिक परिवेश को ....

सागर : साहित्य एवं चिंतन

       एक संजीदा शायर सिराज सागरी
                                 - डॉ. वर्षा सिंह
                       
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परिचय :
नाम  :- सिराज़उद्दीन अंसारी उर्फ़ सिराज़ सागरी
जन्म :-  25 फरवरी 1965
जन्म स्थान :- सागर, म.प्र,
माता-पिता :- श्रीमती अख़्तर बेगम एवं श्री बाहाजु़द्दीन अंसारी
शिक्षा  :- बी काम.
लेखन विधा :- काव्य
प्रकाशन     :- पत्र-पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन
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                  सागर नगर की शायरी के क्षेत्र में शायर सिराज़ सागरी का नाम महत्वपूर्ण शायरों में गिना जाता है। सिराज़ सागरी को शायरी का हुनर अपने पिता से विरासत में मिला। उनके पिता बाहाजुद्दीन अंसारी एक नामचीन शायर थे और ‘वाहिद सागरी के नाम से शायरी करते थे। सिराज़ सागरी बताते हैं कि उनके पिता के पास अनके मशहूर शायरों का आना-जाना होता रहता था। घर में शायरी का माहौल था। बात सन् 1983 की है जब सिराज़ सागरी बी.ए. में पढ़ रहे थे। एक शाम उनके घर में शायरों का जमावड़ा लगा हुआ था और शायरी की तत्कालीन दशा-दिशा पर चिंतन किया जा रहा था। बात निकली तो वहां मौजूद शायर मायूस सागरी ने चिंतित होते हुए कहा कि-‘‘आजकल जो माहौल है उसे देख कर लगता है कि शायरी के प्रति गंभीरता ख़त्म होती जा रही है। न कोई बहर पर ध्यान देता है और न क़ाफ़िए पर। हमारे बाद कोई हम जैसी शायरी भी करेगा या नहीं, सोच कर चिंता होती है।’’
वहीं कुछ दूर बैठे सिराज़ सागरी ने यह बात सुनी तो उन्होंने उसी समय ठान लिया कि वे शायरी की परम्परा को गंभीरता से निभाते हुए पूरी लगन और समझ के साथ शायरी करेंगे ताकि उनके बुजुर्गों को शायरी की दशा को ले कर चिंतित न होना पड़े। सिराज़ सागरी जिनका मूल नाम सिराज़उद्दीन अंसारी है, उन्होंने ‘सिराज़ सागरी’ का तख़ल्लुस रखते हुए शायरी की दुनिया में पूरी गंभीरता से क़दम रखा। इस घटना के कुछ माह बाद ‘गौर जयंती’ पर डॉ. हरीसिंह गौर के जन्मस्थल बंगला स्कूल में आयोजित कवि सम्मेलन-मुशायरे में उन्होंने अपने वे चार मिसरे पढ़े जो उन्होंने बतौर ‘शायर सिराज़ सागरी’ सबसे पहले लिखे थे। वे मिसरे थे-
सर गौर हरीसिंह ने वो बात बनाई
तारीक़ी ज़ेहालत की है सागर से मिटाई
बनवा के यूनीवर्सिटी सागर से नगर में
इक शम्मा इल्म की है अंधेरे में जलाई

Sagar Sahitya Avam Chintan - Dr. Varsha Singh # Sahitya Sagar

             सिराज़ सागरी मानते हैं कि उनके इस मिसरे में ख़ामियां थीं लेकिन उन्होंने इन्हें कभी सुधारा नहीं और एक यादगार के रूप में यथावत रहने दिया। जिससे उन्हें उनके शायरी के सफ़र की शुरुआत एक कच्ची ज़मीन की तरह हमेशा याददाश्त में बनी रहे।
श्रीमती अख़्तर बेगम और श्री बाहाजुद्दीन अंसारी के पुत्र के रूप में 25 फरवरी 1965 को सागर में जन्मे सिराज़ सागरी ने स्नातक तक शिक्षा पाने के उपरांत अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों को अपना लिया। आज वे ट्रांसपोर्ट के व्यवसाय से जुड़े हुए हैं। उन्हें जहां शायरी का गुण अपने पिता से मिला वहीं सामाजिक एवं धार्मिक संस्कार अपनी मां से प्राप्त हुए। पारिवारिक दायित्वों के चलते उनकी शायरी का सृजन तनिक धीमा अवश्य हुआ किन्तु उससे नाता नहीं टूटा। इस दौरान उन्हें प्रतिष्ठित शायरों से इस्लाह लेने का अवसर मिला। जिनमें आज़र छतरपुरी, निश्तर दमोही और हक़ छतरपुरी को वे अपना उस्ताद शायर मानते हैं। सिराज़ सागरी ग़ज़ल के साथ ही नज़्म, गीत, छंद रचनाएं भी लिखते हैं।  उनके सृजन का दायरा किसी एक भाषा तक सीमित नहीं है, वे उर्दू के साथ ही हिंदी और बुंदेली में भी ग़ज़लें लिखते हैं। वे आकाशवाणी के सागर, छतरपुर केन्द्र तथा दूरदर्शन के भोपाल केन्द्र से काव्यपाठ कर चुके हैं। पत्र पत्रिकाओं में उनकी रचनाओं का प्रकाशन होता रहता है। उन्हें अनेक साहित्यिक संस्थाओं द्वारा सम्मानित किया जा चुका है। शायरी के लिए उन्हें देश के प्रतिष्ठित मंचों पर आमंत्रित किया जाता है।
               ग़ज़ल काव्य की वह विधा है जो एक उन्दबद्ध रचना की भांति अनुशासन मांगती है। रदीफ, काफिया, बहर और वजन गजल के शिल्प को आकार देते हैं। वहीं किसी भी बात को दिल की गहराईयों से कहने की अदायगी गजल की रूह को आकार देती है। सिराज़ सागरी ने गजल के शिल्प ओर कथ्य दोनों को खूबसूरती से सम्हाला है। उनकी ग़ज़लों में प्रेम की कोमल भावना और दुनियावी समस्याओं पर चिंता एक साथ देखी जा सकती है। जैसे यह ग़ज़ल देखें -
तड़पा न कर इस दर्जा, न बैचेन हुआ कर
जब अपनी हथेली पे मेरा नाम लिखा कर
बच्चों के लिए अपने रहे -हक़ पे चला कर
असलाफ़ की अरवाह को तसकीन अता कर
इक मैं कि वफ़ा करके लुटा बैठा हूँ सब कुछ
इक वो है जो कहता है अभी और वफ़ा कर
गुम रहता है दुनियाँ की सदाओं में ब हर वक़्त
फुरसत में कभी अपनी भी आवाज़ सुना कर
कश्ती के सवारों ने उसे ही किया गर्क़ाब
तूफ़ान से कश्ती को जो लाया था बचाकर
रख लाज अताओं की तू अपनी मिरे मौला
दस्तार जिन्हें दी है उन्हें सर भी अता कर
हो जाये “सिराज़“ अम्न का हर आन बसेरा
करता हूँ दुआ दामने दिल अपना बिछाकर

              सिराज़ सागरी की शायरी में जिन्दगी की तहजीब और अहसास की तर्जुमानी में आज के माहौल की विसंगतियां देखी जा सकती हैं। कदम-कदम पर व्याप्त भ्रष्टाचार ज़िन्दगी की कठिनाई को और बढ़ा देता है। इस तथ्य को बड़ी ही खूबसूरती से सिराज़ सागरी ने अपनी इस गजल में बयान किया है -
अद्ल काइल था बेगुनाही का
मसअला था मगर गवाही का
बादशाह पर है बेहिसी तारी
क्या करे हौसला सिपाही का
ताज़ काँटों भरा है फिर तुझको
शौक़ क्यों इतना बादशाही का
है इताअत का क़र्ज़ सर पे मेरे
वज़्न काँधों पे सर बराही का
सोच ये क्या निबाह मुमकिन है
फ़िक़्र का और कम निगाही का
दुश्मनों का ख़ुदा पे है ईमान
आसरा मुझको भी ख़ुदा ही का
बादलों के हिसार से जागा
चाँदनी पर गुमाँ सियाही का
मुझको पहचानते “सिराज़“ हैं लोग
है करम ये बड़ा इलाही का

