Dr. Varsha Singh |
स्थानीय दैनिक समाचार पत्र "आचरण" में प्रकाशित मेरा कॉलम "सागर साहित्य एवं चिंतन " । जिसमें इस बार मैंने लिखा है मेरे शहर सागर के शायर सिराज सागरी पर आलेख। पढ़िए और जानिए मेरे शहर के साहित्यिक परिवेश को ....
सागर : साहित्य एवं चिंतन
एक संजीदा शायर सिराज सागरी
- डॉ. वर्षा सिंह
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परिचय :
नाम :- सिराज़उद्दीन अंसारी उर्फ़ सिराज़ सागरी
जन्म :- 25 फरवरी 1965
जन्म स्थान :- सागर, म.प्र,
माता-पिता :- श्रीमती अख़्तर बेगम एवं श्री बाहाजु़द्दीन अंसारी
शिक्षा :- बी काम.
लेखन विधा :- काव्य
प्रकाशन :- पत्र-पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन
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सागर नगर की शायरी के क्षेत्र में शायर सिराज़ सागरी का नाम महत्वपूर्ण शायरों में गिना जाता है। सिराज़ सागरी को शायरी का हुनर अपने पिता से विरासत में मिला। उनके पिता बाहाजुद्दीन अंसारी एक नामचीन शायर थे और ‘वाहिद सागरी के नाम से शायरी करते थे। सिराज़ सागरी बताते हैं कि उनके पिता के पास अनके मशहूर शायरों का आना-जाना होता रहता था। घर में शायरी का माहौल था। बात सन् 1983 की है जब सिराज़ सागरी बी.ए. में पढ़ रहे थे। एक शाम उनके घर में शायरों का जमावड़ा लगा हुआ था और शायरी की तत्कालीन दशा-दिशा पर चिंतन किया जा रहा था। बात निकली तो वहां मौजूद शायर मायूस सागरी ने चिंतित होते हुए कहा कि-‘‘आजकल जो माहौल है उसे देख कर लगता है कि शायरी के प्रति गंभीरता ख़त्म होती जा रही है। न कोई बहर पर ध्यान देता है और न क़ाफ़िए पर। हमारे बाद कोई हम जैसी शायरी भी करेगा या नहीं, सोच कर चिंता होती है।’’
वहीं कुछ दूर बैठे सिराज़ सागरी ने यह बात सुनी तो उन्होंने उसी समय ठान लिया कि वे शायरी की परम्परा को गंभीरता से निभाते हुए पूरी लगन और समझ के साथ शायरी करेंगे ताकि उनके बुजुर्गों को शायरी की दशा को ले कर चिंतित न होना पड़े। सिराज़ सागरी जिनका मूल नाम सिराज़उद्दीन अंसारी है, उन्होंने ‘सिराज़ सागरी’ का तख़ल्लुस रखते हुए शायरी की दुनिया में पूरी गंभीरता से क़दम रखा। इस घटना के कुछ माह बाद ‘गौर जयंती’ पर डॉ. हरीसिंह गौर के जन्मस्थल बंगला स्कूल में आयोजित कवि सम्मेलन-मुशायरे में उन्होंने अपने वे चार मिसरे पढ़े जो उन्होंने बतौर ‘शायर सिराज़ सागरी’ सबसे पहले लिखे थे। वे मिसरे थे-
सर गौर हरीसिंह ने वो बात बनाई
तारीक़ी ज़ेहालत की है सागर से मिटाई
बनवा के यूनीवर्सिटी सागर से नगर में
इक शम्मा इल्म की है अंधेरे में जलाई
Sagar Sahitya Avam Chintan - Dr. Varsha Singh # Sahitya Sagar |
