Thursday, July 30, 2020

सागर: साहित्य एवं चिंतन | पुनर्पाठ 5 | प्रेम रूपी रंग कितने | काव्य संग्रह | डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh
प्रिय ब्लॉग पाठकों,
               स्थानीय दैनिक समाचार पत्र "आचरण" में प्रकाशित मेरा कॉलम "सागर : साहित्य एवं चिंतन " जिसमें पुस्तकों के पुनर्पाठ की श्रृंखला के अंतर्गत पांचवीं कड़ी के रूप में प्रस्तुत है - सागर नगर के वयोवृद्ध कवि निर्मलचंद 'निर्मल' के काव्य संग्रह  "प्रेम रूपी रंग कितने" का पुनर्पाठ।

सागर: साहित्य एवं चिंतन

    पुनर्पाठ: ‘प्रेम रूपी रंग कितने’ काव्य संग्रह
                               -डॉ. वर्षा सिंह
                             
           काव्य संग्रह ‘‘प्रेम रूपी रंग कितने’’ का प्रथम संस्करण सन् 2010 में प्रकाशित हुआ था। यह संग्रह सागर नगर के वरिष्ठ कवि निर्मल चंद ‘निर्मल’ का है। अपने इस संग्रह में कवि निर्मल ने उन कविताओं को एक संग्रह के रूप में समेटा है जो प्रेम के विविध रूपों को व्याख्यायित करते हुए उन्होंने लिखीं थीं।  काव्य और प्रेम का निकट संबंध है। दोनों संवेदनाओं और कोमल भावनाओं से उपजती हैं। इस संग्रह की कविताओं से गुज़रते हुए एक प्रश्न कौंधता है कि प्रेम क्या है? वस्तुतः प्रेम की परिभाषा उतनी ही दुष्कर है, जितनी जगत-नियंता की। तभी तो नारद भक्ति-सूत्र, से लेकर आजतक सभी मीमांसा-विशारद प्रेम को अनिर्वचनीय मानते हैं। किन्हीं दो व्यक्तियों के बीच पाये जाने वाले प्रेम के उत्तरोत्तर विकास भावना प्रेमास्पद के रूप गुण, स्वभाव, सान्निध्य के कारण उत्पन्न सुखद अनुभूति होती है जिसमें सदैव हित की भावना निहित रहती है। संत कबीर ने कहा है-
‘‘काम काम सब कोई कहै, काम न चीन्है कोय ।
जेती मन की कामना, काम कहीजै सोय ।।‘‘
        हजारी प्रसाद द्विवेद्वी लिखते हैं कि ‘प्रेम से जीवन को अलौकिक सौंदर्य प्राप्त होता है। प्रेम से जीवन पवित्र और सार्थक हो जाता है। प्रेम जीवन की संपूर्णता है।’
प्रेम की इसी विचित्रता को रसखान ने इन शब्दों में लिखा है -
प्रेम रूप दर्पण अहे, रचै अजूबो खेल।
या में अपनो रूप कछु, लखि परिहै अनमेल।। 
हरि के सब आधीन पै, हरी प्रेम आधीन।
याही ते हरि आपु ही, याहि बड़प्पन दीन ।।
              जब कवि निर्मल मूर्त प्रेम पर कविता लिखते हैं तो उसमें प्राकृतिक, नैसर्गिक अमूर्त का प्रतिबिम्ब दिखाई देता है। कवि निर्मल मानते हैं कि प्रेम को अभिव्यक्त करने के लिए शब्दों की अनिवार्यता नहीं होती है। प्रेम की भाषा ही अलग होती है जो निःशब्द होती है। उनका यह कवितांश देखें-
प्रेम नहीं शब्दों का कायल आंखें कह जाती
ये भाषा ऐसी है जिसमें शब्द नहीं चलते
पाषाणी पर्वत कठोर भी मोम सदृश गलते
मन वीराना हरियााली से पूरित होता है
नेह निमन्त्रण जाने कितने सपने बोता है
मरुथल से नीरस प्राणों में सरिता बह जाती
प्रेम नहीं शब्दों का कायल आंखें कह जाती

समीक्ष्य कृति "प्रेम रूपी रंग कितने"

       प्रेम स्मृतियों के तार जोड़ता है। प्रेम में वह शक्ति है जो अनुपस्थित की उपस्थिति का बोध करा देता है। अर्थात जो प्रत्यक्षतः सशरीर उपस्थित नहीं है उसके भी साक्षात दर्शन प्रेम की भावना में हो जाते हैं। जैसा कि कवि निर्मल ने लिखा है -
तुम नहीं हो किन्तु तुमसे रोज मिलता हूं
सोचते हो तुम, बिछुड़ कर छूट जाऊंगा
नेह के बंधन यथा कैसे निभाऊंगा
किन्तु यह मन है तुम्हें तो ढूंढ लेता है
एक क्षण लम्बा, वृहत् दूरी प्रणेता है