Shayar Siraj Sagari # Sahitya Varsha

         आज इंसान आत्मकेंंद्रित हो चला है। बाजारवाद की अंधी दौड़ ने परिवारों के बीच दरारें डाल रखी हैं। जहां अपनों की पीड़ा चेतना पर दस्तक न दे पाती हो वहां परायों का दर्द भला कैसे ध्यानाकर्षित कर सकता है। ऐसा प्रतीत होता है जैसे लोगों को अव्यवस्थाओं में जीने की आदत पड़ गई है। माहौल के इस रूखेपन को सिराज़ सागरी पूरी तल्खी के साथ, लेकिन अपने ही अंदाज में कुछ इस तरह कहते हैं-
कुछ भी हो जाये चीखती ही नहीं
ज़िन्दगी जैसे ज़िन्दगी ही नहीं
उस तरफ मुन्तज़र मिरी खुशियाँ
गम की दीवार टूटती ही नहीं
ख़्वाब क्या खाक देखता कोई
रात भर आँख तो लगी ही नहीं
दोस्तों का हुजूम चारों तरफ
दोस्ती मुझको जानती ही नहीं
आदमीयत की बात क्या मानी
हम में जब कोई आदमी ही नहीं
मुझ से आबाद है मगर दुनिया
मेरा अहसान मानती ही नहीं
फिर रही है मुझे उठाये हयात
बोझ सर से उतारती ही नहीं
नस्ले-नौ जल्दबाज़ियों का शिकार
ये तो तहज़ीब जानती ही नहीं
आसुओं ने बयान की है सिराज
दर्द की दास्ताँ लिखी ही नहीं

              सिराज़ सागरी की ग़ज़लें अपने कहन के तरीके से लुत्फअंदोज करती है। उनकी ग़ज़लें दिल और दिमाग पर दस्तक देती हैं। संवेदनाओं और भावनाओं का अहसास शेर-दर-शेर साथ-साथ चलता है। यही एक संजीदा शायर की पहचान भी है। जो सिराज़ सागरी की गजलों में बखूबी उभर कर सामने आती है।
तारीख़ कह रही है-‘थे तुम हम नबा- ऐ-गुल’
पहचानते नहीं हो तुम्हीं क्यूं सदा-ए- गुल
इज़हारे इश्क़ से हो गुरेजां तो ये बताओ
जूड़े में किसके वास्ते तुमने सजाये गुल
खारों से मेरी राह सजाई है उसने आज
मैंने हमेशा राह में जिसकी सजाये गुल
यक बारगी सज़ा-ऐ-चमन खुश गबार है
कौन आ गया चमन में ये क्यों मुस्कराए गुल
आया न नाजुकी में कोई फर्क आन को
पैरों तले दबाए कि सर पे सजाये गुल
यह और बात है कि मैं हँसता रहा “सिराज़“
अपनों ने मेरे साथ हमेशा खिलाये गुल

              यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि सागर नगर की गजलगोई की दुनिया में सिराज़ सागरी वह हीरा है जिन्होंने अपनी मेहनत से अपने हुनर को तराशा है।
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( दैनिक, आचरण  दि. 30.09.2019)
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Wednesday, September 25, 2019

समीक्षा ... जीवन की सच्चाइयों को रेखांकित करता काव्य संग्रह - डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh

      पिछले दिनों सागर नगर के कवि वीरेंद्र प्रधान की लोकार्पित पुस्तक ‘‘कुछ क़दम का फ़ासला’’ पर मेरा समीक्षात्मक आलेख मेरठ से प्रकाशित " दैनिक विजय दर्पण टाइम्स" में दिनांक 24.09.2019 को साहित्य, संस्कृति, कला-दर्पण के अंतर्गत प्रकाशित हुआ है। कृपया आप भी पढ़ें।
हार्दिक आभार दैनिक विजय दर्पण टाइम्स के प्रति 🙏
.... और शुभकामनाएं वीरेंद्र प्रधान जी को 💐

जीवन की सच्चाइयों को रेखांकित करता काव्य संग्रह
                       - डॉ. वर्षा सिंह
                         
        वीरेन्द्र प्रधान का काव्य संग्रह ‘‘कुछ क़दम का फ़ासला’’ भले ही उनका प्रथम काव्य संग्रह है किन्तु उनकी काव्यात्मक-यात्रा दीर्घकालीन है। अपने पारिवारिक दायित्वों तथा आजीविका संबंधी व्यस्तताओं ने उन्हें साहित्य साधना के लिए अपेक्षाकृत कम समय दिया फिर भी वे व्यस्तताओं से समय चुरा कर साहित्य से जुड़े रहे। मुझे स्मरण है कि सन् 2000 में मेरे तीसरे ग़ज़ल संग्रह ‘‘हम जहां पर हैं’’ के विमोचन के अवसर पर वीरेन्द्र प्रधान जी ने उपस्थित हो कर मेरे संग्रह पर अपने अमूल्य विचार व्यक्त किए थे। आज जब भाई वीरेन्द्र प्रधान के प्रथम काव्य संग्रह पर मुझे आलेख वाचन करते हुए ऐसा प्रतीत हो रहा है जैसे दोनों आयोजनों के बीच का कुछ क़दम का फ़ासला मिट गया हो। वस्तुतः यही साहित्य की कालजीविता है। साहित्य देश, समाज, परिवार और दिलों के फ़ासलों को मिटाता है और नई ऊर्जा का संचार करता है।
           ‘‘कुछ क़दम का फ़ासला’’ पुस्तक का यह नाम अपने आप में समग्रता लिए हुए है। दूख और सुख, रात और दिन, विश्वास और अविश्वास, अव्यवस्था और व्यवस्था इन सभी के बीच कुछ क़दम का फ़ासला ही तो होता है। यह फ़ासला तय होते ही सारे दृश्य बदल जाते हैं, जीवन बदल जाता है अर्थात् अतीत, वर्तमान ओर भविष्य बदल जाता है।
संग्रह की पहली कविता है ‘‘मां’’। यह उचित भी है क्योंकि मां आरंभ है उन अनुभूतियों की जो   संतान में संवेदनशीलता का बीजारोपण करती है। मां को बच्चे की प्रथम शिक्षिका होती है। अपनी लोरियों के द्वारा भी मां जहां कल्पनाओं का सुन्दर संसार रचती है, वहीं यथार्थ की कठोरता से भी परिचित कराती रहती है। मां सिर्फ जननी नहीं, परिवार और संस्कारों की रीढ़ होती है। मां का ममत्व हर संतान पर एक ऐसा ऋण होता है जिससे वह कभी भी उऋण नहीं हो सकता। इस भावना को वीरेन्द्र प्रधान ने ‘मां’ शीर्षक अपनी कविता में बड़े ही सुन्दर ढंग से व्यक्त किया है-
मां, तेरा मुझ पर है कर्ज बहुत
अनगिनत जन्म ले कर भी
उसे न चुका पाउंगा मैं
गर्भ से ले कर जन्म तक
और जन्म के बाद अपार कष्ट सह
तूने जो परवरिश की
उसे न भूल पाउंगा मैं
बुझ रही पीढ़ी के प्रति ध्पूर्ण सम्मान के साथ
हो सकता है दे सकूं
अगली  पीढ़ी को
उसका अंश मात्र भी
जो तूने मुझे दिया समय-समय पर
लोरियों की शक्ल में घूंटियों के रूप में
या रहीम, रसखान ओर कबीर की
शिक्षाओं के माध्यम से
भावना यही है कि
गांठ में बांध लूं तेरी हर सीख (पृ.20)
   
         वीरेन्द्र प्रधान की कविताएं कृत्रिम कारीगरी से दूर अपने मौलिक रूप में दिखाई देती हैं। अपनी कविताओं के माध्यम से वे सीधे संवाद करते हैं। उनकी कविताओं में जीवन की कोमलता और विडंबनाएं साझा रूप में अभिव्यक्त होती हैं। कुल इक्यासी कविताओं के गुलदस्ता रूपी काव्य संग्रह ‘‘कुछ क़दम का फ़ासला’’ पर चर्चा का आरम्भ इसी संग्रह की ‘सिद्धांत’ शीर्षक कविता की कुछ पंक्तियों से -
लोगों के अपने-अपने
सिद्धांत हुआ करते हैं।
कुछ मिशन बना देते हैं जीवन को
जख़्मों को मरहम बन जाते हैं
तो कुछ अपनों को ही चोटें दे कर
हमदर्दी में दुखती रगें छुआ करते हैं। (पृ.70) 