सिराज़ सागरी मानते हैं कि उनके इस मिसरे में ख़ामियां थीं लेकिन उन्होंने इन्हें कभी सुधारा नहीं और एक यादगार के रूप में यथावत रहने दिया। जिससे उन्हें उनके शायरी के सफ़र की शुरुआत एक कच्ची ज़मीन की तरह हमेशा याददाश्त में बनी रहे।
श्रीमती अख़्तर बेगम और श्री बाहाजुद्दीन अंसारी के पुत्र के रूप में 25 फरवरी 1965 को सागर में जन्मे सिराज़ सागरी ने स्नातक तक शिक्षा पाने के उपरांत अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों को अपना लिया। आज वे ट्रांसपोर्ट के व्यवसाय से जुड़े हुए हैं। उन्हें जहां शायरी का गुण अपने पिता से मिला वहीं सामाजिक एवं धार्मिक संस्कार अपनी मां से प्राप्त हुए। पारिवारिक दायित्वों के चलते उनकी शायरी का सृजन तनिक धीमा अवश्य हुआ किन्तु उससे नाता नहीं टूटा। इस दौरान उन्हें प्रतिष्ठित शायरों से इस्लाह लेने का अवसर मिला। जिनमें आज़र छतरपुरी, निश्तर दमोही और हक़ छतरपुरी को वे अपना उस्ताद शायर मानते हैं। सिराज़ सागरी ग़ज़ल के साथ ही नज़्म, गीत, छंद रचनाएं भी लिखते हैं। उनके सृजन का दायरा किसी एक भाषा तक सीमित नहीं है, वे उर्दू के साथ ही हिंदी और बुंदेली में भी ग़ज़लें लिखते हैं। वे आकाशवाणी के सागर, छतरपुर केन्द्र तथा दूरदर्शन के भोपाल केन्द्र से काव्यपाठ कर चुके हैं। पत्र पत्रिकाओं में उनकी रचनाओं का प्रकाशन होता रहता है। उन्हें अनेक साहित्यिक संस्थाओं द्वारा सम्मानित किया जा चुका है। शायरी के लिए उन्हें देश के प्रतिष्ठित मंचों पर आमंत्रित किया जाता है।
ग़ज़ल काव्य की वह विधा है जो एक उन्दबद्ध रचना की भांति अनुशासन मांगती है। रदीफ, काफिया, बहर और वजन गजल के शिल्प को आकार देते हैं। वहीं किसी भी बात को दिल की गहराईयों से कहने की अदायगी गजल की रूह को आकार देती है। सिराज़ सागरी ने गजल के शिल्प ओर कथ्य दोनों को खूबसूरती से सम्हाला है। उनकी ग़ज़लों में प्रेम की कोमल भावना और दुनियावी समस्याओं पर चिंता एक साथ देखी जा सकती है। जैसे यह ग़ज़ल देखें -
तड़पा न कर इस दर्जा, न बैचेन हुआ कर
जब अपनी हथेली पे मेरा नाम लिखा कर
बच्चों के लिए अपने रहे -हक़ पे चला कर
असलाफ़ की अरवाह को तसकीन अता कर
इक मैं कि वफ़ा करके लुटा बैठा हूँ सब कुछ
इक वो है जो कहता है अभी और वफ़ा कर
गुम रहता है दुनियाँ की सदाओं में ब हर वक़्त
फुरसत में कभी अपनी भी आवाज़ सुना कर
कश्ती के सवारों ने उसे ही किया गर्क़ाब
तूफ़ान से कश्ती को जो लाया था बचाकर
रख लाज अताओं की तू अपनी मिरे मौला
दस्तार जिन्हें दी है उन्हें सर भी अता कर
हो जाये “सिराज़“ अम्न का हर आन बसेरा
करता हूँ दुआ दामने दिल अपना बिछाकर
सिराज़ सागरी की शायरी में जिन्दगी की तहजीब और अहसास की तर्जुमानी में आज के माहौल की विसंगतियां देखी जा सकती हैं। कदम-कदम पर व्याप्त भ्रष्टाचार ज़िन्दगी की कठिनाई को और बढ़ा देता है। इस तथ्य को बड़ी ही खूबसूरती से सिराज़ सागरी ने अपनी इस गजल में बयान किया है -