        निःसंदेह प्रेम अपने विविध रूपों में प्रस्तुत हो कर हमारे जीवन में अनेक रंग भरता है। लेकिन परिस्थितिवश प्रेम की भावना विविध सोपानों पर विदीर्ण होने लगती है। ‘‘प्रेम रूपी रंग कितने’’ में कवि निर्मलचंद निर्मल ने इस विदीर्णता को भी रेखांकित किया है जहां प्रेम पर विपरीत परिस्थिति अधिक प्रभावी हो उठती है। दाम्पत्य जीवन का प्रेम भी शिथिल पड़ने लगता है। माता-पिता का बच्चों के प्रति प्रेम क्रोघ से उपजी कटुता में बदल जाता है और तब प्रेम अपना मूल आकार खोने लगता है। उसकी भावनाओं के कोण खुल कर, बिखर कर समांनांतर रेखाओं में बदलने लगते हैं, जैसे नदी के दो किनारे अथवा रेल की दो पटरियां जिनमें क्रोध का उफान और आर्थिक असमर्थता का कम्पन व्याप्त रहता है। प्रेम अपना स्वरूप खोता है तो पारिवारिक संबंध भी अपना स्वरूप खोने लगते हैं। इस तथ्य को देखिए कवि निर्मल की इन पंक्तियों में -
घर के समीकरण बिगड़े हैं, मंहगाई की मार में
पति-पत्नी पीड़ित अभाव से, मौन साध कर बैठे
बिना बात ही क्रोधित हा,े बच्चों के कान उमेंठे
बुद्धि ऐसी कुंद हो गई, जैसे खेत तुषार में

          ‘‘प्रेम रूपी रंग कितने’’ काव्य संग्रह में यूं तो प्रकृति, देश, काल एवं परिस्थितियों पर केन्द्रित कविताएं भी हैं किन्तु इस संग्रह का पुनर्पाठ करते समय मेरा ध्यान संग्रह के मूल विषय प्रेम पर ही केन्द्रित रहा और संग्रह के इसी पक्ष को मैंने सामने रखा है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल मानते थे कि ‘प्रेम एक संजीवनी शक्ति है। संसार के हर दुर्लभ कार्य को करने के लिए यह प्यार संबल प्रदान करता है। आत्मविश्वास बढ़ाता है। यह असीम होता है। इसका केंद्र तो होता है लेकिन परिधि नहीं होती।’ अतः प्रेम को समझने में कवि निर्मल के इस संग्रह का पुनर्पाठ दृष्टिकोण को विस्तार दे सकता है।
                  ---------------------

साहित्य वर्षा ... पुनर्पाठ


( दैनिक, आचरण  दि.30.07.2020)
#आचरण #सागर_साहित्य_एवं_चिंतन #वर्षासिंह #मेरा_कॉलम #पुस्तक #पुनर्पाठ #Recitation
#MyColumn #Dr_Varsha_Singh  #निर्मलचंद_निर्मल #Sagar_Sahitya_Evam_Chintan #Sagar #Aacharan #Daily
#drvarshasingh1

Thursday, July 23, 2020

सागर: साहित्य एवं चिंतन | पुनर्पाठ 4 | स्त्री तेरे हज़ार नाम ठहरे | काव्य संग्रह | डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh
प्रिय ब्लॉग पाठकों,
         स्थानीय दैनिक समाचार पत्र "आचरण" में प्रकाशित मेरा कॉलम "सागर : साहित्य एवं चिंतन " जिसमें पुस्तकों के पुनर्पाठ की श्रृंखला के अंतर्गत चौथी कड़ी के रूप में प्रस्तुत है - सागर नगर के वयोवृद्ध साहित्यकार महेन्द्र फुसकेले के काव्य संग्रह  "स्त्री तेरे हज़ार नाम ठहरे" का पुनर्पाठ।

सागर: साहित्य एवं चिंतन

     पुनर्पाठ: ‘स्त्री तेरे हजार नाम ठहरे’ काव्य संग्रह
                  -डॉ. वर्षा सिंह
         
          हर दौर में मानवीय सरोकारों में स्त्री की पीड़ा प्रत्येक साहित्यकार संवेदनशीलता एवं सृजन का केन्द्र रही है। सन् 1934 को जन्में, सकल मानवता के प्रति चिंतनशील सागर नगर के वरिष्ठ साहित्यकार एवं उपन्यासकार महेन्द्र फुसकेले ने जब कविताओं का सृजन किया तो उनकी कविताओं में अपनी संपूर्णता के साथ स्त्री की उपस्थिति स्वाभाविक थी। जी हां, इस बार पुनर्पाठ में कविता संग्रह ‘स्त्री तेरे हजार नाम ठहरे’ काव्य संग्रह। महेन्द्र फुसकेले स्त्री के विविध रूपों के बारे में अपनी एक कविता में कहते हैं -
स्त्री तो स्त्री है
अनेक रूप, अनेक भूमिकाएं
विवाहित स्त्री एवं कुंवारी स्त्री
संतान के बिना स्त्री, बच्चों वाली स्त्री
स्त्री तो बस स्त्री है, वामा है...
स्त्री है मूलधुरी, आदिशक्ति