        जब जीवन का आकलन घनीभूत रूप ले लेता है तो विचारों का स्वरूप जीवन दर्शन में ढलने लगता है। लोग अपने जीवन को सुखद बनाने के लिए विभिन्न प्रकार का जोड़-घटाना करते रहते हैं, जिसके फलस्वरूप जीवन शुष्क गणितीय समीकरण बन कर रह जाता है। किन्तु कवि वीरेन्द्र प्रधान ने जीवन के गणित में साहित्य को स्थान दे कर जीवन को देखने का एक दार्शनिक दृष्टिकोण अपनाया है। संग्रह की कविताओं में जीवन का पक्ष जैसे स्वयं मुखरित है। हर्ष है इसमें, उल्लास है, वेदना है, पीड़ा है, कहीं स्नेह से भरी-पूरी अनुभूति है, तो कहीं पीड़ा की तीव्रता है। समय और समाज की धड़कनें इन कविताओं में स्पंदित होती हैं। वीरेन्द्र प्रधान अपनी तुकांत एवं अतुकांत कविताओं के माध्यम से अपनी भावनाएं व्यक्त करते रहते हैं। उनकी कविताओं में दार्शनिक बोध स्पष्ट रूप से दिखई देता है। उनकी ‘‘जन्म-जन्मान्तर’’ कविता का एक अंश देखें -
पुण्य और पाप के मध्य
एक विभाजन रेखा
खींचते हुए
पता नहीं कब तक जीना है?
और फिर अंत में सिर्फ़ दो मुट्ठी ख़ाक बन कर
विसर्जित होना है। (पृ.35)
जीवन के सत्य को गंभीरता से स्वीकार करते हुए भी वीरेन्द्र प्रधान के भीतर का कवि पलायनवादी नहीं है। वे अपनी कविताओं में धैर्य और संयम को एक आश्वस्ति के रूप में सामने रखते हैं। जैसा कि उनकी कविता ‘‘छिन्द्रान्वेषी’’ में देखा जा सकता है -
क़द में/ पद में/ प्रतिष्ठा में
अपने से बड़ा
कोई भी व्यक्त्वि देख कर
हीनता का बोध नहीं होता
मगर अपने सापेक्ष
किंचित भी छोटा व्यक्तित्व
देख कर विराट लगता है
अपना व्यक्तित्व
और बौना लगता है
वह व्यक्ति।

पुस्तक समीक्षा - डॉ. वर्षा सिंह @ साहित्य वर्षा

      पुस्तक की सभी कविताएं हृदय से निकली संवेदनाएं प्रतीत होती हैं। वीरेन्द्र प्रधान की कुछ कविताओं में सूफियाना रंग भी दिखता है। उन कविताओं में वे आत्मा को एक समर्पित तत्व के रूप में देखते हैं। ‘मैं तो प्रेम में मस्त’ शीर्षक कविता में कवि के सूफियाना लहजे को देखा जा सकता है-
कान्हा के रंग में रंगी,
है शेष रंग बेकार
अपने अंतर में मैं बसी
मोहे व्यर्थ सभी घर-बार
प्रीत आत्मा में जगी
मुझे भावे न संसार
बनती मैं मीरा कभी
और कभी रसखान
मैं प्रेम के रंग में मस्त हूं
मोहे लागे एक समान -
रस या विष का पान। (पृ.45)
        ‘‘ यत्र नास्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः ’’ अर्थात् जहां नारी का सम्मान होता है वहां देवता का वास होता है। क्योंकि नारी परिवार और समाज को सुंदर आकार प्रदान करती है। अपने अधिकारों के लिए उलाहना दिए बिना परिवार की सेवा में लगी रहती है। नारी को समर्पित अपनी कविता ‘‘नारी’’ में वीरेन्द्र प्रधान ने नारी के गरिमामय महत्व को प्रस्तुत किया है-
नारी के बिना नहीं कल्पना संसार की
राम, कृष्ण, गौतम, यीशू के अवतार की
यही नारी सहती है पुरुषों के चुपचाप सितम
कैसी है रीत, विधि तेरे संसार की।
पुत्री, भगिनी, पत्नी तो जननी किसी की तू
हे नारी, तू तो है संचालक परिवार की।(पृ.89)

       और अंत में इस संग्रह की सबसे महत्वपूर्ण कविता जिसमें जितनी गंभीरता से वर्तमान जीवन की विडम्बनाएं मुखर हुई हैं उतनी ही प्रभावी ढंग से दृश्यात्मकता उभर कर सामने आई है, मानो सब कुछ आंखों के सामने घटित हो रहा हो। कविता का श्ीर्षक है ‘‘गोण्डवाना एक्सप्रेस’’। पंक्तियों की दृश्यात्मकता पर ध्यान दें-
बिला नागा समय पर आने और जानेवाली
सीमित समय रुकने वाली
कभी-कभी छोड़ जाती है मुझे गोण्डवाना एक्सप्रेस
और काम की थकान लिए रुक जाता हूं
प्लेटफार्म पर ही
इंतज़ार करते-करते सो जाते हैं बच्चे
दिन भर काम कर थकी-मांदी
बूढ़ी और बीमार पत्नी राह देखती रह जाती है
उसे तो कल से फिर जूझना है
जीवन के संघर्षों से
और मुझे भी। (पृ.66)

          वीरेन्द्र प्रधान एक ऐसे कवि हैं जो साहित्यिक परिदृश्य में नेपथ्य में रह कर भी अपनी रचनात्मक उपस्थिति का बोध कराते रहे हैं और अब अपने प्रथम काव्य संग्रह के साथ नेपत्थ्य से बाहर आए है। उनका स्वागत है उनकी उस रचनाधर्मिता के साथ जो उनसे जीवन की सच्चाइयों को रेखांकित करने वाली कविताएं सृजित कराती है। पूरा काव्य संग्रह में सरसता, स्वाभाविकता, सजीवता के गुण एक साथ मिलते हैं। कठिन शब्दों से बचा गया है। भाषा में प्रवाह है। वीरेन्द्र प्रधान जी का यह प्रथम काव्य संग्रह रोचक एवं पठनीय है। प्रखर गूंज प्रकाशन, दिल्ली से प्रकाशित यह संग्रह कुल 106 पृष्ठों का है। इसका मूल्य है 275 रुपए। पुस्तक का मुद्रण एवं साज-सज्जा आकर्षक है। उल्लेखनीय है कि उन्होंने अपना यह संग्रह अपने गुरु स्व. त्रिलोचन शास्त्री को समर्पित किया है। 
वीरेन्द्र प्रधान जी को उनकी इस रचनायात्रा के लिए मेरी हार्दिक शुभकामनाएं।
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Tuesday, September 24, 2019

वनमाली सृजनपीठ मध्यप्रदेश की सागर इकाई का प्रथम आयोजन - डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh

      रविवार, दि. 15.09.2019 को सागर में वनमाली सृजनपीठ, भोपाल की सागर इकाई के प्रथम आयोजन में मैं यानी इस ब्लॉग की लेखिका डॉ. वर्षा सिंह भी शामिल हुई थी बतौर श्रोता। इस कार्यक्रम में बहन डॉ. (सुश्री) शरद सिंह ने आ। आमंत्रित अतिथि कथाकार के रूप में अपनी कहानी - "प्रेमी जन की जात न पूछो " - का  पाठ किया। इस कहानी में कथित 'ऑनर' के नाम पर युवाओं की भावनाओं का किस तरह दमन किया जाता है, इसको बखूबी उजागर करने के साथ ही खाप-पंचायत की भूमिका को कठघरे में खड़ा किया गया है। कार्यक्रम की अध्यक्षता डॉ सुरेश आचार्य ने की। ईकाई के संयोजक उमाकांत मिश्र ने स्वागत भाषण दिया।













           दिलचस्प बात यह रही कि इस आयोजन में उपस्थित श्रोताओं को भी पुस्तकें भेंट कर सम्मानित किया गया। ज़ाहिर है इसका उद्देश्य पठन- पाठन की परम्परा और पुस्तक संस्कृति को बढ़ावा देना है।








सागर : साहित्य एवं चिंतन 64.... गजल के प्रति प्रतिबद्ध कवि अरुण दुबे - डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh

                  स्थानीय दैनिक समाचार पत्र "आचरण" में प्रकाशित मेरा कॉलम "सागर साहित्य एवं चिंतन " । जिसमें इस बार मैंने लिखा है मेरे शहर सागर के कवि अरुण दुबे पर आलेख। पढ़िए और जानिए मेरे शहर के साहित्यिक परिवेश को ....