अद्ल काइल था बेगुनाही का
मसअला था मगर गवाही का
बादशाह पर है बेहिसी तारी
क्या करे हौसला सिपाही का
ताज़ काँटों भरा है फिर तुझको
शौक़ क्यों इतना बादशाही का
है इताअत का क़र्ज़ सर पे मेरे
वज़्न काँधों पे सर बराही का
सोच ये क्या निबाह मुमकिन है
फ़िक़्र का और कम निगाही का
दुश्मनों का ख़ुदा पे है ईमान
आसरा मुझको भी ख़ुदा ही का
बादलों के हिसार से जागा
चाँदनी पर गुमाँ सियाही का
मुझको पहचानते “सिराज़“ हैं लोग
है करम ये बड़ा इलाही का
Shayar Siraj Sagari # Sahitya Varsha |
आज इंसान आत्मकेंंद्रित हो चला है। बाजारवाद की अंधी दौड़ ने परिवारों के बीच दरारें डाल रखी हैं। जहां अपनों की पीड़ा चेतना पर दस्तक न दे पाती हो वहां परायों का दर्द भला कैसे ध्यानाकर्षित कर सकता है। ऐसा प्रतीत होता है जैसे लोगों को अव्यवस्थाओं में जीने की आदत पड़ गई है। माहौल के इस रूखेपन को सिराज़ सागरी पूरी तल्खी के साथ, लेकिन अपने ही अंदाज में कुछ इस तरह कहते हैं-
कुछ भी हो जाये चीखती ही नहीं
ज़िन्दगी जैसे ज़िन्दगी ही नहीं
उस तरफ मुन्तज़र मिरी खुशियाँ
गम की दीवार टूटती ही नहीं
ख़्वाब क्या खाक देखता कोई
रात भर आँख तो लगी ही नहीं
दोस्तों का हुजूम चारों तरफ
दोस्ती मुझको जानती ही नहीं
आदमीयत की बात क्या मानी
हम में जब कोई आदमी ही नहीं
मुझ से आबाद है मगर दुनिया
मेरा अहसान मानती ही नहीं
फिर रही है मुझे उठाये हयात
बोझ सर से उतारती ही नहीं
नस्ले-नौ जल्दबाज़ियों का शिकार
ये तो तहज़ीब जानती ही नहीं
आसुओं ने बयान की है सिराज
दर्द की दास्ताँ लिखी ही नहीं
सिराज़ सागरी की ग़ज़लें अपने कहन के तरीके से लुत्फअंदोज करती है। उनकी ग़ज़लें दिल और दिमाग पर दस्तक देती हैं। संवेदनाओं और भावनाओं का अहसास शेर-दर-शेर साथ-साथ चलता है। यही एक संजीदा शायर की पहचान भी है। जो सिराज़ सागरी की गजलों में बखूबी उभर कर सामने आती है।
तारीख़ कह रही है-‘थे तुम हम नबा- ऐ-गुल’
पहचानते नहीं हो तुम्हीं क्यूं सदा-ए- गुल
इज़हारे इश्क़ से हो गुरेजां तो ये बताओ
जूड़े में किसके वास्ते तुमने सजाये गुल
खारों से मेरी राह सजाई है उसने आज
मैंने हमेशा राह में जिसकी सजाये गुल
यक बारगी सज़ा-ऐ-चमन खुश गबार है
कौन आ गया चमन में ये क्यों मुस्कराए गुल
आया न नाजुकी में कोई फर्क आन को
पैरों तले दबाए कि सर पे सजाये गुल
यह और बात है कि मैं हँसता रहा “सिराज़“
अपनों ने मेरे साथ हमेशा खिलाये गुल
यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि सागर नगर की गजलगोई की दुनिया में सिराज़ सागरी वह हीरा है जिन्होंने अपनी मेहनत से अपने हुनर को तराशा है।
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( दैनिक, आचरण दि. 30.09.2019)
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