          स्त्री को अपने जीवन में कदम-कदम पर विभिन्न प्रकार की कठिनाईयों का सामना करना पड़ता है। एक कठिनाई जो जीवनपर्यंत उससे जुड़ी रहती है वह है उसकी सुंदरता या असुंदरता। बाजारतंत्र के इस वर्तमान में बाजार का पूरा प्रचार-प्रसार, पूरा का पूरा विज्ञापन उद्योग, समूचा मनोरंजन उद्योग जैसे सिर्फ स्त्री की देह पर टिका है। साबुन से लेकर आटोमोबाइल तक बेचने के लिए स्त्री देह का इस्तेमाल किया जा रहा है। जिसने स्त्री की दैहिक आजादी को एक नई तरह की छुपी हुई गुलामी में बदल डाला है। यह अनायास नहीं है कि जिस दौर में स्त्री लगातार आजादी और आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ी है, उसी दौर में स्त्री उत्पीड़न भी बढ़ा है, देह का कारोबार भी बढ़ा है, उसका आयात-निर्यात भयावह घृणित स्तरों तक फैला है। आज का बाजार जो गोरेपन की क्रीमों से भरा रहता है, वह भी इसी मानसिकता को बढ़ावा देता रहता है कि औरतों की चमड़ी का रंग गोरा ही होना चाहिए। जब समाज में स्त्री को उसकी योग्यता से नहीं बल्कि चमड़ी के रंग से आंका जाने लगता है तो तमाम प्रकार की वैचारिक विकृतियां पनपने लगती हैं, जिसका शिकार बनना पड़ता है स्त्रियों को। महेन्द्र फुसकेले की एक कविता है ‘दृष्टि सौंदर्य की’। कविता की कुछ पंक्तियां देखिए-
       अदालत में एक स्त्री पर
       तलाक का मुकद्दमा चला
       स्त्री ने बताया
       पति का आरोप है कि मैं सुंदर नहीं हूं
       ............ कि वह असुंदर है
       उसका रंग साफ नहीं, बदसूरत है।
समीक्ष्य कृति "स्त्री तेरे हज़ार नाम ठहरे " @ साहित्य वर्षा

          भारतीय समाज में एक विडम्बना आज भी व्याप्त है कि अनेक परिवारों में बेटी को जन्म देना मां का अपराध माना जाता है। बेटी को जन्म देते ही मां तानों और उलाहनों के कटघरे में खड़ी कर दी जाती है। सभी वैज्ञानिक तथ्यों को भुला कर यह मान लिया जाता है कि बेटी के जन्म के लिए सिर्फ मां ही जिम्मेदार होती है और ऐसी मां को जीवन भर परिवार की प्रताड़ना सहनी पड़ती है। ‘कभी तो हंसो मां’ कविता में एक बेटे के शब्दों में अपनी मां की उस पीड़ा को व्यक्त किया गया है जो उसने लगातार दो बेटियां पैदा करने के कारण भुगती थी। महेन्द्र फुसकेले की इन पंक्तियों पर गौर करें -
खेत के अधगिरे खड़ेरा में
मुझे अपने कंधे पर बैठाले हुए
खूब रोई मां छुप कर।
मां का कसूर था
उसने मेरी दो छोटी बहनों को
एक के बाद एक जना।

          स्त्री के अस्तित्व का विवरण उसके लावण्य के वर्णन के बिना अधूरा है। शायद इसीलिए जीवन के यथार्थ की कठोरता के बीच कवि स्त्री में वसंत को देखता है-
जो वसंत
दिलों की मखमली सेज पर
उबासी ले रहा है
वह जल्दी अंगड़ाई ले लेगा
स्त्री के गेसुओं से
स्त्री की वेणी से खुलकर आवेगा।

        महेन्द्र फुसकेले का यह काव्य संग्रह वर्तमान दौर में और अधिक प्रासंगिक हो जाता है जब स्त्रियों को उपभोग की वस्तु अथवा बाज़ारतंत्र में ‘शोपीस’ मात्र समझा जाने लगा है। स्त्री के प्रति बढ़ते अपराधों को देखते हुए भी स्त्री के अस्तित्व की महत्ता को समझने के लिए इस काव्यसंग्रह को बार-बार पढ़ा जाना जरूरी है।

                 -----------------
 


( दैनिक, आचरण  दि.23.07.2020)
#आचरण #सागर_साहित्य_एवं_चिंतन #वर्षासिंह #मेरा_कॉलम #पुस्तक #पुनर्पाठ #Recitation
#MyColumn #Dr_Varsha_Singh  #महेन्द्र_फुसकेले #Sagar_Sahitya_Evam_Chintan #Sagar #Aacharan #Daily

Thursday, July 16, 2020

सागर : साहित्य एवं चिंतन | पुनर्पाठ 3 | जनसंख्या पर रोक लगाएं | काव्य संग्रह | डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh
प्रिय ब्लॉग पाठकों,  स्थानीय दैनिक समाचार पत्र "आचरण" में प्रकाशित मेरा कॉलम "सागर : साहित्य एवं चिंतन " जिसमें पुस्तकों के पुनर्पाठ की श्रृंखला के अंतर्गत तीसरी कड़ी के रूप में प्रस्तुत है - सागर नगर के लोकप्रिय कवि डॉ. श्याम मनोहर सीरोठिया के काव्य संग्रह  "जनसंख्या पर रोक" का पुनर्पाठ।

सागर : साहित्य एवं चिंतन

पुनर्पाठ : ‘जनसंख्या पर रोक लगाएं’ काव्य संग्रह
                      - डॉ. वर्षा सिंह
                     