 सागर : साहित्य एवं चिंतन

     गजल के प्रति प्रतिबद्ध कवि अरुण दुबे
                          - डॉ. वर्षा सिंह
                             
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नाम : अरुण दुबे
जन्म : 20 मार्च 1955
जन्म स्थान : ग्राम ढाना, सागर, मध्य प्रदेश
माता-पिता : स्व. श्रीमती नत्थीबाई, स्व. पं. केशव प्रसाद दुबे
शिक्षा  : एमएससी - प्राणिशास्त्र
लेखन विधा : पद्य
प्रकाशित पुस्तक : ‘‘तुम्हारे लिए’’ ग़ज़ल संग्रह
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            काव्य मन की भावनाओं को मुखर करने का सशक्त माध्यम होता है। प्राचीन ग्रंथों में काव्य को एक कला माना गया है। जिस प्रकार प्रत्येक कला सतत साधना की मांग करती है उसी प्रकार काव्य भी कवि से साधना की अपेक्षा रखता है। जो रचनाकार साहित्य की अपनी मनचाही विधा में सतत् प्रयत्नशील रहते हैं तथा रचनाकर्म में संलग्न रहते हैं, वे श्रेष्ठ रचनाओं की सर्जना करते हैं। सर्जना भाषा को जोड़ने और उसे नया रूप देने का भी कार्य करती है जिसका सुन्दर उदाहरण है हिन्दी अथवा खड़ी बोली में लिखी जाने वाली गजल। यूं तो सागर नगर में अनेक गजलकार हैं किन्तु उनमें गजल के प्रति निष्ठा रखने वाले अथवा दूसरे शब्दों में कहा जाए तो गजल को साधने वाले कम ही हैं। गजल के क्षेत्र में सतत् सृजनशील एक नाम लिया जा सकता है - गजलकार अरुण दुबे का।
             20 मार्च 1955 को ग्राम ढाना, सागर में पं. केशव प्रसाद दुबे एवं श्रीमती नत्थीबाई के पुत्र के रूप में जन्में अरुण दुबे को पठन- पाठन एवं अध्यात्म में रुचि अपने माता-पिता से संस्कारों के रूप में मिली। प्राणिशास्त्र में एम.एससी. करने वाले अरुण दुबे का वर्ष 1976-77 में मध्य प्रदेश पुलिस में उप निरीक्षक के पद पर चयन हो गया। उप निरीक्षक के रूप में गुना, भिंड, मुरैना आदि स्थानों में कार्य करते हुए वर्ष 1988 में निरीक्षक के रूप में पदोन्नत होकर धार, दमोह, बालाघाट, छतरपुर, रीवा, विदिशा, सीधी में तैनात रहे। वर्ष 2008 में उप पुलिस अधीक्षक के पद पर पदोन्नत हो कर 2015 में सेवानिवृत्त हुए। वर्तमान में वे सिविल लाइन, सागर में निज निवास में रहते हुए काव्य साधना कर रहे हैं। अनेक साहित्यिक गतिविधियों में भी उनकी उल्लेखनीय उपस्थिति रहती है।
            उनका प्रथम ग़ज़ल संग्रह वर्ष 2013 में प्रकाशित हुआ था जिसका नाम है -‘‘तुम्हारे लिए’’। इस गजल संग्रह का विमोचन विख्यात शायर अखलाक सागरी के कर कमलों से हुआ था। उनका  दूसरा ग़ज़ल संग्रह ‘‘चले आइए’’ शीघ्र ही प्रकाशित होने वाला है। विभिन्न साहित्यिक संस्थाओं द्वारा उन्हें अनेक सम्मानों से सम्मानित किया जा चुका  है।
अरुण दुबे की गजलों में कथ्य और सौंदर्य का मिला-जुला भाव मिलता है। उनकी गजलें गजल की शैलीगत शर्तों को पूरा करती हैं। अच्छी गजल कहने के लिए जो निष्ठा ओर समर्पण विधा के प्रति होना चाहिए वह अरुण दुबे की गजलों को पढ़ कर महसूस किया जा सकता है। वे यथार्थ और कल्पना को अपनी गजलों में संतुलित रूप में प्रस्तुत करते हैं। उनकी स्मानी गजलों में भी यह संतुलन देखा जा सकता है। उदाहरण देखें -
हादसों ने खराब कर डाला
मुझको बिगड़ा नवाब कर डाला
जोश सारा खराब कर डाला
रुख पर अपने नकाब कर डाला
नूर जब अपना भर दिया उसने
दीप को आफताब कर डाला
बुत परस्ती नहीं कभी की थी
प्यार ने यह अजाब कर डाला
आज वो शेर कह दिया तुमने
वज्म को लाजवाब कर डाला
हुस्न पर यों  शबाब आया है
छू के पानी शराब कर डाला
ऐ ‘अरुण’ इश्क क्या हुआ तुझको
हाल अपना खराब कर डाला

Arun Dubey

         सलाह यदि उपदेश की जरह दी जाए तो उसमें शुष्कता का भाव रहता है। किन्तु वही सलाह यदि कोमलता से आगाह करते हुए दी जाए तो वह गहराई तक असर करती है और उसमें सरसता भी मौजूद रहती है। जैसे अरुण दुबे ने अपनी इस गजल में खतरों से आगाह करने के लिए कोमलता से काम लिया है -
पत्थरों का शहर है संभल जाइए
दिल न टूटे बचाकर निकल जाइए
रोज लड़ना झगड़ना बुरी बात है
इनको समझाइए के संभल जाइए
आप शम्मा को इल्जाम देते हैं क्यों
प्यार है तो मोहब्बत में जल जाइए
उंगलियां दूसरों पर उठाते हैं क्यों
पहले सच के प्याले में ढल जाइए
दूसरों की निगाहों पे तोहमत न दें
यूं ना हो आप खुद ही फिसल जाइए
सब्र से काम लेना बड़ी बात है
जोश में आकर यूं  न उबल जाइए
ऐ ‘अरुण’ रूठने की अदा छोड़िए
सामने वह है अब तो बहल जाइए

           समाज का एक बड़ा तबका गरीबी और लाचारी से ग्रस्त है। कोई भी संवेदनशील व्यक्ति इस तबके की पीड़ा को अनदेखा नहीं कर सकता है। गरीबी कई बार मनुष्य को इस हद तक विवश कर देती है कि महिलाओं को अपनी देह बेचने के लिए विवश होना पड़ता है। यह स्थिति सुखद तो कदापि नहीं कही जा सकती है। यही भाव अरुण दुबे की इस गजल में बारीकी से उभर कर आया है -
इन गरीबों का कोई ठिकाना नहीं
इनका कोई कहीं आशियाना नहीं
ये तो खुद अपने दुख से परेशान हैं
देखना इनको कोई सताना नहीं
पेट की आग से यह तो चलते ही हैं
इनके झुलसे दिलों को जलाना नहीं
जान तो पहले ही आपको दे दिए
इससे ज्यादा हमें आजमाना नहीं
जिस जगह जिस्म की बोलियां हो रहीं
भूलकर ऐसी बस्ती में जाना नहीं
शाम बर्फीली है रात शर्मीली है
आज घर से निकल दूर जाना नहीं
उसकी खुशबू से खाली हवा चल रही
आज मौसम ‘अरुण’ यह सुहाना नहीं

Sagar Sahitya Avam Chintan- Dr. Varsha Singh

          कहा जाता है कि व्यक्ति ठोकरें खा कर ही सीखता है। जीवन का अनुभव वह पाठशाला है जो सबक देती है उत्तर सुझाती है और परिणाम भी हाथों में रख देती है, जिससे जिन्दगी को जानने- समझने का सलीका आता है। कुछ यही भाव हैं अरुण दुबे की इस गजल में -
जिंदगी को देखने का नजरिया हमको मिला
गर्दिशों की ठोकरों से फलसफा हमको मिला
देर से मिलने का मुझको अब गिला कोई नहीं
शुक्र है यारा कि तुझसा आशना हमको मिला
हार जाता तुम अगर मिलते न मुश्किल दौर में
आपके इस प्यार से ही हौसला हमको मिला
बिक रहा क्या क्या नहीं बस दाम होना चाहिए
पक्ष में था साक्ष्य उल्टा फैसला हमको मिला
फेंक आया आज मैं ईमान रोटी छीन कर
दो दिनों के बाद बेटा खेलता हमको मिला
हो गई है जांच पूरी हो गए नेता बरी
सच जो था कुछ और वो नीचे दबा हमको मिला
ऐ ‘अरुण’ ऐसे खुदा को पा के क्या कर पायेगा
आदमी से दूर जाकर जो खुदा हमको मिला

        इंसान अपने किसी भी दुनियावी रिश्ते को भूल सकता है लेकिन अपनी मां को कभी भूल नहीं पाता है। मां उसके जीवन में वह शख्सियत होती है जो अपनों के लिए पीड़ा सह कर खुश रहना सिखाती है, वह भी शब्दों के माध्यम से नहीं वरन् अपनी जीवन शैली के माध्यम से। मां पर अरुण दुबे की यह गजल देखिए -
कहीं से कुछ भी करके घर के चूल्हे को जलाती है
मगर बच्चों को मां खाना खिला कर ही सुलाती है
हमेशा मुफ़लिसी तकलीफ जिल्लत खुद उठाती है
मगर बच्चों को मां इखलास की चादर बिछाती है
नहीं करता कोई भी त्याग जितना करती है इक मां
लहू छाती का केवल मां ही बच्चों को पिलाती है
बचाती ही नहीं मां अपने बच्चों को बुराई से
बसद तहजीब के रस्ते पे भी चलना सिखाती है
‘अरुण’ मां का बड़ा एहसान है जो अपने बच्चों को
जमीं से आसमां के तख्त पर लाकर बिठाती है

          अरुण दुबे की गजलें इंसानियत के जज्बे से भरी हैं। उनमें जीवन की धूप- छांव भी दिखाई देती है। वे अव्यवस्थाओं पर कटाक्ष करते हैं तो प्रेम और अनुराग की पैरवी भी करते हैं। अरुण दुबे का रचनाकर्म सागर साहित्य जगत के लिए महत्वपूर्ण कहा जा सकता है।

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( दैनिक, आचरण  दि. 23.09.2019)
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Saturday, September 14, 2019

सागर : साहित्य एवं चिंतन 63 .... शैलीगत बन्धनों से मुक्त कवि अम्बिका यादव - डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh

                  स्थानीय दैनिक समाचार पत्र "आचरण" में प्रकाशित मेरा कॉलम "सागर साहित्य एवं चिंतन " । जिसमें इस बार मैंने लिखा है मेरे शहर सागर के कवि अम्बिका यादव पर आलेख। पढ़िए और जानिए मेरे शहर के साहित्यिक परिवेश को ....

सागर : साहित्य एवं चिंतन

     शैलीगत बन्धनों से मुक्त कवि अम्बिका यादव
                           - डॉ. वर्षा सिंह
                                 
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परिचय      : अम्बिका यादव
जन्म स्थान :  सागर
जन्म         : 1 फरवरी 1950
शिक्षा        : बी.ए.
माता-पिता : श्रीमती बेनी बाई यादव,  श्री भागीरथ यादव
लेखन विधा : पद्य
प्रकाशन।     :    आसमानों से आगे (काव्य संग्रह)
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              कविता को व्याख्यायित करते हुए कवि धूमिल ने बड़ी सुन्दर पंक्तियां लिखी हैं- ‘‘ कविता क्या है/ कोई पहनावा है/ कुर्ता-पाजामा है/ ना भाई ना/ कविता शब्दों की अदालत में मुजरिम के कटघरे में खड़े/ बेकसूर आदमी का हलफनामा है। ’’ अर्थात कविता जब अंतर्मन और बाहरी दुनिया को विश्लेषित कर रसात्मक ढंग से प्रस्तुत करने लगती है तो उसकी सार्थकता के सम्मुख उसका शिल्प गौण हो जाता है। किन्तु कविता के कलेवर को साधना भी अपनेआप में चुनौती भरा एक काम होता है। ऐसी चुनौतियों को स्वीकार करते हुए सागर नगर के अनेक कवियों ने कविताएं लिखी हैं। कुछ अधिक साध पाए हैं तो कुछ कम। किन्तु इससे उनके कवि कर्म के महत्व को कम करके नहीं अांंका जा सकता है।
            सागर नगर में ‘ताओ’ के उपनाम से कविता लिखने वाले कवि अम्बिका यादव काव्य सृजन के रूप में साहित्य सेवा कर रहे हैं। श्री भागीरथ यादव एवं श्रीमती बेनी बाई यादव के पुत्र के रूप में 1 फरवरी 1950 को सागर में जन्में अम्बिका यादव की आरम्भिक शिक्षा सागर में ही हुई। अपनी विद्यालयीन शिक्षा पूरी करने के बाद अम्बिका यादव ने सागर विश्वविद्यालय से बी.ए. की उपाधि प्राप्त की। तदोपरांत वे कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक में सेवाकार्य करने लगे। शाखा प्रबंधक के पद से सेवानिवृत्त होने के उपरांत वे इंकमीडिया इंस्टिट्यूट ऑफ मॉस कम्युनिकेशन एंड आई टी सागर में अध्यापन कार्य कर रहे हैं।
           अम्बिका यादव शिल्पगत बंधनों से मुक्त हो कर कविता लिखते हैं। उनकी कविताओं में गजल और गीत विधा का पुट देखा जा सकता है। वे अपनी कविताओं में प्रेम, मित्रता और दुनियादारी को अभिव्यक्ति देते हैं। प्रेम पर लिखी उनकी यह कविता देखिए-
जितनी बार पढ़ा उतनी बार नई ।
प्यार की इबारत हर बार नई ।
समंदर को मुट्ठी में भरने की ख्वाहिश
इस कोशिश में हाथ से छूटे मोती कई ।
जितना हम समझ सके वह नाकाफी है
आसमानों के पार हैं आसमान कई ।
दुनिया की कोई भी किताब पढ़ लो ‘ताओ’
प्यार के सिवा कोई बात नहीं नई।

           अम्बिका यादव की कई कविताओं में सुन्दर बिम्ब प्रयुक्त हुए हैं जिनसे उनकी भाव-भूमि को और अधिक सरसता मिली है। उदाहरणार्थ -
काश घनघोर अंधेरा होता।
और साथ तुम्हारा होता ।
रात काली में मिलती तुम
और दूब का कालीन होता ।
तारे भले ताकते रहते
नदी किनारे मिलना होता ।
लोग सारे देखते रहते
नाव में सिर्फ तुम और मैं होता ।
सिर्फ मोहब्बत रह जाती ‘ताओ’
काश दुनिया में और कुछ न होता।

            समसामयिक वातावरण प्रत्येक संवेदनशील मन को झकझोरता है। आतंकवाद, बमविस्फोट आदि के प्रति चिन्ता अम्बिका यादव की कविताओं में भी देखी जा सकती है। दहशतगर्दी पर टिप्पणी करते हुए वे लिखते हैं-
बम फट रहे हैं पटाखों की तरह ।
आज मेरा, कल तेरा शहर पुर्जा पुर्जा पटाखों की तरह ।
इस बरस गरीबी हटाने का बिल आया है
शायद चुनावी तैयारी है हर बार की तरह ।
दहशतगर्दी का आलम ऐसा दुनिया में
अच्छा था नासमझ रहते हम बंदरों की तरह।
तरक्की का दौर, दानिश मंदी का दौर
अणु परमाणु बम जुटती दुनिया भस्मासुर की तरह।
दुनिया सिकुड़ कर मुट्ठी भर रह गई ‘ताओ’
इंसानियत फिसल रही उससे रेत की तरह।