            आज हम सोचते हैं कि मंहगाई तेजी से बढ़ रही है। वस्तुतः मंहगाई बढ़ रही है तो इसलिए कि उपभोक्ता की तुलना में उत्पादन की उपलब्धता कम होती जा रही है। बेरोजगारी बढ़ रही है तो इसलिए कि रोजगार के अवसरों की अपेक्षा बेरोजगारों की संख्या बहुत अधिक है। अब समय है कि जब हम प्रत्यक्ष दिखाई देने वाले कारणों को हाशिए पर रख कर उस कारण की ओर अपना ध्यान केन्द्रित करें जो इन सभी समस्याओं के मूल में मौजूद है। यह मूल कारण है हमारे देश में विस्फोटक होती जनसंख्या। डाॅ. सीरोठिया ने इसी मूल कारण को अपने काव्यात्मक पदों का आधार बनाया है, जो काव्य संग्रह में संग्रहीत हैं। डाॅ. सीरोठिया ने पाया कि आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में तथा कम पढ़े-लिखे या अशिक्षित तबके में जनसंख्या नियंत्रण के प्रति जागरूकता का सर्वथा अभाव है। वे अपनी आर्थिक स्थिति, अपने संसाधन और अपने स्वास्थ्य को अनदेखा करते हुए संतानों को जन्म देते रहते हैं।  भले ही उन संतानों का लालन-पालन कर पाना उनके लिए संभव नही हो पाता है। यही संतानें अभावों के बीच भी जब किसी तरह पल-बढ़ जाती हैं तो अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए अपराध की दुनिया से जुड़ जाती है। यदि आज देश में अपराध की दर बढ़ रही है तो उसके मूल में भी असीमित जनसंख्या ही है। इसीलिए डाॅ. सीरोठिया अपनी कविता के माध्यम से आग्रह करते हैं कि -
अनचाही सब विपदाओं की, इन सामाजिक विषमताओं की ।
जड़ में बढ़ती आबादी है, गला घोंटती ममताओं की ।।
वातावरण बदलना होगा, फिसला कदम सम्हलना होगा।
जनसंख्या के भस्मासुर से, आप बचें, यह देश बचाएं।।
आओ मिल कर कदम बढ़ाएं, जनसंख्या पर रोक लगाएं।।

           पढ़ा- लिखा तबका तो जनसंख्या नियंत्रण के महत्व को समझने लगा है। लेकिन अशिक्षित वर्ग संतान के पैदा होने को ईश्वर की इच्छा मान कर स्वीकार करता चला जाता है। अशिक्षा के कारण उसका इस ओर ध्यान ही नहीं जात कि जिस ईश्वर ने प्रजनन क्षमता दी है उसी ईश्वर ने प्रजनन क्षमता को नियंत्रित करने की बुद्धि भी प्रदान की है। धर्म ग्रंथ भी यही कहते हैं कि कार्य वही किए जाएं जिनसे सबका भला हो। इस तथ्य को डाॅ. सीरोठिया ने अपनी इस कविता में बड़े सुंदर ढ़ंग से सामने रखा है -
सब धर्माें का धर्म यही है, सब ग्रंथों का मर्म यही है।
भला हो जिसमें मानवता का , जीवन में सद्कर्म वही है।।
बिना विचारे काम जो करते, धर्मों को बदनाम जो करते
जीवन में सच को स्वीकारें, झूठी मान्यताएं ठुकराएं।।
आओ मिल कर कदम बढ़ाएं, जनसंख्या पर रोक लगाएं।।
डाॅ. सीरोठिया बाल विवाह के विरुद्ध भी आवाज उठाते हैं और कहते हैं -
रुक सकती है हर बरबादी, कम कर लें बढ़ती आबादी।
लड़की की हो उमर अठारह, लड़के की इक्कीस में शादी।।
समीक्ष्य कृति

                एक चिकित्सक होने के नाते डाॅ. सीरोठिया ने जनसंख्या नियंत्रण के लिए अपनाए जाने वाले साधनों को भी अपने काव्य में प्रमुखता से स्थान दिया है। जैस -
जब चाहें तब बच्चा पाएं, अनहोनी पर ना झल्लाएं।।
खाने की गोली लें या फिर, काॅपर टी, कंडोम लगाएं।।
आओ मिल कर कदम बढ़ाएं, जनसंख्या पर रोक लगाएं।।

          वस्तुतः जनसंख्या नियंत्रण एक ऐसा मुद्दा है जिस पर समय रहते विचार करना और कदम उठाना अति आवश्यक है। इसके लिए जनसंख्या नियंत्रण अभियान को एक बार फिर जमीनी स्तर तक ले जाने की जरूरत है। डाॅ. सीरोठिया अपनी कविताओं के माध्यम से आमजनता से आग्रह करते हैं कि अब ‘‘हम दो हमारे दो’’ से काम नहीं चलने वाला है। अब समय आ गया है कि हम दो हमारा एक होना चाहिए। उनकी ये पंक्तियां देखें -
हम दो हों पर एक हमारा! नई सदी का हो यह नारा !
इसी मंत्र की शक्ति में ही -मुस्काता कल छिपा हमारा।।

              अपने मधुर गीतों एवं दोहों के लिए सुविख्यात डाॅ. श्याम मनोहर सीरोठिया अपने इस नवीन संग्रह ‘ जनसंख्या पर रोक लगाएं’’ के द्वारा भी जनमानस में अपना विशेष स्थान बनाएं यही कामना है। साथ ही यह अपेक्षा है कि यह अत्यंत जरूरी काव्य संग्रह जन-जन तक पहुंचे, क्योंकि इतिहास गवाह है कि वैदिक काल से आज तक ज्ञान एवं नीति की बातें जनामानस ने पद्य के रूप में ही आत्मसात की हैं। वेद- महाकाव्य और रामचरित मानस जैसे ग्रंथ इसके उत्तम उदाहरण हैं। इसीलिए पुनर्पाठ करते हुए मुझे डाॅ. श्याम मनोहर सीरोठिया की यह पुस्तक महत्वपूर्ण लगी।
                 ----------------- 
पुनर्पाठ @ साहित्य वर्षा