            दूषित राजनीति का प्रभाव व्यक्ति के स्वभाव को परिवर्तित कर देता है। पुराने मित्र मित्रता का अर्थ भुला देते हैं और वे एक कुशल व्यवसायी की तरह मित्रता में भी नफा-नुक्सान देखने लगते हैं तब इसी तरह की कविता बनती है जैसी कि कवि अम्बिका यादव ने यह कविता लिखी है -
वो सोचते हैं अब सियासतदारों की तरह ।
दोस्त नहीं रहे अब पुराने यारों की तरह ।
या तो हमें कुछ चाहिए  या उन्हें चाहिए हमसे
दोस्त हैं अब दुकानदारों की तरह ।
दावत में उसने उनको पास बैठाया है
वजन है तोहफों का जिसके हाथियों की तरह ।
प्यारी बातें तो है उनकी बच्चों की तरह
काश पढ़ लिख कर हम रहते उनकी तरह ।
‘ताओ’ नासमझ ही रहते हम परिंदों की तरह
काश समझदार न होते इंसानों की तरह।

             अम्बिका यादव का एक काव्य संग्रह ‘‘आसमानों से आगे’’ प्रकाशित हो चुका है। अपनी पुस्तक एवं अपनी रचनाओं के बारे में वे कहते हैं कि ‘‘बहरहाल मेरी कविताओं की यह कोशिश आपको जरूर पसंद आएगी इसी विश्वास के साथ यह पुस्तक जिसे आप गजल, गीत, कविता की तरह स्वीकार कर सकते हैं एवं इसका आनंद ले सकते हैं।’’ वे अपनी पुस्तक ‘‘आसमानों से आगे’’ की भूमिका में लिखते हैं कि ‘‘कविता अभिव्यक्ति है मन की फिर लिखने का मन सो लिखी गई यह किताब कुछ-कुछ गजल नुमा कुछ कविता और फिर जमाने की सच्चाई कहने की कोशिश है कुछ हम लोगों को पसंद थी हमारी बातें सो जस की तस उनको लिखा है।’’
 
कवि अम्बिका यादव

             शैलीगत बंधनों से मुक्त हो कर खूबसूरत ढंग से कविता कही जा सकती है। यदि कवि के हृदय में सौहार्द का आग्रह है और प्रेम की भावनाएं हैं तो वह मानता है कि जाति, धर्म कोई बाधा नहीं बन सकती है। यही भावना कवि यादव की इस कविता में निहित है-
दिल मिले न मिले आंख तो मिलाइए
फिर मिले न मिले पता तो बताइए
मील के पत्थर की तरह खड़ा हूं राह में
रुके न रुके एक नजर तो डालिए
वह गुलाबी फूल तुम्हें ताक रहा है
भर देगा खुशबू से प्यारी सी नजर तो डालिए
कब तलक बैठे रहोगे सहमें किनारे पे
एक बार प्यार के समंदर में कूद तो जाइए
आदमी में बहुत बुरा सही ‘ताओ’
दुआ सलाम, राम- राम के रिश्ते तो निभाइए

Sagar Sahitya Avam Chintan - Dr. Varsha Singh 

           ‘‘ताओ’’ के उपनाम से कविताएं लिखने वाले अम्बिका यादव की ‘रोटी और हुस्न की गजल’ पर लिखी गई ये पंक्तियां भी काबिले गौर हैं-
रोटी और हुस्न की गजल आज भी नई ।
अंदाज ए बयां बदल गए वो बेवफा फिर भी नई ।
कोई क्या कहेगा, क्या नया लिखेगा
दास्तानें वही, सिर्फ उंगलियां नई ।
फूल खिलने बिखरने का सिलसिला जारी है ‘ताओ’
बगीचे वही, सुगंध वही, सिर्फ ये पौध नई।

             जीवन को अनिश्चितताओं से घिरा हुआ माना जाता है। वर्तमान समय में भौतिकतावाद इतना अधिक बढ़ गया है कि व्यक्ति आत्मिक सुख को भूल कर भौतिक सुखसुविधाओं के लिए बाजार की चकाचौंध में डूबा रहता है। ऐसे वातावरण में यदि जीवन की अनिश्चितता और बढ़ जाए तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं है। अम्बिका यादव अपनी रचना में इसी अनिश्चितता को रेखांकित करते दिखाई पड़तें है-
जिंदगी का सफर कहां ले जाएगा पता नहीं चलता।
साथ दोस्त चल रहा है या दुश्मन पता नहीं चलता ।
अब तो दोनों आंखें भी अलग-अलग सपने देखने लगी
हमसफर साथ तो है, दिल कहां उसका पता नहीं चलता ।
मायूस को हमदर्दी हौसले के दो जुमले
उसे दे देंगे जिंदगी नई पता नहीं चलता ।
यूं तो जमाने में अपने बहुत है दोस्त ‘ताओ’
बुरे वक्त के बिना कुछ पता नहीं चलता।

          उल्लेखनीय है कि भावों की काव्यात्मक अभिव्यक्ति के साथ ही अम्बिका यादव कार्टूनों के माध्यम से भी अपने भावों को व्यक्त करते हैं। विभिन्न समाचार पत्रों में उनके कार्टूनों का प्रकाशन हो चुका है। अभिव्यक्ति की विविधता को अपनाने वाले कवि अम्बिका यादव सागर साहित्य जगत में देखे जा सकते हैं।
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( दैनिक, आचरण  दि. 14.09.2019)
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Sunday, September 8, 2019

पन्ना के मंदिर और बुंदेली लोकगीत - डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh

मध्यप्रदेश  के सागर संभाग का एक जिला है पन्ना, जिसके जिला मुख्यालय में स्थित हिरण बाग़ नामक स्थान में रहते हुए मेरा बचपन और युवावस्था के प्रारंभिक दिन व्यतीत हुए हैं। मेरी शिक्षा-दीक्षा भी पन्ना मुख्यालय में ही हुई । शासकीय मनहर कन्या उच्चतर माध्यमिक विद्यालय  एवं महाराजा छत्रसाल शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय मेरी शिक्षा के केंद्र रहे हैं । अब पन्ना से लगभग 186 कि.मी. दूर यहां सागर मुख्यालय के मकरोनिया उपनगर में रहते हुए पन्ना में व्यतीत किए हुए दिनों की स्मृतियां आज भी ताज़ा प्रतीत होती हैं। पन्ना के मंदिर मेरी स्मृतियों को हमेशा ही जागृत करते रहते हैं... कितने सुंदर और भव्य मंदिर! माना कि सागर में भी एक से एक सुंदर मंदिर स्थापित हैं किंतु पन्ना के मंदिरों का तो जवाब ही नहीं।
पन्ना में स्थापित भव्य मंदिरों की महिमा लोकगीतों में भी गाई जाती है, जैसे जुगलकिशोर मंदिर में स्थापित राधा -कृष्ण की प्रतिमा के लिए विख्यात लोकगीत है …
"पन्ना के जुगल किशोर मुरलिया में हीरा जड़े हैं…."

पन्ना….जैसा कि नाम है "पन्ना", वास्तव में यह पन्ना नामक रत्न से कम नहीं है । यह क्षेत्र विंध्याचल के अंचल में स्थित है और इसीलिये पन्ना में जंगल है हरियाली है और प्राकृतिक सौंदर्य की अनुपम छटा है । केन, किलकिला,बेरमा आदि नदियां यहां अपने कलकल निनाद से क्षेत्र को गुंजायमान करती हैं।  जितने सुंदर प्राकृतिक दृश्य पन्ना में मौजूद हैं वैसे ही इसकी दुर्लभ हीरे की खदानें विश्व प्रसिद्ध हैं। पन्ना का सर्वाधिक विकास बुंदेलखंड केसरी महाराज छत्रसाल के समय में हुआ था। पन्ना में अनेक सुंदर मंदिर हैं जो पर्यटन की दृष्टि से दर्शनीय तो हैं ही साथ ही धार्मिक स्थलों के रूप में इनकी अपनी मान्यताएं हैं। 

पद्मावती मंदिर
माई तोहरे रूप हजार, मातु जागदम्बिके
मोरी सुनियो अरज पुकार, मातु जागदम्बिके

पद्मावती देवी का मंदिर किलकिला नदी के तट पर स्थित यहां का सबसे प्राचीन मंदिर है देवी दुर्गा के नौ रूपों की यहां पर प्रतिमाएं विद्यमान हैं। पद्मावती देवी पन्ना नरेश की कुलदेवी थीं। इस अत्यंत सुंदर मंदिर के चारों ओर का  दृश्य अत्यंत मनोहारी है।

तोरे द्वार पड़े हम आज, भवानी दरसन दो दरसन दो मैया रानी, भवानी दरसन दो
मैहर में तू मातु शारदे, पद्मावती पन्ना में भवानी दरसन दो
दरसन दो, हे विंध्यवासिनी दरसन दो
तोरे द्वार पड़े हम आज, भवानी दरसन दो






बलदेव मंदिर
 पन्ना में स्थित बलदेव मंदिर में भगवान कृष्ण के अग्रज बलराम की प्रतिमा स्थपित है। इस मंदिर का निर्माण 140 साल पहले तत्कालीन पन्ना नरेश रुद्र प्रताप सिंह ने कराया था । कहा जाता है कि कृषि कार्य में उनकी विशेष रुचि थी, जिसकी वजह से उन्होंने हल धारण किए बलदाऊ के  भव्य मंदिर का निर्माण कराया। मंदिर कई विशेषताओं से परिपूर्ण है। इसकी वास्तु शैली पूर्व और पश्चिम के धर्म का संगम कराती प्रतीत होती है। बाहर से देखने पर मंदिर किसी शानदार और विशाल चर्च की तरह नजर आता है जबकि अंदर से एक भव्य मंदिर का रूप लिए है। इस मंदिर के निर्माण में भगवान श्रीकृष्ण की सोलह कलाओं का विशेष ध्यान रखा गया है। मंदिर में प्रवेश करने के लिए 16 सीढिय़ां हैं अंदर 16 मंडप और 16 झरोखे हैं। मंदिर 16 विशाल स्तंभों पर टिका है।






इस मंदिर के स्थापत्य की विशेषता यह है कि यह लंदन के सेंट कैथेड्रल गिरजाघर की अनुकृति के रूप में निर्मित किया गया है। इस मंदिर में गर्भगृह में बलदेव की काले पत्थर की अत्यंत आकर्षक प्रतिमा मौजूद है। विशाल सभा कक्ष है, ऊपर गुंबद है और सभाकक्ष में अनेक गोल स्तंभ हैं। हल षष्ठी  अर्थात भाद्रपद माह के कृष्ण पक्ष की षष्ठी तिथि को देव बलराम के जन्मोत्सव को बड़े ही समारोह पूर्वक मनाया जाता है। बुंदेलखंड में यह अपनी तरह का एकमात्र मंदिर है जो दर्शनीय है और साथ ही श्रद्धालुओं की श्रद्धा का केंद्र बिंदु भी है।

 प्राणनाथ मंदिर 
पन्ना प्राणनाथ मंदिर के लिए भी जाना जाता है। पूरे भारत में इस तरह का यह अपनी तरह का मंदिर है । महामति प्राणनाथ, मध्ययुगीन भारत के अंतिम संत-कवि थे। उन्होंने अपना समस्त जीवन धार्मिक एकता के लिए समर्पित किया था। इसके लिए प्रणामी नामक एक नए पंथ की स्थापना की जिसमे सभी धर्म के लोग सम्मिलित हुए। उनकी वाणी का सार 'तारतम सागर' ग्रंथ में संकलित है जिसमे सभी धर्मों के दिव्य ज्ञान का निचोड़ प्रस्तुत किया गया है। अब यह प्रणामी संप्रदाय का प्रमुख और पवित्रतम ग्रंथ है। महामति प्राणनाथ महाराजा छत्रसाल के गुरु कहे जाते हैं । महाराजा छत्रसाल प्राणनाथ के समर्पित शिष्य थे। छत्रसाल बुंदेलखंड में औरंगजेब के अत्याचारी शासन के खिलाफ लड़ना चाहते थे। लेकिन उनके पास सेना व शस्त्रागार के निर्माण के लिए धन नहीं था। उन्होंने प्राणनाथ से सहायता मांगी। प्राणनाथ ने छत्रसाल को आशीर्वाद दिया। कहा जाता है कि महाराज छत्रसाल को उनके गुरु प्राणनाथ ने यह कहते हुए हीरे का पता बताया था कि 
"छत्ता तेरे राज में धक-धक धरती होय।
 जित जित घोड़ा पग धरे उत-उत हीरा होय।।"





इस मंदिर का निर्माण महाराजा छत्रसाल ने कराया था । मंदिर के गर्भगृह में गुंबद के ठीक नीचे भगवान कृष्ण के मुरली और मुकुट विराजमान हैं। यहां किसी मूर्ति की स्थापना नहीं की गई है क्योंकि प्राणनाथ ने भगवान कृष्ण की सखी भाव से उपासना की थी इसलिए मंदिर में कृष्ण के प्रतीक स्वरूप मुकुट जिसमें मयूर पंख लगा हुआ है और मुरली स्थापित है, जिसकी विधि विधान पूर्वक पूजा अर्चना की जाती है। स्वयं महामति की वाणी देखें….
"प्रेमें गम अगम की करी, प्रेम करी अलख की लाख ! कहें श्री महामति प्रेम समान, तुम दूजा जिन कोई जान !!
नवधा से न्यारा कह्या, चौदे भवन में नाहीं ! सो प्रेम कहाँ से पाइए, जो बसत गोपिका माहिं !!"
 प्रणामी संप्रदाय का यह तीर्थ क्षेत्र माना जाता है । महामति प्राणनाथ प्रणामी धर्म के प्रणेता थे। प्रत्येक शरद पूर्णिमा के अवसर पर हर वर्ष इस मंदिर में देश विदेश से प्रणामी धर्म के अनेक अनुयायी उपस्थित होते हैं, महारास रचाते हैं, पूजन- आराधन- अर्चन करते हैं और कृष्ण की भक्ति में लीन हो जाते हैं। अत्यंत अलौकिक दृश्य देखने को मिलता है। अद्भुत छटा रहती है इस मंदिर के प्रांगण की । शरद पूर्णिमा की प्रखर रोशनी में दुग्ध सा श्वेत धवल मंदिर का गुंबद अपनी अलौकिक छटा बिखेरता है और प्रांगण में होने वाला महारास आत्मा- परमात्मा को एकाकार करता हुआ प्रतीत होता है।

जुगलकिशोर मंदिर
     बुंदेलखंड में गाया जाने वाला एक प्रसिद्ध लोकगीत है जिसकी प्रथम पंक्ति है -
"पन्ना के जुगल किशोर मुरलिया में हीरा जड़े हैं"
 पन्ना का जुगल किशोर मंदिर बुंदेलखंड के अत्यंत प्राचीन मंदिरों में से एक है। इसका निर्माण महाराजा हिंदूपत ने कराया था जो पन्ना नरेश थे। इसका वास्तु उत्तर मध्य कालीन स्थापत्य शैली का है। मंदिर का प्रवेश द्वार अत्यंत भव्य है। गर्भगृह के ऊपर स्थित विशाल गुंबद कमल की पंखुड़ियों से सुसज्जित है। इस जुगल किशोर मंदिर में राधा कृष्ण की प्रतिमाएं स्थापित हैं।



मथुरा के मंदिरों के ही समान पन्ना के जुगल किशोर मंदिर की मान्यता है । इस मंदिर में हर वर्ष जन्माष्टमी का समारोह अत्यंत श्रद्धा पूर्वक मनाया जाता है। भगवान कृष्ण का जन्मोत्सव देखने के लिए दूर-दूर से अनेक श्रद्धालु यहां आते हैं।
जुगल किशोर की लीला का वर्णन इस लोकगीत में देखें ….
"भई ने बिरज की मोर 
सखी री मैं तो भई ने बिरज की मोर ।।
कौन बन उड़ती कौन बन चुनती
कौन बन करती किलोल 
भई ने बिरज की मोर ।।
बन में उड़ती, बन में चुनती
बनई में करती किलोल
भई ने बिरज की मोर ।।
उड़-उड़ पंख गिरे धरनी पै 
बीनत जुगल किशोर 
सखी री मैं तो भई ने बिरज की मोर।।