( दैनिक, आचरण  दि. 16.07.2020)
#आचरण #सागर_साहित्य_एवं_चिंतन #वर्षासिंह #मेरा_कॉलम #पुस्तक #पुनर्पाठ #Recitation
#MyColumn #Dr_Varsha_Singh  #डॉ_श्याम_मनोहर_सीरोठिया #Sagar_Sahitya_Evam_Chintan #Sagar #Aacharan #Daily

Wednesday, July 15, 2020

डॉ. विद्यावती "मालविका" | साहित्यकार | पिनट्रेस्ट | यूट्यूब | वीडियो | डॉ. वर्षा सिंह


प्रिय ब्लॉग पाठकों,
                 मेरी माता जी साहित्यकार डॉ. विद्यावती "मालविका" पर केंद्रित इस वीडियो को Pinterest पर  कृपया अवश्य देखें 🙏 - डॉ. वर्षा सिंह
https://pin.it/2VEb9ym

YouTube पर इस वीडियो की लिंक है....
https://youtu.be/CNeoV6EM9Rw


Friday, July 10, 2020

सागर: साहित्य एवं चिंतन | पुनर्पाठ 2 | तमाई | काव्य संग्रह | डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh
प्रिय ब्लॉग पाठकों,  स्थानीय दैनिक समाचार पत्र "आचरण" में प्रकाशित मेरा कॉलम "सागर : साहित्य एवं चिंतन " जिसमें पुस्तकों के पुनर्पाठ की श्रृंखला के अंतर्गत दूसरी कड़ी के रूप में प्रस्तुत है - सागर नगर के लोकप्रिय कवि टीकाराम त्रिपाठी 'रुद्र' के काव्य संग्रह  "तमाई" का पुनर्पाठ।

सागर: साहित्य एवं चिंतन

      पुनर्पाठ- ‘तमाई’ काव्य संग्रह

                   -डॉ. वर्षा सिंह
                     
हमें अच्छी तरह पता है कि
यह समाजवादी अर्थव्यवस्था है
यदि यह सच नहीं है तो इस व्यवस्था को बदलने की जरूरत है
और इसके लिए हमें करनी होगी समाज की तमाई
तब ही हमारे जीवन के जोड़ में शायद शून्य से बड़ी होगी हासिलाई

        ये पंक्तियां हैं सागर नगर के वरिष्ठ कवि टीकाराम त्रिपाठी ‘रूद्र’ की तमाई शीर्षक कविता की। यही नाम है उनके काव्य संग्रह का जिसका पुनर्पाठ ज़रूरी है। दरअसल तमाई मात्र एक शब्द नहीं, वरन् एक पूरा उद्यम है अनुपयोगी और अवांछित को हटा कर नवीन की स्थापना करने का। इस शब्द से वे लोग भली-भांति परिचित हैं जो बुंदेलखण्ड के हैं और खेती-किसानी से जुड़े हुए हैं। खेती-किसानी कर्मशील क्रिया है जिसमें अनेक शब्द विशेषण बन कर समाए हुए हैं जैसे बुआई, जुताई, रोपाई, निंदाई, गुड़ाई आदि..इसी तरह का एक शब्द और भी है तमाई। एक पूर्ण कार्मिक शब्द। एक ऐसा शब्द जो सृजन की नई कड़ी के लिए भूमिका बांधता है। यानी खेत जोतने से पहले खेत में से घास आदि निकालने की क्रिया है तमाई,  ताकि खरपतवार ज़मीन से दूर हो जाएं और खेत की तैयार ज़मीन को जोत कर उसमें बीजारोपण किया जा सके। खरपतवार के रहते खेत में दोबारा फसल नहीं उगाई जा सकती है। दोबारा नई फसल उगाना है तो पहले खरपतवार हटाने होंगे, ज़मीन की फिर से जोताई करनी होगी और ज़मीन तैयार करनी होगी नए सिरे से। बिलकुल किसी नए-नकोर खेत की तरह।
           जीवन में भी अनके ऐसी स्थितियां आती हैं जब हम खरपतवार जैसी भावनाओं से घिर जाते हैं। बुद्धि कुंद होने लगती है और हम कुछ नया सोचने में कठिनाई महसूस करने लगते हैं। ऐसे में आता है हताशा और निराशा का दौर। नई सुबह की भांति नयापन हमेशा नवीन विचारों का संचार करता है। यह चिंतन, मनन और आकलन का आग्रह करता है। जब हम कुछ नया सोचते हैं तो कुछ नया कर पाते हैं। पुरानी सड़ी-गली सोच और सड़ी-गली व्यवस्थाओं पर नवीनता के भवन खड़े नहीं किए जा सकते हैं। इसीलिए समय-समय पर पहले से चले आ रहे विचारों, व्यवस्थाओं और मान्यताओं की तमाई जरूरी है। कवि टीकाराम त्रिपाठी जब तमाई शब्द का प्रयोग करते हैं तो ठीक इसी संदर्भ में। वे बदल देना चाहते हैं उन सारी व्यवस्थाओं को जो समाज, विचार और व्यवहार के लिए अनुकूल नहीं हैं।
           तमाई के लिए भी जरूरी है पड़ताल। यह जांचे-समझे बिना कि तमाई की स्थिति आ गई है या नहीं, तमाई नहीं की जा सकती है। ‘पड़ताल’ शीर्षक अपनी कविता में कवि रुद्र लिखते हैं-
पड़ताल जरूरी है
जीवन से सभी पक्षों की
उन्नति और अवनति के
ऊबड़-खाबड़, तिकड़मी शिखरों की/कक्षों की
उन्नत है या नत है
विनयावनत है या उन्नतिविगत है?