 राम जानकी मंदिर 
जी के रामचंद्र रखवारे, को कर सकत दगा रे।
दीपक दया धरम को जारे, सदा रहत उजियारे।।
        पन्ना मुख्यालय में स्थापित राम जानकी मंदिर भी अत्यंत भव्य है। इसका निर्माण जुगल किशोर मंदिर की स्थापत्य शैली में ही किया गया है। पन्ना नरेश महाराजा लोकपाल सिंह की पत्नी सुजान कुंवरि ने इस मंदिर का निर्माण कराया था । इसकी वास्तुकला और भव्यता देखने वालों का मन मोह लेती है। इस मंदिर में भगवान राम, लक्ष्मण और सीता की अत्यंत सुंदर प्रतिमाएं स्थापित हैं। रामनवमी का पर्व प्रत्येक वर्ष बड़े ही समारोह पूर्वक यहां मनाया जाता है, जिसमें मौजूदा पन्ना नरेश स्वयं उपस्थित होकर भगवान राम, लक्ष्मण और सीता का पूजन अर्चन करते हैं।
यह सुंदर लोकगीत राम जानकी की महिमा का बखान करने वाला है….
मोरी नैया पार लगाओ जानकी मैया जू 
राम कृपा मिल जाए मोरी मैया जू
जो जीवन तर जाए  मोरी मैया जू 
मोरी नैया पार लगाओ जानकी मैया जू





 गोविंद मंदिर
 पन्ना मुख्यालय में बलदेव मंदिर के ही पार्श्व में कुछ दूरी पर स्थित है गोविंद मंदिर। गोविंद मंदिर में भगवान कृष्ण की अत्यंत सुंदर प्रतिमा स्थापित है । यह मंदिर भी अपनी भव्यता के लिए जाना जाता है। यह मंदिर भी मध्ययुगीन  गुंबद शैली की वास्तुकला पर आधारित मंदिर है । इसका प्रांगण काफी बड़ा है । मंदिर के गुंबद में कमल की पंखुड़ियों की आकृति मौजूद है। श्रद्धालु इसके दर्शन हेतु दूर-दूर से यहां आते हैं इसका निर्माण भी तत्कालीन पन्ना नरेश द्वारा कराया गया था।
कृष्ण गोविंद की लीला अपरम्पार है...
अपने वनमाली कों  तांसे, कहो जसोदा मां से ।
लै गऔ दूध दही की दौनी, उठा हमारे घर से। 
मैं तो बूंद बूंद से जोरत, ऐसो आए कहां से।।


गोविंद मंदिर में भक्तों के द्वारा गाया जाता यह लोकभजन अक्सर ही सुनाई दे जाता है...
भज लो रे गोविंद, भजो घनश्याम
नाम ल्यौ कान्हा को ।।
जाकी माता जसुदा मैया 
पिता नंद महाराज, भजो घनश्याम
नाम ल्यौ कान्हा को ।।


 जगन्नाथ स्वामी मंदिर
  बुंदेलखंड में यह अपनी तरह का अनोखा जगन्नाथ स्वामी मंदिर पन्ना मुख्यालय में पन्ना नरेश के निवास राजमहल "राजमंदिर पैलेस" के निकट स्थित है। कहा जाता है कि पन्ना के तत्कालीन महाराजा किशोर सिंह भगवान जगन्नाथ स्वामी के अनन्य भक्त थे । जब उन्होंने जगन्नाथ पुरी की यात्रा की तो भगवान जगन्नाथ ने स्वप्न में उन्हें यह निर्देश दिया कि वे पन्ना में जगन्नाथ स्वामी का मंदिर निर्मित कराएं । जगन्नाथ स्वामी मंदिर में भगवान जगन्नाथ, सुभद्रा और बलराम की मूर्तियां स्थापित हैं। ये मूर्तियां पुरी, उड़ीसा स्थित भगवान जगन्नाथ के मंदिर में स्थापित मूर्तियों की ही प्रतिकृति हैं।








मंदिर के द्वार पर दो विशाल सिंह की प्रतिमा मौजूद है। मुख्य मंदिर मध्ययुगीन वास्तुकला पर आधारित गुंबद शैली का है, जिसके शिखर पर स्वर्ण कलश मौजूद है। पुरी की ही भांति इस मंदिर में भी आषाढ़ शुक्ल  द्वितीय को रथ यात्रा महोत्सव का आयोजन किया जाता है । भगवान जगन्नाथ, सुभद्रा एवं बलराम सहित रथ पर सवार हो पन्ना से लगभग 5 किलोमीटर दूर जनकपुर नामक स्थल तक जाते हैं। रथ यात्रा के दौरान श्रद्धालुओं द्वारा समारोह पूर्वक पूजन-अर्चन किया जाता है।
आरती श्री जगन्नाथ मंगलकारी,
परसत चरणारविन्द आपदा हरी।
निरखत मुखारविंद आपदा हरी,
कंचन धूप ध्यान ज्योति जगमगी।
अग्नि कुण्डल घृत पाव सथरी। आरती..

 राधिका रानी मंदिर 
किलकिला नदी के तट पर राधिका रानी का मंदिर स्थित है। प्रणामी धर्म के अनुयायी इस मंदिर में विशेष रूप से पूजा अर्चन करते हैं । इस मंदिर का निर्माण भूषण दास धामी द्वारा कराया गया था। इस सुंदर एवं भव्य मंदिर में राधा जी की अत्यंत सुंदर प्रतिमा मौजूद है। इस मंदिर की विशेषता यह है कि इसमें सीढ़ीयुक्त एक कलात्मक प्राचीन बावड़ी है। प्रणामी धर्म के अनुयायी महामति प्राणनाथ के मंदिर दर्शन के उपरांत राधिका रानी के मंदिर का भी दर्शन अवश्य करते हैं। शरद पूर्णिमा महोत्सव के दौरान इस मंदिर की छटा, साज-सज्जा देखने लायक रहती है। 

देश-विदेश से श्रद्धालु यहां दर्शन करने आते हैं।
राधिका रानी और कृष्ण कन्हैया का होली खेलने का वर्णन इस लोकगीत में चित्रित हुआ है….
राधा खेले हो, मनमोहन के साथ मोरे रसिया 
कै मन केसर गारी हो 
कै मन उड़त गुलाल मोरे रसिया 
नौ मन केसर गारी हो,
दस मन उड़त गुलाल मोरे रसिया 
कौंना की चूनर भींजी हो 
कौंना की पंचरंग पाग मोरे रसिया 
राधा की चूनर भींजी हो 
कान्हा की पंचरंग पाग मोरे रसिया 

लोककवि ईसुरी राधिका रानी और गिरधर गोपाल की लीला का वर्णन करते हुए कहते हैं...
नैना श्री वृषभानु कुंवरि के, दरस लेत गिरधर के।
अंजन मुकुर कंज वन गंजन, रंजन वारे सर के।।




 हनुमान मंदिर 
पन्ना मुख्यालय में पहाड़ कोठी  एवं धर्मसागर तालाब के समीप स्थित हनुमान मंदिर अत्यंत प्राचीन मंदिर है, जहां प्रत्येक मंगलवार एवं शनिवार को श्रद्धालुओं की भीड़ लगती है। अनेक दर्शनार्थियों दूर- दूर से मंदिर में आते हैं और श्री हनुमान का अत्यंत श्रद्धापूर्वक पूजन -अर्चन करते हैं। यह अत्यंत सिद्ध क्षेत्र माना जाता है।
इस लोकगीत में महावीर हनुमान की महिमा का बखान किया गया है...
हे महाबीर हनुमान, 
तोरी महिमा न्यारी कलयुग में
तू संकटहारी कलयुग में

    पन्ना ज़िले में भी अनेक प्राचीन मंदिर हैं, जैसे ग्राम नचना का शिव मंदिर, भैरव घाटी स्थित काल भैरव मंदिर, मुख्यालय स्थित चोपड़ा मंदिर, बंगला मंदिर, बड़े गणेश मंदिर, भगवान पार्श्वनाथ मंदिर आदि।
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