      सच है, पड़ताल के बिना कुछ भी निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता है। जैसे-फर्श पर चिकनी-चमकदार टाईल्स लगवाने, दीवारों की रंगाई-पुताई करवाने, फर्नीचर बदलवाने से यह तय नहीं किया जा सकता है कि उस घर में रहने वाले व्यक्ति का स्वभाव भी निश्चछल, निष्कपट और निरापद हो गया है। वह तो उससे चर्चा-परिचर्चा करने पर ही पता चलता है कि वह व्यक्ति दिखावे मात्र में बदला है अथवा सचमुच उसमें परिवर्तन आ गया है। मल्टीनेशनल कंपनियों के चमचमाते दफ़्तरों के वातानुकूलित कक्षों में श्रम का जिस तरह शोषण होता है, वह उन कक्षों में पहुंच कर ही अनुभव किया जा सकता है। अनुभव पड़ताल के मार्ग से चल कर लक्ष्य तक पहुंचने की प्रक्रिया ही तो है। भौतिक वस्तुओं में किए गए परिवर्तन तब अर्थहीन हो जाते हैं जब व्यक्ति की मानसिकता में कोई परिवर्तन नहीं होता, वह जस की तस बनी रहती है।

तमाई, काव्य संग्रह @ साहित्य वर्षा

          तमाई के साथ ही एक और प्रक्रिया जुड़ी होती है, मानों दो प्रक्रियासूचक शब्द एक ही कोष्ठक में लिख दिए गए हों। तो दूसरा शब्द है नरवाई यानी खरपतवार। नरवाई जलाकर नष्ट करना आमबात है। भले ही हर आम बात अच्छी नहीं होती। जैसे नरवाई का जलाया जाना भीषण प्रदूषण का कारण बनता है। नरवाई का जलाया जाना देश की राजधानी का भी दम घोंटने का माद्दा रखता है लेकिन बुराई यह कि दम घुटता है आम आदमी का जिसमें बहुसंख्यक निम्नवर्ग और मध्यमवर्ग होता है। एक अनुभव, एक पड़ताल और फिर निष्कर्ष कि हर आग की जलनशील प्रकृति न तो जलने वाले की पीड़ा समझ सकती है और न उसके धुंए से घुटने वाले दम की कसमसाहट महसूस कर सकती है। ‘तमाई’ काव्य संग्रह में एक कविता है ‘आग’।
आग सुलगाना बहुत आसान साथी
बुझाना लेकिन नहीं आसान होता
खुद बा खुद लगती नहीं वह अब कहीं भी
मित्र, लगवाई सदा जाती रही है
शत्रुओं का नाम ले कर सगों पर ही
घटा युद्धों की सदा छाती रही है

       सन् 2010 में ‘तमाई’ का प्रथम संस्करण प्रकाशित हुआ था। लगभग एक दशक बीतने पर भी यह काव्य संग्रह प्रासंगिक है। यूं भी समाज से सरोकारित साहित्य कभी अप्रासंगिक नहीं होता है अपितु बार-बार पढ़ने और समझने योग्य होता है।

                  ---------------------
तमाई, पुनर्पाठ @ साहित्य वर्षा


( दैनिक, आचरण  दि. 10.07.2020)
#आचरण #सागर_साहित्य_एवं_चिंतन #वर्षासिंह #मेरा_कॉलम #पुस्तक #पुनर्पाठ #Recitation
#MyColumn #Dr_Varsha_Singh  #टीकाराम_त्रिपाठी_रुद्र #Sagar_Sahitya_Evam_Chintan #Sagar #Aacharan #Daily

Thursday, July 9, 2020

डॉ. विद्यावती "मालविका" का गीत | प्रिय है धरा बुंदेली | डॉ. वर्षा. सिंह

Dr. Varsha Singh
प्रिय ब्लॉग पाठकों, मेरी माता जी, जो कि हिन्दी की जानी-मानी कवयित्री एवं लेखिका हैं - डॉ. विद्यावती "मालविका", वे मालवा क्षेत्र के उज्जैन की बेटी हैं और विवाहोपरांत उनके जीवन की लगभग 60 वर्ष की अवधि बुंदेलखंड के पन्ना और फिर अब सागर में व्यतीत हो रही है। डॉ. विद्यावती जी द्वारा मध्यप्रदेश के मालवा और बुंदेलखंड क्षेत्र की संस्कृतियों के प्रति स्नेहांजलि स्वरूप रचित यह गीत आज यहां प्रस्तुत है -

प्रिय है धरा बुंदेली
          - डॉ. विद्यावती "मालविका"

मैं हूं मालव कन्या मुझको, प्रिय है धरा बुंदेली।
शिप्रा मेरी बहिन सरीखी, सागर झील सहेली।।

उज्जैयिनी ने सदा मुझे स्नेह दिया
विक्रम की धरती ने मेरा मान किय,
बुंदेली वसुधा ने मुझे दुलार दिया
गौर भूमि ने मुझे सदा सम्मान दिया,

सदा लुभाती मुझको सुंदर ऋतुओं की अठखेली।
मैं हूं मालव कन्या मुझको, प्रिय है धरा बुंदेली।।

महाकाल के चरणों में बचपन बीता 
रहा न मेरा अंतस साहस से रीता,
यहां बुंदेली संस्कृति को अपनाने पर
हुई समाहित मेरे मन में ज्यों गीता,

ऋणी रहूंगी मैं नतमस्तक, बांधे युगल हथेली।
मैं हूं मालव कन्या मुझको, प्रिय है धरा बुंदेली।।
          ----------------------

Dr. Vidyawati "Malvika"
#गीत #बुंदेलखंड #मालवा #सागर #पन्ना #कवयित्री

Friday, July 3, 2020

सागर: साहित्य एवं चिंतन | पुनर्पाठ 1 | पूंछ हिलने की संस्कृति | व्यंग्य संग्रह | डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh
प्रिय मित्रों, स्थानीय दैनिक समाचार पत्र "आचरण" में प्रकाशित मेरा कॉलम "सागर साहित्य एवं चिंतन " । जिसमें इस बार मैंने नई श्रंखला शुरू की है पुस्तकों के पुनर्पाठ की...पहली कड़ी के रूप में प्रस्तुत है - सागर नगर के सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार डॉ. सुरेश आचार्य का व्यंग संग्रह "पूंछ हिलाने की संस्कृति" का पुनर्पाठ।

 सागर: साहित्य एवं चिंतन

 पुनर्पाठ : पूंछ हिलने की संस्कृति

               -डॉ. वर्षा सिंह
                         
               पुस्तकों का महत्व जीवन में बहुत अधिक होता है और इस बात को हर पढ़ा लिखा व्यक्ति बखूबी समझ सकता है। पुस्तकें अनेक विधाओं की होती हैं। अनेक विषयों की होती हैं। कुछ किताबें जीवन के सिद्धांतों से परिचित कराती हैं, तो कुछ जीना सिखाती हैं और कुछ समाज को आइना दिखाती हैं। इसी तरह कुछ किताबें अपनी वैचारिक गुणवत्ता के कारण कहावत बनकर स्मृतियों से जुड़ जाती हैं। ऐसी ही एक पुस्तक है डाॅ सुरेश आचार्य का व्यंग्य संग्रह ‘‘पूंछ हिलाने की संस्कृति’’। इस व्यंग्य संग्रह का प्रथम संस्करण सन 1984 में प्रकाशित हुआ किन्तु इसकी प्रासंगिकता यथावत है। मैं इसे दसियों बार पढ़ चुकी हूं। मैं जितनी बार इस संग्रह को पढ़ती हूं उतनी ही बार इस के व्यंग्यों के विविध आयाम मेरे सामने आते हैं। यूं भी डॉ सुरेश आचार्य ने अपने एक अन्य ग्रंथ ‘‘व्यंग्य का समाज दर्शन’’ में व्यंग्य रचनाओं के बारे में लिखा है कि ‘‘ईमानदार व्यंग्य रचना सदैव सामाजिक यथार्थ से संबंधित होती है। यह कहीं भी अमूर्त नहीं होती बल्कि सदैव सत्य से साक्षात करती चलती है।  दैनंदिन जीवन के कष्ट आडंबर मिथ्याचार और अनीतियों का तिरस्कार, उद्घाटन और उपहास ही उसका लक्ष्य होता है।’’
            जब भी समाज में विद्रूपता आने लगती है तो व्यंग्य स्वतः जन्म लेने लगता है। इसीलिए व्यंग्य साहित्य का इतिहास बहुत पुराना है। हिंदी साहित्य में व्यंग्यय लेखन का आगमन बहुत पहले हो गया था स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व से ही व्यंग्य लेखन हिंदी साहित्य में चलन में आ गया था। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद इसमें एक अलग तरह की प्रखरता आ गई। तीखापन आ गया। भारतेंदु युग में अंग्रेजी शासन को लेकर अनेक व्यंग्य रचनाएं लिखी गईं। उस समय व्यंग्य का मूल उद्देश्य था स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए एक उद्दीपक वातावरण तैयार करना। भारतेंदु युग में बालकृष्ण भट्ट, राधाचरण गोस्वामी, प्रताप नारायण मिश्र, बद्रीनारायण चैधरी, बालमुकुंद गुप्त आदि ने राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और धार्मिक विषयों पर व्यंग्य लिखते हुए इन सभी क्षेत्रों में व्याप्त विसंगतियों पर जमकर प्रहार किया। भारतेंदु युग में व्यंग्य नाटक भी लिखे गए। जिनमें भारतेंदु हरिश्चंद्र का ‘‘अंधेर नगरी’’ सबसे प्रसिद्ध नाटक है। भारतेंदु युग के बाद द्विवेदी युग में व्यंग्य रचनाओं में वह धार नहीं रही जो भारतेंदु युग में थी। लेकिन परसाईं युग आते-आते यह विधा और अधिक मंज कर, तीखी होकर सामने आई। परसाई के बाद के क्रम में डॉ सुरेश आचार्य के व्यंग्यों में वह पैनी धार देखी जा सकती है।
पूंछ हिलाने की संस्कृति @ साहित्य वर्षा


           ‘‘पूंछ हिलाने की संस्कृति’’ व्यंग्य संग्रह का पहला व्यंग्य लेख इसी शीर्षक से है जिसमें डॉ सुरेश आचार्य ने समाज में व्याप्त चाटुकारिता को लक्षित करके करारा कटाक्ष किया है। वे लिखते हैं-  ‘‘सारे देश में उत्तर से दक्षिण और पूर्व से पश्चिम तक पूंछ हिलाने की संस्कृति जोर पकड़ रही है। समझदार पिता अपने नन्हों का कैरियर बनाने में लगे हैं। पूंछ हिलाऊ संघ बना रहे हैं। प्रशिक्षण चालू है - हां बेटा उछलो। अब आंखों में भक्तिभाव भरो। शाबाश! एक, दो, तीन। पूंछ  हिलाना शुरू करो। अपनी छोटी-छोटी दुमें लहराते हुए उछलते हैं।’’
          मनुष्य में स्वार्थ की भावना जब बलवती हो जाती है तो वह येन केन प्रकारेण लाभान्वित होना चाहता है। भले ही उसे इसके लिए किसी की चाटुकारिता ही क्यों ना करनी पड़े। राजनीतिक क्षेत्र में प्रायः यह प्रवृत्ति देखने को मिलती है। समाज के अन्य क्षेत्रों में भी चाटुकारों की कमी नहीं रहती है। अकसर देखा गया है कि जो चाटुकार होते हैं वे अपना स्वार्थ सिद्ध करने में कामयाब हो जाते हैं। चाहे अफसर की चाटुकारिता करके प्रमोशन पाने का मामला हो या परिवार में संपत्ति पाने के लिए अपने से बड़ों की चाटुकारिता करने का मामला हो, चाटुकार हमेशा फायदे में ही रहते हैं। वे किसी गुलाम की तरह लगातार ‘जी हां’ ‘जी हां’ करते हुए मानो किसी श्वान की भांति अपनी पूंछ हिलाते रहते हैं। वस्तुतः यही तो पूंछ हिलाने की संस्कृति है, विशुद्ध चाटुकारिता संस्कृति।
         डॉ सुरेश आचार्य के इस व्यंग्य संग्रह में और भी व्यंग्य हैं जैसे- जादू वाले वो जो हैं, किराए का मकान उर्फ बसना बलम का मन में, एक आदम की करुण-गाथा, छोटे गुरु की कथा, बिगड़ना बलम का और न खाना सुपारी, दो पैरों वाला कुत्ता, लौटना वापस जादुई चिराग का, फूल सिंग की लाज बचाई श्री भगवान ने, फूड ऑफिस में कविता कक्ष, खाना और रोना भारत मां के लाल का, जब मंत्री जी आए तो चले गए हनुमान, मूत्रपान करना: पिस्ते के स्वाद वाला, जाना और न जाना अस्पताल का, विश्रामगृहों की वेताल कथा, पुल का शिलान्यास उर्फ अध्यक्षता का धर्मयुद्ध, हथझोले में ईसीजी, पोजीशन सॉलिड है, द फटूरे आफ इंडिया, गढ़ाकोटा बारे कक्का और कैफ़ियत। ये सभी व्यंग्य अपने आप में विषयगत विविधता लिए हुए और कटाक्ष की दुधारी तलवार से सुसज्जित हैं। विशेष रुप से ‘‘पोजीशन सॉलिड है’’ एक और तीखा व्यंग्य है। जिसमें लेखक ने चुनाव के दौरान झूठे वादे और नेताओं के द्वारा फैलाए जाने वाले भ्रमजाल पर कटाक्ष किया है। यह अंश देखें - ‘‘सारे देश में नोच खाने की होड़ लगी है। संसार के सबसे बड़े लोकतंत्र में चुनाव भोजन का माध्यम हो गए हैं। मैं मुग्ध हूं। वाह रे मेरे देश के प्रजातंत्र... तूने कैसे कैसे कारीगर पैदा किए हैं। उप चुनाव सिर पर है। पानी इस साल गिरा नहीं। तालाब के कमल सूख रहे हैं। ज्वालामुखी, कांस और सेंवार पनप रही है। कीचड़ है। कचरा बढ़ रहा है और पोजीशन सॉलिड है।’’
        पूंछ हिलाने की संस्कृति व्यंग्य संग्रह एक ऐसी कृति है जिसकी प्रत्येक काल में प्रासंगिकता यथावत बनी रहेगी। जब तक समाज में चाटुकारिता भ्रष्टाचार और विसंगतियां है तब तक यह व्यंग्य संग्रह समसामयिक बना रहेगा। इसका जितनी बार पुनर्पाठ किया जाएगा यह अपने आस-पास की स्थितियों का आकलन करने की व्यक्ति की क्षमता को और अधिक बढ़ाएगा।
                  ---------------------
 
साहित्य वर्षा


( दैनिक, आचरण  दि. 03.07.2020)
#आचरण #सागर_साहित्य_एवं_चिंतन #वर्षासिंह #मेरा_कॉलम #पुनर्पाठ #पुस्तक #साहित्य #MyColumn #Varsha_Singh #डॉ_सुरेश_आचार्य #Sagar_Sahitya_Evam_Chintan #Sagar #Aacharan #Daily